महाभारत का युद्ध खत्म हो गया था। युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर की राजगादी संभाल ली थी। सब कुछ सामान्य हो रहा था। एक दिन वो घड़ी भी आई जो कोई पांडव नहीं चाहता था। भगवान श्रीकृष्ण द्वारिका लौट रहे थे। सारे पांडव दु:खी थे। श्रीकृष्ण उन्हें अपना शरीर का हिस्सा ही लगते थे, जिसके अलग होने के भाव से ही वे कांप जाते थे। लेकिन श्रीकृष्ण को तो जाना ही था।
कोई भी श्रीकृष्ण को जाने नहीं देना चाहता था। भगवान भी एक-एक कर अपने सभी स्नेहीजनों से मिल रहे थे। सबसे मिलकर उन्हें कुछ ना कुछ उपहार देकर श्रीकृष्ण ने विदा ली। अंत में वे पांडवों की माता और अपनी बुआ कुंती से मिले।
भगवान ने कुंती से कहा कि बुआ आपने आज तक अपने लिए मुझसे कुछ नहीं मांगा। आज कुछ मांग लीजिए। मैं आपको कुछ देना चाहता हूं। कुंती की आंखों में आंसू आ गए। उन्होंने रोते हुए कहा कि हे श्रीकृष्ण अगर कुछ देना ही चाहते हो तो मुझे दु:ख दे दो। मैं बहुत सारा दु:ख चाहती हूं। श्रीकृष्ण आश्चर्य में पड़ गए।
श्रीकृष्ण ने पूछा कि ऐसा क्यों बुआ, तुम्हें दु:ख ही क्यों चाहिए। कुंती ने जवाब दिया कि जब जीवन में दु:ख रहता है तो तुम्हारा स्मरण भी रहता है। हर घड़ी तुम याद आते हो। सुख में तो यदा-कदा ही तुम्हारी याद आती है। तुम याद आओगे तो में तुम्हारी पूजा और प्रार्थना भी कर सकूंगी।
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