प्रश्न 71. गुरुदेव ! आप सूतल लोक में कितने समय तक रहे ?
उत्तर- रणधीर ! मैं सूतल लोक में चालीस दिनों तक रहा सूतल लोक में पाहल बनाकर चार लाख लोगों को विश्नोई बनाया। विश्नोई बनने के बाद वे सब विष्णु के हो गये।
प्रश्न 72. प्रभु ! जब आप नहीं मिले तब ग्वाल बालों ने क्या किया ?
उत्तर -सभी जगह खोजने पर जब मैं नहीं मिला तब सारे बच्चों ने जाकर ठाकुर साहब से बतलाया। ठाकुर साहब सब कुछ जानते थे उन्होंने सभी लोगों को सान्तवाना देते हुए कहा- आप लोग उनकी चिन्ता न करें। वे तो सबकी चिन्ता मिटाने वाले है। जैसे मैंने पशुओं को छुड़ाकर ग्वालों की चिन्ता मिटाई।
प्रश्न 73. प्रभु ! आपने पशुओं को कैसे छुड़ाया ?
उत्तर – जोधपुर नरेश के पशुओं को उनके ग्वालों से छीनकर ले गये। तब ग्वाले मेरे पास आकर बोले – भगवन् आप हमेशा अलौकिक कार्य करते है। प्रभु ! आज आप हमारा भी एक काम कर दो। आप हमारे पशुओं को छुड़ा दीजिए। मैंने उन ग्वालों से कहा- ग्वालों आप सब अपनी-अपनी लाठी (पशु चराते वक्त हाथ में ली गई लकड़ी) पर चढ़कर दौड़ो।
सभी ग्वाले अपनी-अपनी लाठी पर चढ़कर दौड़े जिससे घोड़ों की टापों की सी आवाज सुनकर डाकुओं ने सेना समझ कर पशुओं को छोड़ दिया और स्वयं भाग गये। इधर ग्वाले पशुओं को लेकर आये और सामने राज कुमार उद्धरण अपनी सेना लिये हुए आया। पशुओं को देखकर उद्धरण ने ग्वालों से पूछा- इन पशुओं को किसने छुड़ाया।
तब सभी ग्वालों ने मेरा नाम लिया और जो मैंने युक्ति बतलाई वो भी उन सब ने बतला दी, यह बात सुनकर उद्धरण मेरे पास आया और कहने लगा। इस रूप में आप कौन है यह हम जानना चाहते है।
प्रश्न 74. गुरुदेव ! उद्धरण ने आपसे और क्या-क्या प्रश्न पूछे ?
उत्तर – रणधीर उद्धरण ने सबसे पहले मेरे चारों ओर घुमकर देखा और फिर पूछा आपका रूप कैसा है यह हमें कुछ समझ में नहीं आया कृपा करके आप अपने रूप के बारे में कहिए? मैंने उद्धरण से जो शब्दोपदेश किया वह इस प्रकार है- “मौरे छाया न माया” मेरे निज स्वरूप में न अविद्या है और न ही सत्वगुण प्रदान माया “लोहू न मासु रक्तुं न धातु” न रक्त है, न मांस, न रजवीर्य है, न सप्त धातु आदि “मौरे माई न बापू” मेरे स्वरूप में कोई किसी तरह का विकार नहीं है।
मेरे न माता है और न पिता ही। “आपण आपुं’ मेरा कोई कारण नहीं है मैं अपने आप में ही हूं। “रोही न रापुं कोपूं न कलापू दुःख न सरापू” मैं न तो शरीर हूं और न ही शरीर से सम्बन्धित रूप, न शरीर धारियों को देखकर कुपित होता और न ही कोई कल्पना करता हूं। न मैं कभी दुःखी होकर किसी को शाप ही देता हूं। “लोई अलोई त्युंह तृलोई” मैं शरीर रूप से दिखता हूं पर वास्तव में अशरीर हूं।
तीनों लोकों में “ऐसा न कोई” मेरे जैसा और कोई नहीं है। “जपा भी सोई” इसलिए मेरा जप करो। “जिहिं जपे आवागमण न होई” मेरा जप करने से आवागमन छूट जायेगा। “मोरी आद न जाणत” लोग मेरे आदि कारण को नहीं जान सकते। “महियल धूवा बखाणत” केवल पर्वत पर घूवें को देखकर अग्नि का अनुमान लगाया जाता है। इसी तरह मेरे लक्ष्णों को देखकर अनुमान लगाते है।
“उर्ध ढाकले तृसूलूं।” संसार में तीन प्रकार की सूले (दुःख) हैं भूख, प्यास और निद्रा इन तीनों को मैंने जीत रखा है “आद अनाद तो हम रचीलो हमे सिरजीलो से कौण” आदि अनादि सृष्टि की जो रचना हुई है वो मेरे द्वारा ही की गई है। मुझे पैदा करने वाला कोई नहीं है “म्हे जोगी के भोगी कै अल्प अहारी” मैं योगी हूं या भोगी हूं अथवा अल्पाहारी हूं। “ज्ञानी के ध्यानी के निज कर्मधारी” मैं ज्ञानी हूं या ध्यानी अथवा स्वयं का कार्य करने वाला हूं?
“सोषी के पोषी कै जल बिम्ब धारी” मैं शोषण करने वाला हूं या पोषण करने वाला ? अथवा जल में प्रतिबिम्ब की तरह हूं। “दया धर्म थाले निज वाला ब्रह्मचारी” इन बातों को कोई भी नहीं जान सकता। मैं दया और धर्म की स्थापना करने के लिए निजस्वरूप में ब्रह्मचारी बन कर आया हूं। अतः तुम जिस भाव से मुझे देखना चाहते हो।
उस भाव से मेरा असली स्वरूप नहीं देख सकते। यदि मुझे जानना चाहते हो तो मेरी शरण में आना पड़ेगा। क्योंकि मैं सर्वत्र व्यापक परमसत्ता हूं। इसलिए परम सत्ता को पाने के लिए मेरी शरणागति जरूरी है।
प्रश्न 75. गुरुदेव ! आगे और राजकुमार ने क्या प्रश्न किया सो बताइये?
उत्तर – रणधीर ! उद्धरण ने फिर पूछा आप कहते है कि आदि-अनादि सृष्टि की रचना मैंने की है। आपकी आयु तो बहुत कम है और बातें बहुत बड़ी-बड़ी करते हो। राजकुमार उद्धरण को फिर मैंने समझाते हुए यह शब्द सुनाया- “जद पवण न होता पाणी न होता न होता घर गैणारु” जिस समय पवन, पानी, पृथ्वी, आकाश ये नहीं थे। “चंद न होता सूर न होता” चन्द्रमा और सूर्य ये भी नहीं थे। “न होता गंगदर तारु” न आकाश में तारे थे।
“गऊ न गोरु” न गाय थी न बैल। “माया जाल न होता” उस समय माया का फैलाव नहीं था। “न होता हेत पियारु” प्रेम करने वाले कोई नहीं थे। “माय न बाप न बहण न भाई साख न सैण न होता न होता पख परवारूं कोई भी सम्बन्धी माता-पिता, बहन-भाई मित्र आदि नहीं थे।
“लख चौरासी जीया जूणी न होती” चौरासी लाख प्रकार की जीव यौनियां नहीं थी। “न होती बणी अठारा भारु अठारह भार वनस्पति नहीं थी। “सप्त पताल फुणिंदा न होता उस समय सातों पाताल और शेष नाग आदि नहीं थे। “न होता सागर खारु समुद्र भी नहीं था।
“अजिया सजिया जीया जूणी न होती उस समय निर्जीव-सजीव दोनों प्रकार की सृष्टि नहीं थी। “न होती कुड़ी भरतारुं स्त्री पुरुष भी नहीं थे। “अर्थ न गर्थ न गर्व न होता” न धन था, न पशुधन और नहीं धन का अहंकार था। “न होता तेजी तुरंग तुषारु” न तेज चलने वाले घोड़े थे। “हाट पटण बाजार न होता” न बाजार न नगर थे, न दुकानदार थे।
“न होता राज दुवारु” न राजा लोगों का दरबार था। “चाव न चहन न कोह का बाण न होता” न मन में चाव (उत्साह) पैदा करने वाले लक्ष्यभेदी बाण थे। “तद होता एक निरंजन शंभू उस समय केवल माया रहित निराकार परमात्मा थे। “के होता धधु कारू” और शून्य था अर्थात् आकाश मात्र था। “बात कदोकी पूछ लोई” तुम कब की बात पूछ रहे हो ? “जुग छतीस विचारू” मैं छतीस युगों की जानता हूं।
“ताह परैरे अवर छतीसूं और उससे भी पहले के छतीस युगों की। “पहला अन्त न पारु” छतीस युगों से पहले का तो कोई पार ही नहीं है। “म्है तदपण होता अब पण आछै” जिस समय शून्य था उस समय भी मैं था अब तेरे सामने भी हूं। “बल-बल होयसा” जब-जब जरूरत पड़ती है मैं आता हूं। “कह कद-कद का करू विचारु बोल कौन-कौन सी बात का विचार करके कहूं। मैं हर समय रहता हूं। पहले भी था ओर आगे भी रहूंगा तथा अब भी हूं।
प्रश्न 76. गुरुदेव ! इस शब्द को सुनकर फिर राजकुमार ने क्या पूछा ?
जगन्नाथ मंगल आरती (Jagannath Mangal Aarti)
पत राखो गौरी के लाल, हम तेरी शरण आये: भजन (Pat Rakho Gauri Ke Lal Hum Teri Sharan Aaye)
स्वर्ग खोलने की कूंची (श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान ने बताया)
उत्तर – रणधीर ! राजकुमार ने मेरे हाथ में माला देखकर पूछा- भगवन् आप जप ध्यान किसका करते है ? तब मैंने शब्दोपदेश सुनाया- अइयालो अपरम्पर वाणी म्हें जपां न जाया जीऊं” लोगों ! मेरी वाणी अपरम्पार है। मैं किसी जन्म लेने वाले जीव का जप नहीं करता और तुम्हें भी जन्में जीवों का जप नहीं करना चाहिए। “नव अवतार नऊं नारायण तेपण रूप हमारा थीऊं” राजकुमार ! जो नौ बार परमात्मा ने अवतार लिया वे सब मेरे ही अवतार थे।
मैंने ही अलग-अलग समय में आवश्यकता के अनुसार अवतार लिया। आगे भी आवश्यकता के अनुसार अवतार लूंगा। “जपी तपी तक पीर ऋषेश्वर कायं जपीजे तेपण जाया जीऊं ऋषि-मुनि तो स्वयं जप करने वाले है। उन जन्में जीवों का तुम जप क्यों करते हो ? “खेचर भूचर क्षेत्रपाला परगट गुप्तां कांय जपीजै तेपण जाया जीऊं”
आकाश व पृथ्वी पर विचरण करने वाले, प्रकट या गुप्त रहने वाले जन्में जीवों का जप क्यों करते हो? “बांसग शेष गुणिदां फुणिदां कांय जपीजै तेपण जाया जीऊं” चौषठ यौगिनियों और बावन प्रकार के वीरों का जप क्यों करते हो? “जपा तो एक निरालंभ शभूं जिहिं के माई न पीऊं” यदि जप ही करना है तो निरालम्ब स्वयम्भू का करो जिसके माता-पिता नहीं है अर्थात् वे जन्में हुए नहीं है। अपने आप प्रकट होने वाले है।
“न तन रक्तुं न तन धातु न तन ताव न सीऊ” उन परमात्मा के न शरीर है, न रक्त, न धातु, न शीत है न ऊष्णता। “सर्व सिरजत मरत बिबरजत तासन मूल जे लेणा कियो” वे परमात्मा सारी सृष्टि की रचना करने वाले है। जो उनकी शरण में चले जाते हैं। इसलिए उनके मूल तत्व को खोजो। “अइयालो अपरम्पर वाणी म्हें जपा न जाया जीऊं” अरे लोगों! जन्में जीवों का जप क्यों करते हो ? मैं कभी भी जन्में जीवों का जप नहीं करता। तुम्हें केवल परमात्मा का ही जप, तप, योग आदि करना चाहिए।
प्रश्न 74. गुरुदेव ! इन बातों को सुनकर राजकुमार ने फिर क्या पूछा ?
उत्तर- रणधीर ! राजकुमार ने पूछा- भगवन्! ये अवतार लेने वाले राम कृष्ण आदि भगवान है या देवता ? तब मैंने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया “भवन-भवन म्हें एका जोती” राजकुमार! प्रत्येक भवन में मेरी ही ज्योति है। “चुन चुन लिया रतना मोती” मैं सभी जगह से मेरे भक्तों को चुन-चुनकर बैकुण्ठ धाम में भेजता हूं।
“म्हे खोजी था पण होजी ना ही” मैं खोज करने में पूर्णतः सक्षम हूं अनजान नहीं हूं। “खोज लहां धुर खोजूं” मैं शुरु से ही मूल की खोज करता हूं। “अलाह अलेख अडाल अयोनि मैं सत्य स्वरूप से व्यापक सत्ता हूं। किसी भी जीव योनि में जन्म नहीं लेता। “स्वयंभू” मैं स्वयं प्रकट होने वाला हूं।
“जिंही का किसा बिनाणी” जो अपने आप प्रकट होते है उनका विनाश कैसा ? अर्थात् उनका कोई विनाश नहीं कर सकता। “म्है सरै न बेठा सीख न पूछी” मैं सब कुछ जानता हूं। अतः किसी भी विद्यालय में बैठकर कुछ भी शिक्षा प्राप्त नहीं की। “निरत सुरत सब जाणी” सम्पूर्ण वेद-वेदांगो को भी जानता हूं।
“उत्पत्ति हिन्दु जरणा जोगी” संसार में उत्पन्न होने वाला जीव जन्म से हिन्दु ही होता है। संस्कार करवाकर अलग-अलग पंथ में मिला लेते है पर योगी तो वो ही है जिसके पास जरणा (धैर्य है)। “क्रिया ब्राह्मण जिसके पास उत्तम क्रिया होती है वे ब्राह्मण है। “दिल दरबेंसा” जिसका हृदय शुद्ध है वे दरवेश है।
“उन मुन मुल्ला अकल मिसलमानी” मन को अन्तर्मुखी करके असली फकीर की तरह बुद्धि लगाकर तत्व की बात स्वीकार करने से जीवन परिपक्व हो जाता है। मैंने राव जोधा को भी बैरिसाल नगाड़े दिये थे।
प्रश्न 78. गुरुदेव ! राव जोधा को आपने बैरिसाल नगाड़े क्यों दिये ?
उत्तर- रणधीर राव जोधा अपने पुत्र दूदा व भतीज उद्धरण से मेरी महिमा सुनकर मेरे पास आया और बोला- भगवन् ! ऐसी कृपा करो जिससे मेरा राज्य स्थिर हो जाय। तब मैंने दो नगाड़े दिये और कहा- इन नगाड़ों के बजने से जहां तक आवाज जायेगी, वहां तक आपके शत्रु ठहर नहीं पायेंगे। राजा ने अपनी सीमा में उन नगाड़े की आवाज करवा दी जिससे उसका राज्य स्थिर हो गया।
प्रश्न 79. भगवन् ! राव जोधा राज्य स्थिर हो जाने के बाद क्या आपके पास आया ?
उत्तर-हां रणधीर ! राव जोधा राज्य स्थिर हो जाने के बाद कई बार मेरे पास आया और आशीर्वाद लिया। मेरे पास और भी राजा आशीर्वाद के लिए आते जिसमें राव दूदा, राव जोधा, राव बीका, राव सूजा, राव गंगा और राव मालदेव आदि मेरे पास जो कोई आता है वह कुछ न कुछ अवश्य प्राप्त करता ।
कई आशीर्वाद, कई ज्ञान की बाते, तो कई मेरे दर्शन से ही कृतार्थ हो जाते हैं क्योंकि मेरे दर्शन से सभी प्रकार के संशय मिट जाते हैं और वैराग्य हो जाता है, वैराग्य से अपनी आत्मा का दर्शन हो जाता है। आत्म दर्शन ही सर्वोत्तम कार्य है।
प्रश्न 80. भगवन् आपके पास जो राजा आये वे पंथ चलाने के पहलेआये या बाद में ?
उत्तर- रणधीर ! संसार के लोग स्वार्थी होते हैं। इन राजाओं को जब-जब जो जो जरूरत पड़ती ये मेरे पास दौड़े आते हैं। पंथ चलाने से पहले भी आते थे और बाद में भी परन्तु आते स्वार्थ से बिना स्वार्थ के सांसारिक लोग बात तक नहीं करते।
प्रश्न 81. गुरुदेव ! इन लोगों को क्या स्वार्थ है ?
उत्तर – सांसारिक लोगों में लौकिक सुख की इच्छा होती है। उसकी पूर्ति के लिए मेरे या सन्तों के पास जाते हैं। परमार्थ की भावना लोगों में प्रायः कम होती है। वे तो स्वार्थपूर्ति में ही लगे रहते हैं।