जम्भेश्वर भगवान अवतार के निमित कारण भाग – 1

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                   जम्भेश्वर भगवान अवतार के निमित कारण भाग – 1

जम्भेश्वर भगवान अवतार के निमित कारण भाग - 1
जम्भेश्वर भगवान अवतार के निमित कारण भाग – 1

जम्भेश्वर भगवान अवतार के निमित कारण भाग – 1 : हे शिष्य । वैसे तो अवतार के कई अर्थ हो सकते है किन्तु मुख्यतया प्रगट होना। देवता का भूमि पर पदार्पण, नया दर्शन, विकास इत्यादि। भगवान विष्णु के 10 अवतार प्रसिद्ध है।

मन्छ,कच्छ,वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम-कृष्ण, बुद्ध एवं दसवां कल्कि होगा। इसी बात को स्वयं जाम्भोजी ने शब्द वाणी में भी कहा है-नव अवतार नमो नारायण, तेपण रूप हमारां थीयूं। जब-जब धर्म की हानि होती है और पाप बढ़ जाता है तब-तब भगवान विष्णु जन्म लेते हैं, उसे ही अवतार कहा जाता है।

यहाँ पृथ्वी पर पुनः धर्म की स्थापना करते हैं। साधु सज्जन पुरूषों की रक्षा एवं दुष्टों का विनाश करते हैं। यह कार्य युगों-युगों में जब कभी भी ऐसी परिस्थिति आती है तभी अवतार लेते हैं।

 द्वापर में भगवान कृष्ण ने अलौकिक कार्य किए। कलयुग के आगमन से पूर्व ही अपनी लीला समेट ली। कृष्ण के पश्चात सदा से उपेक्षित मरूभूमि में कोई ऐसी क्रान्ति न हो सकी जिससे धर्म का उत्थान हो सके। यहाँ के निवासी सदा ही उपेक्षित रहे। अन्य अवतार, महापुरूष कहीं कहीं अन्य देशों में ही प्रचार करते रहे। इस समय धर्म का प्रचार करके लोगों को सचेत करने की महत्ती आवश्यकता थी।

 लोग धर्म, कर्म, पवित्रता, शौच, स्नान, सत्य, प्रिय-भाषण इत्यादि नहीं जानते थे अज्ञानान्धकार में डूबे हुए थे। नित्य लड़ाई-झगड़ा, व्यर्थ का वाद-विवाद, चोरी-निन्दा, झूठ आदि का कुछ भी ध्यान नहीं था। वैदिक धर्म लुप्त हो गया था किन्तु कल्पित देवी देवताओं की भरमार थी। देवताओं नाम से पूजा-पाठ में जीव हिंसा से भी परहेज नहीं था। जीवों पर दया नहीं थी।

खाद्य-अखाद्य भोजन का निर्णय नहीं था जीवन को बर्बाद करने वाले नशे अत्यधिक प्रचलित थे जीवन जीने की कला नहीं जानते थे। जीवन में मायूसी छाई हुई थी। जीने का कुछ भी लाभ मालूम नहीं पड़ता था। ऐसी अवस्था उस समय पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में लोगों की हो चुकी थी।

 इस प्रकार से अज्ञानान्धकार में लिप्त लोगों को कौन उबारे? अन्य संत महापुरूष तो इस कंटीले, कंकरीले कठोर देश से दूर ही रहना पसन्द करते थे। जहाँ पीने के लिए जल भी सुलभ ही न हो ऐसे देश से भला कौन प्रीति करेगा? भगवान नृसिंह ने उद्धार करूंगा।

पांच करोड़ सतयुग में पार हो प्रहलाद को वचन दिया था कि मैं तुम्हारे बिछड़े हुए जीवों का चुके, सात करोड़ त्रेतायुग में, नव करोड़ द्वापरयुग में पार उतर गये। किन्तु बारह करोड़ तो अवशिष्ट थे, उन्हें कौन अवतार लेकर आये। यही मुख्य निमित्त कारण होगा।

भगवान को अपने भक्त प्रिय होते हैं, उन्हें उबारने के लिए, धर्मरूपी नौका लेकर संसार में उतर आते है। जहाँ कहीं पर भी छुपे हुए हैं, वहीं खोज कर लेते हैं। म्हें खोजी थापण होजी नाहीं, खोज लहां धुर खोजू।

जीव चाहे कितने ही नये-नये शरीर धारण कर ले किन्तु वह स्वयं ज्यों का त्यों रहता है। जीव में कुछ भी अन्तर नहीं आता है। नये नये शरीरों में अन्तर अवश्य ही आता है। इसलिए जाम्भोजी महाराज ने उन जीवों को पहचाना था उनमें जो प्रहलाद पंधी थे उन्हें पार किया। भगवान के अवतार होने का यह भी कारण होगा।

भगवान कृष्ण का जन्म मथुरा में हुआ था। जन्म के तुरंत बाद पिता वसुदेव ने देवकौ की आत्ञा से ै | अंधेरी रात्रि में यमुनाजी के पार गोकुल गाँव में पंहुचा दिया था।

 गोकुल में नंद जी पिता कहलाये तथा यशोदा माता बनी। सम्पूर्ण बाल्यावस्था गोकुल में ही का गोद में खेलते हुए व्यतीत कर दी। कृष्ण-बलराम जब बड़े हुए तब उन्हें बुलाने के लिए कंस भेजा हुआ अक्रूर आ गया। अक्रूर ने ब्रजवासियों को संदेश सुनाते हुए कहा-आप लोग सालाना को चुकता करने चलो। कृष्ण-बलराम को भी ही चलना है। उनके मामा ने धनुष यज्ञ देखने को बुलाया है। प्रातः काल ही चलना हैं।

 कंस का सन्देशा सुनकर ब्रजवासी जन नन्द आदि गोप अपने अपने छकड़ों में समान भरकर मथरा सो रवाना हुए। अक्रूर ने कृष्ण बलराम को कंस के रथ पर बैठाया और गोप ग्वाल, यशोदा के देखते ही देखा रथ को मथुरा की तरफ चला दिया। आगे-आगे अक्रूर कृष्ण-बलराम को लिए हुए जा रहे थे। पीछे-प ग्वाल-बाल नन्द आदि जा रहे थे।

धनुष यज्ञ का तो बहाना था। कृष्ण बलराम को मामा कंस किसी उपाय से मरवाना चाहता था। कुवलयापीड हाथी द्वारा या शल, तोशल, मुष्टिक, चाणूर आदि पहलवानों द्वा मरवाने की योजना थी, किन्तु भगवान की माया से सभी कार्य उलट पुलट हो गए। स्वयं कृष्ण बलन ने उस हाथी और उन पहलवानों को मारकर अपने मामा कंस को भी मारने में देर नहीं की।

 दुष्ट राजा कंस को मारकर भगवान ने देव-दानव एवं मानवों का भला ही किया। देवताओं ने जप जयकार की, आकाश से पुष्प बरसाए। कंस को मारकर सर्वप्रथम कृष्ण अपने माता पिता देवको-वसुदेव के पास बन्दीगृह में पहुंचे उनके बन्धन छुड़ाये और हाथ जोड़कर प्रणाम किया। किन्तु आश्चर्यचकित वे दोनों भगवान को सामने देखकर कुछ भी नहीं बोल सके।

 ये तो भगवान है हमारा बेटा कहाँ है? पुत्र सुख से हम वंचित रहे हैं। इतने बड़े भगवान को कैसे लाइ प्यार करें? कैसे गोदी में बिठायें? हमारा तो जीवन ही व्यर्थ हो गया। ऐसा कहते हुए एक दृष्टि से देख ही रह गये।

एलकें झपकने का क्रम ही भूल गयी भगवान कृष्ण ने देखा कि माता-पिता मुझसे प्रेम नहा कर रहे हैं। इन्हें ज्ञान हो गया है। मोह से निवृत्त हो गये हैं बालक सुख से वंचित हो रहे हैं। क्यों न इन्ह अपनो माया से मोहित करूं जिससे मुझे भगवान न मानकर साधारण बालक मानकर मुझे लाड प्यार दे।

 ऐसा मानकर भगवान ने उन ज्ञानी माता-पिता के भी माया का परदा डाल दिया जिससे उन्हें वहाँ भगवान छोटे नन्हे बच्चे दिखाई देने लगे। माँ का प्यार उमड़ पड़ा। स्तनों में दूध की धारा बहने लगी। गद्गद् वाणी से माता अपने बच्चे को दुलारने लगी। कृष्ण ने कहा- हे मात! आपने मेरी वजह से बहुत ही दुःख उठाया है कितने वर्षों तक आपको जेल में रहना पड़ा।

मैं भी परवश था आपके पास आ नहीं सका। असली जन्म दाता तो आप ही है। मैं भी अपनी जननी से दूर रहा, कुछ भी सेवा नहीं कर सका। मेरा यह दुर्भाग्य ही है। जो मुझे दुलार-प्यार दूध-मक्खन आदि माँ के हाथ से मिलना चाहिये था उससे में वॉँचित रहा हूँ। असली माँ की तो बात ही कुछ ओर है।

अब तक जो कुछ भी हुआ है । हे मेरे जनक! आप भूल जाईये। आगे के लिए फिर कभी आपको इस प्रकार से अकेले छोड़कर नहीं जाऊंगा। सदा हो आपको सेवा में तत्पर रहंगा। अब मुझे आप क्षमा कर दीजिए।

मैं आपका ही बेटा हूँ। आपके ही पास रहूंगा। निश्चित हो जाईये। भगवान के ऐसा कहने पर वसदेव-देवकी ने बिछड़े हुए अपने लाला को गले से लगा लिया। आंखों में आँसुओं की झड़ी लग गयी।

 देवकी ने कहा- बेटा। मैनें तो तुम्हें जन्म लेते ही त्याग दिया था मैं क्या करती? मैं लाचार थी तुम्हारे नाम मात्र के मामा कंस से भयभीत थी। तुम्हारे जन्म से पूर्व तुम्हारे भाईयों को कंस ने मेरी आंखो के सामने पटक-पटक कर मार दिये थे। तुम हमारी अंतिम आठवीं संतान हो। मैनें तो तुम्हारी भलाई सोची थी कि कहीं इस सुन्दर सलोने कृष्णवर्ण के बालक को दुष्ट कंस वही गति न करदे जो पहले की थी।

इसलिए हे कृष्ण! मैनें तुझे रातों रात गोकुल गांव में नंद यशोदा के यहाँ पंहुचा दिया। इसी का फल आज तुम प्राप्त हे हो, अन्यथा माँ अपने नवजात शिशु को कहीं भी अपने से अलग नहीं होने देती। बेटा! इस बात का तुम बुरा मत मानना ।

कहीं ऐसा न हो कि अपने जन्म की बात सुनकर तूं हमें छोड़कर चला जाये। अब तक तो तुम्हारी प्रतीक्षा में समय व्यतीत कर दिया कि बेटा एक दिन अवश्य ही आयेगा, कंस को मारेगा और आकर हमें माताजी पिताजी कहकर पुकारेगा। इसी प्रतीक्षा में हमने इतने दिन कारावास में व्यतीत कर दिए। किन्तु अब आगे तुम्हारे बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकते इस प्रकार से माया का पर्दा छा जाने से माँ बाप अपनी संतान को प्राप्त करके प्रसन्नचित हो गए।

 माता पिता को मुक्त करके कृष्ण बाग में गये, जहाँ नन्दजी तथा अन्य साथी रूके हुए थे, कृष्ण की प्रतीक्षा कर रहे थे। अब कृष्ण आयेगा, तभी साथ में लेकर वृज में जायेंगे। कैस को मारने का समाचार ब्रजवासियों को सुनायेगे। खुशियां मनायेंगे, ऐसी वार्ता चल रही थी कि कृष्ण तो पँहुच ही गये। सभी कहने लगे देखो: वह हमारा प्यारा कन्हैया आ गया है। कल तो इसने धनुष यज्ञ में चमत्कार ही कर दिया। भरी सभा के देखते ही देखते पलक झपकने के साथ ही उस बलवान राजा कंस को राजसिंहासन से नीचे घसीट लिया और मार गिराया।

 सभी एक स्वर में कहने लगे- कन्हैया अतिशीघ्रता करो वापिस भी तो चलना है। यह प्रिय समाचार अपने प्रियजनों को भी तो सुनाना है, खुशियां मनानी है भगवान बोले- हे मेरे प्रिय बन्धुओं ! तथा मेरे पूज्य पिताश्री। अब मैं इस समय वापिस ब्रजभूमि में नहीं जाऊंगा किन्तु मैं वचन देता हूँ कि फिर कभी आऊंगा। में अवश्य ही आऊंगा, किन्तु कब आऊंगा यह अभी नहीं कह सकता। यहां कार्य अधिक है, समय थोड़ा है हो सकता है यह जन्म ही व्यतीत हो जाये।


 मेरे पूज्य पिताजी एवं माता यशोदा का शरीर ही न रहे इस शरीर को तो जाना निश्चित ही है आप लोग बड़े बूढ़े भी यहाँ से प्रयाण कर जाये तो मैं फिर किसके पास आऊंगा। फिर भी मैं वचन देता हूँ आऊंगा जरूर । यदि यह जीवन न रहे तो भी घबराने की आवश्यकता नहीं है । दूसरा जन्म भी तो मिल जायेगा। तुम्हारी मुझसे मिलने अवश्य हो आऊंगा। की आशा तुम्हें दूसरा जन्म देगी। उस जन्म में नहीं आ सकूंगा तो दूसरे जन्म में अवश्य ही आऊंगा।

 हे पिताजी ! आपकी तथा यशोदा की आयु बहुत ही कम रह गयी है। आप स्वर्ग में प्रस्थान करोगे, तब तक मुझे यहां कार्य की फुर्सत ही नहीं है अब आगे मुझे जरासंध, शिशुपाल, दन्तवक्त्र आदि कितने ही राक्षस और मारने हैं इस धरती का भार उतारने के लिए ही मेरा यहाँ आगमन हुआ है। इसलिए जब म्हारा दूसरा जन्म होगा तभी मैं तुम्हारा पुत्र बनकर आऊंगा, क्योंकि पुत्र के प्रेमवश आप रहने आपका शरीर इसी भावना से छूटेगा,  तब तो आपका जन्म होना अवश्यंभावी है।

मैं भी आपको वचन देता हूं तो मुझे भी आपका पुत्र बनकर आना आवश्यक है। पीपासर व्रज भूमि है उसी व्रजभूमि में आगामी युग में आप स्वयं नन्द ही लोहटजी के नाम से जन्म लोगे और यशोदा स्वयं उनकी पत्नी हांसादेवी के नाम से प्रसिद्ध होगी। मैं स्वयं आपके जन्म लेकर आऊंगा, आपकी इच्छा पूर्ी करूंगा। आप लोग अभी जाईये, ब्रजवासी आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।

जय बजरंगी बोले, वो कभी ना डोले: भजन (Jay Bajrangi Bole Vo Kabhi Na Dole)

29 Rule Bishnoi ( 29 नियम बिश्नोई )

नृसिंह अवतरण पौराणिक कथा (Narasimha Avatar Pauranik Katha)

 हे पिताश्री! आप जाकर माता यशोदा को मेरा सन्देशा कह देना कि आऊंगा जरूर किन्त कब के में मत पूछे । प्रतीक्षा का फल मीठा होता है। भगवान का स्मरण बना रहे, अन्त मति सो गति। अन्त का च मामैव स्मरणमुक्तवा कलेवरंम्। अन्त समय में जिसका भी स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग वही गति यानि जन्म होगा। तुम्हारा यह जन्म तथा दूसरा जन्म भी सफल हो जाएगा।

स्वयं श्रीकृष्ण जाम्भोजी के रूप में अवतार लेकर आये थे। यह भी एक निमित्त कारण था। नन्दजी स्वयं हंस रूप में है। किन्तु लोहट के रूप में जन्म हुआ। एक ही आशा घर कर गयी कि स्वयं भगवान ही पुत्र के रूप में आ जाये। इसी आशा में लोहटजी को कोई सन्तान नहीं हुई थी। अन्य जीव का तो जन्म ही नहीं होगा क्योंकि आशा भगवान की लगी है। भगवान आयेंगे किन्तु तपस्या करनी पड़ेगी तथा प्रतीक्षा भी करनी पड़ेगी।

 इसी उहा-पोह में लोहट एवं हांसा की आयु ने वृद्धावस्था को प्राप्त कर लिया। दिल में तो सदा भावना बनी रही कि कुछ न कुछ होगा अवश्य ही, किन्तु आयु को देखते हुए आशा निराशा में बदल जाती। इस प्रकार से लोहट-हंसा पीपासर में रहते। गांव में सामान्य ठाकुर, पंवार वश में उत्पन्न हुए थे। कृषि तथा गो पालन करना अपना कर्त्तव्य समझते थे।

सदा नियमों का पालन करते हुए सुख से जीवन व्यतीत कर रहे थे। घर में अन्न धन, लक्ष्मी सभी कुछ था किन्तु एक कमी थी कि वंश परम्परा को आगे बढ़ाने वाला कोई नहीं था। हांसा की गोद खाली थी। सभी सुख होते हुए भी महिला बिना संतान के अपना जन्म व्य्थ ही मानती है। स्त्री-पुरूष किसके लिए जोए यदि संतान नहीं हो तो।

 सभी ग्रामवासियों के दिन अच्छी तरह व्यतीत हो रहे थे गायें आदि पशु धन जंगल से चर करक आती थी। अमृत तुल्य दूध देती थी। घरों में घी, दूध, दही आदि के भण्डार भरे रहते थे। कोई भी पशु पक्षा आदि भूखा नहीं था। सभी आनन्द मंगल में थे समय पर वर्षा हो जाती थी। सखी जीवन के लिए बस यही चाहिये था इससे ज्यादा मांग भी नहीं थी।

जो भी परमात्मा प्रसन्न होकर दे देता उसमें ही संतोष सुख का अनुभव करना उनका जीवन हो गया था। अधिक लोभ ही काम, क्रोध को बढावा देता है। काम से क्रोध और क्रोध ही विनाश का कारण बनता है । ऐसी परिस्थिति उस गांव की नहीं थी जिस गांव पीपासर के ग्रामपति ठाकुर लोहट थे। वे स्वयं ही संतोषी भगवान के प्रिय भक्त थे। यथा राजा तथा प्रजा. जैसा राजा वैसी प्रजा।

 समय सदा एक रस नहीं रहता, सुख के पछि दुःख भी आता है तथा दु:ख के पीछे सख भी आता है। दुखिया है जो सुखिया होयसी, करसी राज गहरा। बिना दुख के सुख का पता नहीं चलता। सुख व का आना भी जरूरी है। यही पीपासर वासियों के लिए एक दुःख का हल्का झटका लगा। विक्रम संवत 1507 में पीपासर ग्राम के आसपास अकाल पड़ा। क्योंकि वर्षा नहीं हुई। अन्न की तो कमी नहीं थी क्योंकि लोग प्रायः दो तीन साल के लिए अन्न कोठियों में भरकर रख लेते हैं.कुछ पता नहीं आगे क्या होगा?

अनाज तो हम हमारे खेतों का ही जीमेंगे, जल अपने हो कुवें का पौयेंगे। वायु तथा सूर्य तो से हमारे देश का हो उपलब्ध है। अन्न जल ही हमारे संस्कारों का जनक है। इसलिए घर घर अन्न के कोठार भरे थे किन्तु गायों के लिए घास की कमी पीपासर के आसपास आ गयी थी।

 हम सभी पूर्ण भोजन करके सोयेंगे, हमारे प्राणों से भी प्रिय हमारे जीवन के आधार पशु आदि भूखे रहेंगे तो हमें नोंद कैसे आयेगी। ऐसा विचार करके ग्रामीण लोग ग्रामपति ठाकुर लोहटजी के पास गये और अपना दुःख सुनाने लगे। लोगों ने कहा- हे ठाकुर, हम आपके पास आये हैं, यह केवल गांव की ही बात नहीं है, आपकी गायों की स्थिति अच्छी नहीं है।

आजकल खेत-जंगलों में गायों के चरने के लिए कुछ भी नहीं है। हमारे गायें जंगल से भूखी आती है, ये हमारे पशुधन हमारो तरफ अश्रुपूर्ण नेत्रों से देखता है। हमसे यह सहन नहीं होता। जैसा भी हो इन मूक पशुओं के लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा। अब तक तो जैसे तैसे वन में ही उन गायों ने गुजारा किया है। किन्तु अब आगे गुजारा होना असम्भव है। वर्षा का समय तो अभी काफी दूर है, पूरी सर्दी तथा गर्मी पार करनी है।

लोहटजी ने कहा- आप लोग ही बतलाईये कि मैं क्या करूं? यथाशक्ति मैं आपके साथ चलने को तैयार हूँ भाईयों। आप लोगों में यह भूल है हम लोग अपने भोजन के लिए अन्न एकत्रित कर लेते हैं किन्तु उन निरीह प्राणियों के लिए घास तृण आदि एकत्रित नहीं करते। वर्षा का क्या पता है। आगे से ऐसी भूल नहीं करेंगे। घास इकट्ठा करके रखेंगे ताकि विपत्ति में काम आये। ग्रामीण लोग कहने लगे- हे ठाकुरजो! ये बातें तो आगे की है, वर्तमान में हमें क्या करना चाहिए?

जिससे हमारा पशुधन भूख मरकर समाप्त न हो जाय। क्या करें और क्या न करें कुछ समझ में नहीं आ रहा है। इस प्रकार से विचार में डूबे हुए लोगों को सांत्वना देने के लिए एक बटाऊ-पथिक उसी समय ही आकर सभा में बैठा। उसे पथिक जानकर आदर सत्कार किया, अन्न-जल को मनुहार की तथा पधिक से पूछा कि हे पथिक! आप इस समय कहाँ से आ रहे हैं?

क्या कहाँं मार्ग में तुमने गायों को घास चरते हुए देखा है? जहां घास की अधिकता है? यदि कहीं देखा है तो बतलाने की कृपा करें तुमने यहां पोपासर में तो देखा ही होगा कि यहाँ आस-पास कहीं घास नहीं है, हमारी गायों की हालत खराब है, हम सभी ग्रामवासी यहाँ से गोवळवास हेतु प्रस्थान करना चाहते हैं। कुछ दिनों तक देवास में रहेंगे। विपत्ति का समय बितायेंगे, जब अच्छी वर्षा होगी तो वापिस लौट आयेंगे। वैसे तो स्वकीय जन्म भूमि छूटना अच्छा नहीं लगता है। कहा भी है

यद्यपि लंका स्वर्णमयी, तदपति लक्ष्मण मे न रोचते, जननी जन्मभूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसी।

 बटाऊ ने कहा- आप लोग मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनो! मैं आप लोगों के लिए हित की बात कहता हूँ अभी-अभी मैं द्रोणपुर, छापर आदि स्थानों को देखता हुआ आया हूँ।

मैं भी उसी देश का रहने वाला हैं।हमारे यहाँ तो इस वर्ष अच्छी वर्षा हुई थी, लोगों ने खेतों से अन्न उठा लिया है तथा घास भी बहुत छाये तुम्हारे गांव की कितनी सी गाये हैं, सारे संसार की गायें आ जाये तो भी पास समाप्त होने वाली नहीं डा पाने के लिए तालाब जल से भरे हुए हैं। जल कभी कम नहीं होगा। आप लोग विनि के समय यहाँ स चलिए, अपनी गायों को लेकर पंहच जाईये। इसमें ही आपका हित है।

ऐसा कहते हुए वह बटाऊ सभी से आज्ञा लेकर वहाँ से रवाना हुआ। लौहटजी ने उस बटाऊ की बात | का समर्थन किया और कहा- ऐसा ही करो। आप लोग किसी प्रकार की चिन्ता न करें, वाहाँ तो हमारे छोटे। | भाई पूल्होजी रहते हैं। उनके यहां पर भी अपना ही है और दूसरे लोग छापर द्वोणपुर में अपने ही भाई बन्ध | रहते हैं।

किसी प्रकार की कोई कठिनाई नहीं होगी। मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगा तथा साथ ही रहूगा। मुझे | तुम लोग इतना आदर देते हो तो मेरा भी आपकी सेवा तथा सुख-दुःख में साथ निभाने का कर्त्तव्य वनता है। अभी शीघ्र ही रहने दो। बाकी सभी ही चलो, देरी न करो। अपने-अपने छकड़ों पर आवश्यक सामान भर लो तथा आगे करके कल प्रात:काल ही चलना है। बड़े-बूढ़ों को तथा बच्चों को गांव में ही रहने दो बाकी सभी चलते हैं गोवळवास को।

 हे भाईयों यह संसार भी गोवळयास ही है। इसे सत्य मानकर सदा-सदा के लिए रहने की कोि मत करो। एक दिन तो आज की भांति यहाँ से भी रवाना होना ही पड़ेगा। यह तो छोटा प्रयाण है महाप्रयाण होगा।

सदा सुखी वही रहता है जो हमेशा जाने के लिए तैयार रहता है। प्रात:काल की शुभ वेला में गायों का समूह ऐसे चला जिस प्रकार से गंगा यमुना की धारा बहती हो। सांझ के समय दस कोश का मार्ग तय करके दुगोली पंहुचे वहाँ पर गऊओं को जल पिलाया प्रातः काल वहाँ से चलकर भरनावा होते हुए सायं समय लाडनूं पंहुचे। वहाँ पर पूल्होजी पंवार रहते थे से मिलन हुआ। तीसरी मंजिल शाम को छापर पंहुचे।

रात्रि में छापर निवास किया और प्रात:काल द्रोणपुर में जाकर डेरा लगाया। वहाँ के ठाकुर को यह पता चला कि पीपासर के ग्रामपति ठाकुर लोहटजी पंवार आये हैं, तो उन्हें ससम्मान गांव की सीमा में बसाया। गायों को नरने के लिए एक तरफ की सींब बतला दी। जल पीने के लिए एक तालाब सौंप दिया। लोहटजी के साथ सभी ग्रामवासी अति आनन्दित

नित्य प्रति लीहटजी अपने साथियों के साथ गए को चराने के लिए जाते थे इस प्रकार से सर्दी का मौसम चला गया तथा गर्मी का मौसम प्रारम्भ हो गया था गायें रात्रि में चरने के लिए जाती थी। ग्वाले रात्रि में भी गायों के साथ होते। कही ऐसा न हो कि वन्यजीव भेड़िया आदि हिंसक जानवर गायों को नुकसान पंहुचा दे और अपना भोजन बना ले।

कहीं ऐसा न हो कि कोई पशु खो जाये, उनको संभालकर साथ में रखना होता है। चोरी-डकैती का भय भी सदा बना रहता है। सभी ग्वाले तो रोज एक साथ तो नहीं जाते थे किन्तु बारी-बारी से दो चार ग्वाले गायें चराने जाते थे कभी-कभी लोहटजी की भी बारी आता थी, उन्हें गोपाल बनकर वन में जाना पड़ता था। बड़े हुए तो क्या हुआ, मर्यादा का पालन पहले तो बड़ को ही करना होता है। यदि बड़े ही नियम का उल्लंघन करेंगे तो छोटे लोग तो उन्हीं का अनुसरण करणे, नियम को तोड़ा करेंगे।

यद् यद् आचरति श्रेष्ठ, तद् तद् देवोतर जना:
स यत् प्रमाणं कुरुते, लोकस्तदनुवर्तते

 प्रथम वर्षा तो चेत्र में हो गयी थी जिससे हरियाली हो गयी थी। तालाबों में जल भर गया था। जल भर गया था। गाय हरी हरी घास चर कर आनन्दित हो रही थी। दूसरी वर्षा भी समय पर अक्षय तृतीया केा हुई थी, जो खेत जोतने| का उपयुक्त समय था। नववर्ष प्रारम्भ हो गया था। इस वर्ष भगवान बड़े ही प्रसन्न थे। लगातार समय पर वर्षा हो गई थी। किसान हर्ष से फूले न समाते थे। अपने अपने हल, ऊंट तथा बैलो को लेकर खेत जोतने को जा रहे थे।

जम्भेश्वर भगवान अवतार के निमित कारण भाग – 1
आगे जम्भेश्वर भगवान अवतार के निमित कारण भाग – 2 है …………..

Sandeep Bishnoi

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