सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र भाग 2

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सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र भाग 2

 
सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र भाग 2
सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र भाग 2

 

 
तारादेवी ने कहा- हे पतिदेव! आप चिन्ता न करें। मैं और मेरा बेटा रोहिताश्व आपका साथ नहीं छोड़ेंगे। सुख में तो सभी साथी होते हैं। किन्तु दुःख की घड़ी में भी साथ निभाए, वही सच्चे अपने होते हैं। पत्नी तो सच्चा मित्र है। दुःख की घड़ी में अपने पति के लिए औषधि का काम करती है। सांत्वना देती है।
हे पतिदेव! आपने सत्य पालन का बीड़ा उठाया है तो उस सत्य-नियम से हमें वंचित क्यों रखना चाहते हैं? इहलोक, परलोक दोनों ही हम भी आपका साथ देकर सुधार सकते हैं। हमें भी सत्यपंथ के पथिक बनाईये। यह अपना लाडला बेटा अपने से अलग नहीं हो सकता। इसकी आप तनिक भी चिंता
न करें।
 पुरोहित ने अतिशीघ्र आकर कहा- हरिश्चन्द्र क्या सोच रहें हैं? आप जैसे सत्यवादी के लिए इस प्रकार से आनाकानी नहीं करनी चाहिये। तुरंत फैसला लीजिए हाँ या ना में उत्तर दीजिए। मुझे जल्दी जाना है। किसी दूसरे यजमान को देखना है। उदरपूर्ति के लिए कुछ तो करना ही होगा कब तक मैं आपकी प्रतीक्षा करता रहूँगा?
हे पुरोहित! अब तुम्ही बताओ कि मैं इस धन की व्यवस्था कहाँ से करूँ? यह अयोध्या नगर, खजाना, राज पाट अब तो मेरे पास कुछ भी तो नहीं है। हे राजन् ! अब भी आपके पास तीनों प्राणियों का शरीर तो है, इसे ही बेच डालिये और मेरी दक्षिणा दीजिये। यहां पर तो बेचना नहीं हो सकेगा किन्तु काशी जो तीनों लोकों से न्यारी है, भगवान शिव की नगरी है उसमें जाकर अपने को बेच डालिये और मेरी इच्छा पूरी कीजिये।
पुरोहित की बात को स्वीकार करके तीनों प्राणी अयोध्या नगरी को छोड़कर चल पडे। मार्ग में अनेकों कष्टों को सहन करते हुए तथा विश्वामित्र द्वारा दिए गए प्रलोभनों को अस्वीकार करते हुए आगे बढ़े। कई दिनों तक पैदल चलते हुए मार्ग में अनेकों कष्ट उठाते हुए सतपंथ के पथिक कुछ दिनों पश्चात काशी पंहुच गये। दक्षिणा के लिए पुरोहित स्वयं विश्वामित्र भी साथ ही साथ चल रहे हैं। ये सत्यवादी अवश्य ही मेरी कामनापूर्ति करेंगे ही। फिर भी देखता हूँ कहीं न कहीं तो अवश्य ही जवाब देंगे, ना कहेंगे, अधिक कष्टों में हो सकता है, सत्य को छोड़ दे।
 काशी नगरी अभी अपरिचित है, यहां कौन जानता है कि यह अयोध्या का राजा है। यह अपने आप को तथा अपने परिवार को बेचने के लिए गली गली में भटक रहा है। यह अपने आपको बेचने के लिए आया हुया व्यक्ति क्या पता कितने रूपये मांग रहा है? यह हमारे काम का है या नहीं। कई दिनों का भूखा प्यासा होने से दुबला दिखता है, यह दुर्बल व्यक्ति क्या कार्य कर पायेगा। लोग भाव मोलतोल करते हुए अनेकों शंकाएं उठाते हैं।
मुफ्त में सेवा तो सभी चाहते हैं, किन्तु नगद स्वर्ण मुद्रा देने को कोई तैयार नहीं। अच्छा सेवक सभी चाहते हैं यदि मिल जाये तो कार्य सुचारू रूप से चले, कार्यक्षेत्र का विस्तार करे, किन्तु सच्चा व्यक्ति मिलना अतिकठिन है। हरिश्चन्द्र के लिए एक ग्राहक अवश्य ही मिला, भाव तोल किया। सवा सेर सोना मूल्य अधिक होने से लेना अस्वीकार कर दिया वह ग्राहक आधा ही देने को तैयार था।
 हरिश्चन्द्र ने पूछा कि आप कौन है, मुझसे क्या कार्य करवायेंगे? उस ग्राहक ने कहा- मैं श्मशान भूमि का मालिक, जाति का डूम हूँ, मुर्दों का कर वसूल करके अपना जीवन निर्वाह करता है, उसी आमदनी से मैं तुझे खरीद रहा हूँ और शमशान भूमि पर रखवाली करना ही कार्य विशेष होगा गंगा किनारे आने वाले मृतकों का जो भी संस्कार करेगा उसे बिना कर लिए अन्तिम संस्कार नहीं करने देना। गंगा किनारे मेरा घ है वहाँ से मैं तुम्हें अन्न वस्त्रादि दूंगा, श्मशान भूमि ही तुम्हारा निवास स्थान होगा। यदि यह कार्य में तुम राजी हो तो ले लो सोने की मुद्रा और चलो मेरे साथ।
 हरिक्षन्द्र ने देखा कि अन्य खरीददार ग्राहक तो यहां नहीं है। यह पुरोहित ज्यादा समय देना नहीं चाहता, मैं अभी बिक जाऊं किन्तु अब तक तो आधी दक्षिणा ही हुई है। आधी दक्षिणा की व्यवस्था अभी और करनी होगी। हरिश्चन्द्र ने कहा- हे धर्मराज। थोड़ा रूकिये, मैं अभी अपने को आपके हवाले करता हँ, किन्तु पहले आधे धन की व्यवस्था मुझे और भी करनी है। अपनी प्राण प्रिया एवं पुत्र द्वारा जो कुछ मिलेगा वह पुरोहित को देकर उसके ऋण से उऋण हो जाऊं।
यह तो विचित्र आदमी है अपने का बेचकर ऋण चुका रहा है, वह भी दक्षिणा का लोग तो कर्ज लेकर भी नट जाते हैं, वापिस नहीं लौटाते । धन्य है यह व्यक्ति! हमें इसे खरीदने के लिए मुद्रा देनी होगी, इसे खरीदकर कार्य करवाना होगा। अच्छा आदमी अच्छा होता है। कार्य करने में कोताही नहीं करता।
 वह डूम कहने लगा- अब मैनें तुम्हें धन दे दिया। मेरा खरीदा हुआ दास है, जल्दी चल। कोई अन्य आ जायेगा तो व्यर्थ ही भाव बढ़ा देगा। अभी चलता हूँ ऐसा कहते हुए हरिश्चन्द्र ने आवाज लगायी- एक विपति ग्रस्त व्यक्ति जो अपने को तो बेच चुका है, अपनी पत्नी एवं बेटे को वेचना चाहता है, कोई लेने
वाला हो तो लेलो। नगद रकम चुकाओ और ले जाओ।
उसी समय ही एक पण्डित भीड़ को चीरता हुआ आया और कहने लगा मेरी पत्नी से गृहकार्य होता नहीं है, उसे एक नौकरानी चाहिये। क्यों न थोड़ा सा धन देकर खरीद ले जाऊं, अपनी पत्नी को प्रसन्न कर दूं। रोज-रोज का झगड़ा समाप्त कर दूँ। हे परदेशी अपनी भार्या को कितनी मुद्रा में बेचेगा? अपनी भायां को आधा सेर से कुछ ज्यादा में दे दूंगा। किन्तु एक शर्त होगी- यह मेरी भार्या पतिव्रता है, नियम के विरुद्ध कोई कार्य नहीं करेगी। साथ में यह बच्चा भी रहेगा, यदि आपको स्वीकार है तो रकम दे दीजिए और इन्हें ले जाईये।
पण्डित ने कहा है धर्मज्ञ! मेरे घर में मैं बूढ़ा ब्राह्मण एवं ब्राह्मणी सिवाय और कोई नहीं है। हम स्वयं धर्म के ज्ञाता हैं- हमारे घर के कार्य करने होंगे जैसे भोजन बनाना, झाडूलगाना, पूजा-पाठ के लिए फूल चुनना आदि, गृहकार्य करते हुए पूजा पाठ में सहयोग प्रदान करना। बस इस कार्य हेतु हमें एक भृत्य की आवश्यकता है। मैं अभी आपके माँग की पूर्ति करता हूँ और इसे ले जाता हूँ। हरिश्चन्द्र ने सवा सेर सोने में अपने को तथा अपनी धर्मपत्नी को बेचकर पुरोहित को सादर दक्षिणा प्रदान की तथा वहाँ से विदाई ली।
 दोनों अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त हो गये। पुरोहित ने अपनी दक्षिणा ग्रहण करके वहाँ से विदाई ली। हरिश्चन्द्र श्मशान भूमि पर पहरा देते। काशी गंगा किनारे श्मशान भूमि में जहाँ पर मुर्दे आते हैं, रात-दिन का कुछ पता नहीं, कब कौन मरेगा? मरने वाला तो रात-दिन का हिसाब रखता ही नहीं है। मृतक को अपने घर कितनी देर रख पायेंगे, सभी को वहाँ पंहुचना होता है। केवल एक मृत्यु ही निश्चित है। हरिश्चन्द्र के लिए परीक्षा की घड़ी है। वह किस प्रकार से सत्य में स्थिर रह सकेगा।कभी न कभी तो थक जायेगा सेवक धर्म को त्याग ही देगा। ऐसे समय की प्रतीक्षा विश्वामित्र कर रहे हैं विश्वामित्र को कहीं भी कुछ भी सुराग नहीं मिल पा रहा है, जिससे धर्म से विमुख किया जा सके।
 रानी तारा ब्राह्मण के घर सेवा करती है। रसोई बनाना, सफाई करना, बाग से पूजा के लिए फूल चुन करके लाना। जल लाना आदि कार्य कर रही है। हर प्रकार से अपने कार्य धर्म में अडिग है अपने मालिक के प्रत्येक कार्य में प्रवीण है, तत्परता से सेवा में लगी रहती है। क्योंकि स्वेच्छा से यह धर्म स्वीकार किया है। सेवा करने में ही सुख मिलता है तो भविष्य की कोई चिन्ता नहीं है।
विश्वामित्र से यह नहीं देखा गया। आगे अनेकों परीक्षाएं लेने का विचार किया। एक दिन तारा जल लेने गंगाजी पंहुची थी उसी समय हरिश्चन्द्र भी जल लेने आ गये थे। दोनों ही अधिक कष्ट सहन करने से कृशकाय हो गये थे। एक दूसरे को पहचानना भी कठिन था। हरिश्चन्द्र ने प्रार्थना की कि हे देवी! आप मुझे घड़ा उठवा दें, क्योंकि मैं दुबला हो गया हूँ, मुझमें घड़ा उठाने की भी ताकत नहीं है।
 तारा देवी कहने लगी-हे पतिदेव! आप तो डर के दास है, अब मेरे स्पृश्य नहीं हो। मैं एक ब्राह्मण के घर दासी हूं, मैं घड़ा नहीं उठा सकूंगी। मेरे मालिक ने मुझे आज्ञा दी है कि किसी से भी हमारा घड़ा का स्पर्श न होने पाये, यदि तुमने ऐसा किया तो तुम्हे कठोर दण्ड मिलेगा। इसलिए मैं घड़ा उठाने में असमर्थ हूँ। मैं आप को एक युक्ति अवश्य ही बतला देती हूं, आप गहरे पानी में जाईये जिससे आपका जल से भरा हुआ घड़ा हल्का हो जायेगा और आप स्वयं ही उठा लीजिये। आप मुझे धर्म से न हटाइये। धर्मो रक्षति रक्षित हम धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म भी हमारी रक्षा करेगा।
 एक दिन कंवर रोहिताश्व बगीचे में फूल तोड़ने के लिए गया था पंडितजी ने पूजा के लिए फूल मंगवाये थे। वहां पर ज्यों ही रोहिताश्च ने फूल तोड़ने के लिए आगे हाथ बढ़ाया वहीं पर स्वयं विश्वामित्र ही सर्प बन कर बैठे थे। उस सर्प ने रोहिताश्व को डस लिया। सर्प के डसते ही बालक के शरीर में विष फैल गया और अन्य बालकों के देखते ही देखते शरीर नीला पड़ गया तथा रोहिताश्व के प्राण पखेरू उड़ गये।
पंडितजी पूजा के लिए फूल लेकर आने की प्रतीक्षा कर रहे थे किन्तु आज तारा का बेटा लौटकर नहीं आया। दूसरे बालकों ने जाकर पण्डित तथा तारा को समाचार सुनाया। तुम्हारे पुत्र को तो सर्प ने डस लिया है। मृत शरीर वहीं पड़ा हुआ है। अब कभी भी फूल लेकर नहीं आयेगा। व्यर्थ में प्रतीक्षा न करें।
 ऐसी अशुभ बात सुनकर तारा रोती, पीटती, चिल्लाती, विलाप करती हुई अपने पुत्र के मृत शरीर के पास पंहुची, उसे देखते ही व्याकुल होकर रोने लगी………हे मेरे लाल! तुम कहाँ चले गये? तुम ही तो मात्र एक सहारे थे। तुम्हारे पिता ने तो हमें त्याग दिया था। तुम भी मुझे निःसहाय छोड़कर चले गये यह बताओ पुत्र! तुमने हमें क्यों छोड़ा तुम्हारे पिता तो धर्मभीरू थे… .या धर्म के बन्धन में बंधे हुए थे। तुम कौनसे बन्धन में बंधे हुए थे? अब तक तो तुम्हारी उमर ही कितनी सी है अब तो तुम्हारे खेलने का समय है ना कि संसार से प्रस्थान करने का। मेरे लाल! तूं सोया हुआ मालूम पड़ता है, जग जाओ, उठ जाओ मेरे बेटे! तुम्हारी दुखिया माँ तुझे पुकार रही है। प्रतिदिन की भांति तुम्हारे साथी-मित्र खेलने के लिए तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
हे बेटा! मैंने कौन से पाप किये हैं, जिससे मुझे यह दुर्दिन देखने को मिला। माँ बाप से पूर्व ही संसार से विदाई ले ले। यह तो बड़े ही दुःख की बात है। यह असंभव संभव कैसे हुआ? क्या मैं स्वप्न तो नहीं देख रही हूँ। यह तो कदापि नहीं हो सकता। थोड़ा सोचकर.. अभी तो उठ ही जायेगा, मुझे माँ कहकर पुकारेगा। मैं अभी अपने प्यारे पुत्र को गले से लगा लुंगी। कुछ देर प्रतीक्षा के पश्चात भी वह नहीं ठठा, तब फिर रोने लगी… । तूं भी कैसी पगली है, क्या मरा हुआ भी कभी जिन्दा हो सकता है। उठ? अब रोने का कुछ भी प्रयोजन नहीं है। जीव तो शरीर को छोड़कर चला गया, पीछे यह देह ही यहाँ पड़ी है। मेरा इसमें क्या था? जो शरीर मेरा था, वह तो अब भी मौजूद है। केवल जीव चला गया है।
 
 
सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र भाग 3
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