धर्मराज युधिष्ठिर कथा भाग 2
हे विल्हा ! मैं तुम्हें वनवास काल की दो घटनाएं सुनाता हूँ- ये घटनाएं युधिष्ठिर के धर्म को दृढ़ करती है। जब पाण्डव लोग वनवास का समय ऋषियों के साथ व्यतीत कर रहे थे तब पाण्डवों की प्रसन्नता दुर्योधन से देखी नहीं गयी, ईर्ष्यावश पाण्डवों को दुःख कैसे हो, दिन-रात यही सोचता रहता था। नई नई योजनाएं बनाता रहता था, किन्तु सफल नहीं हो पा रहा था।
एक दिन दुर्योधन के राज्य हस्तिनापुर में बड़े तपस्वी,क्रोध दुर्वासा मुनि अपने 10 हजार शिष्यों को लेकर आ गये। दुर्योधन मुनि आये हैं, ऐसा जानकर अपने कुटुम्ब के सहित आगे बढ़कर दुर्वासा का स्वागत किया तथा भोजन के लिए निवेदन किया। दुर्वासा ने दुर्योधन की अतिथि सेवा से प्रभावित होकर भोजन करना स्वीकार किया था अपने शिष्यों सहित प्रेम से भोजन किया।
दुर्वासा जब प्रस्थान करने लगे तब दुर्योधन ने प्रार्थना करते हुए कहा- हे मुने! आप कुछ दिनों तक मेरे यहाँ ठहरिये? मुझ सेवक को सेवा करने का अवसर प्रदान कीजिये? दुर्वासा भी सेवाभाव जानकर वहीं रूक गये और दुर्योधन की परीक्षा लेने लगे। मुनि दुर्वासा बड़े ही विचित्र स्वभाव के थे। कभी कहते कि मुझे अभी भूख लगी है, तुरंत भोजन चाहिए।
जब कभी भोजन तैयार हो तो कहे कि अब मुझे भूख नहीं है, हर बार दुर्योधन की अतिथि सेवा की परीक्षा लेते किन्तु दुर्योधन आलस्य त्यागकर दिन-रात सेवा में तल्लीन रहता। अन्त में दुर्वासा दुर्योधन पर बहुत ही प्रसन्न हुए और उन्हें कोई वर मांगने का आदेश दिया। दुर्योधन ने कहा- हे मुनि! यदि आप मेरी सेवा से प्रसन्न हो तो ऐसा कीजिये………. कि जिस प्रकार आप दस हजार शिष्यों सहित मेरे अतिथि बने हैं उसी प्रकार से, मेरा बड़ा भाई युधिष्ठिर अपने भाईयों सहित वन में रहता है, आप उनके भी अतिथि बनिये।
जब द्रौपदी अन्य सभी को भोजन करा चुकी हो तथा स्वयं भी भोजन कर चुकी हो तभी आप जाईयेगा। जिस प्रकार से मेरे यहाँ आप समय असमय का विचार किए बिना तृप्त हुए हैं, ठीक उसी प्रकार से मेरे भाई को भी तृप्त कीजिए। दुर्वासा मुनि ने दुर्योधन की बात को स्वीकार किया और कहा ऐसा ही होगा। ऐसा कहते हुए वहाँ से चल पड़े।
उस समय वहाँ पर उपस्थित दुशासन, कर्ण, शकुनि आदि ने खुशी मनाई कि अब तो समझो कि अपना कार्य हो ही गया है। मानों कि पाण्डव मुनि के क्रोध से जलकर शीघ्र ही भष्म हो जाएंगे।
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जब पाण्डव ऋषियों सहित भोजन कर चुके थे, द्रौपदी स्वयं भी भोजन कर चुकी थी। पाण्डव विश्राम कर रहे थे। ऐसे दोपहर के समय में दुर्वासा अपनी शिष्य मण्डली सहित युधिष्ठिर की कुटिया पर पंहुचे। युधिष्ठिर ने देखा कि मुनि लोग आये हैं, सामने जाकर उनका स्वागत किया, बैठने के लिए आसन दिया।मुनि से पूछा हे मुनि! मुझे ऐसा लगता है कि आप बहुत दूर से चलकर आये हैं, थके हुए मालूम पड़ते हो, पहले थकान मिटाईये, तब तक में आपके लिए भोजन बनवाता हूँ। कृपा करके भोजन निमंत्रण अवश्य ही स्वीकार कीजिये।
दुर्वासा कहने लगे- हे धर्मात्मा युधिष्ठिर! आपने ठीक ही कहा है- हम बहुत ही दूर से चलकर आए हैं। भूख भी बड़ी जोर से लगी हैं, हम सभी आज आपके यहाँ भोजन करेंगे किन्तु विलम्ब न हो अति शीघ्र ही भोजन तैयार करवा दीजिये। तब तक हम लोग नदी में स्नान,संध्या आदि नित्यकर्म करके शीघ्र ही आ रहे हैं,
ऐसा कहते हुए मुनि लोग स्नान संध्या के लिए चल पड़े। युधिष्ठिर कुटिया के अन्दर पंहुचे और द्रौपदी से कहने लगे- हे द्रुपद सुता! अभी-अभी दुर्वासा अपने 10 हजार शिष्यों सहित आये हैं, मैंने उनको भोजन का निमंत्रण दे दिया है। अति शीघ्र ही उनके लिए भोजन तैयार करो, अभी जल्दी ही आने वाले हैं।
द्रौपदी ने दुर्वासा का नाम सुना……. आश्र्यचकित होकर देखने लगी आप क्या कह रहे हैं? क्या स्वयं दुर्वासा मुनि आ गये हैं ? दस हजार शिष्यों के सहित? आपने भोजन के लिए कह भी दिया है? हे मेरे भगवान! अब क्या होगा? भोजन कहाँ से बनाऊं? इस समय तो मेरे पास कुछ भी नहीं है। जब वन से वनफल शाकपत्ती आयेगी तभी कुछ बनेगा तब तक दुर्वासा प्रतीक्षा करेगा नहीं। निमंत्रण दिया हुआ ऋषि वह भी दुर्वासा? माफ नहीं करेगा। आज तो मुनि के क्रोध की आग में जलकर भस्म हो जायेंगे।
युधिष्ठिर कहने लगे द्रौपदी क्या सोचती हो? कुछ करो, अन्यथा दुर्वासा की क्रोधरूपी अग्नि से बच नहीं पाओगे। सभी सपने धरे के धरे रह जायेंगे। यह दुर्योधन की ही करामात है। द्रौपदी कहने लगी- इस समय मेरे पास कुछ भी नहीं है, मैं क्या खिलाऊं? धर्मराज ने कहा- द्रौपदी! वो तुम्हारी सूर्यदेव द्वारा दी हुई बटलोई कहाँ है ? उसमें बनाया हुआ भोजन अखूट होता है, उसी में से खिला दे सभी को।
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हे नाथ। अब मैं क्या करूं? मैं भोजन कर चुकी हूँ, यदि मैं भोजन न करती तो अवश्य ही दुर्वासा को मण्डली सहित भोजन कर सकती थी किन्तु अब क्या हो सकता है। अब तो मरना ही पड़ेगा। हे द्वारिका के नाथ! श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, अब तो आप ही हमारे उद्धारक हैं। आपके सिवा और कोई भी हमारे सहायक नहीं है। आप ही ने तो कौरवों की भरी सभा में मेरी रक्षा की थी। वही कृष्णा द्रौपदी आपकी बहन मैं पुकार रही हूँ।
अतिशीघ्र ही आ जाओ मेरे नाथ! पापी दुर्योधन ने ही तो दुर्वासा को यहाँ पर भेजा है। उसकी करतूत आज सफल हो जाएगी। हम लोग दुर्वासा की क्रोधाग्नि को सहन नहीं कर पायेंगे। इसी प्रकार से द्रौपदी ने भगवान श्रीकृष्ण को पुकारा तो भगवान अतिशीघ्र ही प्रकट हुए। द्रौपदी से कहने लगे-बहन ! तुमने मुझे क्यों बुलाया है? द्रौपदी अपना दुःख रोने लगी…. भगवान ने कहा- द्रौपदी! इस प्रकार का रोना-धोना छोड़कर पहले मुझे भोजन करवादे, मुझे भूख लगी है, इसके बाद मैं तुझसे बात करूंगा।
भाई आया है किन्तु तुम कैसी बहिन हो जो भोजन पानी कुछ भी नहीं पूछ रही हो? द्रौपदी कहने लगी- हे कृष्ण। आज न जाने सभी को क्या हो गया, जो भूख ही भूख लग रही है। दुर्वासा को भी, आपको भी। इस भूख की निवृत्ति के लिए ही आपको बुलाया और आप स्वयं ही अन्न की मांग कर रहे हैं? अब मैं कहाँ से खिलाऊं? भगवान ने कहा- द्रौपदी ! तेरे पास बहुत कुछ है वह किसी के पास नहीं है, वह तुम्हारी बटलोई कहाँ है, उसमें कुछ होगा,
वह लाकर मुझे दे दो? द्रौपदी ने वह बटलोई लाकर भगवान के हाथों में देदी और कहा कि देखो! कृष्ण! यह खाली है, इसमें कुछ भी नहीं है जो तुम भोजन कर सको।
कृष्ण ने अन्दर देखा और एक पत्ता चिपका हुआ हाथ से निकालकर ले आये और द्रौपदी के देखते ही देखते मुख में रख लिया तथा चबाकर निगल गये। स्वयं भगवान विष्णु सृष्टि के पालन पोषण कर्ता एक पत्ता जो द्रौपदी के प्रेमरस भीना खाकर डकार ले ली। एक भगवान के तृप्त होते ही सम्पूर्ण सृष्टि तृप्त हो गयी। दुर्वासा तथा उनके शिष्यों की कितनी सी औकात है।
गुरु आप संतोषी अवरा पोखी……। बहुत देर हुई, दुर्वासा आये नहीं, ऐसा जानकर युधिष्ठिर ने सहदेव को भेजा कि मुनियों को शीघ्र ही बुला लो । सहदेव अपने बड़े भाई की आज्ञा मानकरके अतिशीघ्र ही चला और वहाँ जाकर देखा, वहाँ पर न तो दुर्वासा ही है और न ही उनके शिष्य हैं। जिधर से आये थे, उधर ही वापिस जाने के पैरों के निशान दिखाई दे रहे थे।
दुर्वासा अपने शिष्यों सहित बहुत देर तक स्नान करते रहे क्योंकि आज युधिष्ठिर के यहाँ निमंत्रण है।इसलिए देर तक स्नान करोगे तो भूख अच्छी लगेगी, भोजन बहुत ही प्रियकर-रूचिकर लगेगा। दुर्योधन की भाँति पाण्डव भी अनेक प्रकार के स्वादिष्ट, सुपाच्य भोजन बनायेंगे। भूख अच्छी लगेगी तो खूब डटकर खायेंगे।
धर्मराज युधिष्ठिर कथा भाग