बिश्नोई पंथ की स्थापना भाग 3
ग्रामीण जनों ने पूछा कि महाराज ! आपके पास साहूकार ऐसा कौन है जो इतने लोगों को मुफत में अन्न देगा । साहूकार तो देगा लेकिन वे तो व्याज सहित वापिस मांगेगा तब हम कहाँ से देंगे? तथा हमें आपका भी विश्वास कम ही हो रहा है । क्या पता बाबाजी का ? आप उठकर चल देंगे तो हमें पीछे आपका साहूकार कैसे देगा? हम तो कहीं मंझधार में डूब जायेंगे,न तो इधर के रहेंगे और न ही उधर के रहेंगे। | त्रिशंकु की भांति बीच में ही लटक जायेंगे।
जम्भयति ने कहा – आप लोग मेरी बात पर विश्वास करो,मेरे पास जो साहूकार है वह कोई सामान्य साहूकार नहीं है जैसा कि तुम समझते हो । वह तो जगत का पालन कर्ता स्वयं विष्णु ही है । वही विष्णु इस संसार में सब जगह व्याप्त है तथा इस संसार का पालन पोषण भी वही करते है तथा वह प्रभु तुम्हारे
शरीर में विद्यमान रहता है तभी तुम जीवन जीते हो ।
यदि इन्द्र देवता तुम्हारे पर रूठ गये तो क्या हुआ देवताओं के भी देवता विष्णु तुम्हारे पर प्रशन्न है वह तो तुम्हे देगा कि इतना देगा जो तुम्हारे पास कमी नहीं पडेगी । मेरी एक बात और भी सुनो । आप लोग चारो दिशाओं में ढिढोरा पिटवा दीजिये । कोई भी अन्न के अभाव में भूखा न हरे । मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी भी सकुशल रहे । सभी की पूर्ति वह विष्णु ही करेगा । आप लोग कल से ही अन्न लाना प्रारम्भ कर दो ।
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जन समूह ने कहा- हे देवजी ! आप हमें अन्न देगें,इसके एवज में हमें क्या करना होगा ? यदि आपकी कोई शर्त हो तो हमें बतला दीजिए,क्योंकि जो भी वायदे होने है वे पूर्व ही सभी के सामने ही हो जाये अन्यथा आगे जाकर कोई न कोई झगडा खडा हो जायेगा।
जम्भ देव जी ने कहा-सुनो ! मैं भी अपनी बात तुम्हे बता देता हूँ यदि आप राजी हो तो करना अन्यथा हम तो वापिस चले जाते है संभराथल,आप चले जाये मालवे । प्रथम तो तुम्हे नित्य प्रति स्नान करना चाहिये । वह भी प्रात: काल सूर्योदय से पूर्व ही,बाज स्रान तो कोई स्नान नहीं है ।
दूसरा नियम यह कि मैं आपको जब अन्न दूंगा तो आप किसी जीव की हत्या नहीं करोगे ।
तीसरा नियम यह होगा कि किसी भी प्रकार के नशे से दूर रहोगे । इन धुऑ धाड मांस मदिरा से दूर रहोगे । यदि ये नियम धारण करोगे तो मैं तुम्हे अन्न दूंगा अन्यथा मैं कुपात्रों को दान नहीं देता । इन लक्षणों से जो युक्त है वह मेरी दृष्टि में सुपात्र है।
कुपात्र को दान जु दिया, जाने रैण अंधेरी चोर जुलियो।
चोर जु लेकर भाखर चढ्यो,कह जिवडा तै कैने दीयों।
लोगों ने कहा महाराज ! यह स्नान का नियम तो ऐसा कोई जरूरी नियम नहीं है करे तो ठीक न करे तो ऐसा कोई नुकसान नहीं है । इस समय कार्तिक का महिना प्रारम्भ होने जा रहा है,सर्दी चमक गयी है,पूरे चार -पांच महीने भयंकर सर्दी पडेगी,सर्दी में स्नान करना कठिन होगा हम तो मर ही जायेंगे । हमने तो कभी स्नान किया भी नहीं है अब कैसे हो सकेगा यदि हम ठण्डे जल में स्नान करते हुऐ ठण्डे हो गये तो
फिर यह तुम्हारा अन्न कौन खायेगा?
हे दीनानाथ ! हमने तो सुना और देखा है कि हमारी तो यह परंपरा रही है कि स्नान तो तीन ही प्रमुख पहला स्नान तो जब बालक जन्म लेता है तो दायी करवा देती है, दूसरा स्नान विवाह पर होता है उस समय नाई करवा देता है,तीसरा स्नान अन्तिम स्त्नान है वह भाई करवा देता है ।इनसे अतिरिक्त न तो कोई हमने देखा है न कोई हमने सुना है । और न ही कोई परंपरा आवश्यक है ।
हे देवजी ! आप यह छोड़ो और यज्ञ करें, क्या फर्क पड़ता है धुंआ तो धुँआ ही होता है,चाहे वे यज्ञ का हो या तम्बाकू का हो । जीवों की हत्या करना तो क्षत्रियों का काम है इसे कैसे परित्याग करें ?
जम्भेश्वरजी ने कहा- पहले आप लोग सम्भराथल से अन्न लाकर भोजन करें,बादमें मैं आप लोगों को अमृत पाहल पिलाऊगा । जिससे आप लोगों का अन्तःकरण शुद्ध होगा तभी तुम्हारे अन्दर शुद्ध भाव जन्म लेगा । तुम्हे इस दुर्व्यसनों से घृणा होगी,तभी स्वतः ही दुर्गुण छुटेंगे उनकी जगह सद्गुणों का वास होगा। । इसलिये आप लोग कार्तिक लगते ही अष्टमी के दिन आ जाना । वहाँ पर मैं तुम्हे अच्छी – अच्छी बातें बतलाऊंगा । पवित्र पाहल देकर बिश्नोई पंथ की स्थापना करूंगा ।
आप लोग इस बात की सूचना सभी गांवों में पहुंचा दे । अभी तो मैं चलता हूँ आप लोगों में से कोई एक आदमी मेरे साथ अन्न लाने के लिये चले तथा अन्न लाकर सभी लोगों को अन्न जिमाये । आप लोग मेरी बात पर विश्वास करोगे तो मैं तुम लोगों को देवता बना दूंगा । सभी प्रकार के दुखों से सदा सदा के लिये छुटकारा दिला दूंगा । ऐसा कहते हुए सिद्धेश्वर जी समराथल पर विराजमान हुए।
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सम्भराथल पर कुछ लोग तो अपने स्वार्थ हेतु तथा कुछ लोग परमार्थ हेतु आना जाना प्रारंभ हो गया था । कार्तिक बदी अष्टमी के दिन सवा प्रहर दिन चढे पन्थ स्थापना का सुयोग था । इसलिये सैंकडो लोगों को जहाँ-तहाँ गाँवों नगरों में भेजे,उन लोगों को यह कहकर भेजा कि सम्भराथल पर स्वयं जम्भेश्वर जी विश्नोई पन्थ की स्थापना कर रहे हैं ।
आप लोग अष्टमी के दिन अवश्य आये । जैसे आपको सुविधा हो वैसे आप लोग पहुँचे । वहाँ पर अन्न धत्र,लक्ष्मी तथा रूप व गुण और मुक्ति प्राप्त होगी । जिसको जो चाहिये वह मिलेगा । वहाँ पर इन वस्तुओं का भण्डार भरा हुआ है जो भी वस्तु आप लोगों को चाहिये वह जम्भद्वार पर हाजिर होकर प्राप्त करें।
” अन्न धन ज्ञान भक्ति अरू मोखा,मोपे राजे पांचू थाना । इन चीजों का भरिया भण्डारा,चाहो सो आवो जम्मू द्वारा ।। “
जाम्भोजी की आज्ञा शिरोधार्य करके उस समय अनेक गांवों के सभी प्रकार के लोग आये । उनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य तीन वर्णो के लोग बहुतायत से थे । जिन – जिन गांवों के लोग वहाँ पर आये थे और विश्नोड्र पन्थ का अनुगमन किया था । उनकी गौत्र तो वही रह गयी थी उन्होने तो केवल पन्थ – धर्म स्वीकार किया था । जिन-जिन गौत्रों के लोग वहां पर एकत्रित हुए थे उनकी गौत्र इस प्रकार थी –
अघोरी,अखाड़ा अवतार, अडोल, अग्रवाल, अडीग, अभीर, अहीर, आंजणा, आमरा, आंवरा, आयस, इहराम, लग, ईसराम, ईयार, ईसरवाल, उत्कल, उदाणी, गोदारा, एचरा, ऐरण, कडवासरा, कर्णटा, करीर, कबीरा, कलवाणीया, कसवां, काकङ कालीराणा, कासनियां, कासिल, किंकर, किरपण, कुपासिया, कुहाङ कूकणा, केरू, खदाह, खडहर खाती, खावा, खासा, खिलेरी, खीचड़ खारा, खेरा, खोखर, खोथ, गरूङ गर्ग, गाट, गावाल, गीला, गुजेला, गुरेसर, गुरु , गोङ गोदारा,
(खरिंगिया, सोनगरा, धोलिया, कनड उदाणी) गोभिल, गोयत, गोयल, गोरा, चंदेल, चांगड (सुथार) चाहर, चोटिया, चौहान, जंवर, जटराणा, जाणी, जांगू, जाखड जाजुदा, जागी, जीवन, झांग, झांस, झांझणा, झासला, झुरिया, झोदकण, झोरड टाडा, टांडा, टुहिया, (टुसिया) टोकसिया, डागर, डारा, डूडी, डेलू, ढांढणियां, ढरवाल, ढाका, ढूकिया, (डाकिया) तंवर, तगा, तरङ तायल, तांडी, तांडा, ताला, तुंदल, तेतरवाल, तोला, थलवट, थालोङ थेोरी, दइया, दङक, दिलोइया,
दूगेसर, देहङ्क देवडा, दोतङ धतरवाल, धामा, धायल, धारणियां, नाथ, नाडा नाई, निरवाण, नैण, पंवार, पडिहार, पठान, पलिया, परिवार, पारस, पटोदिया, (सुधार) पालडिया, परिवार, पुहिया, पूना,पैदल, पोकरण, पोटलिया, पाटोदिया, बजाज, बछियाल, बडोदा, बटेसर, बरङ, बल्डकिया, बरदायी, बाबल, बावरा, बाराणियां, विडंग, बिच्छू, विलादत, युरिक, यूडिया बेरवाल, बोला, भूवाल, भट्ट भटिया, भीलू मियां, भुवाल, भारद्वाज, भांभू, भाखर, भाडेरा, भाग, भुट्टा, भेजावत, मंडा,
मतवाला, मल्लाहा, माहेश्वरी, महिया, मांझ, माचरा(माजरा), मातवी, माल, मालीवाल, मुंड, मूंढ, मंडा, मेवरा, मेटला, मोगा, मोहिल, रसा, राठोड रायल, रावत, गाँव, राहङ रूबावल, रेड, रोज, रोज, ललेसर, लटियाल, लांम्बा, लुहार, लैंघा, लेधा, लोल, लोहमरोङ वडियार, गोत्र, वटेसर, वाना (विडार) वणयाल, बए विड्यासरा, विलोणियां, वाला, वरयाल, वात्सल्य,
वदिता, सन्यासी, सराक, सह, सराक, सारस्वत, सांई, सांखला, सांवक, सारण, सिघल, सियाक, सिंवर खिंया, सिरका, सिरडिया, सीगड सिंवर, सीलक, सीवल, श्रीमाली, सिंहल, सिसोदिया, सुथार, सुनार, सेवदा, सेनूडिया, सोढा, हरदू हाडा, हमडा, हाडा, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि । इन उपरोक्त गौत्र के विश्नोई बने थे । तथा आगे भी यह क्रम जारी था ।
वील्होजी उवाच – हे गुरु देव ! आपके कथनानुसार विभिन्न गोत्र जातियों के लोग कार्तिक मास की अष्टमी से आना प्रारंम्भ हुऐ थे, इतने लोगों के लिये भोजन जल आदि का प्रबन्ध भी तो श्री सिद्धेश्वरजी ने कृष्ण चरित्र से ही किया होगा । ऐसा में समझता हूँ,आगे में यह जानना चाहता हूँ कि श्री देवजी के पास ऐसा कौनसा मंत्र तथा तरीका था जिससे सभी को एक ही पन्थ पर चलने के लिये मजबूर कर दिया । अन्यथा इस देश के लोग सर्वथा अज्ञानी विमूढ थे । किसी की बात को मानने के लिये ही तैयार नहीं थे।
नाथोजी उवाच – हे शिष्य ! जब सर्वत्र यह खुश खबरी फैल गई कि सम्भराथल पर जाम्भोजी महाराज अन्न- धन्न लक्ष्मी रूप गुण और स्वर्ग मुक्ति के दाता है तो लोग कुछ तो दुखी थे इसलिये दुख दूर करने के लिये आये थे,तथा कुछ भूखे थे उन्हे भूख मिटानी थी । तथा कुछ लोग स्वर्ग – मुक्ति प्राप्ति हेतु भी आये थे । तथा कुछ थोड़े से लोग ज्ञान श्रवणार्थ आत्म ज्ञान की प्राप्ति हेतु भी यहाँ पर आये थे। निष्प्रयोजन तो कोई यहाँ पर क्यों आता?
सर्वप्रथम श्री देवजी ने सम्भराथल पर कार्तिक वदी अष्टमी को विशाल यज्ञ का आयोजन किया था,क्योंकि अकाल पड़ा हुआ था,वातावरण दूषित हो चुका था,देवता नाराज थे,उन्हे आहुति प्रदान करनी थी,लोगों को यज्ञ के लिये प्रेरित करना था,यज्ञ के पास एक मिट्टी का कलश रखा गया था । उसमें शुद्ध जल भर कर के रखा गया था,उसके नीचे बाजरा भर के रखा गया था जो सभी के लिये खाद्य पदार्थ था । यह कलश पूर्वोतर कोण में रखा गया था क्योंकि उस जल में वरूण देवता का आहवान किया गया था ।ओम् जदू वासरूपम् ” इत्यादि गोत्राचार द्वारा,
अग्नि में स्वाहा कहते हुए आहुति प्रदान की अग्नि प्रज्वलित करके विभिन्न देवताओं को मंत्रों द्वारा थी। यज्ञ का कार्य सम्पन हो जाने पर श्री देवजी ने वहाँ उपस्थित जन समुह में से अपने ही शरीर सम्बन्धी चाचा पूल्होजी को पास बुलाया था क्योंकि चाचा पूल्होजी कुछ दिन पूर्व स्वर्ग देख चुके थे । उस समय भी धन सम्पति का दान करके संसार के मोह से निवृत हो चुके थे । वानप्रस्थ बन कर के अपने जीवन को | साधना में ही व्यतीत कर रहे थे । उनसे बढकर वहाँ उस समय और कोई पवित्र आदमी नहीं था पूल्होजी | ज्ञान वृद्ध – वयोवृद्ध तथा सदाचारी साधक थे ।
उनका हाथ अपने हाथ में लेकर कलश पर रखा,हाथ में बाजरी एवं उस युग की प्रतीक मुद्रा तांबे का तथा ईश्वर स्मरणी माला को रखा,ये तीनों ब्रह्मा विष्णु महेश के प्रतीक है । श्री जम्भेश्वरजी ने सभी के | लिए सभी से अनुमति लेकर कलश पूजन मंत्र का उच्चारण किया,वह इस प्रकार है-