श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान गोचारण लीला भाग 1
वील्होजी ने पूछा- हे गुरुदेव ! आपने मुझ जैसे अज्ञानान्धकार में भटके हुए शिष्य को अपनाया एवं ज्ञानकी ज्योति से मेरे जीवन को प्रकाशमय एवं उज्जवल बना दिया। आपके द्वारा कथन की हुई बात लीला का रसास्वादन मैने किया। एक-एक लीला बड़ी ही रहस्यमयी थी। अब आगे मैं जाम्भेश्वरजी की अन्य गोचारण लीला से अमृतपान करना चाहता हूँ।
हे गुरुदेव! आप तो स्वयं प्रत्यक्षदर्शी हो, आपने तो उनके जीवन की एक-एक अलौकिक घटनाएँ देखी। उन लीलाओं से आपने आनन्द प्राप्त किया है। आपके जीवन को मैं देखता हूँ, अमृतपान किया हुआ, आपका जीवन मुझे आनन्दित कर देता है। जब आप वचन बोलते हैं तो मेरे कर्ण तृप्त हो जाते हैं मेरा मन समाधिस्थ हो जाता है। आपके मधुर शब्द सुनने से मुझे आनन्द मिलता है, इसलिए आगे की कथा आप मुझे विस्तारपूर्वक सुनाइये? मैं जिज्ञासा करूं या न करूं तो भी जो कथा कहने योग्य है वह अवश्य ही कहिये?
आप तो स्वयं सूर्य,विवस्वान,मनु वेशमपायान,मैत्रेय,शुकदेव, सूतजी आदि वक्ताओं की भाँति तीनों काल की जानने वाले हैं। गुरु जाम्भोजी के बारे में तो अन्यत्र कहीं कुछ भी सुनने को मुझे नहीं मिला। आपके मुख से श्रवण करना चाहता हूँ कृपया मार्गदर्शन दीजिये? मैं आपकी शरण में हूँ।
नाथोजी उवाचः- वर्ष सात तक की बाल लीला पूर्ण हुई,अब तो लोहटजी के लाला बड़े हो गये गांव के बालकों ने कहा- चलो गऊ चराने के लिए, अब तुम बड़े हो गये हो, हमारे साथ में ही चलो। हम लोग तुम्हें अकेला नहीं छोड़ेंगे, वैसे तो घने वन में भेड़िये आदि का भय रहता है, किन्तु हम साथ रहेंगे तो भयंकर हिंसक जीव जन्तुओं का सामना कर सकेंगे अपने प्रिय पशुधन की रक्षा कर सकेंगे ये पशु ही हमारे जीवन के आधार हैं। इन्हीं के पालण-पोषण से हमारी आजीविका चलती है। ये पशु भी बेचारे हमारे पर आधारित है। हम तो एक दूसरे के पूरक हैं।
लोहटजी बोले-हे बालकों! आप लोग वन में गौचारण हेतु जाते हैं। मेरा बेटा भी अब स्याना हो गया है। कुछ लोग तो ऐसे ही गूंगा कहते हैं, उनको असलियत का कुछ पता नहीं है, आप लोग कल से साध लेकर जाना। इन्हें गोचारण की शिक्षा देना है, क्योंकि अब तक तो यह गोचारण में पूर्णतया अनभिज्ञ है।
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देखों बच्चों! आप लोगों के भरोसे पर मैं आपके साथ भेज रहा हूँ, कहीं वन में अकेला पड़ जाये, मार्ग भूल जाये, आप लोग इन्हें अकेला नहीं छोड़ना। सभी ग्वाल-बाल लोहटजी की आज्ञा को शिरोधार्य करके, माता हाँसा को प्रणाम करके, प्रात:काल की शुभ वेला में, गोचारण हेतु वन में प्रस्थान किया।
आगे-आगे गायें चल रही थी, पीछे-पीछे ग्वाल-बाल अपनी-अपनी लकुटिया कंधे पर रखे हुए चल रहे थे। सभी ने दुपहरी भोजन हेतु कुछ-कुछ खाद्य पदार्थ अपने-अपने पल्ले में बाँध रखे थे जलपान के लिए जल की लोटड़ी ले रखी थी, क्योंकि भूख-प्यास की निवृत्ति भी परमावश्यक थी। बालकों ने देखा कि सभी के पास पीने का जल, भोजन हेतु भोज्य पदार्थ थे,
किन्तु जाम्बेश्वर के पास न तो भोज्य पदार्थ औरत ही जल का पात्र, ग्वाल बालों ने कहा- हे जाम्भाजी। आप अभी नये-नये गायें चराने हेतु आये हैं, दिन में भूख-प्यास सतायेगी, तब के लिए कुछ लेकर नहीं आये। अभी भी समय है थोड़ी दूर ही तो आये है,
वापिस जाकर अन्न जल ले आओ। देखो! हम तो आपको भूख लगने पर कुछ भी खाने को नहीं देंगे, फिर हमसे कुछ नहीं मांगना । जाम्भोजी ने कहा- मैं किसी से कुछ माँगता ही नहीं हूँ, किन्तु सभी को कुछ न कुछ देता हूँ। मुझे किसी प्रकार की भूख प्यास भी नहीं सताती। मैं तो स्वयं से ही जीता हूँ- म्हापण को आधारूं।
हम तो सभी के आधार हैं, किन्तु मेरा कोई आधार नहीं है। यदि इस प्रकार से आधार आधेय की परम्परा चलने लगी तो कहीं रूकने का नाम ही नहीं लेगी। इसलिए आप लोग निश्चित रहिये, चलिये आगे बढ़ते हैं। आज तो अच्छी-अच्छी जगह देखनी है, यह वन तो अति सौम्य है, इसे देखना चाहिए।
पीपासर से तीन कोश तक ग्वाल बालों के साथ गायें चराते हुए चले गये। पीपासर से चलने के पश्चात पुनः पीछे मुड़कर नहीं देखा, आगे ही बढ़ते गये सर्वप्रथम अनेक टीबों से घिरे हुए भयंकर वन में सम्भराथल को देखा। जो सुमेरू-कैलाश के समान सब से ऊंचा अपनी महानता को प्रदर्शित कर रहा था। उसे देखकर ग्वाल बाल सहित जम्भेश्वर जी अति प्रसन्न हुए। सभी ने ऊपर चढ़ने की इच्छा प्रगट की।
बालक बोले- हे अम्बेश्वर! अपनी गायें तो यहाँ सुमधुर हरी-हरी घास खा रही है, अपने लोग ऊपर चलते हैं। वहां से दूर-दूर तक वन तथा गाँव साफ दिखाई देता है इस सृष्टि के सौन्दर्य को देखने में बड़ा ही आनन्द आयेगा। ऐसा कहते हुए सभी ग्वाल बाल एकत्रित होकर सम्भराथल की सबसे ऊँची चोटी पर चढ़कर सौन्दर्य को निहारने लगे।
ग्वाल बालों ने पूछा – हे लला! इस समय तो तुम ही हम में से ज्ञानी मालूम पड़ते हो, यदि आयु में तो हम से छोटे हो तो भी क्या? ज्ञान तथा आयु का कोई विरोध नहीं है, हम तथा हमारे वृद्ध जन जो कार्य आजीवन नहीं कर सके, वे कार्य तुमने इस छोटी सी आयु में कर दिखाये। इसलिए हमें पूर्ण विश्वास है
कि आप हमसे कुछ ज्यादा ही ज्ञाता सर्वज्ञ हो।
यह कैसा देश है, हमारा जन्म इस देश में ही क्यों हुआ है? ये रेतीले ऊँचे-ऊँचे पर्वत कैसे निर्मित हो गये। तथा यह स्थल तो सभी से ऊँचा है, इस पर्वत की क्या विशेषता है, आप अन्तर्यामी है, सभी कुछ जानते हैं तभी तो आज पहली बार आप हमें खींचकर ले आये हैं। आज तो हम सभी यहीं पर जी भर के खेलेंगे। गायें हमारी बड़ी ही सयानी हो गयी है। इनका लोहट लाला का कहना मानती है। फिर हमें किस बात की चिन्ता है?
जम्भेश्वर उवाचः सुनो! यहाँ पर कभी समुद्र लहरें लेता था, जिस वजह से यहाँ ऊँचे-ऊँचे रेतीले पहाड़ निर्मित हो गये, जब समुद्र सूख गया था तब यहाँ पर नदियों ने अपना स्थान बनाया। पवित्र सरस्वती नदी यहीं से होकर बहती थी। बहता हुआ जल कहीं गड़े तो कही ऊँची पाल बना देता है।
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ये तो हजारों वर्ष पूर्व हुआ है, तभी से ये रेत के टीबे निर्मित हुए हैं। इनमें सभी से ऊँचा यह समराथल तो बहुत ही पवित्र भगवान विष्णु की पुरी है। इसे इन्द्रपुरी भी कहा गया है, यह रहस्य में आपको बतला रहा हूँ। इसका जैसा नाम है तैसा गुण भी है।
सं-भर-थल इन तीनों शब्दों के योग से सम्भराथल शब्द बना है। सं का अर्थ है कि सम्यक् प्रकारेण यानि अच्छी प्रकार से, भर का अर्थ है कि भर-पोषण करने वाले भगवान विष्णु, थल का अर्थ है कि स्थल, स्थान विशेष जहाँ पर अच्छी प्रकार से भरण पोषण करने वाले भगवान विष्णु विराजमान होवें, वही यह स्थल सम्भराथल है।
हे बच्चों ! यह बड़ा ही पवित्र धाम है, इसके नीचे भगवान विष्णु का धाम विश्वंभर नगरी है। इस कलया में यह बात लुप्त हो गयी थी, मैं तुम्हें ठीक-ठीक बता रहा हूँ। मैं तो अब यही रहूंगा, आप लोग पींपासर जा सकते हो। नित्यप्रति गायें लेकर यहीं आ जाया करो। मैं अपने आप स्वयं गायों की रखवाली करूंगा, गायें चराऊंगा। ऐसा पूज्य माता-पिता से भी कह देना।
बालकों ने पूछा- हे जय अम्बेश्वर! आप तो इस लुप्त-गुप्त बात का रहस्य खोल रहे हो किन्तु यह अवश्य ही बतलाइये कि आपने जैसा कहा कि यहाँ कभी समुद्र था वह कैसे सूख गया? इस समय यह देश इस गति को प्राप्त कैसे हो गया?
जाम्भो उवाच:- हे ग्वालों! मैं तुम्हें अपनी नीजि बातें बतलाता हूँ, जब रावण को मारने के लिए मैं ही राम के रूप में समुद्र किनारे वानर सेना सहित पँहुचा था, उस समय मुझे लंका में जाना, रावण को मारना, सीता को वापिस लाना था। उधर चौदह वर्षों का वनवास भी पूरा हो रहा था।
मैनें समुद्र से तीन दिन-रात प्रार्थना की थी किन्तु उस सठ समुद्र ने मेरी एक भी नहीं सुनी। मुझे लंका में जाने का मार्ग नहीं दे रहा था, प्रथम तो मैं साम नीति से समझा रहा था। इसे अपने कार्य की सिद्धि के लिए निवेदन कर रहा था, किन्तु दुष्ट नीच अपनी नीचता को त्यागता नहीं है, सामने वाले शांत सत्व पुरुष की वह कमजोरी समझ लेता है,
समुद्र ने ऐसा ही किया, वह तीन दिनों तक कुछ भी समाधान नहीं दे सका। शायद वह मेरी सहनशीलता सौम्य स्वभाव को तोल करके देख रहा था। जब साम नीति से कार्य नहीं हुआ, मुझे समुद्र की तरफ से कुछ भी जवाब नहीं मिला तो मैनें दण्ड नीति का सहारा लिया और धनुष बाण चढ़ा लिया।
हे बालकों! वह बाण कोई सामान्य नहीं था, वह तो अग्निबाण ही था, जो सम्पूर्ण जल को सुखा सकता था, जल में रहने वाले जीव जन्तु भी मर जाते, बड़ा अनोखा विप्लव हो जाता, किन्तु बाण चलाने से पूर्व ही वह समुद्र मानव का रूप धारण करके हाथ जोड़कर सामने उपस्थित हो गया देरी के लिए क्षमा याचना करने लगा।
समुद्र ने प्रार्थना की कि आप ऐसा न करें, अन्य सभी जलीय जन्तु जलकर भस्म हो जायेंगे आपसे बड़ा भारी अपराध हो जायेगा, मैं स्वयं ही अपने घर में पलीता लगाने वाला बन जाऊंगा। इसलिये हे नाथ! आप ऐसा न करें।
मैं आपको एक उपाय बतला देता हूँ आपकी ही सेना में नल व नील दो वानर वृहस्पति के पुत्र बड़े भारी शिल्पी हैं वे पुल बना सकते हैं। वे जो भी जल में डालेंगे, पत्थर, लकड़ी आदि वही तैर जायेगी,डूबेगी नहीं। मैं उनके द्वारा डाली हुई वस्तु को डूबो नहीं सकता। हे नाथ! यह सभी कुछ आपकी ही कृपा है, आपके पवित्र नाम के प्रताप से क्या नहीं हो सकता?
मैनें कहा- मेरी प्रतिज्ञा भंग नहीं हो सकती, राम एक बार ही बोलता है, जो कुछ भी कहता है वह पूरा करता है, रघुकुल की यही रीति है, हमारे कुल में जो भी पैदा होता है, उनके प्राण भले ही चले जाये किन्तु वचन भंग नहीं होते। मेरा चढ़ा हुआ बाण अब बिना चले नीचे नहीं उतरेगा। अब तुम ही बताओ
| कि यह बाण कहाँ छोडू?
समुद्र बोला- इस बाण को आप उतर की तरफ चला दीजिये। इधर ही मेरे शत्रु,तथा आपके भी शत्रु नियम भंग करने वाले राक्षस रहते हैं, जो अन्याय करके उतर के समुद्र में छुप जाते हैं। आपका अग्नि बाण जब चलेगा तो वहां जल ही सूख जायेगा तो वे राक्षस लोग भी आपके कोप बाण में जलकर भस्म हो जायेंगे। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।
श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान गोचाराण लीला भाग 2