समराथल धोरे का इतिहास – जम्भेश्वर जी से पूर्वकालीन समराथल*. . भाग 1

jambh bhakti logo

समराथल धोरे का इतिहास * जम्भेश्वर जी से पूर्वकालीन समराथल* भाग 1

समराथल धोरे का इतिहास
समराथल धोरे का इतिहास

                                                                             पार्ट 1

देश, काल तथा वस्तु ये तीनों ही परिवर्तनशील हैं। इसलिये वर्तमान में यह जो कुछ भी दृष्टिगोचर होता है वह आज से कुछ वर्ष पूर्व ऐसा नहीं था। जिस समय सृष्टि की रचना हुई थी, पांचों तत्वों को राजी करके “आकाश वायु तेज जल धरणी, तामा सकल सृष्टि की करणी” आकाश आदि की रचना की थी।
 उस समय ये वर्तमान में स्थित पर्वत, नदी, नाले, टीबे, थल नहीं थे, यह भूमि समतल ही थी।

इस धरती को तो धारण करने के लिे तो उत्पन्न की थी। यदि यह इस समय की तरह ऊबड़-खाबड़, ऊंची की होती तो प्राणियों के ठहरने योग्य नहीं होती। यदि ऐसा नहीं होता तो पाली उत्पन्न करने का प्रयोजन ही सफल नहीं हो पाता। इसलिये हम अनुमान द्वारा जान सकते हैं कि यह धरती समतल ही थी।

 गुरु जम्भेश्वर जी ने सबदवाणी में कहा है कि “तद म्हे रूप मेवातियों कीयो, सत्यव्रत को ज्ञान उच्चारण” शब्द नं. 94 तथा पुराणों में भी इसी प्रकार की कथा आती है कि सृष्टि रचना के कुछ वर्षों के पश्चात् द्रविड़ देश का राजा सत्यव्रत एक दिन नदी में स्नान कर रहा था। उस समय एक मछली उनके हाथ में आ गयी। राजा ने जब दयावश वापिस उसे जल में छोड़ा था,

तब वह मछली मानव भाषा में कहने लगी कि हे राजन् ! आप मुझे इस प्रकार से निराश्रित न छोड़ें, यहां पर मुझे सदा ही जीवन का खतरा बना रहता है, मुझे कभी भी बड़े मच्छ खा सकते हैं। तब सत्यव्रत ने उसको अपने कमण्डलु में डालकर अपने स्थान पर ले आये और उसे सुरक्षित मटके में डाल दिया। थोड़े ही समय में वह मछली वृद्धि को प्राप्त हुई और बड़ी जगह की मांग करने लगी तब राजा ने उसे बावड़ी में डाल दिया।

वहां पर भी वृद्धि को प्राप्त हुई, तब उसे नदी के रास्ते से समुद्र में पहुंचा दिया। उसी समय ही वह मछली कहने लगी-हे राजन् ! आज से सातवें दिन महाप्रलय होने वाला है तुम सभी प्रमुख बीजों को तथा महर्षियों को लेकर नाव पर बैठ जाना समय पर मैं अवश्य ही आऊंगा और तुम्हारी रक्षा करूंगा।

 जैसा मछली ने कहा था वैसा ही प्रारम्भ हुआ। घनघोर वर्षा होने लगी। सम्पूर्ण जगत में जल ही जल हो चुका था। सत्यव्रत बीजों को लेकर नाव पर सवार हो चुका था। उसी समय वही महामत्स्य पुनः प्रगट हुआ और नाव को खींचकर ले चला। कई हजारों वर्ष तक तो वैसे ही खींचता रहा। अन्त में हिमालय की सबसे ऊंची चोटी दिखलाई दी, उसी पर नाव का बांधकर सत्यव्रत राजा को ज्ञान दिया,

जो मत्स्य पुराण प्रसिद्ध हुआ आरम भी बतलाया कि जब यह जल पृथ्वी को खाली कर दे तो पुनः इस पर सृष्टि की रचना प्रारंभ करो।तुम्ही सृष्टि सृजनकर्ता मनु होंगे, तुम्हारे से ही मानव सृष्टि चलेगी

जब वर्षा के वेग से पानी का चढ़ाव था तब इन बड़े पर्वतों की रचना हुई तथा कुछ छोटे-मोटे पर्वत तथा मरूभूमि में ये रेतीले टीबों की उत्पति भी उसी जल के प्रभाव से हुई है। इस देश में कभी जल समूह ही था, उसी जल ने स्वभावत: ऐसी ऊबड़-खाबड़ भूमि का आकार दिया है। उसी उथल-पुथल के बीच में ही इस मरूभूमि ने अपना स्वरूप धारण किया था तथा इस थलों के देश में यह सम्भराथल सबसे शिरोमणी उत्पन्न हुआ था।

 आधुनिक वैज्ञानिक भी ऐसा ही कहते हैं कि अभी कुछ वर्षों से गर्मी अधिक बढ़ती जा रही है। यदि इसी गति से गर्मी बढ़ती रही तो वह दिन दूर नहीं है जिसमें प्रलय का मुंह देखना पड़ सकता है। क्योंकि गर्मी से अथाह बर्फ राशि जो जमी पड़ी है वो पिघलेगी तो नदियों के मार्ग से पानी बहकर समुद्र में पहुंचेगा तो नदियों में उफान आयेगा नदी के किनारे बसने वाली जनता तथा भूमि तो इस प्रकार जलमग्न हो जायेगी तथा अत्यधिक जल के भराव से समुद्र भी सीमा छोड़ देगा जिससे समुद्र के किनारे के लोग वैसे ही डूब जायेंगे

तथा कहीं पर अत्यधिक गर्मी से जल के स्रोत ही सूख जायेंगे तो लोग प्यास के मारे तड़फ-तड़फ कर मर जायेंगे और अन्य बचेकुचे भयंकर वर्षा से जल में डूबकर मर जायेंगे। यह अति निकट ही हो सकता है, ऐसी वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है। कहा भी है-“रीता छालै छला रीतावै, समंद करै छिलरियो, ऊर्जा वासा वसै ऊजाड़ा शहर करै दोय घरियों जीवनी” (साखी) ।

 जब भी सृष्टि की रचना हुई थी तो उस समय एक ही परम पिता परमेश्वर ब्रह्मा, विष्णु, महेश के नाम से उत्पन्नकर्ता, पालन-पोषणकर्ता तथा संहारकर्ता रूप से प्रसिद्ध हुए। उसी परमपिता को इसी धरती ऊपर ही साकार रूप धारण करके यह कार्य करने के लिये आना पड़ा था। यहां पर आये बिना तो यह महत्त्वपूर्ण कार्य होना कठिन था। इसलिये हम कह सकते हैं कि ब्रह्मा जी का प्रमुख स्थान तो पुष्कर ही माना जाता है।

पुष्कर में ब्रह्मा जी ने निवास अवश्य ही किया है, इसलिए तीर्थराज पुष्कर प्रसिद्ध हुआ है तथा संहारक स्वामी शिव का प्रमुख स्थान तो कैलाश पर्वत ही माना जाता है। उन्होंने


कैलाश को ही सौम्य स्थान चुना था जहां पर तपस्या करके उसे पवित्र तीर्थ स्थान बनाया था। इसी परम्परा में। ही विष्णु का परम दिव्य तपस्या तथा कार्य स्थल यह सम्भराथल ही था। यह स्थल समतल भूमि देश में सबसे ऊंचा तथा सर्वश्रेष्ठ स्थान होने से यहीं पर परम विष्णु ने अपनी तपस्या तथा पालन-पोषण की कार्यप्रणाली चलाई थी। कहा भी है- सबवाणी में “उत्तम देश पसारो मांडयो, रमण बैठो जुवारी” तथा “अध बीच मांडयो थाणों” तथा इसी बात को वील्होजी ने भी कहा है “संभराथल रलि आवणों, जित देव तणों दीवांण”

अर्थात् यह सम्भराथल जहां पर जम्भदेवजी आकर विराजमान हुए हैं यह भूमि अनादिकाल से ही देवभूमि रही है। साहबराम जी ने जम्भसार में सम्भराथल के बारे में बताते हुए कहा है कि यह भूमि तो प्राचीन काल से ही विष्णु की तप:स्थली रही है। जम्भसार प्रकरण चौथे में 52 पृष्ठ पर लिखा है।

चौपाई

ताहि समै हरि वचन उचारा, को तुम बांनी उचरन हारा। बांनी उचरै अलख निरंजन, सुनते हि जनम मरन भये भंजन ॥

 शब्द एक सुनि लीजै मौपा, महा विष्णु की पुरी अलोपा। मृत लोक में मुरधर देसा, संभरा नगरी सुन्दर भेषा॥

अर्थात् जम्भगुरु जी जब मृत्युलोक में आगमन की तैयारी कर रहे थे तभी एक आकाशवाणी हुई कि यदि आप यहां से प्रस्थान करके मृत्युलोक में जा ही रहे हैं तो यह भी हमारा भेद सुनते जाइये कि मरूधर देश में महाविष्णु की दिव्य पुरी है जो सम्भराथल के नाम से विख्यात है, वहीं पर जाकर आप निवास करना। ऐसा निरंजन माया रहित परमात्मा विष्णु ने ही भेद, वाणी द्वारा खोला था। यह दिव्य वाणी श्रवणकर्ता थे स्वयं साकार विष्णु अवतारधारी तथा इसी बात को पुनः छठे प्रकरण में पृष्ठ सं. 91 में कहा है    

                                                             चौपाई

सम्भराथल सुमेर सा द्रसा, देख जम्भ गुरु आनन्द वर्षा । ताकै तरै नगर एक संभरा, बाके अधिपति विष्णु विशंभरा॥

शिव ब्रह्मा इन्द्र पुरि शेशा, चतुर पुरी ते एहि पुरी विशेषा। भएऊ गोप कलु आवत जाणां, ताते कोउ वन करहि बखाणां ॥

  अर्थात् इस सुमेरू पर्वत सदृश सर्वोच्च टीबे को बालकों सहित जंभदेवजी ने सर्वप्रथम बाल्यावस्था में देखा था तब उसी समय ही वहीं पर बैठकर बालकों को सर्वप्रथम इस सम्भराथल के बारे में बतलाया था कि इस थल के नीचे संभरा नगरी है तथा उसके पालन-पोषण करता स्वयं विश्वंभर परमात्मा ही है। शिव ब्रह्मा, इन्द्र तथा शेष इन चार पुरियों में यह विशेष पुरी है। तब बालकों ने यह जानना चाहा कि यह अन्य शास्त्रों में या मौखिक रूप से ज्ञात क्यों न हो सकी। तब जम्भदेव जी ने बतलाया था कि यह कलयुग का पहरा आते हुए देखकर लोप हो चुकी है इस रहस्य को कोई नहीं जान सका है।

मैंने ही सर्वप्रथम आप लोगों को इसका रहस्य बतलाया है। समय परिवर्तनशील है, तूफान की तरह काल आता है और प्राचीनता को उखाड़ कर ले जाता है और नया ही सभी कुछ छोड़ जाता है तथा उस नयेपन का भी स्थिरपना नहीं होता। वह भी कुछ दिनों बाद ही पूर्णतया परिवर्तन होकर वहां पर कुछ नया ही आ जाता है। इसी परम्परा में सम्भराथल भूमि ने भी अनेकानेक परिवर्तन देखे हैं किन्तु इतिहास उन प्रमुख घटनाओं को नहीं देख सका है यदि देखता तो आज न जाने कितनी उथल-पुथल हम नहीं ज्ञात कर पा रहे हैं सभी काल कवलित हो चुकी है। इतिहास भी उन घटनाओं के बारे में मौन है,

कारे से लाल बनाए गयी रे, गोरी बरसाने वारी: होली भजन (Kaare Se Laal Banaye Gayi Re Gori Barsaane Wari)

सांवरियो आवेलो: भजन (Sanwariyo Aavelo)

छठ पूजा: आदितमल के पक्की रे सड़कीया - छठ गीत (Aaditamal Ke Pakki Re Sadkiya)

स्वयं भी बताने में असमर्थ है किन्तु इस सम्भराथल ने सदा सिर ऊपर उठाये रखा है। मरूधर में होने वाली प्रत्येक घटना को साक्षी रूप से देखा है किन्तु यह देखने वाला भी मौनी तपस्वी की भांति नि:शब्द है।   भगवान श्री राम ने चौदह वर्ष का वनवास भले ही इस मरूस्थल वन में न बिताया हो क्योंकि पंचवटी इस भूमि से दक्षिण दिशा में बहुत दूर हो सकती है यदि इस तपोवन में राम स्वयं वनवास काल में आ जाते तो उनका उद्देश्य पूर्ण नहीं हो सकता था क्योंकि इस वन में उस समय पूर्णतया सुख-शांति थी। यहीं पर नदी, नाले, तालाब जल से परिपूर्ण ही थे।

चारों ओर हरियाली भयंकर वन था जिसमें सम्भराथल जैसी सर्वोच्च भूमि पर बैठकर ऋषि महात्मा तपस्या यज्ञ तथा आत्मा परमात्मा के बारे में अन्वेषण करते थे।          

                                                                          भाग 2

    इसीलिये कह सकते हैं कि यह देश राक्षसों से रहित तथा महात्माओं से भरपूर था। इसलिये राम का यहां पर आना तो निष्प्रयोजन ही था। यदि यह देश पापीजनों द्वारा दुषित कर दिया होता तो राम स्वयं आकर दुष्टों का नुकीले बाणों द्वारा संहार अवश्य ही करते। महाभारत इस मरूभूमि के जांगल प्रदेश की अवश्य ही चर्चा आती है। उस समय का जांगल प्रदेश वर्तमान में जांगलू प्रसिद्ध है जो सम्भराथल के अति निकट है।

जब पांडवों को बारह वर्ष का वनवास तथा तेरहवां वर्ष अज्ञातवास की सजा सुनाई थी तब उन बारह वर्षों को अधिकतर इन्हीं सम्भराथल पर या आसपास जल से परिपूर्ण तालाबों पर ही व्यतीत   किया था जिनमें द्वैत वन, काम्यक वन आदि नामांतर से उल्लेखित महाभारत में किया है। इन्द्रप्रस्थ से पश्चिम दिशा की ओर संकेत किया है तथा पुष्कर से उत्तर की तरफ जहां कभी सरस्वती नदी की धारा प्रवाहित होती थी, जिसके किनारे महर्षि दधिचि का आश्रम हुआ करता था इसलिए कह सकते हैं कि पुष्कर से उत्तर में तथा इन्द्रप्रस्थ देहली से पश्चिम में यही मरुभूमि का तपस्या स्थल सम्भराथल का देश ही था, जिसको जांगल प्रदेश से कहा गया है।  

वनवास काल में भ्रमण करते हुए पाण्डवों ने जब इस ऊंचे थल को देखा होगा, वहां पर पहुंचने की ललक अवश्यमेव जागृति हुई होगी। जिसके फलस्वरूप वहां पर पहुंचकर पुण्य भूमि को साष्टांग प्रणाम करके अपने को धन्य अवश्य ही माना होगा। कुछ दिनों तक वहां पर निवास करने से उनके अपमान जनित क्लेश की निवृत्ति अवश्य ही हुई है क्योंकि तपोभूमि का प्रभाव ही ऐसा उच्चकोटि का होता है।

जहां पर उस शुद्ध वातावरण में पहुंच जाने पर वहां के अणु-परमाणुओं से संपर्क होने पर क्लेशजनित दुःखों की निवृत्ति अवश्यमेव हो जाती है। वहीं पर धौम्य जैसे तपस्वी त्रिकालदर्शी महात्माओं का संगम सुलभ हुआ होगा। यज्ञ की परम पवित्र धूम रेखायें उन्हें स्पर्श करके उनके मनो मालिन्य को मिटा दिया होगा। जिससे बारह वर्ष वनवास काल को सुख शांति पूर्वक व्यतीत कर दिया था।   महाभारत काल में भी यहां पर आजकल की तरह घनी बस्ती नहीं थी।

यहां पर तो भयंकर वन ही था तालाब जल से परिपूर्ण थे वन्य पशु-पक्षियों का बोलबाला था या फिर ऋषि-महात्मा लोग ही एकान्त में निवास करते हुए जप, तप, ध्यान, यज्ञ, भजन भाव किया करते थे। वहीं पर पांडवों ने रहना उचित समझा था। एक तो महापुरूषों का दर्शन सत्संग तथा शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये वन्य फल भी सर्वथा सुलभ ही थे चारों ओर हरियाली पेड़-पौधों का ही साम्राज्य था, समय पर वर्षा होती थी। इस प्रकार का परस्पर तालमेल बैठा हुआ था।

जब इनमें से किसी एक में कमी आ जाती है तो विश्व की सम्पूर्ण व्यवस्था बिखर जाती है। इसे बिखेरने में कारण तो मानव ही होता है। मानव ही अज्ञानता तथा स्वार्थ पूर्ति के लिये वन का विनाश करता है उससे वर्षा नहीं होती, तब चारों ओर हाहाकार मच जाता है। मानव ने स्वयं ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है तथा मारता ही चला जा रहा है।     आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। धीरे-धीरे पाण्डवों ने तो वनवास काल व्यतीत कर दिया था।

महाभारत युद्ध भी हो गया। एक बार मानव समाज को मृत्यु का मुख देखना पड़ा किन्तु पुनः वृद्धि को जब मानव समाज प्राप्त होता गया जितनी भूमि थी उसमें तो वृद्धि नहीं हो सकती किन्तु मानव की वृद्धि कलयुग में अवश्य ही होती रही है और वर्तमान में भी वृद्धि अबाध गति से चल रही है। इसी परंपरा के अन्दर इस जांगल प्रदेश का घना वन कटने लगा तथा सम्भराथल के चारों तरफ कुछ नजदीक तो कुछ दूरी पर गांव बसने लगे। धीरे-धीरे सम्पूर्ण वनों का विनाश कर डाला गया। अवशेष या स्मृति के रूप में गांवों के चारों तरफ थोड़ा-थोड़ा वन जरूर छोड़ दिया गया।

उसमें भी अपना निजी स्वार्थ ही था क्योंकि पशुओं के चरने के लिये जगह तो चाहिये ही और सम्पूर्ण भूमि की खेती के लिये तैयार कर ली गई थी जो गांवों के चारों तरफ कछ वन छोडा गया था उसकी भी कटने को जब नौबत आ गयी तब उसको देवी-देवताओं के नाम से जोड़कर उसकी सा, भय दिखाकर की गई थी। जो अद्यपर्यन्त यत्र तत्र दिखायी देता है उसे मरु भाषा में ओरण भी कहते हैं।  

सम्भराथल को ही परम पवित्र तीर्थ मानकर इसके चारों तरफ ग्राम सबसे थे जिनमें पीपासर भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता था। उसी समय से ही सम्भराथल के चारों तरफ बहुत बड़े भू-भाग में वन ही छोडा गया था। वही वन कुछ टूटते-कटते अब भी सोलह सौ (1600) बीघा विद्यमान हैं। इतने से तो समस्या हल होने वाली नहीं है। सम्पूर्ण प्रदेश को हराभरा रखने के लिये इतना छोटा वन तो पर्याप्त नहीं हो सकता जिसके फलस्वरूप मरू देश में वर्षा कम होने लग गई वे प्राचीन तालाब सूखकर मिट्टी से भर चुके थे।

तब जमीन को खोदकर जल प्राप्ति की कोशिश की गई किन्तु वर्षा के अभाव से जल भी उत्तरोतर नीचे चला गया है। जहां वन के प्रभाव से अथाह वर्षा होती थी और वहीं वन के अभाव में जल की भारी कमी होने लगी थी। सभी लोग देवी-देवताओं की मनोतियां मनाते किन्तु वर्षा का दर्शन नहीं होता था। इसी तरह अकाल पड़ने लगे। वि.सं. 1507 में भी पीपासर के आसपास अकाल पड़ गया था।

स्वयं पीपासर ग्रामपति ठाकुर लोहट जी भी गऊवों को लेकर छापर की तरफ गोवलवास गये थे वहीं पर गोवलवास में ही पुत्र   प्राप्ति का वरदान प्राप्त किया था। जिसके फलस्वरूप वि.सं. 1508 भादव   कृष्ण अष्टमी को पीपासर ग्राम में लोहट जी के घर पर स्वयं विष्णु स्वरूप पुत्र जम्भेश्वर जी उत्पन्न हुए थे बाल्यावस्था तो पीपासर की सीमा में ही अनेक चित्र दिखलाते हुए व्यतीत की थी। किन्तु जब कुछ बड़े हुए तो गऊ चराते समय वहां सम्भराथल पर ही अपना मुख्य प्रयोजन सिद्ध करने के लिये लीला की थी।

Picture of Sandeep Bishnoi

Sandeep Bishnoi

Leave a Comment