श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान की बाल लीला भाग 4

माता कहती बेटा दूर रहो। मैं अभी गाय दूहती हूँ, ये गायें तुम्हें मारेगी। मैं अभी-अभी आयी मेरे लाला। मेरे लाला को गोद में लूंगी, ऐसी बात सुनकर वहीं रूक जाते। मैय्या आयेगी, गोदी में लेगी, ऐसा क्यों? मैं क्या स्वयं समर्थ नहीं हूँ? मुझे दूसरे के आधार की आवश्यकता नहीं थी? ऐसा एक दृष्टि से सोचते रहते, वहीं रूके हुए न आगे न पीछे।
एक समय बछड़े सभी घर की गोहर से बाहर निकल गये। चारों ओर पीपासर में बिखर गये, जिसको जहाँ अच्छा लगा वहीं चले गये। कुछ बछड़े अपनी माताओं का दुग्धपान करने लगे, कुछ भागने लगे। इन्हें अब कौन वापिस बुलायेगा? एकत्रित करेगा? घर में तो हांसा के सिवाय ओर कोई नहीं था हांसा घर से बाहर नहीं जा सकती थी, दूसरा कोई लाने वाला नहीं था।
माता के संकट को जाम्भोजी ने पहचाना और दीवार पकड़कर खड़े हो गये, बछड़ों की तरफ देखा कि कौन कहाँ गया है? उछल कूद कर रहा है, वहीं से हाथ का इशारा किया तो बछड़े वापिस आते हुए हांसा ने देखा।
जिस प्रकार से भागकर गये थे, स्वयं को आजाद महसूस कर रहे थे, उसी वेग से वापिस आकर बंधन को स्वीकार करने के लिए दौड़े चले आ रहे थे हांसा ने देखा कि ये तो आजाद बछड़े, मेरे से तो पकड़ में नहीं आते थे किन्तु मेरे लाला की तो सैनी से ही दौड़े चले आते हैं।
उसी समय हांसा भी बछड़ों का नाम ले लेकर पुकारने लगी। आ जाओ मेरे काले, हीरे, मोती, रामा श्यामा आदि। तुम्हें तुम्हारा मालिक बुला रहा है। असलियत में तो यह मेरा होनहार बेटा ही तुम्हारा स्वामी है। हम तो दो दिन के मेहमान हैं। बछड़े वापिस घर में स्थित गोहर में प्रवेश कर गये। जाम्भोजी ने किवाड़ | ढंक दिये। यह कैसी भगवान की अद्भुत लीला है।
न जाने क्या संदेशा देना चाहते हैं? बछड़ों से शायद यह कह रहे हो कि अब तुम्हें चराने वाला वही द्वापर युग वाला कृष्ण कन्हैया आ गया हूँ। हे बछड़ों! अब तुम चिंता न करो, थोड़े से बड़े हो जाओ, मैं तुम्हें चराने के लिए सम्भराथल ले जाऊंगा। वहीं तुम्हारी हमारी वार्ता होगी, मेरे रहते हुए अब तुम्हें जंगल में किसी प्रकार के व्याघ्र नाहर भेड़िया आदि का भय नहीं होगा।
हे बछड़ों ! तुम्हारी पूर्व मिलन की वासना पूर्ण नहीं हुई थी। मैं तुम्हें निराधार छोड़कर के मथुरा चला गया था। उसके बाद पुनः मिलन नहीं हुआ। अभी तुम्हारी वासना पूर्ण हो जायेगी। तुम लोग भी शीघ्र ही |मानव शरीर धारण करके पार हो जाओगे। यह तुम्हारा अन्तिम जीवन हैं। अब तो तुम मेरी भाषा समझ | नहीं पा रहे हो किन्तु शीघ्र ही मनुष्य जीवन धारण करके समझ जाओगे। अपना कर्तव्य कर्म निर्धारण कर लोगे।
माता हांसा को सूचित किया कि हे माता! अब तुम चिंता न करो, मैंनें स्वयं ही तुम्हें माता-पिता स्वीकार किया है। मेरे प्रति तुम्हारी गहरी निष्ठा थी और मैं भी तुम्हारे वचनों में बंध गया था, इसलिए मैं |न्हारा बेटा बनकर आया हूँ। हे माता! मुझे भी कर्म बन्धन स्वीकार करने होते हैं। अपना कर्तव्य निभाने हेतु विभिन्न रूप धारण करके आना होता है, इसीलिए मैं आया हूँ सभी लौकिक व्यवहार करूंगा। पिताजी ही गये हैं, बछड़े तथा गौ चारण करके उनको सुख प्रदान करूंगा, उनकी चिंता हरण करूंगा माता सा इन गहराइयों को क्या समझे किन्तु इतना तो समझ ही गयी कि मेरे लाला ने बड़ा भारी कार्य किया है। मेरे कार्य में सहयोग प्रदान किया है।
शाम को लोहटजी घर आये तब हांसा ने ये सभी व्यतीत बातें बतलाई । दोनों दम्पति बड़े ही प्रसन्न जा लोहटजी ने गोदी में उठाकर मुख चूम लिया और कहा- यह बालक साधारण नहीं है अवश्य ही स्वयं भगवान ही मेरे कुल को पवित्र करने के लिए आये हैं।
अनेकानेक दिव्य लीला करते हुए जाम्भोजी दो वर्ष की आयु को पार कर गये। माता-पिता भाई-बन्धु जन बड़े प्रसन्न हुए, कहने लगे- यह कैसा बालक है, पता नहीं चलता, बिना खाये पीये कैसे जीवन धारण करता है। अन्य बालकों से ज्यादा ही बढ़ रहा है। न जाने इसे क्या मिलता होगा। बाहर से तो कुछ भी आहार ग्रहण करता हुआ दिखता नहीं है।
अन्दर से ही ब्रह्म रस ग्रहण करता है जिसके प्रताप से योगो लोग युगों-युगों तक जीते हैं। यह तो कोई पूर्ण योगी ही है या इसके ऊपर किसी देवी देवताओं का प्रकोप भी हो सकता है। अभी तो यह बालक काफी बड़ा हो गया है। इसके कान बिंधवाने चाहिये, क्योंकि यह बड़ा तो होगा ही, विवाह करेंगे तो कानों में कुण्डल अवश्य ही होना चाहिये।
बिना कान बिंधे तो कोई इन्हें अपनी कन्या भी देने वाला नहीं होगा। देखो भाई ! सभी प्रकार का लोकाचार तो होना आवश्यक है। लोहटजी स्वयं तो सचेत नहीं हो रहे हैं तो क्या हुआ हम सभी चलकर सचेत कर देते हैं। समय-समय पर सभी कुल कृत आचार होना चाहिये। यह हमारे -परिवार की मर्यादा है। सभी ग्रामीण लोग लोहटजी के पास पंहुचे और पूर्व विचारित बातों से अवगत करवाया।
Must Read: राजा लूणकरण एवं महमद खां तथा समराथल ….भाग 6
लोहटजी ने अपने कुल परिवार के भलाई की बात सहर्ष स्वीकार की और कान बेंधने वाले को एक दिन घर पर बुलाया। कान बांधने वाले ने सुई धागा आदि हाथ में लेकर कान बींधने के लिए हाथ पकड़ा तथा दूसरे हाथ से कान पकड़कर बेंधने की तैयारी की, लोहटजी ने भी कुछ सहारा दिया कि कान बिंधेगा तो शायद पीड़ा होगी, बच्चा छुड़ाकर भाग जायेगा।
कान से सुई पार करके वह धागा भी कान में डाल दिया और कान में कुर्की मोती डालकर कार्य पूर्ण कर दिया और बेंधने वाला निश्चित हो गया, किन्तु क्या देखता है, तुरंत ही कुर्की मोती नीचे गिर पड़ी। पास में बैठे हुए लोगों ने देखा कि कान टूट गया है। बेंधने वाला ठीक से नहीं बेंध सका। ऐसी अवस्था देखकर सभी भयभीत हो गये। यदि इसने कान तोड़ दिया है तो बड़ा ही अनर्थ किया है।
बेंधने वाला कुछ भी समझ नहीं पाया, दूसरा कान भी बेंध डाला, कुर्की मोती डाली तो वह भी नीचे | गिर पड़ी। बेंधने वाले ने देखा कि मेरे साथ धोखा हो गया। मैं चूक गया। ठीक से बेंध नहीं सका। अभी मैं दुबारा बेंध देता हूँ। ज्योंहि दुबारा कान पकड़कर देखा तो कान में छेद ही नहीं है। कुछ समझ में नहीं आता अभी-अभी मैनें छेद किसमें किये? ये कान तो ज्यूं के त्यूं विद्यमान है।
जिनका शरीर पांच तत्वों से बना हुआ ही नहीं है, उसके हाड, मांस, मज्जा आदि कैसे बनेंगे? केवल देव शरीर तेज प्रधान ही है, तेज में छेद कैसे हो सकता है? छेद तो पृथ्वी प्रधान शरीर में हो सकता है। हम लोगों का शरीर पृथ्वी प्रधान है इसलिए तो अन्न की महत्ती आवश्यकता है। उसके बिना हम जी नहीं सकते। देवता का शरीर तेज प्रधान होता है।
इसलिए देवता को पुष्ट करने के लिए घृत की आवश्यकता होती है। गौ घृत से हवन करते हैं, देवता उसे ग्रहण करके पुष्ट होते हैं। वे हमें जल वायु तेज आदि प्रदान करते हैं उससे हम पुष्ट होते हैं, इस प्रकार हमारा तथा देवताओं का परस्पर सम्बन्ध है। होम हित चित प्रीत सूं होय, बास बैकुण्ठा पावो।
वह बेचारा कान बांधने वाला साधारण व्यक्ति नहीं समझ पाया कि यह क्या हो रहा है? मैं क्या करने जा रहा हूँ वहाँ से उठकर बिना दक्षिणा लिये ही चुपचाप अपने घर को चला गया पास में बैठे हुए गांव के लोग भी देखते ही रह गये, कुछ भी समझ में नहीं आया। कान क्यों नहीं विधे गये इसका भेद कोई नहीं जान सका।
उस अलेख को कौन लख सकता है। केवल शुष्क बुद्धि से यदि जानने की कोशिश करेंगे तो उसे जानना असंभव है। बुद्धि के साथ ही साथ हृदय भी खुला हो, सद्भावना और प्रेम श्रद्धा से वह जाना जाता है। भक्त्या मामभिजानाति, यावन्यचास्मि तत्वतः भकति भाव से ही जो तत्व है उसे जाना जा सकता है, स जो है जैसा है। तर्क की कसौटी पर कसा नहीं जा सकता। खरतर गोठि निरोतर वाचा, रहिया रूद समाणी।
आभूषण आदि तो कुछ भी धारण नहीं किया, क्योंकि भगवान ने यह बतलाया कि यह शरीर ई श्वरीय देन है, अपूर्व है, भूतो न भविष्यति । सुन्दरता में तो कोई भी इसकी बराबरी में नहीं है। ईश्वर ने इनको खूब सजाया है किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी है। इसे आप लोग सजाने के बहाने विकृत मत करो।
भगवान ने कहा, हम तो वैसे ही बहुत सुन्दर है ज्यादा कुछ बनावटी पना हम नहीं चाहते हैं। ये द्विधा वृति ठीक नहीं है अन्दर बाहर एक रस ही ठीक है। शरीर का बाह्य भाग तो आभूषणों द्वारा सुसज्जित कर लेंगे किन्तु अन्तर के गुणों को प्रगट नहीं करेंगे, उनका विकास नहीं करेंगे तो कुछ भी हासिल नहीं होगा। अन्य लोग आपके शरीर की सुन्दरता से प्रसन्न कदापि नहीं है आपके सद्गुणों से प्रसन्न होते हैं। मोरे मन ही मुद्रा, तन ही कंथा, जोग मार्ग सह लीयो।
कान तो श्रवणेन्द्रिय है, इससे सत्य वचन श्रवण करो। यही इसका आभूषण है। कान बिंधकर मुरकी आदि डालकर अवरोध खड़ा मत करो। केवल सुनना ही है, कान तक शब्दों को पंहुचाना हो इतिश्री नहीं है, सुनने के पश्चात मनन, निदिध्यासन, फिर दर्शन होगा यहाँ तक आपको पहुँच होवे तभी कान सार्थक हैं।
केवल कुण्डल डालने से कानों में सार्थकता नहीं आयेगी। स्वर्णाभूषणों के बंधन में पड़कर सत्य से मुख नहीं मोड़ो, सत्य इस बाहा दिखावे से कहीं दूर है, इसको अतिक्रमण करके सत्य तक पंहुचा जा सकता है। ऐसी ही कुछ जीवन संजीवनी वार्ता से अपने सम्बन्धी जनों को परिचित करवाया था वे सीधे साधे भोले-भाले लोग कितना ग्रहण कर सके यह तो भगवान ही जाने।
लोहट हंसा आपस में विचार करने लगे- अब तो अपना बेटा बड़ा हो गया है। जैसा अन्य बालक बोलते हैं वैसे तो कुछ बोलता ही नहीं है। पता नहीं कुछ बोलता है तो किन्तु क्या बोलता है हमें तो उनकी बात समझ में नहीं आती। सभी लोग इनको तो गहलो-गहलो कहते हैं।
लोहटजी ने कहा- हे देवी! तुम ज्यादा चिंता मत करो, लोगों की बात क्यों सुनती हो? तुमने तो स्वयं ही चरित्र देखा है, इतने छोटे से बालक ने बड़े-बड़े कार्य किये हैं, हमारा बेटा तो बहुत ही बुद्धिमान है, | किन्तु लोगों की दृष्टि साफ नहीं है, वे तो अपने जैसा ही देखना चाहते हैं जैसा हम बोले, वैसा ही यह बोले, भोजन करे इत्यादि किन्तु वैसा तो हमारे पुत्र में कुछ नहीं है इसलिये गहला कहते हैं?
भजन: ईश्वर को जान बन्दे, मालिक तेरा वही है। (Ishwar Ko Jaan Bande Malik Tera Wahi Hai)
भैरवी वंदना (Bhairavi Vandana)
क्रोधात् भवति संमोहः (Krodhad Bhavati Sammohah)
हंसा बोली- हे पतिदेव! मैंने सुना है कि अपने ग्राम में अपने कुलदेवता के मॉंदिर में भोपा-तांत्रिक আया हुआ है, वह तो बड़े-बड़े रूग्ण लोगों का रोग ठीक कर देता है। आज रात्रि में जागरण होगा कल सुबह भूत-प्रेत बाधा वाले लोग उनके पास जा रहे हैं। अपने-अपने कष्ट दूर करवा रहे हैं। आप भी अपने बच्चे को लेकर जाइये, क्या पता किसी भूत, प्रेत, देवी, देवता का दोष होगा तो वह भोपा दूर कर देगा। बच्चा भोजन करने लगे, अन्य बच्चों की भांति मुझे माँ कहे। इस कुल का संवर्द्धन करे।
लोहटजी ने कहा यदि तू कहती है तो मैं लेकर सुबह ही जाऊंगा। किन्तु मुझे इन पाखण्डी भोपटों पर कोई विश्वास नहीं है। मेरी समझ में तो हमारा बालक बिल्कुल ठीक है। यह तो पूर्व जन्म का कोई योगी-अवधूत है। ब्रह्मरस भोगी है, इन्हें क्या लेना देना संसार तथा सांसारिक भोगों से। यह तो तुम्हारी
तपस्या का कोई फलोदय हुआ है जिस वजह से तुम्हारा पुत्र बनना स्वीकार किया है मुझे तो तपस्या के समय में योगी का दर्शन तथा वरदान पर पूर्ण विश्वास है। उनकी वार्ता निष्फल नहीं होगी। तुम स्त्री स्वभाव के कारण जल्दी घबरा जाती हो, धैर्य को धारण करो।
प्रात:काल लोहटजी अपने लाला को अपनी अंगुली पकड़ाकर जहाँ भोपा के स्थान को ले चले। आगे भीड़ लगी थी। कई गाँवो के लोग अपना-अपना दुःख दूर करवाने के लिए एकत्रित थे।
लोहटजी ने जाकर अपनी अर्जी पेश की और कहा कि हे भोपाजी ! यह मेरा बेटा साथ में है, इसे कुछ रोग लग गया है, पता नहीं क्या हुआ है? वह दिनों दिन चन्द्रकला की तरह बढ़ रहा है किन्तु वह कुछ भी खाता पीता नहीं है, इसे अब तक अन्य बालकों की भांति बोलना चाहिये था किन्तु वैसा नहीं बोलता। पता नहीं इसके अन्दर कोई देवता ही बैठा हुआ बोल रहा है? इसे लोग गहला-गहला कहने लगे हैं आप ठीक कर दीजिये। मैं आपको मुंह मांगी बधाई दूंगा। जो भी उपाय करना है वह आप अवश्य ही करें।
भोपा कुछ बोलने को तैयार था, किन्तु उससे पूर्व ही जाम्भोजी बोले-रे भोपा! आज तुमने कितने जीव मारे? इनको मारकर क्या कार्य करना चाहता है?
भोपा बोला- आज मैनें ग्यारह जीव मारे हैं, तुम्हारे गांव पर भूत-प्रेत कुपित थे, उनको भेंट चढ़ाकर प्रसन्न किया है।
जाम्भोजी बोले- क्यों झूठ बोलते हो? तुमने तेरह जीव भरे हैं और ग्यारह बतला रहे हो। भोपा कहने लगा- अरे बालक! तुम्हें क्या पता है ? मैनें तो ग्यारह बकरियां मारी है तेरह कदापि नहीं। ये सभी लोग मेरे साक्षी हैं।
जाम्भोजी कहने लगे- दो बकरियां गर्भवती थी उन्हें भी तुमने मारा था उनके गर्भ के दो बच्चे भी तो मर गये। जब उनकी माँ को तुमने मार दिया तो उनके बच्चे भी तो तुम्हारी वजह से मर गये। ऐसी बात्ता सुनकर भोपा घबरा गया, लज्जित होकर कुछ भी बोल नहीं सका। अपनी भूल नजर आने लगी।
जाम्भोजी बोले- हे पिताजी ! आप यहां से वापिस चलिये, आप इनकी पाखण्ड लीला देख रहे हैं, य लोग जीव हत्या हैं। अपना पेट भरने के लिए दूसरे जीवों की हत्या करते हैं। इनके पास कुछ भी नहीं है, ऐसा कहते हुए वापिस घर चले आये।
जाम्भोजी ने तभी से देखा कि यहाँ पर कितना पाखण्ड फैला हुआ है। कितने लोग पाखण्ड करके पेट भराई करते हैं। इसे जड़ मूल से उखाड़ना होगा। भगवान के नाम पर भूत-प्रेत देवी देवताओं की पूजा करके लोगों को भ्रमित करते हैं। इन्हें सद्पंथ का पथिक बनाना होगा।
एकत्रित ग्रमीण लोगों का समूह कहने लगा चलो अपने भी चलते हैं जिसको हम गहला-गहला कहते थे, उन्होनें बिना देखे ही तेरह जीवों की हत्या के बारे में भोपे को बतला दिया। भोपे को निरूतर कर दिया।
अब भाईयों! अपने यहां पर पाखण्ड नहीं चलेगा किन्तु लोहट के लाला को यह पता कैसे चल गया? इस बात का तो किसी को कुछ पता नहीं। जैसा अपने ठाकुर साहब कहते है वैसा ही हमें करना चाहिये। हम लोग वास्तव में भूल गये, अच्छा हुआ जो आज चेत गये। आगे पुनः ऐसी भूल नहीं करेंगे। तांत्रिक भोपों ने तेरह जीवों की हत्या कर दी, उसका भण्डाफोड़ जाम्भोजी ने कर दिया। बिना आंखे देखे जीवों की संख्या सही बताकर उस भोपे को चमत्कृत कर दिया।
लोहटजी ने विचार किया कि अब बेटा स्याना हो गया हिन्दू धर्म के रीति-रिवाज के अनुसार चूड़ाकरण संस्कार कर देना चाहिये। जब बालक समझदार हो जाये तभी यह संस्कार करवाना चाहिये। अब तो बेटा छोटे बालक की तरह नहीं है, यह तो बड़े बूढ़ों से भी ज्ञान में बढ़-चढ़कर है वैसे तो संस्कार की आवश्यकता नहीं है, ये तो स्वयं ज्ञान स्वरूप ही है, स्वयं ज्योतिरूप है। दीपक को देखने के लिए दूसरे दीपक की आवश्यकता नहीं होती,फिर भी लोक मर्यादा का पालन तो अवश्य ही करना चाहिये।
लोहटजी ने संस्कार करवाने हेतु हरजी ब्राह्मण को बुलाया। ब्राह्मण का आदर सत्कार किया। छतीस प्रकार के व्यंजन बनाये। ब्राह्मण तथा कुटुम्ब परिवारजनों को खूब जीमाया। लोहटजी ने हरजी से प्रार्थना करते हुए कहा- हे भू देव! मेरा यह बेटा सभी कुछ जानता है लोग इसे वैसे ही गहला-गहला कहते हैं किन्तु यह तो बहुत ही ज्ञानी योगी पुरुष है।
वैसे तो इनका संस्कार करना सूर्य को दीपक दिखाना है, फिर भी आप हमारे कुल-कर्म अनुसार उसका चूड़ाकरण संस्कार कर दीजिये। मंत्र जनेऊ आदि जो कुछ आपको करना है वह कर दीजिये।
हरजी ने कहा- आप ऐसा करें कि संस्कार करने हेतु घृत, गुड़, आखा, अनाज आदि ले आइये और बालक को मेरे पास बुलाइये। मैं जनेऊ संस्कार कर देता हूँ। इसे द्विज बना देता हूँ।
हे लोहट! आपने ठीक कहा कि संस्कार अवश्य ही करवाना चाहिए क्योंकि प्रथम जन्म दाता तो माता-पिता होते हैं किन्तु दूसरा जन्म गुरु संस्कार के द्वारा करवाता है। जैसा पण्डितजी ने कहा वैसा पूजा का साज समान जुटाया और जाम्भोजी को हाथ में नारियल देकर पुरोहित के पास भेजा।
हरजी पुरोहित ने ज्यों ही जाम्भोजी का हाथ पकड़ने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया, उन्हें चतुर्भुज रूप में दर्शन हुआ। पुरोहित ने अपना सौभाग्य माना कि मैं आजन्म प्रयत्न करता रहा हूँ किन्तु भगवान विष्णु का दर्शन नहीं हो पाया। आज मैं लोहट के बालक के रूप में विष्णु का दर्शन कर रहा हूँ। अच्छा हुआ मैं यहां पर उपस्थित हूँ। अबे इन्हें शिष्य बनाना ही चाहिये। विष्णु है तो भी अच्छा है, मैं विष्णु का गुरु बनूंगा, क्योंकि पूर्व में भी तो वशिष्ठ ने रामजी को अपना शिष्य बनाया था अब मुझे उन्हीं रामजी को शिष्य बनाने का पुनः अवसर मिला है। इस समय तो मैं ही वशिष्ठ हूँ यह बालक जाम्भोजी ही रामजी है।
हाथ में यज्ञोपवीत ग्रहण करके जाम्भोजी के गले में सूत का धागा डाला। हरजी देखता है कि वह जनेऊ तो नीचे गिर पड़ी। हरजी ने नीचे पड़ी हुई जनेऊ को पुन: हाथ में लिया और देखा कि गाँठ खुल गयी है इसलिये यह नीचे गिर गयी है। अब मैं दुबारा गांठ लगाता हूँ, पुरोहित अज्ञानता में है जो हृदय की ग्रन्थी-गांठ खोलने के लिए आया है उसे ही गाँठ में बांध रहा है।
श्रीदेव को ऐसा स्वीकार्य नहीं होगा, किन्तु पुरोहित ने पुनः गांठ लगायी फिर माप करके देखा तो छः अंगुल छोटी पड़ गयी। फिर से नया धागा लाये नापकर पूरा किया गाँठ लगायी, और गले में जनेऊ डाली किन्तु क्या देखता है…… शरीर पर जनेऊ टिक ही नहीं रही है।
श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान की बाल लीला भाग 5