गुरु आसन समराथल भाग 1 ( Samarathal Katha )

 

                     गुरु आसन समराथल भाग 1 ( Samarathal Katha )
                     गुरु आसन समराथल भाग 1 ( Samarathal Katha )

 

 

                     गुरु आसन समराथल भाग 1 ( Samarathal Katha )

 

मूलो प्रोहत कह देव म श्री मानिस मान्यारो ओगण कोई नहीं। वेद कह छ: एक हाथ क पाटौ बांधे उभी वीसनोई कह पाटौ क्यौ बांध्यौ ? साहिब सुं चोरो कौवी ज्यौ बांध्यौ । बाललो चोरयो। धीज जीतो घर माही यो ले नीसर थो। हाथ धो। जाम्भोजी श्री वायक कहै

 

                              शब्द-72

 

ओ३म् वेद कुराण कुमार जालू, भूला जीव कुजीव कुजाणी।

बंदर नहीं नख हीरू, धर्म पुरुष सिरजीवै पूरूं।

 कलि का माया जाल फिंटाकर प्राणी, गुरु की कलम कुरांण पिछाणी।

 दीन गुमान करैलो ठाली, ज्यूं कण घाते घुण हांणी।

 

साच सिदक शैतान चुकावों, ज्यूं तिस चुकावै पांणी।

 मैं नर पूरा सरविण जो हीरा, लेसी जांके हृदय लोयण।

अन्धा रह्या इंवाणी।

 निरख लहो नर निरहारी, जिन चोखंड भीतर खेल पसारी।

 जंपो रे जिण जपै लाभै, रतन काया ए कहांणी।

कांही मारू काहीं तारूं, किरिया विहूंणा पर हथ सारूं।

 शील दहूं वारूं ऊन्है, एकल एह कहाणी।

 केवल ज्ञानी थल शिर आयो, परगट खेल पसारी।

छोड़ तेतीस पोहा रावण हारी, ज्यूं छक आयी सारी।

 

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सर्वोच्च कैलाश पर्वत सदृश धोरो में शिरोमणी समराथल पर गुरु शिष्य एकत्रित हुए। फाल्गुन ऋतु की अमावस्या के दिन गुगल घृत की महकार से चारो दिशाऐ प्रफुल्लित हो रही थी। चारो तरफका सघन वन बसन्त के आगमन का स्वागत कर रहा था मयुर, कोयल,कबूतर, तोता, अनेको प्रकार की बसन्त

चिड़िया आदि पक्षी भांति भांति के गीत गा रहे थे।

 

वन्य पशु हरिण लोमड़ी, सियार, खरगोश आदि जीव पूर्ण सुरक्षित हो कर के आनन्द में विभोर हो कर नृत्य गान कर रहे थे। वहां निरव तो केवल मानव शब्दो की थी नाथोजी ने अपने बीते हुऐ दिनो का स्मरण किया और कहने लगे

 

हे वील्हा ! यही वह सम्भराथल है जहां पर कुछ वर्ष पूर्व सदा ही मेला लगा रहता था। यही को ये हरी भरी कंकड़ी के वृक्ष धन्य है, जिनके नीचे घनी छाया में श्री देवजी विराजमान होते थे। यह वन साक्षी है। अब भी देवजी की सुवास से सुवासित है। ये वन्य जीव तुम देख रहे है एक साथ ही भ्रमण कर रहे है। यह उन्हीं श्री देवजी का प्रभाव है।

 

इसी समराथल की पावन धरती पर जाम्भोजी ने सताईस वर्ष तक गऊवे चराई धी। वे गऊवे बहड़े भी धन्यवाद के पात्र है वे ग्वाल बाल भी यही सम्भराधल पर ही भगवान के साथ खेल खेलते थे। वे सभी धन्यवाद के पात्र है।

 

इस पवित्र स्थल पर ही विश्नोई पन्थ की स्थापना की थी। बड़े बड़े शैतान राजा लोग यही आकर चरणों में झुके थे। इस स्थल को तुम प्रणाम करो। हे वील्हा ! अच्छा ही हुआ कि तुम यहां आ गये। और ज्ञान चर्चा कर के अपने जीवन को सफल बना रहे हो।

 

वील्हा उवाच – हे गुरुदेव! आप से बढकर इस समय मैं अन्य किसी पुरूष को प्रमाणिक पुरूष नहीं | मानता जो देवजी के साथ रहकर उनके श्री मुख से शब्द श्रवण किया हो और मुझे बतला सके। उन्होंने जो भी शब्द उच्चारण किया उसको आपने कण्ठस्थ किया है। आपने महती कृपा की जो मुझे शब्द सुनाये। आपकी दया से मैने सभी शब्द कण्ठस्थ भी कर लिये है। ये शब्द कब कब और किस किस की सनाये है। यह मैं अब तक जान गया हूं। किन्तु अब आगे और भी जानना शेष है। कृपाकर के आगे के शब्द एवं उनके प्रसंग तथा भाव जानना चाहता हूँ।

 

 

 नाथोजी उवाच- हे शिष्य। जैसा मैने तुझे अब तक जो भी प्रसंग कथाएँ बतलाई है इसी प्रकार आगे भी बतलाता हूं। एक समय श्रीदेवी समराथल पर संत भक्तो की सभा में विराजमान थे। उसी समय  ही एक पुरोहित आया,उसका नाम मूला था। पुरोहित ने सुना था कि जाम्भोजी कल्पित देवी देवताओं को

मान्यता नहीं देते, किन्तु पुरोहित इनकी पूजा में विश्वास रखता था और पूजा करता भी था।

 

पुरोहित ने पुछा – हे देव । सभी देवताओं की उपासना करनी चाहिये। इनकी उपासना करने में कोई दोष नहीं है, क्योकि वेद में लिखा है। वही पुरोहित हाथ के पट्टो बांधे हुआ जाम्भोजी के सामने खड़ा देखकर विश्नोइयो ने पूछा

 

 पुरोहित जी! हाथ में पट्टी क्यों बांधी है। पुरोहित ने कहा – साहब से चोरी की थी इसलिये बांधी है। एक सोने का हार चुराया था जब धैर्य धारण कर के घर से बाहर निकला था। तब मैने सोचा कि चोरी में ल हुआ किन्तु जिस हाथ से स्वर्ण हार चुराया था, वह हाथ जलने लगा, हाथ में जलन से घाव हो गया है पता नहीं ऐसा क्यों हुआ है, यह तो जाम्भोजी ही बतलायेगे। श्रीदेवजो ने” वेद” यह शब्द सुनाया ।

 

हे पुरोहित । हिन्दुओ का प्रमुख ग्रन्थ वेद है तथा मुसलमानो का कुराण, ये दोनो ही बड़े भारी शब्दों का जाल है एक शब्द के अनेक अर्थ हो जाते है। एक प्रकार का शब्द जाल है उसमें फंसना सरल है किन्त निकलना कठिन है सतगुरु ही जाल की गुंथी को जानते हैं। ये हो जाल को तोड़कर मुक्त कर सकते हैं किन्तु भूले हुए अहंकारों पुरोहित एवं मूल्य दोनो ही मनमानी अर्थ करते है अपनी इच्छानुसार हो वेद का नाम नेकर कुमार्ग पकड़ लेते है नाम वेद तथा कूराण का लेते है

 

 हीरे का नग भी चमकता है अपनी ज्योति प्रकाशित करता है किन्तु वह अग्नि की समानता नहीं कर सकता। हीरा तो होरा ही है और अग्नि तो अपनी जगह अग्नि हो है। उसी प्रकार से धर्म पुरूष तो पूर्ण सचेत पुरूष है किन्तु कुछ लोग उनको बराबरी करके अपने को धर्म पुरूष भी घोषित करते है किन्तु बराबर नहीं हो सकती।

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कलयुग में माया जाल का पसारा अधिक है, इन्हों पसारे से बाहर निकल कर देखे। गुरु ने जो कहा है वही सत्य है वही वेद कुराण है इसे पहचानो हे पुरोहित अहंकार से तुम लोग भरपुर हो तुम्हें कुछ भी नहीं दिखता है को बाहर निकालोगे। हे पुरोहित । अहंकार से तुम लोग भरपूर हो तुम्हे कुछ भी नहीं दिखता है इस को बाहर निकालोगे तो अन्दर खाली हो जाओगे तब तुम्हारे भीतर ज्ञान भरेगा। जिस प्रकार से मोठ आदि अनाज में घुण – कोड़ा अन्दर प्रवेश हो जाता है, अन्दर ही अन्दर खाता रहता है। मोठ को थोथा कर देता है उसी प्रकार से तुम्हारे अन्दर भी अहंकार तुम्हे खा रहा है। इसे बाहर करे।

 

 अन्दर बैठे हुए शैतान को सत्य धर्म से बाहर निकालो। जिस प्रकार से जल पीने से प्यास बूझ जाती है उसी प्रकार से सत्य धर्म से शैतान रूपी प्यास को मिटा डालो। तभी शांति होगी।

 

हे पुरोहित ! मैं तो इस समय नर के रूप में पूर्ण पुरूष हूं। आप जो चाहेगे वही मिलेगा। कल्प वृक्ष की भाँति मैं सभी को इच्छा पूर्ण करूंगा,किन्तु प्राप्त तो वही नर करेगा जिसके हृदय में ज्ञान के नेत्र खुले हुऐ हो। अन्धे लोग तो खाली हो रह जायेगे। आप ज्ञान नेत्रो से देखिये। मैं नर रूप में होते हुए भी निराहारी

हूँ।

 

मैने चारो दिशाओ में अपने खेल का पसारा किया है। जो कुछ खेल हो रहा है वह मेरी प्रेरणा से हो हो रहा है। इसलिये हे लोगो ! विष्णु का जप करने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारो पदार्थो की प्राप्ति होगी। यह तुम्हारी काया अन्य शरीरो से श्रेष्ठ है, ऐसा कहा जाता है।

 

मैं किसी को तो मारता हूं और किसी को तारता भी हूं तथा जो क्रिया रहित है उसको दूसरो के हाथ छोड़ देता हूं। किसी को शौल देता हूं, और उन्हें उदार लेता हूं। इसलिये सृष्टि के कर्ता,पालक, एवं संहार कर्ता ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश रूप से मै ही हूं। यह कार्य मैं अकेला ही करता हूं। किन्तु तीन कार्य करने से मेरे तीन नाम पड़ गये। वही कर्ता धर्ता कैवल्य ज्ञानी बन कर इस समय में सम्भराथल पर आया हूं।

 

 प्रगट रूप से मैंने ही खेल पसारा है मैने प्रहलाद भक्त को वचन दिया था। उनके तेतीस करोड़ को पार उतारा है। वही प्रहलाद पन्थ जीवित करके इन लोगो को दिखाने के लिये में यहां पर आया हूं। जिस प्रकार से सम्पूर्ण गाये जब जल पास खा पीकर बैठ जातो है,जुगालो करतो है,उसी प्रकार से मैं उन प्रहलाद के पंथी जीवों को तृप्त कर दूंगा। वे स्वंय बैकुण्ठ पहुंच जायेगे। तभी पूर्ण तृप्त हो सकेगे यहीँ काय है पुरोहित तुमने चोरी की तो तुम्हारा हाथ जला।

अब तुम यहां पर आये हो और पूछते हो कि मेरा हाथ क्यो जला। यह तो तुम्हारे पाप की थोड़ी ही सलक है। यह तो तुम्हे सचेत करने के लिये सूचना मात्र है। बिल्हा ! इ ५ कोर से अनेकानेक लोगो को समराथल पर हरि ककेहड़ी वृक्षो के नीचे बैठे हुऐ शब्द सोनिया। उन्हें सचेत कर के विश्नोई पन्थ के पथिक बनाया। इस शब्द का भाव पूर्ण हुआ तो पुनः आगे के शब्द का विचार बताने लगे।

 

बिश्नोई कह, एक जोगेसर दीठो, आसन सिला थरनाथ रही थी जाम्भोजी श्री वायक कहै

 

शब्द-73

 

ओ३म् हरी कंकेहड़ी मंडप मेड़ी, जहां मारा वसा।

चार चक नवदीप थर हरै, जो आप पर सु।

गुणियां म्हारा सुगणा चेला, म्हें सुगणा का दासी।

सुगणा होय से सुरगे जास्ये, नुगरा रह्या निरासू।

जाका थान सुहाया घर बैकुण्ठे, जाय संदेशो लायो।

 अमियां ठमियां इमृत भोजन, मनसां पलंग सेज निहाल बिछाया।

जागों जोवो जोत नोवो, छल जासी संसार।

भणी न भणबा, सुणी न सुणबा, कही न कहबा, खड़ी न खड़वा।

रे! भल कृपाणी, ताके करण न घातो हेलो।

कलीकाल जुग बरते जैलो, ताते नहीं सुरां सो मेलो।

 

 

 हे विश्नोइयो !आपने एक योगी को देखा है, सिला हिलती हुइ देखी है। आपने देखा कि योगी सिला हिला रहा है इसमें कुछ भी सिद्ध नहीं है।

 

श्री देवजी ने शब्द कहा- मैं यहां सम्भराथल पर हरि कंकहड़ी वृक्ष के नीचे बैठा हुआ हूं। यहां हमारा निवास स्थान है। ये कंकेहड़ी के वृक्ष ही हमारे मन्दिर, मठ, हवेलो है। वह योगी तो सिला हिला रहा है किन्तु मैं यहां पर बैठा हुआ यदि अपने पूर्ण रूपेण प्रकाश ज्योति को प्रकाशित कर दूं तो चारों चक और नव द्वीपों के रूप में यह सम्पूर्ण धरती ही थर थर कांपने लग जाये। कभी धरती में भूकम्प आता है वह हमारी ज्योति का थोड़ा सा बढा हुआ रूप हो होता है। उससे ही धरती कांप उठती है यदि सम्पूर्ण ज्योति पूर्ण रूपेण प्रकाशित हो जाये तो यह ब्रह्माण्ड कांप उठेगा।

 

 योगी आसन हिलाता है, या स्वयं हिलता है? यह तो योगी के लिए टीक नहीं है, योगी को तो स्थिर आसन होकर बैठना चाहिए। “स्थिर सुखमासनम्” इस संसार में कुछ गुणी जन है वे हमारे सुगणे चेले | है। मैं तो एसे सुगुरों का दास हूं। जो सुगणा शुद्ध पवित्र आत्मा है वे तो स्वर्ग में जायेगे किन्तु जो नुगरे है, पाखण्डी है वे तो निरास ही रहेंगे, उनकी इच्छा पूर्ण नहीं होगी ये योगी लोग बाह्य दिखावा द्वारा पाखण्ड करके अनेक प्रकार से पेट भरने का उपाय करेंगे। ऐसे नुगरे लोग आखिर निरास ही रहेंगे।

 

श्री देवजी कहते है कि मैं वैकुण्ठ से संदेशा लेकर आया हूं. वहां पर तुम्हें चलना है। वहां पर अमृत, मिष्ठान, सुमधुर फल, आदि का भोजन इच्छानुसार उपलब्ध है। शयन करने हेतु इच्छित पलंग, सेज | बिछाई हुई मिलेगी, जिस पर सोने से आनंद से पूर्ण हो जाओगे। तुम्हारी भक्ति ज्ञान कर्म का फल अवश्य ही प्राप्त होगा। इसीलिए जागो, देखो, विचार करो, ज्योति का साक्षात्कार होता रहे, कहाँ ज्योति खो न जाये। कहीं संसार के चक्कर में पड़कर ज्योति को भूल न जाये, यदि भूल गये तो छले जाओगे तुम्हारे साथ धोखा हो जायेगा।

 

 

 

गुरु आसन समराथल भाग 2

 

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Sandeep Bishnoi

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