सेंसेजी का अभिमान खंडन भाग 2
गृहलक्ष्मी कहने लगी- हे योगी। खिड़की पकड़े हुए क्यों खड़ा है? जिस प्रकार कर्जा लेने वाला खड़ा रहता है उसी प्रकार से खड़ा हुआ क्या देख रहा है। हमने तुम्हारे से कर्जा तो नहीं लिया है। मालिक ने तो खेल रच दिया था। लड़की को और मजबूती से पकड़ लिया था। श्री देवजी कहने लगे हे लक्ष्मी। तू तो साक्षात गृहलक्ष्मी है, विष्णु तुम्हारे पर प्रसन्न है, मुझे खाली मत भेज।
कुछ तो अवश्य ही दे, पहले भी आपने बड़े-बड़े दान दिये हैं, अभी-अभी देवजी के पास दान देकर लौटे हैं, मैनें जब गांव में प्रवेश किया था, दानियों का घर पूछा था तो उन्होंने भी आपका ही घर बताया था। इसलिए मैं भी आशा विश्वास के साथ तुम्हारे घर आया हूँ।
सैंसे की नारी कहने लगी-बाहर चलो। अपना काम करो, ये कैसी बातें करनी प्रारम्भ की है। इन बातों से मैं रीझने वाली नहीं हूँ। पीछे हट जाओ। मैं अपनी खिड़की ढक लेती हूँ। ऐसे खड़ा है जैसे कोई अतिथि मेहमान आया है। उस बिना बुलाये अतिथि ने तो खिड़की मजबूती से पकड़ ली थी कि कहीं हाथ से छूट न जाये। वह देवी तो देना चाहती है किन्तु देवाधिदेव तो उघाड़ना चाहते हैं।
कैसा घर का भाग्य है। घरवाली तो घर को देखना चाहती है किन्तु देवजी उघाड़ना चाहते हैं। यही ढुकना उघाड़ना संसार में चलता रहता है। वह तो धका देती है, देवजी सहन कर लेते हैं। भृगु की लात भी तो सहन कर ली थी। स्वयं विष्णु आज तो सैंसे के घर पर आये थे। घर में लक्ष्मी को प्रवेश करवाने के लिए किन्तु संसार के व्यक्ति क्या जाने। अब तो खींचातानी होने लगी। आखिर जीव रूपी देवी तो थक ही गयी थी। उसे तो थकना ही था।
दूसरी नारी कहने लगी- यह योगी हठीला है, हठ नहीं छोड़ेगा, इसे कुछ न कुछ देना ही पड़ेगा। अपने घर का बड़प्पन तो देखो। इस बड़प्पन में तो खाक है जो एक साधु को एक रोटी भी नहीं दे सकते। दोनों महाराणी विचार करने लगी इसे क्या देना चाहिये। जिससे यह अपना पीछा छोड़े। एक नारी घर में गयी और खिचड़ी की खुरचण (हंडिया के लगा हुआ वासी भोजन ) हॉडिया के लगा हुआ अधजला भोजन कुर्सी में भरकर ले आयी और कहने लगी- है हठीले योगी! तुम्हारा पत्र-चिपी इधर करो मैं तुझे |
भिक्षा देती हूँ। दूसरी महाराणी कच्चा दूध ले आयी और दोनों ने भिक्षा प्रदान की। श्रीदेवजी ने भिक्षापात्र आगे किया तब कुड़सी में खुरचण लेकर खड़ी हुई और जोर से क्रोध में भरकर पत्री पर दे मारा, जिससे एक किनारा खण्डित हो गया किन्तु भिक्षा लेने में सफल तो हो ही गये। उस खण्डित बर्तन को दसरी स्वी ने दूध से भर दिया।
देवजी भिक्षा लेकर वापिस चले। किन्तु कुछ ही दूर जाकर वापिस लौट आये और दूसरी मांग पेश कर दी कि इस समय सर्दी पड़ रही है तो एक सी ओढ़ण तो दीजिये। सेंसे की नारी ने कहा- यह कैसा साधु है जो समय का भी ज्ञान नहीं है, इसके गुरु ने यह भी सिखाया नहीं कि गृहस्थ के घर पर भिक्षा मैंने कब जाना चाहिये तथा बिना समय भिक्षा मिलने पर भी अब तक संतोष नहीं हुआ जो अब वस्त्र भी मांग रहा है।
श्रीदेवजी ने कहा- हे देवी। भिक्षा का कोई समय नहीं होता जब भूख लग जाये तभी भिक्षा याद आती है परंतु इस भूख का काई पता नहीं कि कब लग जाये। तथा वस्त्र तो जब सर्दी लगे तभी याद आता है। ऐसी वार्ता सुनकर स्वयं सैंया ने ही अबकी बारे एक गूदड़ा-पुराना मोटा वस्त्र प्रदान किया और कहा अब तो चले जाओ।
सैसे की नारी बोली-अभी अभी तो इसको बाहर निकाला था किन्तु यह तो वापिस आ गया। भिखारी तो बहुत देखे किन्तु इतना हठीला मैनें कभी नहीं देखा। सेंसे ने अपनी नारी की वार्ता सुनी तो कहने लगे क्यों कलह मचायी है यदि और कुछ देना है तो दे दो, नहीं देना है ता ना कह दो। गांव के लोग सुनेगे तो क्या कहेंगे। घर की लज्जा तो रखो। सैंसे की नारी ने सैंसे की वार्ता को अनसुना कर दिया किन्तु सैंसे ने एक आधार (वस्त्र विशेष) दिया और वहां से रवाना किया।
इस प्रकार से सैंसे के घर से मिला अन्न एवं वस्त्र लेकर वापिस झोंझाले आ गये। परब्रह्म से साथरियों भक्तों ने पूछा- हे देवजी! सैंसे की वार्ता बतलाओ वहां क्या और कैसी भिक्षा दी भक्तों के भाव को देखकर देवजी ने टूटी हुई पतरी में सैंसे के घर का अन्न एवं वस्त्र दिखलाया। और कहा यह मुझे मिला
है। सैंसे ने मुझे यह सोड़ उढाई है।
रात्रि व्यतीत हुई दूसरे दिन प्रात:काल ही गांवों से मतवाले भक्तजन आने लगे। साखी, शब्द हरिजस गाते हुए, झींझा बजाते हुए प्रातः काल ही जमात एकत्रित हुई। सभी लोग देवजी के दर्शन करने आ रहे थे। विशेष रूप से वे ही लोग आ रहे थे जिनका भाग्य सौभाग्य में बदल चुका था। महिलाएं पुरुष बच्चे अनेकानेक यथा रूप श्रृंगार करके आ रहे थे आकर स्वामी परमात्मा को शीश झुकाते हैं और यथास्थान बैठ जाते हैं। वन में ही नगरी बस गयी है। ऐसा खेल मालिक ने रचा था।भेदभाव से रहित चाकर ठाकर एक से हो प्रतीत हो रहे थे।
जो भी श्री देव के दर्शन करता वह अपने सन्मुख ही देख रहा था मुख मण्डल को कांति सूर्य सदृश शोभायमान हो रही थी। किसी को भी श्रीदेवी की पीठ नहीं दिखाई दे रही थी। क्योंकि स्वयं देवाधिदेव विष्णु ने ही समराथल पर अवतार लिया था। मनुष्य ही नहीं पशु पंखेरू भी सन्मुख आकर पवित्र हो गय थे। उतम जीवों को ही बिश्नोई पंथ में सम्मिलित किया गया था।
नाथूसर निवासी सभी सैंसे के साथ उसी प्रकार से आये थे श्रीदेवजी को शीश झुकाते हैं और बैठ जाते हैं। दिनभर सत्संग का कार्य चलता रहा, पुनः सांयकाल हुआ, सूर्यास्त होने जा रहा था। पहले की भांति सैन्से ने फिर कहा- हे देव। दिन व्यतीत हो चुका है, रात्रि का आगमन होने जा रहा है हमें क्या शिक्षा है, जमात हाथ जोड़े खड़ी है।
श्री देव ने पुनः कहा
सतगुरु नाम ओम द्यो भीख। साम्य कहे सैसा आ सीख।
हे सैंसा! सतगुरु परमात्मा के नाम से भिक्षा देना, तेरे लिए यही शिक्षा है।
सैंसा कहने लगा- हे सतगुरु! आप बिना सोचे विचारे एक ही बात मुझे बार बार क्यों कहते हो वैसे क्या मैं समझता नहीं हूँ। में आपके नाम से आपको ही समर्पण करके भिक्षा देता हूँ, प्रेमभाव से भोजन करता हूँ जो मेरे पास मेरे घर में आ जाता है, उसको मैं खाली हाथ उतर नहीं देता हूँ। हे देव! मेरा क्या है सभी कुछ आपका ही है और आपके नाम से खर्च भी करता हूँ। सैंसे ने इस बात को जोर देकर कहा।
तब सतगुरु बोले- हे दुवागर-द्वारपाल ! तुम सैंसे के घर से लायी हुई भिक्षा तथा गूदड़ा लाकर दिखाओ। जब देवर के हाथ में टूटी हुई पतरी एवं आथर-वस्त्र देखा तो तुरंत पहचान गया। सतगुरु ने |कहा- हे सैंसा !
ए सहनाण पिछाण, मूंग मुंह से सो पड़यो, सांभल सके न कोय।
सैंसे ने अपने ही घर की वस्तु पहचान कर मुंह नीचे कर धरती ऊपर गिर पड़ा। सामने देख भी नहीं सका। विलाप करने लगा- मेरे घर स्वयं सिरजणहार आये और मैं उनकी सेवा नहीं कर सका, उल्टा उन्हें अपमानित किया। हे धरती माता! तूं फट जाओ और मैं तुम्हारे में समा जाऊं। अब मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहा।
यदि संसार छोड, दे तो हरिजी संभाल लेते हैं और यदि हरिजी ने ही छोड़ दिया तो अब मुझे बचाने वाला कोई नहीं होगा। यदि कोई कुएं में गिरने वाला हो और पीछे से कोई धका दे देवे तो अच्छी प्रकार से गिरा जा सकता है। सैंसा विलाप करते हुए अचेत हो गया। साथ में रहने वाले सजनों ने प्रार्थना को कि हे नाथ। यदि आप हाथ छोड़ देंगे तो यह जड़ मूल से हो चला जायेगा अब यह तो आपके सामने नहीं देख सकेगा। आप से प्रार्थना नहीं कर सकेगा, किन्तु हमारी अर्ज अवश्य ही सनो।
उठ सैंसा सतगुरु कहे गर्व न करो लिंगार। सतगुरु कहने लगे- हे सँसा अहंकार न करो और खड़े हो जाओ। सतगुरु के आशीर्वचन सुनकर सैंसा खड़ा हो गया। हाथ जोड़कर विनती करने लगा हे देवाधिदेव। आपने मुझे बचा लिया है अन्यथा मैं तो अहंकार के पंक में डूब जाता। मुझे तो इस अज्ञानता का पता ही नहीं था आपने मेरी आंखे खोल दी है। अब मैं गर्व को छोड़कर आपके ही अधीन हूँ।
आपकी आज्ञा का पालन करुंगा। आपने कृपा करके मेरी आंखे खोल दी है। सैंसा पुन: स्वस्थ हुआ। सतगुरु ने क्षमा कर दिया। उपस्थित जन समूह ने जय जयकार की। सैंसे के भाग्य की सराहना की और देवजी के दयालुता की प्रशंसा की।
सैंसो कसवों कहे- देवजी! म्हें तो सुरगा जोगो सामो घणो ही कियो- जाम्भोजी श्रीवायक कहे
शब्द-57
ओ३म् अति बल दानों, सब स्त्रानो, गऊ कोट जे तीरथ दानो
बहुत करे आचारूं।
ते पण जोय जोय पार न पायो, भाग परापति सारूं।
घट ऊधै बरसत बहु मेहा, नीर तयो पण डालूं।
को होयसी राजा दुर्योधन सो, विष्णु सभा महलाणो।
तिणही तो जोय जोय पार न पायो, अध विच रहीयो ठालूं।
जपिया तपिया पोह बिन खपिया, खप खप गया वाणी। तेरी पार पाहतां नाहीं, ताकी धोती रही अस्माणी।।
सँसा कस्वां स्वस्थ हुआ फिर कहने लगा- हे देव । मैं तो स्वर्ग जाने के बहुत से उपाय किये थे किन्तु अब तक मुझे मेरे गर्व का पता ही नहीं था। यह अहंकार मुझे ले डूबेगा। इस बात से मुझे आपने अवगत करवाया है। मैं धन्यभागी हूँ जो आपके दर्शन एवं स्पर्श का लाभ मुझे मिला।
श्रीदेवी ने शब्द सुनाया- हे सैंसा! अति दान, अपनी औकात से भी ज्यादा दिया हुआ दान भी लाभदायक नहीं है। अड़सठ तीर्थों में विना श्रद्धा एवं योग्यता के किया हुआ लाभदायक एवं संतोषजनक भी नहीं है। करोड़ों गऊवों का तीर्थों में जाकर दान देना भी मुक्ति का कारण नहीं बन सकता। अन्य भी बहुत से किये हुए आचार-विचार भी अति आनन्ददायक नहीं है। अपने से बड़ों को देखोगे तो पार नहीं पा सकोगे सभी से ऊंचा नहीं बन पाओगे।
ऐसा प्यार बहा दे मैया: भजन (Aisa Pyar Baha De Maiya)
जागो गौरी नंदन जागो: भजन (Jago Gauri Nandan Jago)
श्री शाकुम्भरी देवी जी की आरती (Shakumbhari Devi Ki Aarti)
अभी तो तुम्हारे से बहुत से लोग आगे हैं। वे लोग ऊँचाईयां छू रहे हैं। तुम तो तुम ही हो, दूसरा तो दूसरा ही होगा। अपने अपने भाग्य से ही प्राप्त होता है। पड़े को उल्टा कर दिया जाये उपर चाहे कितना ही जल बरसे तो भी उसमें जल नहीं भरेगा प्रथम घड़े को सीधा करो तब जल अन्दर गिरेगा। प्रथम अधिकारी बनो तब ज्ञानरूपी जल अन्दर भरेगा।
दुर्योधन जैसा अहंकारी राजा अब तक नहीं हुआ। जिस दुर्योधन की सभा में स्वयं विष्णु-कृष्ण आ गये किन्तु नहीं समझ सका। और कृष्ण को बांधने लगा। अब तक कोई कृष्ण -विष्णु को बांध सका है क्या? अहंकारी जीव दुर्योधन यही नादानी करता है। जब कृष्ण ने दुर्योधन की सभा में अपने रूप को | विराट बनाया तो देखते हुए भी दुर्योधन पार नहीं पा सका।
गर्व से संयुक्त दुर्योधन अधविच में ही रह गया न तो पार पंहुच सका और न ही मृत्युलोक का राजा ही रह सका। न तो इस मृत्युलोक में रहकर यश हो प्राप्त कर सका और न ही परलोक सुधार सका।
कई जपी तपी बिना मार्ग जाने साधना का बहाना करते हुए समाप्त हो गये। इसी प्रकार कितने हो लोग शरीर धन के मद में अपने को अनाधिकारी बना डाला। वे लोग भी ज्ञान बिना व्यर्थ की सिद्धि प्राप्त करने पर भी पार तो नहीं पंहुच सके, जिनकी धोती आकाश में सूखा करती थी।
जमाती कहे देवजी। कोई चार जुगा में पारि पंहुतो। जाम्भाजी कहे-राव मालदेव, झाली राणी दीठा।देही कि दाह गयी। तिह समय श्री वायक कहे
शब्द-58
ओ३म् तउवा माण दुर्योधन माण्या, अवर भी माणत मांणो। तउवा दान जू कृष्णी माया, अवर भी फूलत दानो।
तउवा जाण जू सहस्त्र झूझ्या, अवर भी झुपत जाणों।
तउवा बाण जू सीता हरण लक्ष्मण कैंची, अवर भी खेंचत बाणों।
जती तपी तकबीर ऋषेश्वर, तोल रह्या शैतानों।
तिण किण खेंच न सके, शिम्भु तणी कमाणूं।
तेऊ पार पहुंचा नाही, ते कीयो आपो भांणों।
तेऊ पार पहुंचा नाही, ताकी धोती रही अस्माणों।
बारां काजै हरकत आई, अध बिच मांड्यो थांणो।
नारसिंह नर नराज नरवो, सुराज सुरवो नरां नरपति सुरां सभापति ।
ज्ञान न रिंदो बहुगुण चिन्दो, पहलू प्रहलादा आप पतलीयो। दूजा का काम बिटलीयो, खेत मुक्त ले पंच करोड़ी।
सो प्रहलादा गुरु की वाचा बहियो, ताका शिखर अपार।
ताको तो बैकुठे बासो, रतन काया दे सोप्यां छलत भंडारी।
तेऊ तो उरवारे थाणो, अई अमाणो,तत समाना।
बहु परमाणु पार पंहुचन हारा।
लंका के नर शूर संग्रामे घणा बिरामे, काले काने भला तिकट।
पहले जुझ़्या बाबर झंट, पड़े ताल समंदा पारी, तेऊ रहीया लंक दवारी।
खेत मुक्तले सात करोड़ी,परशुराम के हुकम जे मूवा।
सेतो कृष्ण पियारा, ताको तो बैकुण्ठे बासो।
रतन काया दे सौंप्या छलत भण्डारू, तेऊ तो उरवारे थाना।
अई अमाणो पार पंहुचन हारा।
काफर खानो बुद्धि भराड़ो, खेत मुक्त ले नव करोड़ी।
राव युधिष्ठिर से तो कृष्ण पियारा, ताको तो बैकुण्ठे बासो।
रतन काया दे सौंप्या छलत भंडारों, तेउ तो उरबारे थाणो।
अई अमाणो बहु परमाणु, पार पंहुचन हारा।
बारा काजै हरकत आई, तातै बहुत भई कसबारूं।