बालक मंत्र हिंदी में (बिश्नोई समाज बालक मंत्र)
बालक मंत्रओ३म् शब्द गुरु देव निरंजन, ता इच्छा से भये अंजन।
पांच तत में जोत प्रसनु, हरि दिल मिल्या हुकम विष्णु।
हरि के हाथ पिता के पिष्ट, विष्णु माया उपजी सिस्ट।
सप्त धात को उपज्यो पिण्ड, नौ दस मास बालो रह्यो अघोर कुण्ड।
अरघ मुख ता उरघ चरण हुतास, हरि कृपा से भयो खलास।
जल से न्हाया त्याग्य मल, विष्णु नाम सदा निरमल।
विष्णु मंत्र कान जल छूवा, गुरु प्रमाण विश्रोई हुवा।
बालक को इस मंत्र द्वारा क्या दिया जा रहा है, यह विचारणीय है। जल के साथ यह मंत्र पिलाया जाता है। जिसका भाव इस प्रकार से है- हे बालक ! ओम शब्द ही गुरुदेव निरंजन परमात्मा है, ओम शब्द ही स्टि के पालन-पोषण उत्पति एवं संहारकर्ता विष्णु है। उसकी इच्छा से ही हे बालक! तुम्हारी उत्पति हुई है। तुम्हें यह मानव शरीर प्राप्त हुआ है।
वह विष्णु ज्योति स्वरूप से पांच तत्वों में विद्यमान है। उन्हीं पांच तत्वों से तुम्हारा शरीर निर्मित हुआ है। हरि कृपा एवं आज्ञा से ही जन्म होता है। वही तुम्हारा पिता है उसे भूल मत जाना, यही तुम्हारा मूल एवं बीज है। जब तुम गर्भवास में थे, तभी तुम्हारे ऊपर हरि का हाथ था। वहां पर भी तुम्हारी भोजनादि से रक्षा की थी। तुम्हारे शरीर तो तुम्हारे लौकिक माता पिता से मिला है। किन्तु अन्य सभी कारण वही तुम्हारा परमात्मा विष्णु है।
केवल तुम्ही अकेले सृष्टि में जन्मे हो, ऐसा भी नहीं है। यह सम्पूर्ण सृष्टि ही विष्णु की माया से उत्पन्न हुई है। यह तुम्हारा शरीर तो सप्त धातुओं से उत्पन्न हुआ है। सप्त धातु जैसे-त्वचा, रक्त, मांस, मेदा, मज्जा, अस्थि और वीर्य। इन्हीं सभी को मिलाकर एक शरीर बना है। ये भी पांच तत्वों के ही रूप है।
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नौ-दस महीनों तक बालक गर्भवती में रहा था। गर्भवती का दुःख अघोर नर्क की भांति अति दुःखदायी है। हे बालक ! ऐसा उपाय करना ताकि पुनः इस अघोर कुण्ड में आना न पड़े। गर्भवास में था तब तो नीचे मुख चरण ऊपर थे, उल्टा लटका हुआ था। हरि की कृपा से ही बाहर आया है जन्म लिया है।
इस समय तुम्हें तीस दिन हो चुके हैं, तुमने स्नान कर लिया है। मल को त्याग चुके हो, यह तुम्हें विष्णु का नाम कानों से सुनाया जा रहा है। जल-पाहल एवं मंत्र तुम्हें पवित्र कर देगा। सदा-सदा के लिए तुम्हें जन्म-मरण से छुटकारा दिला देगा। इस विष्णु मंत्र द्वारा कानों को जल से छुवा दिया है, जल पान करवा दिया है। गुरुदेव निरंजण द्वारा कहा हुआ यह मंत्र तुम्हें विश्रोई बना देगा, अर्थात् जन्म मरण के चक्कर से छुड़वा देगा। अब तुम्हें फिर से जन्म इस प्रकार से नहीं लेना पड़ेगा।
नवजात शिशु को यह मंत्र सुनाया जाता है, जल महल दिया जाता है। अभी तो वह बिल्कुल शुद्ध पवित्र ब्रह्मस्वरूप ही है। जो भी संस्कार अन्दर डाला जायेगा वह स्वतः ही ग्रहण होगा। बालक ज्यों-ज्यों बढ़ता जायेगा त्यों-त्यों अनेकों प्रकार की व्याधियों से भरता जायेगा इसलिए यह प्रथम संस्कार इसी प्रकार से करणीय है।
नाथोजी उवाच- हे शिष्य ! इस बालक मंत्र के पश्चात जब बालक समझदार हो जाता है। लगभग दस-बारह वर्षों का, तब उसे सुगरा मंत्र सुनाया जाता है। इसे सुगरा संस्कार कहते हैं। अनादि काल से ही गुरु धारण करने की परम्परा चली आयी है। राम-कृष्ण अवतारी पुरुषों ने भी गुरु धारण किया धा।
स्वयं जाम्भोजी ने संभवत: गोरख यति को गुरु माना हो तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि वे स्वयं ही गोरख का नाम बड़े ही आदर से लेते हैं- जुग छतीसू एके आसन बैठा बरत्या। छतीस युग एक आसन पर बैठे व्यतीत हो गये।
गुरु बिना ज्ञान नहीं होता, ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती। प्रथम शब्द में ही श्री देवजी ने गुरु की महिमा बतलाई है। गुरु से श्रद्धावान ही ज्ञान की प्राप्ति कर सकता है। इसलिए सुगरा संस्कार करवाया जाता है, बालक को गुरु मंत्र दिया जाता है। साथ ही साथ हवन पाहल भी किया जाता है।
गुरु भी कैसा हो, यह भी बतलाया है जो स्वयं मोह माया के कीचड़ में फंसा हुआ है वह भला क्या शिष्य को पार उतारेगा। गुरु स्वयं ज्ञानी,ध्यानी, यति हो तब उसका दिया हुआ मंत्र सफल होता है, कहा भी है-जिंहि जोगी की सेवा कीजे, तूठो भवजल पार लंघावे। इसलिए श्रीदेवजी ने विरक्त यति साधु को ही गुरु मंत्र देने का अधिकार दिया है। दिया जाने वाला गुरु मंत्र इस प्रकार से है-