सेंसेजी का अभिमान खंडन भाग 1
वील्हो उवाच- हे गुरुदेव! आपने मुझे अब तक जाम्भोजी के जीवन के बारे में अनेकानेक चरित्रों से अवगत करवाया। उन्नतीस नियमों का ही आपने अनेक तरीको से समझाया है। जाम्भोजी के मुख्य निवास स्थल समराथल धाम की चर्चा मैनें श्रवण की है, जहां पर अनेक लोग आये थे। उन्होनें श्रीदेवजी का दर्शन करके जीवन को सफल बनाया था जाम्भोजी द्वारा धरोहर के रूप में रखी हुई सफेद पोशाक चोला, चादर, माला आपने मुझे दी है और मुझे आपने शिष्य बनाया है मैं तो आपकी महान कृपा से कृत्य कृत्य हो गया हूँ।
मैंने देखा है कि जाम्भोजी के शरीर का चोला चिंपू और टोपी जांगलू गांव में मेहोजी थापन के घर पर रखी है। ये तीनों बस्तुएं जांगलू कैसे चली गयी ? तथा जाम्भोजी को चिपी-भिक्षापात्र यह खण्डित देख रहा हूँ। यह पात्र खण्डित किसने और क्यों किया, यदि इसमें कोई रहस्यमय बात हो तो बताने की कृपा करें। वैसे तो भगवान का जीवन चरित्र रहस्य से परिपूर्ण है। जितना मैं सुनता जाता हूँ, उतना हो आनन्द
|विभोर होता जाता हूँ क्योंकि भगवान की लीला बड़ी ही विचित्र है।
हे गुरुदेव। जो मैनें जानने की इच्छा की है और जो नहीं भी पूछ पाया हूँ मेरे लिए कथन करने योग्य है तो अवश्य ही कथन कीजिये, मैं आपकी शरण में हैं। इस प्रकार से जिज्ञासा प्रगट करने पर श्री नाथोजी कहने लगे- हे बील। अभी थोड़े ही समय पूर्व की बात है। रणधीरजी बाबल जाम्भोजी के परम शिष्य समाधि मन्दिर बना रहे थे। अभी मन्दिर पूर्ण भी नहीं हुआ कि रणधीरजी की किसी दुर्घटना में मृत्यु हो गयी। सेखोजी थापन का मंझला बेटा मेहोजी ये तोन वस्तुएं लेकर जांगलू चले गये।
एक टोपी तो अपने बड़े भाई चोखा के कहने पर वापिस दे दी किन्तु दो वस्तुएं चिंपी चोला जांगलू में ही रखे हुए हैं जो दर्शनीय है। इन बातों की विस्तार से चर्चा समय आने पर करूंगा जो चिपी खण्डित रखी हुई है यह तो सेंसोजी कस्वां नाथूसर निवासी के घर पर खण्डित हो गयी थी वहां पर जाम्भोजी भिक्षा हेतु गये थे।
वील्होजी उवाचः- हे गुरुदेव! आपने पूर्व में कहा था कि जाम्भोजी तो भिक्षा भोजन नहीं करते थे, तब वो सैंसें के घर पर भिक्षा लेने के लिए क्यों गये थे? तथा चिपी खण्डन होने की कथा विस्तार से बतलाने की कृपा करे ।
नाथोजी उवाचः- हे शिष्य! यह बात तो तुमने सत्य कही कि जाम्भोजी भोजन नहीं जीमते थे किन्तु ओंकार भक्त सैंसे का गर्व खण्डित करने के लिए जाम्भोजी का जाना हुआ था। इस वार्ता को विस्तार से में बतलाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो- नाथोजी कहने लगे कि मैं इस घटना का प्रत्यक्ष दृष्टा हूं
एक समय सम्भराथल पर विराजमान सतगुरु देव ने नाथूसर गांव में झींझाला धोरा पर जाने की इच्छा की। उसी समय ही साथरियों भक्तों ने भी साथ ही चलने की प्रार्थना की श्रीदेवजी ने सभी को साथ में चलने की आज्ञा प्रदान की। उसी समय ही सभी ने ही अपने ऊँट और घोड़ा आदि जोते और नाथूसर की तरफ चल पड़े। सभी संत-भक्तजन कीर्तन करते हुए देवजी के साथ ही रवाना हुए और उनकी शोभा अतिसुन्दर थी।
स्वयं विष्णु ही देवताओं के साथ कहीं मृत्युलोक में किसी को निहाल करने ही जा रहे थे सफेद रंग के बैल हंसों के समान अपनी उज्जवलता को प्रदर्शित कर रहे थे रंग-बिरंगे ऊँट घोड़ा एकत्रित चलता हुआ मेय वर्ण, एवं गर्जन करते हुए वर्षा की शोभा को भी शोभित कर रहे थे राग ध्वनि, साखी, शब्दों की, इन्द्र राज्य में गों के गान को भी मन्द कर रहे थे।
बीच के गांवों को सुशोभित करते हुए आज स्वयं हरिजी न जाने क्यों झींझाले धोरे पर जंगल में मंगल करने जा रहे थे इस बात का तो कुछ पता नहीं था। जयजयकार की ध्वनि सुनाई पड़ती थी। आज क्या हो रहा है, शांत सुरम्य वातावरण में आज सुगन्धी क्यों आ रही है। नासिका अपने विषय को ग्रहण कर रही थी। आंखे रूप देखने को तरस रही थी। यही कारण था कि गांवों के लोग एकत्रित होकर अपनी आंखों से रूप को देखकर अपने जीवन को सफल कर रहे थे।
जब श्रीदेवजी अपनी भक्तमण्डली सहित झींझाले धोरे पर आ गये थे चारों तरफ गांवों के लोगों ने सुना तो दर्शनार्थी आसपास के गांवों के लोग एकत्रित होकर आने लगे जाति-पाति के भेद, भाव को छोड़कर अपूर्व श्रद्धा भाव से एवं विश्वास से आ रहे थे। पास में आते चरणों को प्रणाम करते. कुछ लोग अत्यधिक भावुक हो जाते। अपने सुख दुःख की बात त्रिकम जी से करते। ओ३म् विष्णु की ध्वनि से वह धोरा की धरती गुंजायमान हो रही थी।
इसी प्रकार से नाथूसर गांव वासी भी अपने सिरदार सँंसोजी भक्त के साथ नृत्य करते हुए हर्ष खुशी के साथ झींझा के धोरे पर पहुंचे। अपनी अपनी अभिलाषा लेकर देवजी के पास अपार जन समूह आ रहा था। सैंसे ने सर्वप्रथम देवजी के पास आकर पूछा- हे देव! यदि आप आज्ञा प्रदान करें तो हम लोग जमात के सहित आपके चरणों में प्रणाम करे तो हम लोग आपके प्रताप से पार पंहूंच जाये।
देवजी ने कहा- हे सैंसा! अवश्य ही आप लोग तिरने की योग्यता रखते हैं। किन्तु अब तक तैरना जानते नहीं है। मैं तुम्हें तैरना सीखाने के लिए ही तो आया हूँ । नर नारी अपनी भेंट श्रीदेवजो के चरणों में रख रहे थे। कहां कहां किस किस वन में प्रहलाद पंथी जोव बिखरे हुए हैं उन्हें सचेत करना होगा। इसलिए उस रात्रि में निवास श्रीदेवजी ने झिंझाले पर ही किया।
गांवो की आगन्तुक जमात से वापिस अपने घर में जाने को आज्ञा मानी । नाथूसर के सैंसे ने भी आगे बढ़कर हाथ जोड़े और कहने लगा- आपने बड़ी कृपा की जो हमारे जंगल में पधारे हैं। हे गुरुदेव । आप सहित अन्नपान करे और हम लोग वापिस अपने घर को जायें। आपके पास पूरे दिन समा
अपनी मण्डले में युक्ति-मुक्ति का मार्ग सीखा। अब रात्रि होने वाली है, हमें घर जाने की आज्ञा दीजिए।
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हे गुरुदेव। आपने सम्पूर्ण जमात को कुछ न कुछ सीख अवश्य ही दी है, मेरे लिए कुछ भी नहीं कहा।। मैं क्या इस योग्य नहीं हूँ जो आपके वचनों का पालन न कर सकू। श्रीदेवजी ने सैंसे भक्त का भाव देखकर कहा हे सेंसा!
भाव भले सूं दिजो भीख, साम्य कह संसा आ सीख ।
भाव भक्ति से भूखे को भोजन देना यही तुम्हारे लिया शिक्षा है। सैंसे के मन में यह सीख उंची नही सैंसा कुछ सोचने लग गया। न तो कुछ हां कह सका और न ही कुछ ना ही कह सका। सारियों ने कहा हे सैंसा। जैसा सतगुरु कहते वह ठीक हो कहते हैं। उनकी बात को स्वीकार करके पालन करे।
श्रीदेवी ने साथियों से कहा- सैंसे ने मेरी बात सुनी तो अवश्य ही है किन्तु यह इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा है यह भक्त तो अच्छा है किन्तु अहंकारी भक्त है। सैंसो कहने लगा- हे देव मैने तो दान देते हुए सम्पूर्ण पापों का नाश कर डाला है। मैं तो भाई बन्यु, न्यात-जमात को एकत्रित करके इन्हें भोजन करवाता हूँ। अब इन्हें और भी जिमाऊंगा।
हे देव। मैं तो घर पर आये हुए अतिथि साधु संतों को अच्छी प्रकार से भिक्षा देता हूँ। घर पर आये हुए अतिथि को ना तो मैं कभी कहता ही नहीं हूँ। आप भी मेरे घर को देखे मेरे घर को सारा संसार जानता है केवल आप ही शायद नहीं जानते, इसलिए तो आपने ऐसी बात कही है।
। श्रीदेवजी ने सैंसे भक्त तथा उनकी मण्डली को जाने की आज्ञा प्रदान की और सैंसे के चले जाने पर साथियों से कहा- हे भक्तों! भैंसे का भंडारा, अतिथि सेवा अवश्य ही देखंगा। सैंसा कहता था कि आपने अब तक देखा नहीं है।
संसार के लोगों ने तो देखा है। स्वयं का अलख पुरुष ने अन्य हो रूप धारण कर लिया। दूसरा ही रूप, दूसरी हो बोली, दूसरी हो वेशभूषा सिरसा सीस बधारया केशा सिर के बाल लम्बे बढ़ा लिये, भगवान की भक्ति बिना कौन पहचान सकता है।
हरि ने पतरी-चिपी अपने हाथ में ले ली। अन्य किसी भक्त संत को साथ में नहीं लिया अकेले ही सोने के घर जाकर अलख जगाई। सम्पूर्ण संसार जिनके आगे भिक्षुक बन करके कुछ न कुछ गाँगता है। वह जगजीवन-मालिक आज सोने के घर भिक्षा के लिए पंहुच गये। भगवान की अहैतु की कृपा होतो है।तभी भगवान उसके अज्ञान जनित गर्व का भजन करते हैं।
सैंसा तो घर पंहुचा ही था, संध्या वेला थी। गुरु के नियम का पालन करते हुए संध्या करने को बैठा हो था। जगत स्वामी ने सोने के घर पर अलख जगाते हुए कहा-सत विष्णु की बाड़ी। हे देवी विष्णु के नाम से भिक्षा दो। आपकी बाड़ी हरी-भरी रहेगी। सैंसा भक्त संध्या कर रहा था। अन्दर से आवाज सुना और कहने लगा
इस संध्या बेला में मैं यह क्या सुन रहा हूँ। होगा कोई कंगाल पुरुष, फलसा-किवाड़ बंद कर दो।सेसे भक्त ने बात तो बड़ी विचार के कही थी, क्योंकि यह बेला संध्या की थी। इस बेला में तो भगवान के दर्शन हो होना चाहिये थे किन्तु सैन्से ने तो अकस्मात कुपात्र के दर्शन कर लिये। सैंसे की आज्ञा को शिरोधार्य करके सैंसे को धर्मपत्नी दौड़कर सामने आयी कि यह कहीं अतिथि आंगन में न आ जाये, पहले ही इसे रोका जाये।
सैंसे की नारी कहने लगी- मैनें तुझे देख लिया है तूं हमारे घर में प्रवेश करने के योग्य नहीं है। बाहर चलो। श्रीदेवी के सैंसे की धर्मपत्नी की इच्छा समझली कि यह कुछ भी नहीं देगी किन्तु इससे बिना कुछ प्राप्त किये वापिस जाना भी तो नहीं है, इसलिए खिड़की को पकड़ लिया। खिड़की छूट गयी तो फिर यहा कुछ भी नहीं मिलेगा यहां आना व्यर्थ हो हो जायेगा।