शब्द इलोल सागर भाग 1

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शब्द इलोल सागर भाग 1
शब्द इलोल सागर भाग 1

                शब्द इलोल सागर भाग 1

नाधोजी उवाच:- एक समय की अद्भुत घटना मैं तुम्हें सुनाता हूँ क्योंकि- तुमने तो मेरे से नहीं पूछा किन्तु मैं तुम्हें बिना पूछे ही सुनाता हूँ। क्योंकि स्वयं श्री सिद्धे धरजी ने भी तो बिना कुछ जमात के पूछे ही स्वतः शब्द का उच्चारण किया था। इस शब्द को इलोल सागर के नाम से कहा जाता है। कभी कभी बिना पूछे स्वतः ही किसी विशेष घटना की स्मृति हो जाये तो उसे कहे बिना नहीं रहा जाता। अन्दर उमड़े हुए भावों को शब्दों द्वारा प्रगट कर दिया जाता है।

अपार आनन्द की अनुभूति को अन्दर रोक करके नहीं रखा जाता। वैसे तो श्री जाम्बेश्वरजी बिना प्रयोजन नहीं बोलते थे किन्तु इस शब्द के बारे में तो अपवाद ही कहा जायेगा। आनन्द की लहरें उमड़ पड़ी और स्वतः ही इस प्रकार से बाहर निकल पड़ी। 

 इस शब्द द्वारा –

                     ईलोल सागर शब्द – 29

 ओ३म् गुरु के शब्द असंख्य प्रबोधी, खार समंद परीलो।

 खार समंद पर पर्दे, चौखंड खारू, पहला अन्त न पाना। अनन्त कोड़ गुरु की दावण बिलम्बी,करणी साच तरीलो।

सांझे जमों सवेरे थापण, गुरु की नाथ डरीलो।

भगवीं टोपी थलशिर आयो, हेत मिलाण करीलो।

अम्बाराय बधाई बाजै, हृदय हरि सिंवरीलो।

कृष्ण मया चौखण्ड कृषाणी, जम्बू दीप चरीलो।

 जम्बूद्वीप ऐसो चर आयो, इसकन्दर चेतायो।

मान्यो शील हकीकत जाग्यो, हक की रोजी धायों।

ऊंनथ नाथ कुपह का पोहमा आण्या, पोह का धुर पंहुचायों। मोरै धरती ध्यान वनस्पति वासो, ओजू मंडल छायों।

 गीदूं मेर पगाणै परबत, मनसा सोड़ तुलायो। 

ऐ जुग चार छतीसां और छतीसां, आश्रा बहे अंधारी।

 म्हें तो खड़ा विहायों। तेतीसां की बरग बहां म्हे, बारां काजे आयों।

बारा थाप घणा न ठाहर, मतांतो डीले डीले कोड़ रचायों।

 म्हे ऊँचे मण्डल का रायों। समंद बिरोल्यो बासग नेतो, मेर मथांणी थायों।

संसा अर्जुन मारयो कारज सारयो, जद म्हे रहस दमामा वायों। फेरी सीत लई जद लंका, तद म्हे ऊंथे थायों।

दश सिर को दश मस्तक छेद्या, बाण भला नीरतायों।

 म्हे खोजी थापण होजी नाही, लह लह खेलत डायो।

कंसा सुर सूं जूवै रमियां, सहजे नन्द हरायो।

 कुंती कुंवारी कर्ण समानो, तिहिं का पोह पोह पड़दा छायो।

पाहे लाख मजीठी पाखो, बनफल राता पीझू पाणी के रंग धायो।

 तेपण चाखन चाख्या भाख न भाख्या, जोय 2 लियो, फल 2 केर रसायो।

थे जोग न जोग्या भोग न भोग्या, न चीन्हों सुर रायों।

कण बिन कुकस कांय पीसो, निश्चै सरी न कायों।

 म्हें अबधू निरपख जोगी, सहज नगर का रायो।

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जगन्नाथ भगवान जी का भजन (Jagannath Bhagwan Ji Ka Bhajan)

जो ज्यूं आवै सो त्यूं थरपा, साचा सुं सत भायो।

 मोरै मन ही मुद्रा तन ही कंथा, जोग मारग सहडायों।

सात शायर म्हे कुरले कीयों, ना मैं पीया ना रह्या तिसायों।

डाकण शाक्य निंद्रा खुध्या, ये म्हारे तांबै कूप छिपायों।

 म्हारे मनही मुद्रा तनही कंथा, जोग मार्ग सहलीयों।

डाकण शाकण निंद्रा खुध्या, ऐ मेरे मूल ना थीयों।

इस शब्द को सुनकर के रणधीर आदि शिष्यों ने पूछा- हे देव! आप समुन्द्र पार कब गये थे। हमने तो आपको यहां सम्भराथल पर ही देखा है।

 श्री जम्भेश्वर जी ने कहा- हे शिष्यों। मैं इस शरीर से तो आपके सामने यहां पर बैठा है किन्तु केवल मेरा यहो शरीर हो नहीं है मेरा असली शरीर तो शब्द है। मैं शब्द द्वारा अनेक देश देशान्तरों में गया हैं। मेरे शब्दों द्वारा असंख्य लोग प्रबोधित हुए हैं और अपने कर्तव्य कर्म का पालन किया है। मैं खारसमुद्र के पार भी गया हूँ तथा उससे भी आगे जहां पर विचित्र लोग निवास करते हैं वहां पर भी मैं शब्द शरीर द्वारा पहुंचा हूँ।

उनको भी यही ज्ञान जो मैं तुमको सुना रहा हूँ, सुनाया था। सद्पन्थ का पथिक बनाया है। आप लोग इसमें किसी प्रकार का सन्देह न करें, क्योंकि शब्द व्यापक है, मैं भले हो यहां पर बैठा हूँ, किन्तु मेरा शब्द व्यापक होकर अन्य रूप से प्रहलाद पंधी जीवों को उनकी हो भाषा में समझाता है। इसी शब्द द्वारा हो अनन्त करोड़ लोग धर्म के मार्ग पर आये हैं।

गुरु वचनों को स्वीकार करके धार्मिक जीवन व्यतीत करने लगे हैं। इस समय में मैं तुम्हारे सामने भगवों टोपी धारण करके सम्भराधल पर आया हूँ मुझे आप किसी सीमा में न बांधें। क्योंकि मैं तो अनेक रूपों में विचरण करता हूँ, जैसा जहां चाहता हूं, वैसा रूप धारण कर लेता हूँ। अभी कुछ दिन पूर्व हो मैनें सिकन्दर को चेताया था तब मेरा रूप भिन्न हो था बड़े बड़े दुष्ट प्रकृति के मोहग्रस्त लोगों को मैनें सद्मार्ग पर चलाया है।

मुझे अनेकानेक रूप बनाने में कुछ भी परेशानी हैं क्योंकि प्रकृति को अपने वश में करके अपनी माया द्वारा मैं विस्तार को प्राप्त हो जाता है। यह धरती, पवन, जल,तेज, आकाश, पांच तत्व तो मेरे ही अधीन है। मैं इनका प्रयोग विशेष कार्य हेतु कर लेता हूँ।

 मैं सभी कुछ करता हुआ भी अकर्ता बना रहता हूँ। मैं सभी कर्म करते हुए भी कर्मफल में लिपायमान नहीं होता। इसलिए कर्मों का भोग सुख-दुःख मुझे छू नहीं सकते। मैं सदा हो सुख दुःख से उपर उठकर आनन्द की अनुभूति में रहता हूँ। मेरे देखते हुए छतीस युग व्यतीत हो गये हैं। दुनियां सभी सो जाती है,मैं तो कभी सोता नहीं, क्योंकि मुझे भूख, प्यास, निद्रा आदि सताती नहीं है।

मैं यहां 33 करोड़ प्रहलाद के जीवों का उद्धार करने के लिए आया है। इस समय तो केवल 12 करोड़ ही यहां मरुदेश में तथा खारसमुद्र से पार जहां कहाँ भी होंगे, उनका उद्धार करूंगा। जब यह कार्य पूर्ण हो जायेगा तो फिर यहां एक क्षण भी नहीं ठहरेगा उन्हों जोवों की खोज मुझे करनी है।

 मैंने ही तो समुद्र मंथन करवाया था, मेरू पर्वत की मथाणी और वासुकी नाग की रस्सी बनायी थी।मैनें ही तो सहस्राबाहू को मारा था। उस समय मैं परशुराम के रूप में था मैंने ही तो रावण को मारा था।उस समय मैं राम के रूप में था। मैंने ही तो कंस को मारा था, उस समय में कृष्ण के रूप में था। मैंनें हो 

नन्दजी को पिता बनाया था उन्हें स्नेह दिया और तोड़ने वाला भी में ही था।

 मैं तो अवधू निरपक्ष योगी हैं। सहज में ही योग समाधि में विचरण करने वाला है। इस समय मेरे पास जो जिस भावना से आता है, मैं उन्हें उसी भाषा में समझाता हूँ। जो सच्चे लोग हैं वे मुझे बहुत ही प्रिय है। ये बाह्य परिस्थितियाँ मुझे नहीं सताती। भूख प्यास आदि डाकणी शाकणी आदि तो मेरे मूल में नहीं है।इस प्रकार से शब्द श्रवण करने के पक्षात आश्चर्यचकित रणधीर जी ने पूछा –

 हे गुरुदेव आपने तो सम्पूर्ण सृष्टि को तथा सृष्टि के जीवों उनकी जातियों को रौति-रिवाों से देा है। कृपा करके उन लोगों का दर्शन करवाईये। वो भी हमारे हो गुरुभाई एवं नियमों पालन करने वाले हैं।इस प्रकार से रणधीर के कहने पर श्रीदेव जी बोले – 

हे रणधीर ! तुम्हें मैं वे लोग एवं देश दिखाऊंगा, जहां पर मैनें शब्द रूप शरीर से उन्हें उपदेशित किया जाम्भे श्रीजी ने रणधीर को अपने साथ लिया और वहां से कुछ दूरी पर ले गये। रणधीर के ज्योतिरूपी जीव को स्वयं श्रीदेवजी ने अपनी विशाल ज्योत में लिया और कहा रणधीर । अब तूं दिव्य नेत्रों से देख।तुम्हारा अल्पज्ञ जीव इस लोक के प्राणियों को नहीं देख सकता। मैं तुम्हें ईश्वरीय दिव्य सर्वज्ञ नेत्र देता हूँ। ऐसा कहते हुए रणधीर जी को अनेक लोग एवं विचित्र वेशभूषा दिखलायी।

हे वील्हा। श्री रणधीरजी ने वापिस आकर हमारे सामने जो वर्णन किया है वह मैं तुम्हें बतलाता हूँ। रणधीर जी ने कहा- हे लोगों। आप मेरी बात सुनकर आश्चर्य चकित अवश्य ही होंगे किन्तु अश्रद्धा अविश्वास न करें। मैनें दिव्य आंखों से देखा है, एक ही सूर्य सम्पूर्ण सृष्टि को प्रकाशित करता है। उसी प्रकार से एक है ब्रह्म विष्णु जगत का पालन पोषण कर्त्ता एवं सृजनकर्ता भी है। इसलिए असंभव कुछ नहीं है। वह विष्णु ही गुरु रूप में यहां सम्भराथल पर विद्यमान हैं।

श्रीदेवी ने मुझे प्रथम दक्षिण दिशा में रहने वाले लोग जो सात समुद्रों के पार कहाँ थे उनको | दिखलाया। वहां मैनें बहुत से गुरु भाई देखे। वहां पर मैनें यही धर्म और यही मार्ग देखा है। वे लोग श्रीदेवी को देखकर उत्साह मनाने लगे थे उनकी प्रसन्नता का कोई पार नहीं था। वहां से आगे जब हम बढ़े तब वहां पर बड़े-बड़े कानों के लोग मुझे दिखाई दिये। छजले-सूप सदृश बड़े, बड़े कानों के लोग थे, वे बहुत ही सुन्दर थे।

वहां से आगे तब मैनें देखा वहां के विश्रोई एकटक दृष्टि से श्रीदेवजी को देख रहे थे। मानों, उनकी तो श्रीदेवी को देखकर समाधि ही लग गयी थी। ऐसे एकाग्रचित वाले विश्रोई मैंनें वहां देखे थे वहां से आगे चले तब समुद्र आ गया। मैं भगवान की अपार कृपा से समुद्र में नहीं डूबा वैसे हो पार हो गया जैसे कि धरती पर चलता हूँ।

 वहां के लोगों के मैंने देखा कि तीखे नाक मुंह के सुन्दर लोग थे। वे देखने में तपस्वी मालूम पड़ते थे।  वे बड़े ही सौम्य मूर्ति थे। ऐसे लोग तो मैं यहां देख नहीं रहा हूँ। जिस प्रकार हम लोग यहां सम्भराथल पर बैठकर हवन करते हैं। इसी प्रकार से वहां पर भी लोग सभी मिल बैठकर हवन करते हैं । श्री गुरुदेव को देखकर अति प्रसन्न हुए। सभी ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया, अपने को धन्यभागी माना।

 दक्षिण दिशा को देखकर हम लोग पश्चिम दिशा की तरफ गये। वहां पर विश्रोई भाई आपस में मिलते है तो एक दूसरे को नमन प्रणाम करते हैं। वहां पर मैंने देखा कि एक कहता है कि सुन मुन दूसरां जवाब देता हुआ कहता है घट घट रह उनमुन । वहां पश्चिम में मैनें देखा है कि कऊवे तो सफेद रंग के थे किन्त बुगले काले रंग के थे। वहां तो मैंने यहां से उल्टा हो देखा है। उस देश में हमारे गुरु भाई बहुत हो रहते है। वहां पर मैने देखा कि रुख वृक्ष आपस में वार्तालाप कर रहे हैं। उनकी आपस की बात को तो मैं समझ नहीं सका किन्तू वे अपनी भाषा में कुछ बोलते अवश्य ही थे।

 वहां से आगे बढ़े तब हमने एक समुद्र को पार किया। वहां पर तो आश्चर्य मैने देखा था। वे लोग जंगल में ही रहते थे। उनके पास ओढ़ने-पहनने हेतु कोई वस्व नहीं थे। वह लोग मृगछाला ही पहनते थे वही ओढ़ते थे। रात्रि में सोते समय उन लोगों ने फूलों की शैय्या बिछा रखी थी। भगवान विष्णु शेष शैय्या पर सोते हैं तो ये लोग भी फूलों की शैय्या पर शयन करते हैं। किन्तु उनका धर्म नियम व्यवहार तो अपने जैसा ही था। वे लोग काफी सभ्य मालूम पड़ते थे।

                   शब्द ईलोल सागर  भाग 2

Sandeep Bishnoi

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