गुरु आसन समराथल भाग 2 ( Samarathal Katha )

गुरु आसन समराथल भाग 2 ( Samarathal Katha )
गुरु आसन समराथल भाग 2 ( Samarathal Katha )
गुरु आसन समराथल भाग 2 ( Samarathal Katha )

हे कृष्ण! भजन योग्य तो भगवान है उसका भजन नहीं किया, सुनने योग्य भगवान की कथा लीला है उसको नहीं सुना। कथन करने योग्य जो भगवान की कथा- नाम है वह कथन नहीं किया। खेती करने योग्य खेती तो भगवान की प्राप्ति की साधना है तुमने नहीं की। कानों में परमात्मा की शब्द ध्वनि डालनी चाहिये थी वह तुमने नहीं डाली तो तुमने जन्म व्यर्थ ही खो दिया। यह समय कलयुग व्यतीत हो रहा है इसमें सचेत नहीं हुआ। इस कलयुग में देव विष्णु से मिलन होना कठिन है।

अनेको विष्न बाधाएँ उपस्थित हो जाती है तुम्हारा जीवन व्यर्थ में ही न चला जाये इसीलिए गुरु देव कहते है मैं तुम्हें सचेत कर रहा हूं।

 नाथोजी उवाच-हे वोल्हा! इस प्रकार से जमात एक योगी के प्रति लोगों की भावना- पाखण्ड को देखकर श्रद्धालु हो गयी थी, वह तो अंधश्रद्धा थी, जिससे खड़े में गिरने की संभावना थी उससे लोगों को सचेत किया। तथा आगे भी योगियों के प्रति अनेकों शब्द सुनाये

 बालनाथ कंवलनाथ गुरु चैलो दौन्यो विसनोई हुवा। कहै- जाम्भाजी म्हे अतीत करम करके पारायण हुवा। अब म्हाने अतीत को मार्ग बतावो। जाम्भोजी श्री वायक कहै

शब्द-74

ओ३म् कड़वा मीठा भोजन भखले, भखकर देखत खीरूं।

 धर आखरड़ी साथर सोवण, ओढ़ण ऊना चीरूं।

 सहजे सोवण पोह का जागरण, जे मन साहिबा थीरू।

सुरग पहेली सांभल जिवड़ा, पोह उतरबा तीरू।

बालनाथ कंवलनाथ दोनों गुरु शिष्य भ्रमण करते हुए एक समय विश्नोईयों के गांवो में इधर समराथल के पास ही विचरण कर रहे थे गुरु ने तो गांव के बाहर हो आसन लगाया और चेले को भेजा कि जाओं भिक्षा ले आओ। चेला घूमता हुआ एक ऐसे घर में चला गया जहां उस घर में किसी स्त्री पर प्रेत की

छाया आयी हुई थी।

घर के लोगो ने प्रार्थना को कि महाराज ! आप यदि भूत प्रेतो को निकालने का मंत्र आदि जानते है तो इलाज कर दीजिये। हम आपके लिये खीर बनाते है। वह शिष्य अवधूत भूत प्रेतो की बाधा दूर करने के लिये कोशिश करने लगा। उसको कोशिश से या अन्य कोई कारण से भूत प्रेत भाग गया। वह स्त्री स्वस्थ हो गयी। घरवालो ने महाराज के लिये इस खुशी में खीर बनायी और भोजन के लिये कहा

 उस योगी के चेले ने कहा – मैं अकेला यहां भोजन नहीं करूंगा, मेरे गुरु आसन पर है। पहले उनको भोजन अर्पण करके फिर मैं भोजन करूंगा। इसलिये आप मुझे और मेरे गुरु के लिये पात्र – बरतन में खीर भरदो, मैं लेकर चला जाऊंगा। घर वालो ने पात्र खौर से भर दिया और वह वहां से लेकर रवाना हुआ।

अन्तर्यामी श्री जाम्भोजी देख रहे थे। जांभोजी ने उनकी आत्मा को पहचाना था कि यह तो सुजीव है किन्तु भूत प्रेतो की उपासना करना और खोर खाना हो इसका उद्देश्य हो गया है। इसको इस कार्य से निवृत करना चाहिये। अन्यथा यह भूत प्रेत ही बनेगा इसकी दुर्गति हो जायेगी।

 इस प्रकार से मर मर कर भूतो के उपासक उसी गति को प्राप्त होते रहेगे तो अन्त कहां आयेगा इनका तो सम्प्रदाय बढ़ता ही जायेगा लोगो को बे वजह तंग करेगा किसी में भूतप्रेत प्रवेश करा देना किसी में से निकाल देना, अपना कार्य बना लेना यही तो हो रहा है। जब वह कंवलनाथ खीर लेकर जा रहा था तो जाम्भोजी ने अपना हाथ बढाकर खीर को गिरा दी। चेला गुरु के पास किन्तु खाली हाथ ही पहुंचा।

 गुरु ने पूछा-चेला भिक्षा नहीं लाये? क्या कहूं गुरुजी ! भिक्षा तो बहुत हो अच्छी खीर रूप में मिली थो किन्तु मार्ग में एक हाथ दिखाई दिया था, उसने खीर गिरा दी। मैं तो कुछ भी नहीं समझा, वह किसका हाथ था। गुरु ने कहा यह करामात तो जाम्भोजी की ही हो सकती है। चलो वहीं चलते है। दोनो गुरु चेला सम्भराथल पहुंचे।

शिष्य ने कहा- गुरुजी ! जिस हाथ ने खोर गिराई थी वह तो यही जाम्भोजी का हाथ है, मैं पहचान गया हूँ। बालनाथ ने प्रणाम करते हुए प्रार्थना की – हे जम्भेश्वर ! आपने खोर क्यों गिरा दी? हम भूखे थे शिक्षा में प्राप्त खीर आपने हमे क्यो नहीं खाने दो?

जाम्भोजी ने कहा- यदि कोई छोटा बालक सर्प को पकड़ ले तो माता पिता उसे बचाते है उसी प्रकार मैने भी आपको अधिकारी जान कर नरक में पड़ने से बचाया है। तुम लोग जीवन निर्वाह हेतु जो भी भोजन मिल जाये उसी से ही निर्वाह करो किन्तु अच्छे भोजन खोर आदि की प्राप्ति हेतु भूत प्रेतो को पूजा मत करो, यह तुम्हारा कार्य नहीं है नहीं तो तुम्हारा जीवन बरबाद हो जायेगा। अन्यथा अन्त मति सो गति, तुम मरकर भूत प्रेत हो बन जाओगे। ऐसा कहते हुए यह शब्द सुनाया।

 हे योगी । कड़वा मीठा जो भी भोजन मिल जाये उसे अमृत तृल्य मान कर, खोर ही समझकर भोजन करले। रसना के वशीभूत होकर जीवन को अधोगति में न डालो। जब अच्छी भूख लगी हो तो भोजन करलो वही अमृत है। धरती ही सेज- पलंग है इसी पर गहरी नोंद आये तब सो जाओ। गहरी नींद बिछौना नहीं मांगते।

ओढने पहरने के लिये ऊन खादी का मोटा वस्त्र ही ठोक है। जब सर्दी लगे जिस वस्त्र से बचाव हो जाये वही वस्त्र ओढने पहनने योग्य है वही मखमली चीर मानो। जो मौके पर सर्दी गर्मी का बचाव करें।

 सहज में ही जब निंद्रा आये तब सो जावो । सोने का कोई नियम नहीं है जय नींद आये तभी समय है उठने के लिये नियम है कि ब्रह्ममुहूर्त में उठे गहरी नींद में सोऐ स्वप्न आये तो उठ जाएँ। सूर्योदय से पूर्व ही उठे। साधना भजन करे तभी तुम्हारा मन स्थिर होगा। यह स्वर्ग मुक्ति एक प्रकार की पहेली ही है।

वहां पर पहुंचना इतना सरल नहीं है जितना तुम समझते हो। यदि मार्ग पकड़ लोगे तो पार पहुंच जाओगे।

 कवलनाथ को गुरु सुरण कोयो। कमलनाथ कमलनाथ कहे जांभोजी ! कोई भैरू अरू माता, अरू आन देव, पूजै तिनको फल कहो जांभोजी श्री वायक कहैं

शब्द-77

ओ३म् भूला लो भल भूला लो, भूला भूल न भूलूं।

 जिहि ठूंटड़िये पान न होता तो क्यों चाहत फूलूं।

 को को कपूर चुटीलो, बिन घंटी नहीं जाणी।

सतगुरु होयबा सहजे चिन्ह, जाचा आल बखाणी।

 ओछी किरिया आवै फिरिया, भ्रांती सुरग न जाई।

अन्त निरंजन लेखो लेसी, पर चीन्हें नहीं लोकाई।

कण बिन कूकस रस बिन बाकस,बिन किरिया परिवारों।

 हरि बिन देह जाण न पावे, अम्बाराय दवारूं।

जाम्भोजी द्वारा पूर्व शब्द सुना तो बालनाथ ने विलाप किया। घर बार छोड़ कर योग धारण भी किया साधना मार्ग में भी चल रहे है किन्नु हमारी साधना को तो जाम्भोजी तुच्छ हो मानते है।

 पुनः बालकनाथ ने पूछा – हे गुरु देव यदि कोई भैरू, जोगमाता आदि आन देवता को पूजा करते है उनको कुछ फल मिलता है या नहीं? जाम्भोजी ने शब्द सुनाते हुए कहा

हे बालक नाथ कमलनाथ । तुम लोग भूले हुए हो। तुम्हें वास्तव में साधना पूजा का पता नहीं है। योग धारण करने से पूर्व भी भूले भटक थे। कुछ ज्ञान की किरण जगे इस आशा से तो योग धारण किया था। किन्तु तुम्हें गुरु भी ऐसे ही मिलते गये जो यो भी भूले हुऐ थे। अन्धे को अन्धा मिला तो रास्ता कौन बतलाये। इस समय भी तुम भूले हुऐ हो तो भी फिर से भूल मत करना।

अब भी रात्रि नहीं आयी है दिन हो है, सचेत रहो। जिस ठूंठ पर पते हो नहीं है,सूख चुका है उस पर फल कहां से आयेगा। ये कल्पित जिन्हें तुम देवी देवता कहते हो ये तो सुखे हुए ठूंठ को भाति है, यहां फा ल कहां है जिसने अनुभव किया है वही जानता है, अनुभवो तो कोई बिरला ही होते है जिस प्रकार कपूर ऊपर से देखने में तो बहुत अच्छा रूचिकर प्रतीत होता है किन्तु उसे घोटकर चखकर देखें तो असलियत का पता चले।

उसी प्रकार से तथाकथित देवी देवता कपूर की तरह ही शोभायमान है किन्तु रस एवं फल में कटुता भरी है।

सतगुरु यदि है तो सहज में ही पहचान करले। अन्यथा तो सतगुरु के नाम पर डुबोने वाले हो अधिक सक्रिय है जो व्यक्ति प्रति है जांचध पीलिया रोग से पीड़ित है वह तो जो आंखो में पीलापन है वही सभी जगह देखेगा। स्वंय स्वार्थवश देखेगा और दूसरो को भी आल बाल कुछ बकेगा।

 अधूरा कर्म पूर्ण फल नहीं दे सकता । ओछे छोटे देवता की पूजा भी जन्म मरण के चार से नहीं छु सकती। बार बार जन्म मरण के चक्कर में डालेगी। किसी एक निर्णय पर नहीं पहुचना यह भ्रमित का लक्षण है भ्रान्त व्यक्ति कभी स्वर्ग मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता।

मृत्यु काल में भगवान निरंजन ही सम्पूर्ण जीवन का लेखा जोखा मांगेगा। उस समय आन देवता की पूजा साधना जवाब नहीं देगी। वहां पर इस साधना का कोई महत्व नहीं होगा। ये बाते तो वहाँ छुपानी हो होगी। ये भूत प्रेत तो बिना कण के धोथे भूसे की तरह व्यर्थ हो है।

बिना रस के बाकस की तरह इनकी पूजा की हुई व्यर्थ में हो जायेगी उस अमृतमय परमात्मा से दूर ही ले जायेगी। जिस प्रकार से जिस परिवार में शुद्ध क्रिया नहीं है वह परिवार भी व्यर्थ ही है।

 वह परिवार एकता नहीं रख सकता बिखर जायेगा इसी प्रकार से तुम्हारा सम्पूर्ण प्रयास धूल धूसरित हो जायेगा। हरि की कृपा बिना तो इस शरीर से जब आत्मा निकलेगी तो पार नहीं पहुंच सकेगा हरि हो संसार सागर में डूबते हुऐ का एक मात्र सहारा है।

इसलिये अम्बाराय मेरे श्री भगवान विष्णु के परम धाम पहुंचने के लिये, सदा सदा के लिये जन्म मरण से मुक्त होने के लिये, अन्य देवता को छोड़ कर एक हरि का ही सहारा पकड़े तभी कल्याण युक्ति मुक्ति है योग धारण करने का फल है।

 जोगी कहै जाम्भाजी हम जोग साज्या है नव पोली जीती है जाम्भोजी श्री वायक कहै

                          शब्द-78

ओ३म् नवै पोल नवै दरवाजा, होंठ कोड़ी राय जड़ी।

 काय रे सींचो बनमाली, इंच वाड़ी तो भेल पड़सी।

 सुवचन बोल सदा सुहलाली, नाम विष्णु को हरे सुणो।

स्वस्ति: प्रजाभ्यः परिपालयंतां - लोकक्षेम मंत्र (Svasti Prajabhyah Paripalayantam)

राजन के राजा महाराजन के महाराजा - शब्द कीर्तन (Rajan Ke Raja, Maharajan Ke Maharaja)

प्रेम हो तो श्री हरि का प्रेम होना चाहिए - भजन (Prem Ho to Shri Hari Ka Prem Hona Chahiye)

घण तण गड़बड़ कार्यों वायो, निज मारग तो बिरला कायो।

निज पोह पाखो परदेसी पर, जाण म गाहि म गायो गूंणो। श्रीराम में गति थोड़ी, जोय जोय कण बिण कूकस काई लेणो।

 योगी बालनाथ कहने लगा है जाम्भोजी । हमने योग साधना को है। नौ पोल जीती है। जाम्भोजी शब्द कहै

हे बालनाथ ! इस शरीर को संरचना में नौ दरवाजे है दो आंखे, दो कान,दो नासिकाऐँ, एक मुख ये सात तो उपर के दरवाजे तथा दो नीचे के उपस्थ एवं गूदा। ये नौ दरवाजे तथा नौ ही इनके पोछे पोल खाली जगह है। जहां पर ये इन्द्रिया अवस्थित होती है। तथा सादे तीन करोड़ रोमावली छिद्रो से यह शरीर युक्त है ये सभी दरवाजे वाहा वस्तु ज्ञान को ग्रहण करते है और अन्दरके अवशिष्ट मलादि का त्याग करते है

इस प्रकार यह शरीर एक जंगल के रूप में है। जहां पर अनेकानेक झाड़िया आदि उगे हुऐ है इसी वन की सिंचाई माली बन कर के कर रहे है। इससे पार भी जाना है यह साधना तो तुमने को ही नहीं। यह वनबाड़ी तो एक दिन अवश्य ही मुरझा जायेगी तथा उजड़ भी जायेगी। इसलिये हे योगी सुवचन का उच्चारण करोगे तो सदा ही खुशहाली बनी रहेगी।

 तुमने योग धारण कर लिया है तो सदा निरंतर एक विष्णु का ही स्मरण,पूजन करो, उसी का हो कीर्तन करो, यही तुम्हारा कर्तव्य है। अधिक भाग दौड़ उछल कूद क्यों कर रहे हो । शांत होने की कोशिश करो। अपने निज स्वकीय मार्ग पर चलो। स्व धर्म के अनुनायो बनो। ऐसे मार्ग पर तो कोई विरला ही चलता है।

यदि अपना निज पथ छोड़ कर देखा देखी चलेगा तो पार नहीं उतर सकोगे। यही चौरासी लाख जोव योनियो में भटकोगे। जानते हुए भी भूल कर रहे हो। तुम्हे पता है कि मूंग मोठ निकाल लेने के पश्चात पीछे गूणा भूस ही अवशिष्ट रहता है उसे तुम दुबारा गाहटा करोगे तो आपका प्रयत्न व्यर्थ ही जायेगा उसमें अन्न कहा है।

 श्री राम जी में तो बुद्धि विश्वास कम हो है किन्तु संसार में मति अधिक है यदि ऐसा है तो विना कण के थोथे घास को ले रहे है। उसमें अन्न आदि तत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती। जोगी कहै जांभोजी । जोग सों उमर बधै जांभोजी श्री वायक कहै

शब्द-79

ओ३म् बारा पोल नवै दरसाजी, राय अथरगढ़ थीरु।

 इस गढ़ कोई थीर न रहे, निशान चला गया गुरु पीरू।

 योगी कहने लगा-हे देव जाम्भोजी | हम लोग योग साधना करते है श्वासो को जीत लिया है।इससे हमारी आयु बढती है

जाम्भोजी ने शब्द सुनाया – यह जीवात्मा इस बारा पोल और नौ दरवाजे वाले शरीर में बैठा हुआ है बाहर तो क्योंकि पोल शून्य आकाश हो है। उस शून्य आकाश मार्ग से एह जीव निकलकर के चला जायेगा। आगे मार्ग साफ है शरीर में बैठा हुआ यह न जाने कौन से दरवाजे से निकलेगा उसे तुम कैसे रोक सकोगे।

यह जीव अन्दर बैठा है तभी तक यह काया जीवन है इस काया गढ में न तो अब तक कोई स्थिर रहा है और न कोई आगे स्थिर रहेगा। कुछ तो जल्दी ही प्रयाण कर जाते है तो कुछ बाद में इससे कुछ भी अन्तर  नहीं पड़ता। निश्चित ही गुरु पीर राजा आदि चले गये है। हे योगी ! तुम लोग इसमें रहने का विचार कर रहे हो। इस प्रकार से बालनाथ एवं कमलनाथ जाम्भोजी के शिष्य बने धर्म का आचरण किया।

 यह विश्नोई पन्थ सीधा सरल एवं साफ है इसलिये इसमें समय समय पर अनेकानेक लोग सम्मिलित होकर कल्याण के मार्ग पर अग्रसर होते रहे है।

नाथोजी उवाच – हे शिष्य ! इस परम पवित्र सम्भराथल पर देवजी इन हरि भरी कंकहड़ी वृक्षों के नीचे विश्राम करते थे उनके बिछाने के लिये कोई आसन आदि नहीं था। इसकी पूर्ति हेतु गंगा पार से आने वाले विश्नोई यात्री सुन्दर मखमल का बिछौना लेकर श्री देवजी के पास आये थे। इस बात को मैं तुझे विस्तार से बतलाता हूं।

 एक पूरब को विश्नोई मखमल मौसी को गदरो रूई सु छलाय र ल्यायो । तम जाम्भोजी पोढो तदे यापे सोइयो। जाम्भोजी श्री वायक कहै

शब्द-80

ओ३म् जे म्हां सूता रेण बिहाव, तो बरते विश्वा बारू।

 चन्द भी लाजै सूर भी लाजै, लाजै धर गेणारूं।

 पवणा पाणी ये पण लाजै, लाजै बणी अठारा भारू।

सप्त पताल फुंदा लाजै, लाजै सागर खारूं।

जम्बूद्वीप का लोइया लाजै, लाजै धवली थारूं।

 सिद्ध अरु साधक मुनिजन लाजै, लाजै सिरजन हारूं।

सतर लाख असी पर जंपा, भले न आवै तारूं।

एक पूर्व गंगा पार का विश्नोई मखमल मिस्र का गदा रूई से भराकर के सम्भराथल पर लाया, और जाम्भोजी से कहा- हे देव आप यहां वृक्ष तले रेत पर ही बैठे रहते है रात्रि में सोते नहीं, शायद यहां कठोर भूमि में नींद नहीं आती होगी? आप यह मखमल का गदरा स्वीकार कीजिये,इस पर सोइये, आपको गहरी नींद आयेगी।

 सतगुरु जी ने शब्द सुनाते हुऐ इस प्रकार से कहा हे भक्त ! क्या मैं तुम्हारे कथानुसार सो जाऊँ? यदि मैं सो गया तो तुम नहीं जानते क्या हो जायेगा हमारे सोने का अर्थ तुम नहीं जानते। यदि मैं सो गया रात्रि हो जायेगी अर्थात् प्रलय हो जायेगा। अभी मुझे समय में मत सुलाओ। प्रलय होने का समय नहीं आया है। जब तक एक हजार युग पर्यन्त मैं सोता रहूंगा तो रात्रि हो बनी रहेगी। और जब मैं जग जाऊग तो उतना ही दिन रहेगा।

 इस समय प्रलय हो जाये तो सूर्य चन्द्र, तारे,धरती,गगन,मण्डल,पवन,पाणी,अठाहर भार वनस्पति, सातो. पताल,शेष नाग,सागर,सिद्ध,साधक,मुनिजन,तथा सिरजनहार तथा इस जम्बू दीप के लोग ये सभी लान् हो जायेगे।

ये सभी समय में ही प्रलय हो जायेगे। यहां कुछ भी नहीं रहेगा। किसी भी प्रकार का जोवन एवं जीने का साधन नहीं रहेगा। इसलिये मुझे आप सोने के लिये ना कहो। अब तो जीओ और विकास करो यह समय अनुकुल है।

हे लोगो ! इस समय तो साधना भजन करो। भजन भी ऐसा करो जो तुम्हें संसार सागर से पार उतार दे। जिस प्रकार से लाख की चूड़ियां बनती है लाख को तपा करके सांचे में डाला जाता है तो वह सांचे का आकार ग्रहण कर लेती है उसी प्रकार से तुम्हारी चित वृति भी तदाकार-विष्णु के आकार की हो जाये,वही सच्चा भजन होगा। सर्वत्र विष्णु परमात्मा का ही दर्शन हो सके ऐसी साधना करो।

 पुन: वील्होजी को समझाते हुए नाथोजी कहने लगे-जाम्भोजी ने अनेकानेक साधन – मार्ग मुक्ति के लिये बतलाये है उस समय समराथल पर विराजमान देवजी के पास में योगी,सिद्ध, विशेष रूप में आया करते थे। उन्हें उसी प्रकार की बात बतलाया करते थे एक समय की बात है कि जाम्भोजी के पास एक साधु आया और उनसे वार्ता हुई वह मैं तुम्हें सुनाता हूं। एक साधक साधु का क्या कर्तव्य है ऐसा श्री देवजी ने बतलाया था

 एक साध परदेस ता चाल्यो। घोड़ी नै घोड़ो छोड़ी नीसरयौ। घाटि बाधि छः महीना को बछेरो हुवी बीकानरे को देश पूछि पांव धोपालियै आयो। एक लुगाई पूछे कीथोड़ीयौ आयौ। कीथोड़ी जासी साध कहै देवजी के दीवाणि जासूं। अत तो देव कोई नहीं। एक पाखण्डी सो थै। पाखण्ड चलायौी थे कोई देव ना बात ।

साध पछताणें। कलपण लागौ। देवजी दूवागर मेल्ह्यो। दुवागर कहै- साध तन्हैं देवजी यादि क्यों। क्यों घोड़ी झालै बैठो थे। जी नै जाय बुलाय ल्यावो साध खुसी हुवो। देवजी कै दीवाण आयो। देवजी कहै साध कलप्यौ क्यौ। देवजी । थाने पाखण्डी कह्या। जाम्भोजी श्री वायक कहै

शब्द-81

ओ३म् भल पाखण्ड पाखण्ड मंडा, पहला पाप पराछत खंडा। जा पांखडी के नादे वेदे शीले शब्दे बाजत पौण।

 ता पाखंडी ने चीन्हत कौण, जाकी सहजै चूके आवागौण।

एक साधु प्रदेश से चला। उसके पास में सवारी हेतु घोड़ी थी। जब अपने देश में चला था तब घोड़ी गर्भवती हुई थी और सम्भराथल तक पहुंचते पहुंचते छेरा छः माह का हो गया अर्थात् सत्रह अठारह माह बराबर चला था। तव धूपालिये गांव में समराथल के निकट पहुंचा था। धूंपालिये गांव की एक महिला ने पूछा कि कहां से आये हो? और कहां जाओगे?

 साधु ने कहा- हे देवी ! मैं बहुत ही दूर से चल कर आया हूं और देवजी जाम्भोजी के पास जाऊगा वह देवी कहने लगी- यहां पर कोई देव नहीं है। एक पाखण्डी अवश्य ही है। पाखण्ड चलाता है न कोई देव है और नहीं कोई देव पने की बात ही है।

 साधु पछताने लगा- इतनी दूर से चल कर आया किन्तु यहां के लोग तो पाखण्डी बतला रहे है। मेरा यहां तक आना व्यर्थ ही हुआ। देवजी ने समराथल पर विराजमान होते हुए भी बात जान ली और अपने एक सेवक को भेजा। सेवक ने जाकर कहा – हे साधो ! तुम्हे देवजी ने याद किया है, वही सम्भराथल पर बुलाया है। मुझे तुम्हारे पास भेजा है और कहा कि घोड़ी पकड़े हुऐ साधु बैठा है उसे बुला लाओ। ऐसा निमन्त्रण सुन कर साधु बड़ा ही प्रसन्न हुआ।

और देवजी के पास सम्भराथल आ गया देवजी ने कहा -हे साधी ! तुम दुखी क्यो हुए? हे देवजी ! आपको उस स्त्री ने पाखण्डी बतलाया था इसलिये मुझे दुख हुआ। जाम्भोजी ने शब्द सुनाया – हे साधु पुरूष । उस स्त्री ने मुझे पाखण्डी बतलाया था सो ठीक ही बतलाया था। मैं पूरा पाखण्डी हूं। मैने पूरा पाखण्ड प्रारम्भ कर दिया है प्रथम तो पाखण्ड द्वारा मैने पापो का खण्डन कर दिया है। पापो को पराजित करके उन्हें भगाता हूं।

गुरु आसन समराथल भाग 3

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