पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 8 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 8)

सूतजी बोले, ‘हे तपोधन! विष्णु और श्रीकृष्ण के संवाद को सुन सन्तुष्टमन नारद, नारायण से पुनः प्रश्न करने लगे।
नारदजी बोले, ‘हे प्रभो! जब विष्णु बैकुण्ठ चले गये तब फिर क्या हुआ? कहिये। आदिपुरुष कृष्ण और हरिसुत का जो संवाद है वह सब प्राणियों को कल्याणकर है।’

इस प्रकार प्रश्न् सुन फिर भगवान् बदरीनारायण जगत् को आनन्द देने वाला बृहत् आख्यान कहने लगे।
श्रीनारायण बोले, ‘तदनन्तर विष्णु बड़े प्रसन्न होकर बैकुण्ठ गये और वहाँ जाकर हे नारद! अधिमास को अपने पास ही बसा लिया अधिमास बैकुण्ठ में वास पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और बारहों मासों का राजा होकर विष्णु के साथ रहने लगा। बारहों मासों में मलमास को श्रेष्ठ बनाकर विष्णु मन से सन्तुष्ट हुए।

हे मुने! अनन्तर भक्तों के ऊपर कृपा करने वाले भगवान् युधिष्ठिर और द्रौपदी की ओर देखते हुए, कृपा करके अर्जुन से यह बोले।’

श्रीकृष्ण बोले, ‘हे राजशार्दूल! हमको मालूम होता है कि तपोवन में आकर आप लोगों ने दुःखित होने के कारण पुरुषोत्तम मास का आदर नहीं किया। वृन्दावन की शोभा के नाथ भगवान् का प्रियपात्र पुरुषोत्तम मास आप वनवासियों का प्रमाद से व्यतीत हो गया। भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण के भय से सन्त्रस्त मन आप सब लोगों ने भय और द्वेष से मुक्त होने के कारण प्राप्त पुरुषोत्तम मास का ध्यान नहीं किया।

कृष्णद्वैपायन व्यासदेव से प्राप्त विद्या के आराधन में तत्पर, रणवीर अर्जुन के इन्द्रकील पर्वत पर चले जाने पर उसके वियोग से दुःखित आप लोगों ने पुरुषोत्तम मास को नहीं जाना। अब यदि आप यह पूछें कि हम क्या करें? तो मैं यही कहूँगा कि भाग्य का अवलम्बन करो। पुरुषों का जैसा अदृष्ट होता है वैसा ही सदा भासता है। भाग्य से उत्पन्न जो फल है वह अवश्य ही भोगना पड़ता है। सुख, दुःख भय, कुशलता इत्यादि भाग्यानुसार ही मनुष्यों को प्राप्त होते हैं। अतः अदृष्ट पर विश्वास रखने वाले आप लोगों को अदृष्ट पर निर्भर रहना चाहिये।

अब इसके बाद आप लोगों के दुःख का दूसरा कारण और बड़ा आश्चर्यजनक इतिहास के सहित कहते हैं, ‘हे महाराज! हमारे मुख से कहा हुआ सुनो।

श्रीकृष्ण बोले, ‘यह भाग्यशालिनी द्रौपदी पूर्व जन्म में बड़ी सुन्दरी मेधावी ऋषि के घर में उत्पन्न हुई थी। समय व्यतीत होने पर जब १० वर्ष की हुई तब क्रम से रूप और लावण्य से युक्त, अति सुन्दरी और आकर्णान्त नेत्र से शोभायमान हुई। चातुर्य गुण से युक्त यह अपने पिता की एकमात्र इकलौती कन्या थी। अतः चतुरा, गुणवती, सुन्दरी, यह पिता की बड़ी लाड़ली थी।
मेधावी ने सदा लड़के की तरह इसे माना, कभी भी अनादर नहीं किया। यह भी साहित्यशास्त्र में पण्डिता और नीतिशास्त्र में भी प्रवीणा थी। इसकी माता इसकी छोटी अवस्था में ही मर गई थी, पिता ने ही प्रसन्नता पूर्वक पाला-पोसा था। पास में रहने वाली अपनी सखी के पुत्र-पौत्रादि सुख को देख इसको भी स्पृहा हुई, और तब यह सोचने लगी कि हमें भी यह सुख कैसे प्राप्त होगा? गुण और भाग्य का निधि, सुख देने वाला पति और सत्पुत्र कैसे होंगे?

इस प्रकार मनोरथ विचारती हुई सोचने लगी कि पहले मेरा विवाह उपस्थित था, परन्तु भाग्य ने बिगाड़ दिया। अब क्या करने से अथवा क्या जानने से एवं किस देवता की उपासना करने से या किस मुनि के शरण जाने से अथवा किस तीर्थ का आश्रय करने से मेरी मनःकामना पूर्ण होगी। मेरा भाग्य कैसा सो गया कि कोई भी पति मुझको वरण नहीं करता है।

पण्डित भी मेरा पिता मेरे ही दुर्भाग्य से मूर्ख हो गया है, बड़ा आश्चर्य है! विवाह का समय उपस्थित होने पर भी मेरे समान वर को पिता ने नहीं दिया। मैं अपनी सहेलियों के बीच में प्रमुख हूँ, परन्तु कुमारी होने के कारण पति दुःख से पीड़ित हूँ। जैसे मेरी सखियाँ पति-सुख को भोगनेवाली हैं वैसे मैं नहीं हूँ। मेरी भाग्यवती माता क्यों पहले मर गयी? इस प्रकार चिन्ता से व्याकुल कन्या, मनोरथ रूप समुद्र के मोहरूप जल में निमग्न हो शोकमोहरूप लहरों से पीड़ित हो गई। इसके पिता मेधावी ऋषि भी कन्यादान के लिये कन्या के समान वर ढूँढ़ने के हेतु देश-विदेश भ्रमण करने के लिये निकले, परन्तु कन्या के अनुरूप वर न मिलने से अपने मनोरथ में निराश हुए।

कन्या के और अपने भाग्य से कन्या-दानरूप संकल्प के पूर्ण न होने से, दैवयोग के कारण बड़ा भारी दारुण ज्वर उन्हें आ गया। सब अंग ऐसे फूटने लगे जैसे समस्त अंग टूट-टूट कर अलग हो जायँगे और ज्वर की ज्वाला से व्याकुल हुए श्वासोच्छ्वास लेते महादारुण मूर्च्छा से मदिरा पान से उन्मत्त की तरह पैर लड़खड़ाते गिरते-पड़ते किसी तरह घर में आये और आते ही पृथ्वी पर गिर पड़े।

भय से विह्वल कन्या जब तक पिता को देखने आये तब तक कन्या को स्मरण करते हुए मेधावी मुनि मरणासन्न हो गये। भाग्य के फलरूप बल से एकाएक काँपने लगे और कन्या-दान प्रसंग से उठा हुआ जो महोत्सव था वह जाता रहा।

तदनन्तर पहले किये हुए गृहस्थाश्रम धर्म के परिश्रम के प्रभाव से संसारवासना को त्याग कर भगवान् में चित्त को लगाने लगे। उस मुमूर्षु मेधावी ऋषि ने शीघ्र ही नीलकमल के समान श्याम, त्रिवलि से सुन्दर आकृति वाले श्रीपुरुषोत्तम हरि का स्मरण किया, हे रास के स्वामी! हे राधारमण! हे प्रचण्ड भुजदण्ड से दूर से ही देवताओं के शत्रु दैत्य को मारने वाले! हे अति उग्र दावानल को पान कर जाने वाले! हे कुमारी गोपिकाओं के उतारे हुए वस्त्रों को हरण करने वाले! हे श्रीकृष्ण! हे गोविन्द! हे हरे! हे मुरारे! हे राधेश! हे दामोदर! हे दीनानाथ! मुझ संसार में निमग्न की रक्षा कीजिये। इन्द्रियों के ईश्वार आपको प्रणाम है।
इस प्रकार मेधावी के वचनों को दूर से ही सुन कर श्रीभगवान् के दूत चट-पट मुकुन्द लोक से आये और उस मरे हुए मुनि को हाथ से पकड़ कर ईश्वर के चरणकमलों में ले गये।

दूषित वातावरण समराथल का

राधे झूलन पधारो झुकी आए बदरा - भजन (Radhe Jhulan Padharo Jhuk Aaye Badra)

कार्तिक मास माहात्म्य कथा: अध्याय 11 (Kartik Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 11)

इस प्रकार अपने पिता के प्राणों को निकलता देख वह कन्या हाहाकार करके रोने लगी और पिता के शरीर को अपनी गोद में रखकर अति दुःख से विलाप करने लगी। चील्ह पक्षी की तरह बहुत देर तक विलाप करके अत्यन्त दुःख से विह्नल हुई और पिता को जीवित की तरह समझ कर बोली।

बाला बोली, ‘हाय-हाय हे पिता! हे कृपासिन्धो! हे अपनी कन्या को सुख देने वाले! मुझे आज किसके पास छोड़ कर आप बैकुण्ठ सिधारे हैं? हे तात! पितृहीन मेरी कौन रक्षा करेगा? आज मेरे भाई, बन्धु, माता आदि कोई भी नहीं है। हे तात! मेरे भोजन, वस्त्र की चिन्ता कौन करेगा? कैसे मैं रहूँगी, इस शून्य, वेद-ध्वनि-रहित निर्जन वन की तरह आपके घर में। हे मुनिश्रेष्ठ! अब मैं मर जाऊँगी ऐसे जीने में क्या रक्खा है?

हे कन्या में प्रेम रखने वाले पिता! हे तात! विवाहविधि बिना किए ही आप कहाँ चले गये? हे तपोनिधे! अब यहाँ आइये और अमृत के समान मधुर भाषण कीजिए। क्यों आप चुप हो गये! हे तात! बहुत देर से आप सोये हुए हैं अब जागिये।’

ऐसा कहकर आँसू बहाती हुई घड़ी-घड़ी कन्या विलाप करने लगी और पिता के मरने से दुःखित हुई आर्ता, चील्ह पक्षी की तरह मुक्तकण्ठ से रोने लगी। उस लड़की का रोदन सुन उस वन में रहने वाले ब्राह्मण आपस में कहने लगे कि इस तपोवन में अत्यन्त करुण शब्द से कौन रो रहा है?

ऐसा कहकर सब तपस्वी चुप होकर ‘यह मेधावी ऋषि की कन्या का शब्द है’ ऐसा निश्चय कर घबड़ाये हुए हाहाकार करते मेधावी के घर में आये। और वहाँ आकर सबने कन्या के गोद में मरे हुए मेधावी ऋषि को देखा और देख कर उस वन के रहने वाले सब मुनि भी रोने लगे।

कन्या की गोद से शव को लेकर शिव मन्दिर के पास श्मशान पर गये। वहाँ काष्ठ की चिता लगाकर विधि से अन्त्येष्टि कर्मकर उसका दाह किये। दाह के अनन्तर कन्या को समझा कर सब ऋषि अपने-अपने आश्रम गये। इधर कन्या भी धैर्य धारण कर यथाशक्ति क्रिया के लिए द्रव्य खर्च किया।

इस प्रकार पिता की मरण-क्रिया को करके कन्या इसी तपोवन में निवास करने लगी और पिता के मरणरूप दुःखाग्नि से जली हुई रम्भा की तरह व्यथित होती हुई एवं बछड़े के मर जाने से जैसे गौ चिल्लाती है और खाती नहीं दुर्बल होती है वैसे ही यह बाला भी दुःखित हुई।

इति श्रीबृहन्नारदीये पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये अष्टमोऽध्यायः॥८॥
॥ हरिः शरणम् ॥

Picture of Sandeep Bishnoi

Sandeep Bishnoi

Leave a Comment