धर्मराज युधिष्ठिर कथा भाग 1

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धर्मराज युधिष्ठिर कथा भाग 1
धर्मराज युधिष्ठिर कथा भाग 1

  धर्मराज युधिष्ठिर कथा भाग 1

वील्हाजी ने पूछा- हे गुरुदेव! आपके द्वारा हमने प्रहलाद पंथ एवं त्रेतायुग में हरिश्चन्द्र द्वारा स्थापित पंथ की वार्ता श्रवण की। आगे अब हम द्वापर युग में पंथ स्थापना की बातें सुनना चाहते हैं। भगवान के निर्मल चरित्र गाथाएं उत्तरोतर जिज्ञासा को अपने मुख से अमृतमय वचन सुनाकर शांत कीजिये?  

नाथोजी उवाच- हे शिष्य ! मैं जो तुम्हें बतलाता हूँ, ये बाते मैनें सद्गुरु भगवान जाम्भोजी से साक्षात् श्रवण की थी। वहीं बाते मैं तुझे बतला रहा हूँ, सुनो! द्वापर युग में चन्द्रवंशी राजाओं में महात्मा युधिष्ठिर बहुत ही प्रसिद्ध हुए। ये पांच भाई पाण्डु के पुत्र थे। इनकी माता यशस्वी देवी कुन्ती थी।

सबसे बड़े, युधिष्ठिर, उनसे छोटे भीम, अर्जुन, नकुल एवं सहदेव थे तीन पुत्र कुन्ती के तथा दो पुत्र माद्री के थे। बचपन में ही इनके पिता का देहान्त हो गया था। माता कुन्ती ने ही पाल पोष कर बड़ा किया था। इसलिए इन्हें कुंती पुत्र भी कहते हैं। जो पालन पोषण कर अच्छे संस्कार डाले वह माँ उनके लिए सर्वस्व ही है।    

दूसरे भाई दुर्योधन आदि धृतराष्ट्र के पुत्र थे। गांधारी उनकी माता थी उनमें दुर्योधन सबसे बड़ा था। अन्य भाई दुःशासन आदि एक सौ थे। भाईयों में राज बंटवारे को लेकर राग-द्वेष होना स्वाभाविक ही था। उनके दादा भीष्म जी ने आधा-आधा राज्य बंटवारा करके दे दिया। वे चाहते थे कि आपस में भाई-भाई में खींचतान न हो शांति बनी रहे।  

क्योंकि धृतराष्ट्र राज्य के अधिकारी थे किन्तु वे तो अंधे थे। भीष्मजी की आज्ञा एवं सहायता से हस्तिनापुर पर राज्य करते थे। उनका बेटा दुर्योधन बड़ा हो गया, उसे उन्होनें युवराज नियुक्त कर दिया। भीष्मजी ने पाण्डवों का भला चाहते हुए उन्हें राज्य का कुछ भाग खाण्डव वन दे दिया। वहाँ पर पाण्डवों ने इन्द्रप्रस्थ नगरी बसाई। महात्मा युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हुआ। राजसूय यज्ञ किया, भगवान कृष्ण जिनके मित्र थे, उनकी कृपा से बहुत सुंदर नगर बसाया था।  

एक समय महाराज युधिष्ठिर ने यज्ञ महोत्सव किया, जिसमें सभी राजा, प्रजा, ऋषि, देवता आदि को आमंत्रित किया। साथ ही हस्तिनापुर के शासक भाई दुर्योधन को भी बुलाया। दुर्योधन ने यज्ञ समाप्ति पर नगर की शोभा देखी थी तो आश्चर्य चकित रह गया जहाँ जल था वहाँ थल दिखाई दे रहा था और थल की जगह जल दिखाई दे रहा था।

एक जगह तो घूमते हुए जल को थल मानकर पानी में गिर पड़े थे। दुर्योधन तुरंत खड़ा हो गया। सोचा कि किसी ने देख तो नहीं लिया है, किन्तु द्रौपदी तथा भीमसेन ने देख लिया था और दोनों हंस पड़े थे। उनके हंसने का मतलब दुर्योधन समझ गया था। यह हंसी कह रही थी कि अंधे का अंधा जन्मा है।  

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उस समय बोले कुछ भी नहीं किन्तु उस हंसी ने सब कुछ कह दिया। दुर्योधन आग बबूला हो गया और सीधा वहाँ से चल पड़ा। एक तो दुर्योधन वैसे ही द्वेष से भर गया था उनकी सौम्यनगरी को देखकर। ऊपर से द्रौपदी तथा भीमसेन की हंसी ने अग्नि में घी का काम किया। वह अपने पिता धृतराष्ट्र के पास जाकर कहने लगा- मुझे आपने क्या दिया है मात्र खण्डहर? पाण्डवों ने कितनी सुन्दर राजधानी बनायी है।

उन्होनें कितना सुन्दर यज्ञ महोत्सव किया क्या ऐसा सुन्दर उत्सव हम नहीं कर सकते? अवश्य ही कर सकते हैं बेटा! ऐसा कहते हुए धृतराष्ट्र ने आज्ञा प्रदान कर दी। दुर्योधन ने पाण्डवों से बदला लेने के लिए यज्ञ महोत्सव प्रारम्भ कर दिया तथा पाण्डवों को निमंत्रण देकर बुला लिया। सरल स्वभाव पाण्डव दुर्योधन की चालाकी-ईर्ष्या को समझ नहीं पाये और हस्तिनापुर पँहुच गये।    

दुर्योधन ने अपने पिता धृतराष्ट्र से कहा- हे पिताजी ! मैनें युधिष्ठिर से कई बार जुआ खेलने के लिए कहा है, किन्तु वह खेलने के लिए तैयार ही नहीं है। यदि आप आज्ञा दें तो अवश्य ही खेलेगा,तब मेरा कार्य | सिद्ध हो जाएगा। आप अवश्य ही आदेश दीजिए, आप की बात को टाल नहीं सकता, बड़ों की आज्ञा मैंने अपना धर्म समझता है। वह धर्म भीरू अपना धर्म नहीं छोड़ेगा। आप मेरे पिता हैं, मेरा कार्य अपनाने में सहायक होंगे।    

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धृतराष्ट्र ने कहा- बेटा युधिष्ठिर ! अवश्य ही मनोरंजन कर लो, भाई-भाई आपस में बैठोगे तो प्रेमभाव बढ़ेगा, कटुता मिटेगी। युधिष्ठिर ने अपने ताऊ की बात स्वीकार करके जुआ खेला और जुए में सब कुछ हार गए, राज गया, पाट गया। अंत में अपनी प्रिया भार्या द्रौपदी को भी दाँव पर लगा दिया स्वयं हारे हुए जुवारी द्रौपदी को भी हार गये। जुआ तो सभी कुछ समाप्त कर देता है, किन्तु खिलाड़ी जब खेलने बैठ जाते हैं, तो आगे पीछे कुछ भी नहीं सोचते इसी दोष की वजह से पाण्डव हार गये उन्होनें पीछे मुड़कर नहीं देखा।  

द्रौपदी को भरी सभा में दुःशासन ले आया और उसे दासी कहकर के अपमान किया, चीरहरण करने के लिए साड़ी का पला पकड़ कर खींचा गया, उसी समय भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं वस्त्र बनकर के द्रौपदी की लाज रखी। वहाँ पर उपस्थित भीष्म, द्रौण आदि कुछ भी नहीं बोल सके, सभी दुर्योधन के वशीभूत हो चुके थे। जिसका कोई रक्षक नहीं है, उसका भगवान ही रक्षक है।  

पाण्डवों को 12 वर्ष का वनवास तथा 13वां वर्ष अज्ञात वास में रहने के लिए मजबूर किया गया। वनवास काल में पाण्डव अधिकतर समय काम्यक वन तथा द्वैतवन में ही व्यतीत किया। ये वन जांगल देश में हस्तिनापुर तथा इन्द्रप्रस्थ से पश्चिम की ओर बताया है। यह वही जांगल देश है जिसमें जाम्भोजी महाराज ने समराथल पर आसन लगाया था।

इस समय का यह जांगलू उस समय जांगल देश के नाम से प्रसिद्ध था। उस समय का काम्यक वन इस समय जाम्भोलाव नाम से प्रसिद्ध है। उस समय का द्वेत वन इस समय दियातरा नाम से कहा जाता है।   उस समय इस वन में बड़े बड़े तालाब जल से भरे रहते थे। घना वन था इसलिए वर्षा बहुत होती थी,वर्षा होती थी तो घना वन था, इस प्रकार धरती का संतुलन था।    

पाण्डवों ने यहां जाम्भोलव पर रहकर तपस्या की थी तथा ऋषियों के सहयोग से बड़े-बड़े यज्ञ किए | थे। धौम्य ऋषि ने यहां का महात्म्य बतलाया था। इस पुण्यभूमि में यज्ञ करने से तुम्हारा खोया हुआ राज्य पुनः प्राप्त कर सकोगे। पुनः प्रतिष्ठा, शक्ति तथा यश की प्राप्ति कर सकोगे उन्हीं ऋषियों के आज्ञानुसार ही पाण्डवों ने यहाँ यज्ञ करके अपने को यश-कीर्ति से मण्डित किया। इसलिए तो गुरु जम्भेश्वरजी ने इस भूमि को पवित्र बताया था। यहाँ पर तालाब खुदवाकर तीर्थ प्रकट किया था।    

वनवास का अधिकतर समय पाण्डवों ने यही व्यतीत किया था। खोई हुई शक्ति पुनः अर्जित की थी। यहाँ से अर्जुन दिव्य शस्त्रों की प्राप्ति हेतु इन्द्रलोक तक गया था और दिव्यशस्त्र प्राप्त कर सका था। यहीं पर रहकर जयद्रथ आदि कौरवों को पराजित किया था।   इसी वन में रहकर अनेक ऋषियों से भेण्ट की तथा उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया था।

अनेकानेक राक्षसों का विनाश भी यहीं रहकर के किया था। यहीं से पाण्डव लोग तीर्थ यात्रा में निकले थे, वनवास काल में तीर्थयात्रा अवश्य ही कर लेनी चाहिए। सर्वप्रथम यही से ही पुष्कर जाने का वर्णन है। पुष्कर से आगे अन्य तीर्थों में भ्रमण करते हुए गंगा यमना आदि तीर्थों में स्नान किया और अन्त में गन्धमादन पर्वत पर पहुंचे थे। जहाँ पर भीम की हनुमानजी से भेण्ट हुई थी।

यहीं पर महाभारत का युद्ध होने का संकेत हनुमान जी ने दिया था। भीम के निवेदन करने पर कृष्ण-अर्जुन के रथ की ध्वजा पर विराजमान रहने का वचन दिया था। इसलिए कृष्णार्जुन के रथ को कपिध्वज कहा हैं।

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Sandeep Bishnoi

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