सोवन नगरी समराथल
पूरब देश के रहने वाले व्यापारी बिश्नोई एक बार व्यापार करने के लिये चित्तौड़ की राजधानी में प्रवेश किया था। वहां पर प्रवेश करते ही राज्य कर्मचारियों ने सीमा शुल्क मांगा था, तब बिश्नोइयों ने देने से साफ इन्कार कर दिया था जिस कारण से उन्हें तत्कालीन राणा सांगा तथा झाली राणी के सामने प्रस्तुत होना पड़ा था। उन्होने राजा के सामने सत्य निडर भाव से अपनी बात बताते हुए कहा कि हम लोग जम्भगुरु जी के शिष्य बिश्नोई हैं हमारा टैक्स सभी राजाओं के यहां पर माफ है तो फिर हम आपको टैक्स कैसे दे सकते हैं।
इस विवाद का निर्णय करने के लिये बिश्नोइयों को तो छोड़ दिया तथा अपने विश्वस्त आदमियों को समराथल पर यह पता लगाने के लिये भेजा कि वास्तव में यह बात सच है या नहीं। दिल्ली का निवासी भीयो पंडित शास्त्रज्ञ विद्वान व्यक्ति था। उधर। से विश्नोइयों की जमात सम्भराथल पर से जा रही थी तो भीये ने शास्त्रा्थ करते हुए यह सिद्ध किया था कि कलयुग में तो केवल एक ही कल्कि अवतार होगा और कोई अवतार नहीं होगा उस समय तो विश्नोइयों ने उससे कुछ नहीं कहा और उसे सचेत कर दिया कि अगली बार छः महीने पश्चात जब हम आयेंगे तो आपको भी साथ संभराथल ले चलेंगे, आप तैयार रहना।
हम लोग तो प्रत्येक छठे महीने वहां पर अवश्य ही जाते हैं। दूसरी बार जब विश्नोइयों की जमात दिल्ली पहुंची तो भीयो भी साथ शास्त्रार्थ करने के लिये पुस्तकों की गाड़ी भरकर चला था तथा मार्ग में चलते हुए ‘द’ अक्षर पर विचार करके चला था कि यदि वे अवतार है तो मेरे मन की बात अवश्य ही बतला देंगे। इस प्रकार से सम्भराथल पहुंचने पर द’ का पूरा भेद जम्भदेव जी ने बतला दिया था।
उधर चितौड़ से तो सांगा राणा द्वारा भेजे हुए आदमी सम्भराथल पर पहुंचे थे। इधर से भी पंडित सहित विश्नोइयों की जमानत भी पहुंच चुकी थी। जम्भदेव जी ने ज्ञान वार्ता चलाई,सभी लोग ध्यानपूर्वक श्रवण कर ही रहे थे। उसी समय ही भीये ने सम्भराथल की महिमा जाननी चाही।
तब जम्भेश्वर जी ने बतलाया कि यह तो आदि अनादि काल से ही तपोभूमि रही है। इस पर अनेकानेक सिद्ध पुरुष तपस्या करके चले गये है यह नगरी तो भगवान विश्वंभर की आदिकाल में थी।
समयानुसार परिवर्तनशील जगत में अब लोप हो चुकी है। फिर भी अब भी उसके नीचे उस स्वर्णमय नगरी के अवशेष अवश्य ही है। तब भी ने कहा यदि ऐसा है तो आप हमें इन्हीं आंखों से दिखलाईये तभी हमें विश्वास हो सकेगा। अन्यथा केवल वार्ता कथन श्रवण से तो कोई लाभ नहीं है। जम्भदेव जी की स्वीकृति मिल जाने पर पांच मान्य पुरूष सोवन नगरी को देखने के लिये तैयार हुए। जिसको कवि आलम जी ने इस प्रकार छन्द द्वारा वर्णन किया है
खींयो भीयो दुझलो, संहसो और रणधीर।
पुरी दिखाई सोनवी, सेवका पांच सधीर।।
बाबल मन लालच हुवो, सींवल लीवी उठाय।
ज्यूं काटै त्यूं दूणी हुवै, इसमें संशय नाय।।
पर उपकारी जीव है,मंदिर दियो बनाय।
कह आलम कोई सांभले,सहजे स्वर्गे जाय।।
खीयो, भीयो, दुझलो, सेंसो तथा रणधीर जी बाबल इन पांचों को साथ में लेकर सम्भराथल ऊपर स्थित हरि कंकेहड़ी से सीधे पूर्व की तरफ पहुंचे। इस समय वर्तमान मन्दिर से ठीक उत्तर में अति प्राचीन विशाल हरि कंकड़ी है। उसके नीचे गुरु महाराज का अडिग आसन हुआ करता था।
उससे ठीक पूर्व दिशा में इस समय स्थित नीचे जो तालाब है जहां से श्रद्धालु मिट्टी निकालते है वहां पर पहुंचे थे। वहां जाकर पांचों को आंखें बन्द करवा करके तालाब के अन्दर प्रवेश करवाया था।
आगे ले जाकर एक पर्दा हटाकर उसमें प्रवेश करवा करके दिव्य कंचनमय नगरी दिखलाई थी। जिसका वर्णन कवियों ने बहुत सुन्दर किया है। वहां पर अनेकों प्रकार के कंचनमय दिव्य विशाल महल बने हुए थे, खम्भों पर अनेक प्रकार के रत्न जड़े हुए थे। वहां पर उस नगरी के अधिपति भगवान विश्वंभर स्वयं ही थे। उन पांचों ने अति मनभावनी पुरी को पूर्णरूपेण तृप्ति पर्यन्त देखा था।
वहां से चलकर बाहर आते समय चितौड़ से आये हुए अतिथियों के हाथ झाली राणी को भेंट देने के लिये झारी, माला, सुलझावणी भी विश्वंभर द्वारा दी हुई ले आये थे तथा अनजान में ही एक स्वर्णमय शिला का टुकड़ा रणधीर जी को सुन्दर लगा था जिसको देखते-देखते अकस्मात् बाहर निकल आये थे।
वहां से बाह्य देश में निकलकर आ जाने के पश्चात् ही रणधीर जी को चेता हुआ। तब क्षमा प्रार्थना करने लगे कि प्रभु मैं भूल से यह एक स्वर्ण का टुकड़ा साथ ले आया हूं, मैं अब इसका क्या करूं।
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तब जम्भदेवजी ने कहा कि वैसे तुमको इस प्रकार की अन्य देश की वस्तु यहां पर बिना पूछे नहीं लाना था, यदि ले भी आये हो तो इसको किसी परोपकार कार्य में ही लगाना। इसको तुम ज्यूं-ज्यूं काटकर परोपकार करने के लिये लगाओगे, ल्यूं- त्यं यह पूर्ण हो जाएगी यह वस्तु अखूट होगी।
जम्भेश्वर जी के अन्तर्धान पश्चात् रणधीर जी ने ही मुकाम का मन्दिर छाजे तक बनाकर तैयार किया था इतना कार्य होने के पश्चात् किसी दुर्घटना के शिकार हो गये। मन्दिर का कार्य वहीं पर रुक गया था। वह अलौकिक वस्तु भी रणधीर जी के साथ लोप हो गई, मन्दिर का कार्य रुक गया।
सिलावटे लोग भी मजदूरी के अभाव में वहां कुछ समय तक रहे थे ऐसा अनुमान किया जाता है। कुछ वर्षों तक तो मन्दिर का कार्य रुका ही रहा था. बाद में पंचायत का निर्माण हुआ और पंचायत ने चंदे द्वारा उपर का कच्चा गुमुन्द बनाया जो साधारण तथा बेडोल ही मालूम पड़ता है किन्तु छाजे तक का कार्य अति सुन्दर तथा मजबूत है।
इसी प्रकार से सम्भराथल पर विराजमान होकर जम्भदेव जी ने अपनी अलौकिक सिद्धि द्वारा पंडित भीये को विश्वास दिलाया तथा झाली राणी को भी भेंट स्वरूप उपर्युक्त वस्तुएं तथा शब्द नं. 63 वां भेजा था जिससे उनको भी विश्वास हो सका था। वह राज परिवार जम्भगुरु का शिष्य बना था तथा बिश्नोईयों को अपने राज्य में आदर सहित बसाया था, जो अब भी पुर, दरीबा, संभेलिया आदि गांवों में बसते है।
इसी परम्परा का पालन अद्यपर्यन्त श्रद्धालुजन करते आ रहे है क्योंकि इस समय भी हरि ककेड़ी मन्दिर से उत्तर की तरफ विद्यमान है। ठीक उसके पीछे वह कंकड़ भी है जहां पर रावण गोयंद के द्वारा चुराये गये बैलों को घुमा करके यथावत किये थे इसलिये उसी ककेहड़ी के नीचे अब भी श्रद्धालुजन मिट्टी नीचे से लाकर डालते हैं क्योंकि जम्भ देव जी को कोई रेशमी सा ऊंचा कोमल गद्दा तो चाहिये नहीं था, वो तो रेत के बने हुए प्राकृत आसन पर ही बैठा करते थे। वही मिट्टी का आसन ही तो भक्तजन वहां पर लगा रहे हैं। यह आदिकाल से ही परम्परा चली आ रही है।
तथा इस आसन के लिये बालुमय रेत नीचे जाकर तालाब से अपने हाथों से ही खोद कर लाते है वह भी उसी जगह से खोदते हैं जहां पर उन पांचों को सोवन नगरी दिखाई थी, जहां पर से पर्दा ऊपर उठाकर अन्दर प्रवेश करवाया था। अब भी यही आशा रखते हैं कि कहीं वही पर्दा हमारे लिये भी क्यों नहीं उठेगा।
जब उन लोगों ने थोड़ी मिट्टी हटाकर अन्दर प्रवेश किया था तो हम लोग भी वैसा नहीं कर सकते। इसलिये मिट्टी वहीं से खोदकर ग्रहण करते हैं। इससे यह भी लाभ होता है कि अनायास ही तालाब की खुदवाई तो हो ही जाती है। वह सोवन नगरी तो नहीं मिले तो क्या फर्क पड़ेगा, परोपकार
कार्य तो निश्चित ही हो रहा है तथा सम्भराथल की रेत प्रत्येक वर्ष जो हवा पानी से चली जाती है उसकी पूर्ति भी इसी प्रकार से होती रहती है तथा दुपट्टे के पल्ले में लगभग पांच सात किलो मिट्टी बांधकर ऊपर चढ़ने में व्यायाम भी भलीभांति हो जाता है। श्वास प्रश्वास तेज गति से चलने से शरीर की प्रत्येक नाड़ियां शुद्ध पवित्र हो जाती है। उस समय हृदय अति पवित्र हो जाता है जिससे श्रद्धा बढ़ती है और श्रद्धा से ज्ञान शक्ति ऊर्जा ग्रहण की शक्ति बढ़ती है। सम्भराथल पर आने का सच्चा फल प्राप्त होता है।