अमावस्या व्रत कथा महात्म्य ( अमावस्या क्यों रखनी चाहिए )

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                अमावस्या व्रत कथा महात्म्य ( अमावस्या क्यों रखनी चाहिए )

अमावस्या व्रत कथा महात्म्य ( अमावस्या क्यों रखनी चाहिए )
अमावस्या व्रत कथा महात्म्य ( अमावस्या क्यों रखनी चाहिए )
एक समे चाली, कोई कह तीरथ को बड़ो धरम, कोई कह मावस को बड़ो धरम, कोई कह बारस को बड़ो धरम,कोई कह नवग्रह पूजा को बड़ो धरम। जाम्भोजी श्री वायक कहे

                         शब्द-101

 ओ३म् नितहि अमावस नित संक्रांति, नितही नवग्रह वैसें पाति ।
 नितही गंग हिलोले जाय, सतगुरु चीन्हे सहजै नहाय।
 निपाणी निरमल घाट, निरमल धोबी मांड्यो पाट। 
जे यो धोबी जाणै धोय, घर में मैला वसत्र रहै न कोय। 
एक मन एक चित साबण लावे, पहरंतो गाहक अति सुख पावै।
 ऊँचै नीचै करे पसारा, नहीं दूजै का संचार। 
तिल मैं तेल पहुप मैं वास, पांच तत मैं लियो प्रकाश। 
बिजली के चमकै आवै जाय, सहज शून्य मैं रहै समाय। 
नैयो गावै न यो गवावै, सुरगे जाते वार न लावै।
सतगुरु ऐसा तंत्र बतावै, जुग जुग जीवै बहुर न आवै।

नाथोजी उवाच- हे वील्हा ! एक समय हम सभी भक्त मण्डली सम्भराथल पर श्री देव के निकट एकत्रित | तीर्थ सेवन खान का सबसे ए थे। हमारे बीच में ही विवाद खड़ा हो गया क्योंकि मैं अमावस्या का व्रत था हमारे में से कोई कहता था तीर्थ सेवन से बड़ा धर्म है। दूसरा कहने लगा कि अमावस्या का व्रत रखना ही बड़ा धर्म है क्योंकि मैं अमाव क बताया है।

चौथा कहने लगा कि करता है। तीसरा कहने लगा कि शास्त्रों में द्वादशी का महात्मय अधिक बतलाया है। चौथा कर सक्रान्ती का दान पुण्य करना ही बड़ा धर्म बतलाया है। पांचवा कहने लगा कि नव ग्रहो की पूजा काव के बहाई धर्म बतलाया है।

मुण्डे मुण्डे मति भिन्ना “जितने लोग थे उनका विचार भिन्न भिन्न ही था कहीं कोई निर्णय पर नहीं प सका था तथा कोई भी अपनी हार स्वीकार करने को तैयार नहीं था,ऐसी दशा में श्री जाम्भोजी ने शब्द सुनाया

हे भक्तो अमावस्या नित्य ही आती है,संक्रान्ति भी नित्य ही आती है,नौ ग्रह भी पंक्ति लगाये हऐ नित्य ही आपके सामने उपस्थित है। तीर्थ शिरोमणी गंगा भी नित्य हिलोले ले रही है आपके निकट बहती आप लोग व्यर्थ में विवाद बयों कर रहो हो । एक वाक्य को श्रवण कर के सभी विवादी प्रसन्न हो गये और हर्षित हो कर कहने लगे-

देवजी ने हमें जीता दिया है,हमारी ही बात का समर्थन किया है। आप लोग श्री देवजी की बात को समझ नहीं पाये है। नित्य प्रति अमावस्या एवं सक्रान्ति कहां आती है?ये तो एक माह बाद आती है। तथा नौ ग्रह भी एक साथ पोक्ति लगा कर कैसे बैठ सकते है?तथा तीर्थ गंगा स्नान आदि भी नित्य प्रति सुलभ कहां है। हे वील्हा । इस प्रकार की वार्ता सुन कर श्री देवजी के सन्मुख हुऐ और कहने लगे-

हे महाराज ! नाथोजी की बात का उतर चाहते है,आपने जो नित्य की बात कही यह तो असंभव है।श्री देवजी ने कहा- आप लोग ठीक कह रहे है, बाह्य गंगा स्नान अमावस्या का व्रत संक्रांति का पुण्य दान और नौ ग्रह नित्य एकत्रित हो सकते किन्तु जो सहज में ही ज्ञान व्यक्ति सतगुरु चीन्हे सहजै न्हाय जो सतगुरु को पहचानता है और स्नान करता है उसके लिए नित्य ही शुभ अवसर गंगा स्त्ानादि उपस्थित है।

सतगुरु की पहचान एवं शरणागति में हो जाये तो सहज में ही पुण्य का भागी हो जायेगा अप्रात्त वस्तु की प्राप्ति हो जाएगी। छुपे हुए अपार आनंद की प्राप्ति संभव हो जायेगी, यही बड़ा धर्म होगा। यदि सतगुरु परमात्मा का स्मरण अबाध गति से चलेगा तो उसके लिए जल स्वतः ही निरमल शद्ध पवित्र हो जायेगा।

उसके शरीर से छूकर जल भी गंगा जल हो जायेगा भगवान विष्णु के चरणों से निकली गंगा भी तो भगवान के चरणों का स्पर्श करने से गंगा बन गयो।

ऐसा पवित्र आत्मा सतत विष्णु का भजन करने वाला जहां पर भी बैठेगा जिस घाट स्त्रान पर विराजमान होगा यो गावै न यो गवावै, सुरगे जाते वार न लावै। सतगुरु ऐसा तंत्र बतावै, जुग जुग जीवै बहुर न आवै। नाथोजी उवाच- हे वील्हा ! एक समय हम सभी भक्त मण्डली सम्भराथल पर श्री देव के निकट एकत्रित |

तीर्थ सेवन खान का सबसे ए थे। हमारे बीच में ही विवाद खड़ा हो गया क्योंकि मैं अमावस्या का व्रत था हमारे में से कोई कहता था तीर्थ सेवन से बड़ा धर्म है।

दूसरा कहने लगा कि अमावस्या का व्रत रखना ही बड़ा धर्म है क्योंकि मैं अमाव क बताया है। चौथा कहने लगा कि करता है। तीसरा कहने लगा कि शास्त्रों में द्वादशी का महात्मय अधिक बतलाया है। चौथा कर सक्रान्ती का दान पुण्य करना ही बड़ा धर्म बतलाया है। पांचवा कहने लगा कि नव ग्रहो की पूजा काव के बहाई धर्म बतलाया है।

मुण्डे मुण्डे मति भिन्ना “जितने लोग थे उनका विचार भिन्न भिन्न ही था कहीं कोई निर्णय पर नहीं प सका था तथा कोई भी अपनी हार स्वीकार करने को तैयार नहीं था,ऐसी दशा में श्री जाम्भोजी ने प सुनाया

हे भक्तो अमावस्या नित्य ही आती है,संक्रान्ति भी नित्य ही आती है,नौ ग्रह भी पंक्ति लगाये हऐ नित्य ही आपके सामने उपस्थित है। तीर्थ शिरोमणी गंगा भी नित्य हिलोले ले रही है आपके निकट बहती आप लोग व्यर्थ में विवाद बयों कर रहो हो । एक वाक्य को श्रवण कर के सभी विवादी प्रसन्न हो गये और हर्षित हो कर कहने लगे देवजी ने हमें जीता दिया है,

हमारी ही बात का समर्थन किया है। आप लोग श्री देवजी की बात को समझ नहीं पाये है। नित्य प्रति अमावस्या एवं सक्रान्ति कहां आती है?ये तो एक माह बाद आती है। तथा नौ ग्रह भी एक साथ पोक्ति लगा कर कैसे बैठ सकते है?तथा तीर्थ गंगा स्नान आदि भी नित्य प्रति सुलभ कहां है। हे वील्हा ।

इस प्रकार की वार्ता सुन कर श्री देवजी के सन्मुख हुऐ और कहने लगे हे महाराज ! नाथोजी की बात का उतर चाहते है,आपने जो नित्य की बात कही यह तो असंभव है।श्री देवजी ने कहा- आप लोग ठीक कह रहे है, बाह्य गंगा स्नान अमावस्या का व्रत संक्रांति का पुण्य दान और नौ ग्रह नित्य एकत्रित हो सकते किन्तु जो सहज में ही ज्ञान व्यक्ति सतगुरु चीन्हे सहजै न्हाय जो सतगुरु को पहचानता है और स्नान करता है उसके लिए नित्य ही शुभ अवसर गंगा स्त्ानादि उपस्थित है।

सतगुरु की पहचान एवं शरणागति में हो जाये तो सहज में ही पुण्य का भागी हो जायेगा अप्रात्त वस्तु की प्राप्ति हो जाएगी। छुपे हुए अपार आनंद की प्राप्ति संभव हो जायेगी, यही बड़ा धर्म होगा। यदि सतगुरु परमात्मा का स्मरण अबाध गति से चलेगा तो उसके लिए जल स्वतः ही निरमल शद्ध पवित्र हो जायेगा। उसके शरीर से छूकर जल भी गंगा जल हो जायेगा भगवान विष्णु के चरणों से निकली गंगा भी तो भगवान के चरणों का स्पर्श करने से गंगा बन गई।

ऐसा पवित्र आत्मा सतत विष्णु का भजन करने वाला जहां पर भी बैठेगा जिस घाट स्त्रान पर विराजमान होगा वह पृथिवी भी उसके स्पर्श से तीर्थस्थल बन जायेगी। उसके निकट आने वाले भी वैर भाव को भूल जायेंगे।

वह संत महापुरुष धरती और जल को तीर्थ बना देगा। शरीर में विराजमान जीवात्मा ही धोबी है, यह जन्मों जन्मों के पाप को धो डालेगा, प्रथम विष्णु के स्मरण से पवित्र होगा तो अपने संचित पाप कर्मों को एक मन एक चित साबुन लगा कर चिपके हुए कर्मों को साफ कर डालेगा।

भगवान ने यह शरीर रूपी दिव्य चादर प्रदान की है, इसके न जाने कितने जन्मों का मैल लगा है, इस लिए तो बार बार जन्म लेना एवं मरना पड़ता है, अबकी बार अपना उद्धार स्वयं ही कर लेगा।

घर में एक भी महिला वस्त्र- पाप कर्म नहीं रहने देगा। द्विधा वृति का त्याग तो तभी हो सकेगा, जब आत्म साक्षी का होगा। जब उसे एक बार दिव्य खजाने का पता लग जायेगा तो फिर संसार के विपयों में नहीं टकेगा। एकाग्र वृति युक्त हो जायेगा। ऐसी दशा में शरीर रूपी वस्त्र में छिपी हुई जीवात्मा अति आनंद | को प्राप्त होगी।

उपर नीचे चहुं दिस दृष्टि का प्रसार करेगा तो सर्वत्र वही एक ही सतचित आनंद रूप ब्रह्म दृष्टि जिस से तिल में तेल एवं फूल में सुगंधी रहती है, उसी प्रकार से पांचो तत्वों में उसी गोचर होगा। जिस प्रकार काश विद्यमान है। आकाश, वायु, तेज, जल एवं धरणी से ही सृष्टि का निर्माण हुआ है। उन्हों पांचो ती चेतना उसी परमात्मा की ही है ऐसा अनुभव करेगा।

मेघों जब आकाश भर जाता है, वर्षा होने लगती है तो बिजली चमकने लगती है, वह एक ही होती है उसी प्रकार से शरीर में भी जीवात्मा एक चमक ज्योति की तरह है। एक क्षण में ही में प्रवेश करती है तथा जब शरीर से जीव ज्योति बाहर निकलती है तो बिजली के चमकारे की भांति प्रति शीघ्र ही निकल कर आकाश शून्य में विलीन हो जाती है।

परम तत्व प्राप्त पुरूष परम शांत होता है। हे सज्जनो! तुम्हारो तरह उछल कूद वाद विवाद नहीं करता। जब तक उस परम तत्व की प्राप्ति नहीं हुई है तब तक वह अधूरा ही है, वह चाहे दुनियां की सभी वस्तुएं प्राप्त क्यों न करले।

अहंकार शून्य परम भक्त वह न तो किसी अन्य के गुणगान ही करेगा नहीं किसी के प्रशंसा के गीत हो गायेगा। और नहीं अपने अहंकार की पुष्टि के लिये दूसरों से गवायेगा ऐसा व्यक्ति मोक्ष प्राप्ति में देरी नहीं करता है।

सतगुरु कहते है कि मैं तुम्हें ऐसा तत्व बतला रहा हूं, जीवन जोओगे लो युगों युगों तक युक्ति पूर्वक आनंदित होकर और शरीर शांत हो जायेगा तो पुनः जन्म मरण के चकर में नहीं आओगे, हे लोगो । यही धर्म महान धर्म है इसी का ही आचरण करो।

वील्हो उवाच-हे गुरु देव। आपने जाम्भोजी द्वारा उच्चरित शब्दों का बखान किया, उच्च कोटि के साधक की बात बतायी किन्तु साधारण जन के लिए अमावस्या व्रत, गंगा स्नान आदि का भी महात्म्य बतलाने की कृपा करे। क्योंकि उनतीस नियमों में एक नियम अमावस्या का व्रत करने का भी तो है यदि आपने विष्णु जांभोजी के श्री मुख से अमावस्या व्रत की विशेषता- महात्म्य सुना है तो अवश्य ही बुलावे ।

नाथ जी उवाच- एक समय सम्भराथल पर विराजमान श्री देवजी से मेरठ के राजा एवं सारियों ने यही प्रश्न पूछा था। श्री देवजी ने अमावस्या व्रत का महात्म्य बतलाते हुऐ एक प्राचीन इतिहास बतलाया या वही मैं तुझे बतलाता हूं।

काशी में सोमदत नाम का एक ब्राह्मण रहता था, उसकी धर्मपत्नी एवं एक लड़का तथा एक लड़की ये चारों जने गंगा स्नान करते भगवान का भजन परम श्रद्धा विश्वास के साथ करते एक दिन उनके पर में एक यति आया उन चारों जनों ने उनके चरणों में मस्तक झुकाया।

उस यति ने उनको आशीर्वाद देते हुए इस प्रकार से कहा- प्रथम ब्राह्मण को आशीर्वाद देते हुए कहा-सौभाग्यवती हो। जब उसकी कंवारो कन्या ने मस्तक ज्ञ किया तो यति ने कहा- चिरंजीव हो।

ब्राह्मणो ने पछा-हे यति। ऐसा भेद क्यों? यति ने कहा- मेरा वचन असत्य न होजन मैने जो होनहार है वही कहा है। ब्राह्मणी बोलो वह होनिहारे क्या है? यति कहने लगा- इस कन्या पति जब चौथा फेरा लेगा तब मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा इसीलिए मैंने इसे सौभाग्यवती नहीं कहा।
ब्राह्मणी कहने लगी- हे यति ! यदि आपको इस बात का पता है तो यह भी बतलावे कि क्या| | इसका कुछ उपाय भी हो सकता है? यदि कोई उपाय है तो अवश्य ही बतलावे । यदि ऐसी दुर्घटना हो गयी। तो हम तो सभी रो रो कर के मर जायेंगे।

यति उवाच- हां एक उपाय अवश्य ही हो सकता है। कदली वन में एक गूजरी रहती है वह धन | ऐश्वर्य से संपन्न है, नित्य प्रति अभ्यागतों को भोजन देती है, जिसके यहां सदावृत चलता है, वह गुजरी |

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अमावस्या का व्रत विधि विधान से करती है यदि वह यहां आ जाये और एक अमावस्या व्रत का फल प्रदान कर दे तो अवश्य ही तुम्हारी कन्या का पति जीवित हो जायेगा।
ब्राह्मणी उवाच-हे यति जी! आप ही प्रमाण है, किन्तु वह धन ऐश्वर्य से संपन्न हमारी झोपड़ी में क्यों आयेगी?

यति उवाच- वह अन्य धनवानों जैसी मद में अंधी नहीं है, आप अवश्य ही जाओ। पो जीव है, अवश्य ही तुम्हारे दुख से द्रवित होकर चली आयेगी। ऐसा कहते हुए वह यति तो चला वृद्ध ब्राह्मण ने अपने पुत्र को पास बुलाया और पति की बात बताते हुए कहा-हे बेटा तक वन को जाओ और गूजरी को यहां बुला लाओ।

मैं तो वृद्ध हो गया हूं मेरे से तो चला नहीं जाना आज्ञाकारी बेटे ने अपने पिता की बात स्वीकार की और माता पिता को प्रणाम करके कदली वन को रवाना हुआ।

बीच में अनेको वनों को पार करते हुए, वन की शोभा निहारते हुए, केई दिनों के पश्चात कदली वन में प्रवेश किया। गुजरी के स्थान को देखा और अति प्रसन्न हुआ। वहां पर सदा व्रत बांटा जा रहा था.

ऋषि, ब्रह्मचारी, साधु संत भिक्षा लेने आते है उन्हें प्रेम से भिक्षा मिलती है। वे लोग तो भिक्षा प्राप्त करके चले जाते है, उन्हीं की लाइन में वह काशी का ब्राह्मण पुत्र खड़ा होकर भिक्षा प्राप्त कर लेता है, यह नित्य प्रति की क्रिया हो चुकी थी।

वह ब्राह्मण जिस कार्य हेतु आया था वह तो सफल होता नहीं दीख रहा था, भीड़भाड़ में मिलना वह भी अपने स्वार्थ के लिए तो हो सकता है असफलता ही हो जाए। जब किसी भी प्रकार से गुजरी से मिलन न हो सका ब्राह्मण ने मिलने का एक सरल उपाय ढूंढ निकाला, वह सेवा करना ही था। सेवा कार्य करना प्रारम्भ कर दिया।

ब्राह्मण ने देखा कि लोग पगडंडी पर आ जा रहे है, किन्तु मार्ग साफ नहीं है मार्ग पर खात, गोबर, कंकड़, पत्थर, बिखरे पड़े है चारों तरफ से घास उग आयी है, मार्ग छोटे हो गये है, सेवा का कार्य अपने आप ही खोज लिया और सेवा में लग गया।

दिन में तो विश्राम करता और रात्रि में जब सभी सो जाते तो वह ब्राह्मण बालक मार्ग में सफाई करता, झाडू लगाता, कंकर पत्थर चुन चुन कर हटाता, घास काटकर मार्ग चौड़ा करता, आने जाने वाले आगंतुकों के लिए मार्ग सुमार्ग हो गया।

सभी ने आश्चर्य प्रगट किया कि ऐसा कौन परोपकारी होगा जो इस कार्य को संपन्न कर रहा धीरे धीरे बात गूजरी तक पहुंची, एक दिन गुजरी ने अपने सेवकों से कहा- वह कौन है जो सेवा काय कर रहा है उसे पकड़ कर मेरे सामने उपस्थित करो। हमारे उपर बड़ा भारी अहसान हो रहा है।

गूजरा के समर्थन कर के एक रात्रि में उस ब्राह्मण बालक को पकड़ कर के गुजरी के सामने उपस्थित । ब्राह्मण बालक तो मिलना ही चाहता था और उन्होंने यह कार्य सहज में ही करवा दिया।

गुचरी उवाच – हे ब्राह्मण! आप कहां से आये है? किस हेतु आपके अयोग्य यह कार्य कर रहे है। हमारे उपर भार चढा रहे हैं।

ब्राह्मण उवाच –  गूजरी! मैं बहुत हो दूर देश काशी से चल कर आया हूं, हमारे घर पर एक यति |आया था, उन्होंने मेरी बहन के पति की मृत्यु विवाह के चौथे फेरे में बतलायी है आप कृपा कर चले, तथा | र एक के व्रत का फल अवश्य ही प्रदान करें। आप हमें सभी को बचाले। मैं यति के अनुसार एक अमावस्या के वन को अपनी बहन के विवाह में निमंत्रण देने आया हूं।

गुजरी उवाच-अवश्य ही मैं आउंगी, आपके परोपकार-सेवा का कार्य करने से हमारे उपर ऋण या है उसे मैं आकर अवश्य ही चुकाउंगी। आप सहर्ष अपने देश वापिस जाओ। तुम्हारी बहन का विवाह जब तय हो जाये तब मेरे को पत्र लिख देना में अवश्य ही आउंगी, मैं कुछ करने वाली नहीं हूं, जो कल करेंगे वह भगवान ही करेंगे। ऐसा कहते हुए गूजरी ने ब्राह्मण बालक को विदा किया।

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अपने आने का प्रयोजन सफल हुआ मान ब्राह्मण बालक सहर्ष वापिस काशी लौट आया और अपने माता पिता को कुशल समाचारों से अवगत करवाया। कुछ दिन व्यतीत होने के पश्चात ब्राह्मण ने गजरी को पत्र लिखा- सिद्ध श्री गूजरी जोग, तुम हमारे देश में पधारोगे तो हमारा रोग कटेगा।

आप तो करूणामयी परोपकारी है कदली वन की निवासी देवी, हमने विवाह लग्न लिख दिया है, हम आपको अपने स्वार्थ हेतु कष्ट देते है किन्तु आप तो सदा हरि के गुणगान में अपना समय व्यतीत करती हो। हमारे अपराध को क्षमा करें, समय पर अवश्य हो पधारना। आपके आने में ही हमारा जीवन है अन्यथा मृत्यु है। कागज देकर एक वाहक को भेजा। गूजरी ने कागज पढा और अपने बेटे बहू को पास बुला कर कहने लगी –

हे वह मैं काशी जा रही हूं.एक महीने में लौट कर आऊंगी,वहां पर मैं अर्जित पुण्य का दान करने जा रही हैं हो सकता है पीछे कुछ अनहोनि हो जाये तो घबराना नही अपने घर का कार्य ठीक ढंग से करती रहना,अपना नियम मर्यादा नहीं तोड़ना,मैं अति शीघ्र ही लौट आऊंगी।
इधर कदली वन से गुजरी ने काशी के लिये प्रस्थान किया और उधर काशी में सोमदत ब्राह्मण के घर विवाह कार्य प्रारम्भ हो गया। विवाह का समय आ चुका था विप्रगण वेद मंत्रो का उच्च स्वर से उच्चारण करने लगे। अग्नि में आहुति दी जाने लगे। ज्यों ज्यों समय निकट आने लगा त्यों त्यों सोमदत की चिंता बढ़ने लगी। वह समय तो निकट आ गया है किन्तु अब तक गूजरी नहीं आयी न जाने क्या होगा।

वरवधू अग्नि की परिक्रमा करने लगे ज्यों ही चौथी परिक्रमा पूरी करी त्योंहि वह वर बेहोश हो कर धरती पर गिर पड़ा, प्राण पंखेरू उड़ गये। सोमदत विलाप करने लगा-चारों और हाहाकार होने लगा. यह क्या हो गया? उसी समय ही उपस्थित महिलाओं के बीच में से गूजरी उठी और हाथ में जल लेकर संकल्प किया और कहा

हे भगवान विष्णु । हे अग्नि देवता। यदि में ने मन वचन कर्म एवं श्रद्धा से अमावस्या का व्रत पूर्ण विधि विधान से किया है तो मैं एक अमावस्या का फल इस वर ब्राह्मण को देती हूं यह ब्राह्मण जीवित हो जाये। ऐसा कहते हुए जल छिड़का और वह ब्राहमण उठ खडा हुआ। ओम का उच्चारण करने लगा। कहने लगा न जाने क्यों मुझे मूर्छा आ गयी थी।

जे बाजे वेदों की ध्वनि का प्रसार होने लगा। सभी ने गजरी के अमावस्या के व्रत का फल प्रत्यक्ष देखा और जयजयकार करने लगे।

गुजरी ततकाल वहा से र वाना हुई उन लोगों ने बहुत रोका आदर किया किन्तु कहने लगी- | मुझे अति शीघ्र वापस जाना है। मार्ग में चलते चलते गजरी एक गांव में तालाब के किनारे डेरा लगाया और पूछा कि आज क्या तिथि है? ज्योतिषियों ने बतलाया कि आज | तो चतुर्दशी हैं कल पूर्ण अमावस्या है। गुजरी ने जिस अमावस्या का फल प्रदान क्रिया | था उसको पुत्ति वहा पर अमवस्या का व त कर के की और वापिस अपने घर आ |पहुंचे।

वहां पर बड़े बेटे की बहू ने कहा- श्वासु जी! आपके बड़े बेटे को तो न जाने | क्या हुआ। वे तो हिलते डुलते भी नहीं है मैं ने तो आपकी बात पर विश्वास किया है, | अब तो आप ही प्रमाण है। गुजरी ने बेटे के शयन कक्ष में जाकर देखा तो वह तो । | था गुजरी ने अपनी झारी से जल लेकर उन पर छिड़का और अमावस्या के वृत के प्रभाव से पुनः जीवित किया। ।

हे वील्हा। इस प्रकार का महात्म्य श्री देवजी ने बतलाया था वह मैनेजर दिया है। इसलिए उनतीस नियमों में एक नियम है कि अमेवस्या का व त करो। जिस अमावस्या देव मातरम्” प्रत्यक्ष प्रभाव है, तुरंत फल देने वाला है।

वेदों में कहा “अमावस्या देव अमावस्या देवताओं की माता है। जब अमावस्या की रात्रि में सूर्य चन्द्र दोन प्रभाव धरती पर समाप्त जाता है तो देव माता अमावस्या का प्रभाव रहता है सर्य एवं अमावस्या ये तीनों ही देवताओं की आंखे हैं।

अमावस्या के दिन एवं रात्रि चन्द्रमा सर्वथा ही लुस हो जाता है। चंद्रमा अमूत की वर्षा करता है, चन्द्र किरणों द्ारा हमें संजीवनी शक्ति प्रदान करता है उसी से ही सम्पूर्ण सृष्टि में स्थित वनस्पति मारत पशु, पक्षी आदि का विकास एवं प्रफुल्लता आती है।

अमावस्या के दिन चन्द्र से वंचित होने से व्रत करना चाहिये। उस दिन किया हुआ भोजन विकार पैदा करता है, शरीर के भोजन प्रकार होता है। चू कि अमावस्या रात्रि देवत्व शक्ति विहीन होती है तो उस रात्रि में भूत-प्रेत- राक्षस आदि बलवान हो जाते है, हमारी दैवी शक्ति मंद हो जाती है इसीलिए अमावस्या का व्रत करके हवन यज्ञ, पूजा पाठ, आदि देवता संबंधी कार्य ही करे। सांसारिक कार्य न करे, जिससे कि हम प्रेतादिक से पीड़ित हो जाये।

वेदों ने आदेश दिया है कि “दर्श पौर्णमास्यां यजेत” अमावस्या एवं पूर्णमासो को यज्ञ करें शुभ कार्य ही करे । पर्व दो ही है एक अमावस्या दूसरी पूर्णमासी। यज्ञ तो दोनों में ही करे अनन्त गुणा फलदायी है किन्तु व्रत अमावस्या का ही करे पूर्णमासी का व्रत करने का विधान नहीं है क्योंकि पूर्ण चन्द्रमा को तो खीर बनाये और भोजन करे यही उत्तम होगा।

Jambhoji ने उनतीस नियमों में एक नियम बताया है कि “अमावस्या का राखणो, भजन विष्णु बतायो जाए।”

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Sandeep Bishnoi

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