गुरु दीक्षा मंत्र( सुगरा मंत्र) जब गुरु नुगरे को सुगरा करता है।
गुरु दीक्षा मंत्र(सुगरा मंत्र)
ओ३म् शब्द गुरु सूरत चेला, पांच तत्व में रहे अकेला।
सहजे जोगी शून्य में बास, पांच तत्व में लियो प्रकाश।
ना मेरे माई ना मेरे बाप, अलख निरंजन आपही आप।
गंगा यमुना बहे सरस्वती, कोई कोई न्हावे बिरला जती।
तारक मंत्र पार गिराम, गुरु बतायो निश्चय नाम।
जे कोई सुमिरै उतरे पार, बहुरि न आवे मैली धार।
यह गुरु मंत्र जब साधु-गुरु सुनाता है तो बालक समझ की तरफ तेजी से बढ़ता है। उसके मन में अनेक जिज्ञासाएं खड़ी होती है। जो भी उसे दिया जायेगा वह उसका अमर धन होगा ऐसी अवस्था में उसे यह सुगरा मंत्र ही देना चाहिये । इस मंत्र के अन्दर बहुत कुछ समाया हुआ है। यह केवल मंत्र ही नहीं है, उच्चकोटि की साधना भी है। जो सहज में ही की जा सकती है। इस मंत्र के बारे में थोड़ा विचार कर लेना चाहिये।
ओम शब्द ही गुरु है। सुरति ही चेला है। यही गुरु और चेले का शाश्वत सम्बन्ध है। ओम ईश्वर का नाम है, वह ईश्वर ही गुरु है और सुरती अर्थात् जीवात्मा ही चेला है। यह जीवात्मा चेला तभी है जब ओम शब्द से सम्बन्ध स्थापित कर ले। उसे एक क्षण भी भूले नहीं। अन्यथा गुरु कहीं चेला कहीं, कोई अर्थ
नहीं है, नहीं वह चेला बन ही सका है। इससे आगे मंत्र में कहा है कि
तुम इन पांच तत्वों से भिन्न अकेले हो। क्योंकि तुम्हारा सम्बन्ध तो ओम गुरु से है, पांच तत्वों का सम्बन्ध तो केवल शरीर से ही है। यदि इस प्रकार का सम्बन्ध गुरु से जोड़ लिया जाय तो तुम सहज हो में योगी हो, किसी प्रकार के प्रयत्न की आवश्यकता नहीं है। संसार में रहते हुए भी तुम्हारी वृति सुरति
शून्य में ही रहेगी। वह शून्य ही ओम की ध्वनि है। वही गुरु है, उन्हों में तुम सदा रमण करोगे।
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पांच तत्वों में तुम्हारा ही प्रकाश विद्यमान है। तुम स्वयं ब्रह्मस्वरूप हो, ब्रह्म का ही अचेतन पांच तत्वों में चेतना रूपी प्रकाश है। न तो इस आत्मा के माता है और न ही पिता है। केवल शरीर के तो अवश्य ही माता पिता है। आत्मा अलख निरंजन स्वयं अपने आप में ही स्थित है। न कभी जन्म लेती है और न कभी मरती है। अलख निरंजन निर्लेप अगोचर ब्रह्म रूप है ऐसा ही इसे समझे।
इसी मानव शरीर में ही गंगा यमुना सरस्वती तीनों पवित्र नदियां बहती है। किन्तु उनमें स्नान कोई बिरला यति ही करता है। मनुष्याणां सहेषु हजारों मनुष्यों में कोई एक। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात समाधि अवस्था में जो आनन्द की प्राप्ति होती है वह त्रिवेणी में स्नान है। तुम्हारा तिलक लगाने का स्थान त्रिकुटि कहा जाता है।
इसी त्रिकुटि में ही तीनों का संगम होता है। त्रिकुटि में ध्यान करने से ज्योति आनन्द एवं ज्ञान इन तीनों की प्राप्ति होती है। वही योगी का लक्ष्य है। हे बालक। तुम्हें भी वही आनन्द ज्ञान एवं तेज की प्राप्ति करनी है। हे शिष्य यह मंत्र तारक है, संसार सागर से पार उतारने वाला है। गुरु ने निश्चय करके बतलाया है। इसका श्रद्धा एवं विश्वास से स्मरण एवं साधना कर ले। जे कोई भी स्मरण करेगा वह संसार सागर से पार उतर जायेगा। उस परम पद को प्राप्त कर लेगा जहां से वापिस लौटकर नहीं आयेगा इस प्रकार से यह सुगरा मंत्र गुरुदेव ने सुनाया है।
तीसरा मंत्र- सन्यास मंत्र है। जब कोई सन्यस्त होना चाहता है तब यह मंत्र सुनाया जाता है। गुरु महाराज ने कहा है
कोड़ निनाणवे राजा भोगी, गुरु के आखर कारण जोगी
माया राणी राज तजीलो, गुरु भेटीलो जोग सझीलो।
एक या दो नहीं जब से सृष्टि रची गयी है तभी से ही निनाणवे करोड़ राजा योगी हो गये सन्यास धारण करके माया राणी राज को त्याग दिया। वन में तपस्या करके शरीर को सुखा दिया। शरीर की कुछ भी परवाह न करते हुए अपने कार्य में संलग्न रहे।
चार अवस्था में मानव जीवन को बांटा है। प्रथम अवस्था ब्रह्मचारी, जो पचीस वर्ष तक की है उसके पश्चात पचास वर्ष तक गृहस्थ आश्रम है तीसरी वानप्रस्थ आश्रम पचहतर वर्ष तक की है और चौथी अवस्था सन्यास सौ वर्ष तक की है। इसलिए सन्यास लेकर के परोपकार कार्य एवं साधना में संलग्न होना चाहिये। स्वयं यति ईश्वर ने सन्यास धारण किया था तथा अपने शिष्यों को सन्यास में दीक्षित किया था। उन दीक्षित शिष्यों में हे वील्हा। मैं भी एक हूँ, जो तुम्हें दीक्षित करके इस पंथ को आगे बढ़ाया है। तुम्हें भी इस परम्परा को आगे बढ़ाना है तथा इस गुरु मंत्र को देकर सन्यास में दीक्षित कर लेना है।
गुरु दीक्षा मंत्र( सुगरा मंत्र)
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