* जम्भेश्वर समकालीन समराथल*
अवतार अवस्था- एक साखी में कवि हरजी ने कहा है कि “सम्भराथल अवतार” वास्तविक में अवतार तो समराथल पर ही हुआ है। क्योंकि जब लोहट के घर मन्दिर में सर्वप्रथम जन्म बालक का आगमन हुआ था। उसी समय ही बधाईयां बंटने लगी थी ग्राम के नर-नारी एकत्रित हो चुके थे गाने बजाने वाले धूमधाम से खुशी मना रहे थे, उसी समय ही बालक वहां से अकस्मात् अदृश्य हो गये तो हंसा ने आकर लोहट जी से कहा कि अब तो बालक दिखाई नहीं दे रहा है
उसी समय ही लोहट जी ने गाने-बजाने वाले सभी लोगों को वापिस भेज दिया था तथा चिंता मगन होकर बैठ गए,विचार करने लगे कि यह वास्तव में क्या था। दो घड़ी पश्चात् वही बालक पीढ़े पर सोया हुआ मिला इस दिव्य चरित्र को दम्पती ने आश्चर्य चकित होकर देखा
था।
इस घटना का कारण लोहट हांसा या ग्रामीण जन तो नहीं जान पाये किन्तु “जहां न पहुंचे रवि वहीं पहुंचे कवि” के अनुसार कवि ने इस कारण का अनुमान लगाया है कि उन दो घड़ियों को अवश्यमेव सम्भराथल पर ही व्यतीत किया है क्योंकि जब स्वयं विष्णु ही एक नवीन अवतार धारण करके आये है तो देवता लोग अवश्य ही परमात्मा विष्णु स्वामी का कौतुक देखने आयेंगे ही तथा देखकर स्तुति की धारा अवश्य ही फूटेगी यह कार्य ग्राम पीपासर में होना असम्भव था।
सीधे भोले ग्रामीण लोगों को आश्चर्यचकित करना जम्भ बालक नहीं चाहते थे इसलिये सम्भराथल भूमि को ही देव मिलन, दर्शन के लिये उत्तम समझा था। इसलिये सम्भराथल पहुंच गये थे।
कहा भी है “स्थान भ्रष्टा न शोभन्ते, दन्ता नखा केशा नराः” नीति कहती है कि स्थान से भ्रष्ट तो दाँत, नख, केश तथा मनुष्य शोभा नहीं पाते जब ये निकृष्ट वस्तु भी स्थान से अलग होने पर शोभायमान नहीं होती तो सर्वश्रेष्ठ देव कैसे बिना स्थान विशेष के शोभायमान हो सकते है। सम्भरायल भूमि तो आदि काल से ही पवित्र पुण्य देव भूमि रही है। इसीलिये उसी भूमि तक तो देवता सहर्ष आ गये किन्तु आगे बढ़ने का साहस नहीं जुटा पाये।
देवताओं का संकोच एवं झिझक देखकर जम्भदेव जी स्वयं ही सर्वप्रथम समराथल पर ही पहुंच गए और देवताओं को दर्शन दिया उनकी स्तुति को सहर्ष श्रवण किया तथा स्वीकार करके उन्हें विदाई दी और कहा कि अब मेरा निवास अधिकतर यहीं पर ही रहेगा। इस कलिकाल में यज्ञ की आहुतियां बन्द हो चुकी हैं। ये आहतियां ही देव तप्ति का साधन हुआ करती है इन्हें पुनः प्रारंभ इसी स्थान पर बैठकर मैं करूंगा।
आप लोग निश्चिन्त होकर वापिस अपने-अपने स्थान को जाइये। इसी प्रकार से देवताओं को विदाई देकर पुनः पिंपासर लौटकर कर यह बता दिया कि मेरा वास्तविक मरूधरा में निवास स्थान समराथल धाम ही रहेगा। यही मेरे लिये अयोध्या, मथुरा या द्वारिका तथा काशी कैलाश है।
यदि उस दृश्य को कवि की दृष्टि से देखा जाय तो उस समय के वातावरण से दिव्य अलौकिक आनन्द की सृष्टि उत्पन्न हो जाती है सपत्थीव देव अपने दिव्य रथों पर आकाश मार्ग से इस धरती को प्रकाशित करते हु अबाध गति से सम्भराथल सर्वोच्च भूमि पर एकत्रित हो रहे होंगे। सम्भरायल का वातावरण स्वर्गीय सुखों की समता न कर सकने पर भी वहां का एकान तथा प्रकृति के सामिप्य का अनुभव उन्हें एक नयी अनुभव की सिंहरन पैदा करता हुआ आनन्द विभोर कर रहा होगा देवराज इन्द्र ही इस सम्भरायल के गोपनीय रहस्य को अपनी गौरवमयी मधुर संस्कृत भाषा में उन्हें समझा रहे होंगे।
इन्हीं काव्यमयी मधुर वार्ताओं द्वारा उन प्रतीक्षा की घड़ियों की समाप्ति कर रहे थे। कानों के द्वारा तो वार्ता श्रवण तथा आंखों के द्वारा पीपासर को तरफ एकटक दृष्टि से निहार रहे थे। बीच बीच में देवराज इन्द्र उनहे सान्त्वना देते हुए एक मन एक दिल से वार्ता श्रवण करने के लिये प्रोत्साहित कर रहे होंगे। उस समय का शून्यवास हो सकता है देवताओं के अनुकूल न पड़ता हो क्योंकि देव योनि तो भोग-विलास प्रधान ही हुआ करती है, फिर भी वहां के वृक्ष, पशु-पक्षी, अलौकिक स्वर्गीय छटा तथा सुगन्धी से कम नहीं थे। ऐसे ही पवित्र वातावरण में आकर भगवान विष्णु ने ही उनको वहां पर।
दर्शन देकर कृतार्थ किया था।