श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान गोचारण लीला भाग 2

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 श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान गोचारण लीला भाग 2

श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान गोचारण लीला भाग 2
श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान गोचारण लीला भाग 2

हे ग्वालों! उस विनीत भाव से खड़े हुए समुद्र की बात को सुनकर मैनें वह अग्निबाण उतर की तरफ चला दिया। दक्षिण दिशा रामेश्वर में स्थित होकर चलाया हुआ अग्निबाण यहीं इस देश की भूमि में गिर पड़ा था, इसीलिए समुद्र का जल सूख गया था यहाँ की यह भूमि अग्निबाण गिरने से पवित्र हो गयी थी, क्योंकि अग्निबाण तो सभी कुछ जला डालता है,

इस धरती के गुण अवगुण सभी कुछ जल चुके थे। इसमें रहने वाले पापीजन भी जल गये थे, धरती अपने स्वरूप को प्राप्त होकर शुद्ध निर्मला हो गयी थी। पवित्र करने के लिए अशुभ को जलाना ही पड़ता है,यह प्राचीन देश द्रुमकुल्य नाम से प्रसिद्ध था वज्र और अशनि के समान तेजस्वी बाण जिस स्थान में गिरा था वह यही स्थान है। जहाँ ऊंडे गहरे जल वाले देश में हम बैठे हैं। इस देश का जल भी गहराई तक सूख गया है इसलिए जलाभाव वाला यह देश मरूभूमि के नाम से प्रसिद्ध हुआ। समुद्र की बालुका मिट्टी अब भी देखो, इन टिवों के रूप में जहाँ कहीं भी यहाँ दिखाई दे रही है।

वील्होजी ने पूछा- हे गुरुदेव ! यह कार्य जाम्भोजी ने राम रूप धारण करके किया। यह कार्य तो ठीक नहीं हुआ, क्योंकि इस भूमि को दण्डित किया, इसमें भूमि का क्या दोष था। हमारा भी जन्म इसभूमि में हुआ है, पता नहीं क्यों? यह सभी कुछ अच्छाई के लिए हुआ है या बुराई के लिए?

 नाथोजी उवाचः- हे शिष्य! भगवान ने केवल इस भूमि को दण्डित ही नहीं किया है, इसके साथ ही साथ वरदान भी दिया है। वह तुम जानो, तुम्हारा संशय निवृत्त हो जायेगा। पहला वरदान यह दिया कि यह मरूभूमि पशुओं के लिए हितकारी होगी। दूसरा- यहाँ रोग कम होंगे। तीसरा- यह भूमि फल फूल और रसों से सम्पन्न होगी, चौथा-यहाँ घी आदि चिकने पदार्थ अधिक सुलभ होंगे। दूध की बहुतायत होगी। पांचवा- यहाँ सुगन्ध छायी रहेगी। अनेक प्रकार की औषधियाँ उत्पन्न होगी इस प्रकार से भगवान श्रीराम के वरदान से यह मरूभूमि प्रदेश इस तरह के बहुसंख्यक गुणों से सम्पन्न होकर सबके लिए मंगलकारी हो गया।

भगवान कुछ हरण करते हैं तो उसके बदले में कुछ वरदान भी तो मंगलकारी देते ही हैं, भगवान की कृपा दृष्टि कभी खाली नहीं जाती, हम तो अज्ञानी जीव हैं, बहुत ही छोटे से स्वार्थ के दायरे में जीते हैं। हमारी दृष्टि तो अल्पज्ञ हैं।

 अध्यापक बालक को दण्ड देता है तो उसकी भलाई के लिए ही देता है, किन्तु बालक इस बात को समझे नहीं पाता है। दूरगामी परिणाम अच्छे होते हैं किन्तु प्रारम्भ में अवश्य ही दुखदायी होते हैं हम तो बालक की भांति ही हैं, थोड़े से ख में भी रो पड़ते हैं। थोड़े से सुख में भी फूल जाते हैं। जीवन की बहुत दुः गहराईयाँ है उनसे परिचित होना आवश्यक है।

भगवान की गोचारण लीला का कथन करते हुए, नाथोजी ने इस प्रकार से कहा-नित्यप्रति गऊवों आदि पशुओं को चराने हेतु ग्वाल बालों के साथ जंगल में सम्भराथल तक जाया करते थे। सांयकालम | सभी वापिस लौट आया करते थे। लोहट एवं हांसा अतिप्रसन्न हुआ करते थे। अपने जन्म को सफल मानते आर देवी देवताओं को मनाते। अनेकों प्रकार के शुभ आशीर्वाद अपने पुत्र के लिए माँगते थे। यहकार्य नितप्रति का ही था।

एक दिन की बात कुछ सदा से भिन्न ही हुई थी। अन्य बालक तो अपने-अपने पशुधन गाय, भैस बकरियाँ आदि लेकर साँझ के समय में वापिस पीपासर आ गये थे किन्तु लोहट का लाला नित्यप्रति की भाँति आज लौटकर नहीं आया था। माता पिता को चिंता सताने लगी थी क्या बात हुई आज आया क्यों नहीं? गायें तो लौटकर अन्य गायों के साथ आ गयी है।

 हाँसा ने कहा हे पतिदेव! आप जाकर अन्य घरों के बालकों को देखकर आओ? कहीं वहीं पर तो खेल में ही न लग गया हो? शीघ्र ही मेरे लाला को मेरी आँखो के सामने लाइये। तभी मुझे चैन पड़ेगा।

लोहटजी ने जाकर ग्वाल बालों से पूछा- क्या बात है ? जम्भेश्वर नहीं आया? ग्वाल कहने लगे – हे राजन् ! सुनो! तुम्हारा बेटा तो बावला है, हमें आप झूठा ओलाणा मत देना। हम सभी इकट्ठे ही पशु चरा रहे थे, तुम्हारे बालक ने ही हमें सम्भराथल दिखाया था, हम लोग आज उसी पर ही गऊवें चराते हुए बैठे थे। वहाँ की शोभा तो ठाकुर साहब! बहुत ही निराली है हम तो घर गांव माता पिता सभी कुछ भूल गये थे। वहाँ पर बैठे तो बैठे ही रह गये न जाने कव संध्या वेला हो गयी कुछ पता ही नहीं चला।

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हमारी गायें जब अपने-अपने बछड़ों को याद करके घर को चली तभी हम भी सचेत होकर उनके पीछे-पीछे चले आये। अन्यथा तो वहीं रात हो जाती। वास्तव में वहाँ कुछ जादू ही ऐसा है कि समाधि सी लग जाती है- संसार को तो भूल ही जाते हैं।

 लोहटजी ने कहा- यह बात तो बिल्कुल सच्ची है, इस बात को मैं अच्छी तरह से जानता हूँ। मेरे साथ भी ऐसा हुआ था। इस भय के मारे तो हम गाँव वाले वहाँ जाते ही नहीं है। कहीं गये तो मोह-माया में भूलकर सदा के लिए वहीं के होकर रह जायेंगे। अब तो हमें गृहस्थी का ख्याल रखना है।

 हे बालकों! यह तो बतलाओ! कि आज अभी तक मुनि नहीं आये! क्या ! यह वहीं तो कहीं न रह गया हो! मैनें तो प्रतीक्षा करली, सभी बालकों से भी पूछा है, कहीं कुछ अब तक पता नहीं चला है। यदि तुम्हे पता है तो बतलाओ? हांसा बहुत ही व्याकुल हो रही है, उसका दिल तो बहुत ही नाजुक है। वह वियोग सहन करने में असमर्थ है। मुझ से भी उसकी हालत देखी नहीं जाती।

ग्वाल बाल कहने लगे ठाकुर साहब! हम सभी एकत्रित होकर सम्भराथल पर खेल रहे थे। हमारी गायें वहीं पर ही हरी-हरी घास चर रही थी। दिनभर हम अपने आप में आनन्दित थे, जब शाम का समय होने लगा तो हम तो वहां से चल आये, चलते समय हमने कहा- हे जम्बेश्वर! आप भी चलो! घर पर तुम्हारी प्रतीक्षा हो रही है, दिन छुपने को जा रहा है रात्रि हो जायेगी, अंधकार छा जायेगा, यहां जंगली जीव आ जायेंगे, कहीं हमें खा ही न जाये।

 हे राजन् ! हम आपसे सत्य कहते हैं कि आपके लाडले ने तो वहीं पर आसन लगा लिया, आँखे मूंद ली, देवली-मूर्ति की तरह हो कर बैठ गया न तो वह हिलता था, और नहीं वह देखता था और न ही कुछ बोलता था। हमने पुनः आवाज लगायी कि चलो जम्बेश्वर ! गाँव चलते हैं, किन्तु उन्होनें तो एक शब्द भी नहीं बोला। केवल सैनी से ही इशारा किया कि आप लोग चले जाओ, हम तो यहीं रहेंगे। मेरा गाँव में कुछ भी कार्य नहीं है।

दूसरे दिन प्रात:काल लोहटजी बालकों के पास पंहुचे और कहने लगे- हे बालकों !अब मैं तो बूढा हो गया हूँ, गायें चराने में असमर्थ हूँ, मेरी व्यथा तो सुनो! आज तो तुम ले जाओं मेरी गायों को, कल में किसी ओर को सम्भला दूंगा।

बालकों ने सहर्ष स्वीकार किया और गायें लेकर सम्भराथल पर जहाँ जाम्भोजी विराजमान थे वहीं पर पहुँच गये। वहीं पर प्रभु का धन प्रभु को ही सौंपते हुए कहा- तुम तो यहीं पर रह गये, रात्रि में पींपासर नहीं गये। तुम्हारे माता पिता बहुत ही दुखी हो गये हैं। तुम्हारे बूढ़े पिता,ने कहा है कि अब मेरी गऊएँ कौन चरायेगा? में तो पुत्रवान होते हुए भी अऊता ही रह गया हूँ। पुत्र कुपुत्र हो जाये तो वंश एवं धन का नाश कर देता है।

देखो! दूसरों के पुत्र तो सचेत है, पशु चराते हैं, धन संग्रह करते हैं, किन्तु मेरा पुत्र तो वन में रहने लगा है मैं कैसे विश्वास करूं कि यह बेटा वंश को आगे बढ़ायेगा धन संग्रह करेगा।

 जाम्भेश्वरजी ने कहा- बालकों! आप आज जब सांयकाल में वापिस घर जाओ तव मेरे पूज्या माता एवं पिताजी से कह देना कि आप गऊवें चराने की चिन्ता बिल्कुल ही न करें। मैं स्वयं ही सभी प्राणियों को चराने के लिए ही यहाँ पर आया हूँ। हे बालकों!आप लोग भी निश्चिन्त होकर खेल खेलें। धन चराने संग्रह करने की मेरी बारी है। मैं अपनी बारी निभाना जानता हूँ। मेरी आज्ञा से ही ये पशु वन में घास चरते हैं। इन्हें कोई भी वन्य हिंसक जीव नहीं सतायेगा कल प्रात:काल भी इसी प्रकार से गायों को लेकर यहाँ आ जाना।

 बालकों ने लोहटजी को सभी बातें बतलायी तथा विश्वास दिलाया कि हम तो केवल निमित्त मात्र हैं, असली तो गोपालक हमारे गोपाल शिरोमणि जाम्भोजी ही हैं।

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उनकी कृपा से हमारी तो सभी गायें चरती है, पहले से कहीं अधिक दूध देती है, बड़ी प्रसन्न रहती है, इन्हें कोई भेड़िया आदि वन्य पशु भी नहीं सताता। अब तो जँगल में ही मँगल हो रहा है। आप भी एक दिन हमारे साथ चलकर देखें। हमें तो चिन्ता से निवृत्त कर दिया है, किन्तु ठाकुरजी !आप बिना मतलब ही चिंतित हो रहे हैं।

ग्वाल बाल तो गऊएँ लेकर वन में चल गये, बालकों की रस एवं रहस्य भरी बातें लोहटजी के समझ | में आती थी। जब ज्ञान की बातें सुनते तब तक तो मोह-माया का परदा हट जाता था, किन्तु जब संसार | के कार्य व्यवहार में प्रवृत्त होते तो पुन: मोह माया का परदा पड़ जाता। थोड़ी देर की बिजली की चमक की तरह सुख दुख द्वन्द्व आते जाते रहते हैं।

लोहटजी अपने भाई बन्धुओं के पास बैठते, वार्तालाप करते, सभी लोग अपनी-अपनी गायों, बकरियों, जमीन-जायदाद,मकान-घर, अपने पुत्र पुत्रियों, बन्धु-बान्धवों की चर्चा करते। एक दूसरों से बढ़ चढ़कर बड़ाई करते। अपने अंहकार को पुष्ट करते, लोहटजी उनकी वार्ता सुनते और अपनी स्थिति

देखते तो चुप हो जाते, उनकी बढ़ी-चढ़ी बातें सुनकर उदास हो जाते। अपनी स्थिति का स्मरण करके प्राचीन यादगार ताजा हो जाती।

जंगल में योगी का दर्शन, पुत्र प्राप्ति का वरदान आदि स्मरण करके भाव विभोर हो जाते। आंखों में जुआ की धारा बह चलती। अन्य बंधुओं ने देखा कि हमारी वार्ता सुनकर तो लोहट को रोना आता है। ये सांसारिक बातें बंद करो। अन्य कोई ज्ञान की बातें करो।

 लोहटजी से पूछा- आप इतने दिलगीर क्यों हो जाते हो? तुम्हारे पर तो प्रभु की अहैतु की कृपा वरष रही है। देखो ना इस बुढ़ापे में तुम्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई, फिर क्यों न भगवान की कृपा का अनुभव करते?

 लोहटजी कहने लगे- बन्धुओं ! मेरी भी व्यथा कथा सनो! मेरे एक ही पुत्र हुआ है वह भी वृद्धावस्था में, निश्चित ही यह तो कोई ईश्वर की महान कृपा का ही फल है, किन्तु यह बालक तो

कुछ खाता-पीता नहीं है। इसका उपाय तो मैनें करके देख लिया, कुछ भी फल नहीं मिला। इस बालक को तुम सभी देख ही रहे हो। बिना कुछ खाये पीये अब तक इतना बड़ा हो गया है। दिनों दिन वृद्धि को प्राप्त हो रहा है।

 बिना अन्न जल के तो हम जी नहीं सकते,यह तो दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जाता है। सूर्य सदृश तेज उतरोतर बढ़ता ही जाता है। मेरी समझ में तो यह आता है कि इसका शरीर तेजस्वी है, यानी तेज प्रधान है, यह तो तेज को ही पी रहा है, इसलिए तो शरीर में सूर्य सदृश क्रान्ति हो रही है । यह तो साक्षात जलती हुई ज्योति ही है। पता नहीं कैसे यह ज्योति को पी जाता है, इसलिए तो अन्न जल की आवश्यकता ही नहीं है।

 हे भाइयों! मुझे यह बतलाओं कि इस सन्तान ने मुझे क्या सुख दिया। अपने पूर्वजों द्वारा एकत्रित की हुई सम्पति को आगे बढ़ाना चाहिये किन्तु ये तो बिल्कुल ही गंवाने के लिए तत्पर है। पहले तो वापिस पींपासर आ जाया करता था, किन्तु अब तो वन में ही रहने लग गया है। बालकों से यह भी पता चला है। कि गऊवें चराने की बात तो स्वीकार कर ली है किन्तु घर, खेती आदि की परवाह नहीं है। ऐसी दशा में मैं क्या कर सकता हूँ, कैसे धैर्य धारण करूं मैं यह कैसे मानूं कि मेरे कुल का दीपक सदा-सदा के लिए उन्नतिशील रहेगा। दीपक से दीपक प्रज्जवलित होता रहेगा।

सैण सकल समझाने लगे- हे भाईसाहब! आप तो पुत्र के मोह में मोहित हो रहे हो, आपको तो कुछ भी विवेक नहीं रहा, इसीलिए तो आप ऐसी बात बोलते हो, यह पुत्र तुम्हारा कोई साधारण बालक नहीं है। हमने तो प्रत्यक्ष लीलाएँ- आश्चर्यजनक कार्य इनके देखे हैं, हम कैसे भूल सकते हैं। घूंटी ग्रहण न कर ना, कान न बिंधवाना, जनेऊ संस्कार न करवाना, तेरह जीव मारने वाले पुरोहित को फटकारना, पुरोहित को शब्द सुनाना।

जल से दीपक प्रज्वलित कर देना, कच्चे घड़े में जल ठहराना आदि ये कार्य क्या साधारण बालक द्वारा संभव है? या तो यह कोई पूर्णयोगी है, या स्वयं कृष्ण कन्हैया ही तुम्हारे पर कृपा करने हेतु जन्म लेकर आया है। हे भाई! जब से तुम्हारे घर तथा हमारी पीपासर की भूमि पर इस बालक का पर्दापण हुआ है। तभी से हम लोग धन्य-धन्य हो गये हैं।

यहाँ तक कि जड़ योनि, वृक्ष, लता, फूलादि भी धन्य हो गये हैं। कहाँ तक कहे, वन्य हिंसक जीव भी वैरभाव भूल गये हैं। जब से जाम्भोजी पींपासर में आये हैं तभी से अब तक किसी भी हिंसक वन्यजीव ने हमारा कोई भी नुकसान नहीं किया है। सिंह बकरी एक घाट पर पानी पीते हैं।

 हे लोहट तुम तो अपने को बड़ा ही सौभाग्यशाली समझो कि तुम्हारे आँगन में स्वयं द्वारिकानाथ आये हैं। यह तो तुम्हारे पूर्वजन्म की तपस्या का ही फल है। संतान की प्राप्ति या अप्राप्ति सुपात्र या कुपात्र संतान की प्राप्ति यह सभी पूर्व जन्म के कर्मों का ही फल है। कुछ लेना या देना होता है, तभी संतान की प्राप्ति होती है। यदि आपसे कुछ कर्जा मांगता है तो आपसे सेवा धन लेकर जायेगा, आपका हिसाब किताब पूरा 

करेगा और यदि आप अपनी संतान से पूर्व जन्म का दिया हुआ ऋण वापिस लेना है तो वह आपकी सेवा | करके चला जायेगा। ये सभी अपने ही कर्मों का फल है ऐसा समझ करके हे लोहट! धैर्य धारण करो। आँखों में यदि आँसू आते हैं तो पोंछ लो।

 मरुधर के निवासियों के लिए तो गोधन ही सर्वश्रेष्ठ धन था। गो माता है, जन्म दाता माता दूध पिलाती है किन्तु अधिक से अधिक दो चार वर्ष तक ही किन्तु गौ माता तो हमें आजन्म दूध, दही, घी आदि पिलाती है। हमारे जीवन का प्रमुख आधार तो गऊएँ ही है, अन्य भी पशु उपयोगी है किन्तु गऊ को माँ का दर्जा मिला है। गोचारन से जो हमे शुद्ध संस्कार मिलेंगे वे माता के होंगे।अन्य पशु भेंस,ऊंट,बकरी आदि से जो हमे मिलेगा वह पशुता की ओर ले जाने वाला ही होगा।

श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान गोचारन लीला भाग 3

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Sandeep Bishnoi

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