विष्णु भक्तों का बलिदान
नाथोजी ने कहा- हे शिष्य! सम्भराथल पर शिष्य मण्डली सहित श्री जाम्भोजी महाराज विराजमान थे। उस दिन सभी लोग मौन बैठे हुए थे। कहीं किसी के मन में कोई शंका, संशय नहीं था ऐकाऐकी श्री देवजी हर्षित हुए, मंद-मंद मुस्कराने लगे। अप्रयोजन ही उस दिन कुछ विचित्रता साथरियों ने देखी थी। हम लोगों से पूछे बिना नहीं रहा गया, बिना पूछे कुछ भी प्राप्त होने वाला भी नहीं था।
इसलिए मैनें पूछा- हे देव! आज आप बिना प्रयोजन ही बड़ी प्रसन्नता प्राप्त कर रहे हो, यदि आपकी मुस्कान का कोई विशेष प्रयोजन हो तो बतलाने की कृपा करें। बिना कारण के तो कुछ कार्य होने वाला नहीं है।
श्रीदेवजी ने कहा- हे नाथा! आज मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है। यह मेरी अपनी आंतरिक नहीं है।को बाहों कारणों से हो रही है। मैं देख रहा हूं, मेरे प्रिय शिष्यों ने आज बहुत ही बहादुरी का कार्य करके धर्म की रक्षा की है।
विष्णु भक्त विसनोई रहै गुणावती माहीं, जात्य का तेली, रावल एक पलो दिता, रावले दोय मांग्या एक दिताः दोय द्यो, रावले भीड़ घाती। एक पले उपरे उठारसै आदमी सीझ्या। श्री विसनजी इलोल आयो, शबद बोल्यों, खवां चमकण लाग्या, श्री वायक कहे विष्णु भक्त गुणावती में निवास करते हैं, वे तेली जाति के लोग हैं। उनका व्यापार धंधा तेल निकालना एवं बेचना है।
हे शिष्य! कार्य कोई भी बुरा या अच्छा नहीं होता वे लोग विष्णु धर्म का आचरण करते हैं इसलिए वे भी तुम्हारी तरह ही वैष्णव अर्थात् विश्रोई ही है। मैंनें उनको पवित्र किया है। वे परमभक्त हैं।
उनके यहां पर कोई राजा शिकार करके लाया था। उनसे तेल मांग रहा था, उन भक्तों ने तेल नहीं दिया। वे नहीं चाहते कि अपने हाथ से निकाले हुए तेल में कोई मुरदा पकाया जावे,राजा को शिकार करने के लिए प्रोत्साहित किया जावे। यदि हम इसका विरोध नहीं करेंगे तो जीव हत्या नहीं रूकेगी इसके लिए तो प्राणों का बलिदान भी दिया जावे तो धर्म का मार्ग है।
धर्मों रक्षति रक्षितः हम धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म हमारी रक्षा करेगा। इस प्रकार से विचार करते हुए उन लोगों ने जीव हत्यारे को तेल नहीं दिया। उस शिकारी ने उन विष्णु भक्तों को भी अन्य जीवों की भांति काट डाला। उन धर्मप्रेमियों ने हंसते हुए प्राणों का बलिदान दे दिया। किन्तु धर्म की रक्षा की। इसलिए मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है।
एक नियम धर्म की रक्षा हेतु ये धर्म के दीवाने लोग एक हजार आठ सौ बलिदान हो गये उन जीवों के तो भाग्य खुल ही गये।
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ये जीव तो इस पंचभौतिक शरीर को त्याग करके रतन सदृश दिव्य काया लेकर बैकुण्ठ धाम को पंहुच गये हैं। उन लोगां की बदौलत ही धर्म की रक्षा हुई है। स्वयं बलिदान देकर दूसरे जीवों की रक्षा की है। इन लोगों ने सदा-सदा के लिए आदर्श प्रस्तुत किया है। ये लोग साधु ज्ञानी पुरुष हैं। ज्ञानी पुरुषों के लिए मृत्यु का भय नहीं रहता।ज्ञानी जन ही मृत्यु से भयभीत रहते हैं।
उन लोगों ने विष्णु का स्मरण करते हुए धर्मार्थ प्राण त्यागे हैं इसलिए इनकी कभी दुर्गति नहीं होती। अन्त समय में जो मति होगी वही तो गति होगी। और अन्त समय में गति भी वही होगी जो आजीवन रही है। यदि जीवनपर्यन्त नमन भाव से, क्षमा भाव से, और जरणा से जीवन बिताया है तो उनकी सद्गति ही होगी।
यह तुम्हारी काया बाह्य तो स्थूल है जो पंचभूतों की रचना है। इसके अन्दर भी एक सूक्ष्म काया भी है जैसी अन्दर की सूक्ष्म काया होगी वैसा ही प्रतिबिम्ब बाह्य काया में होगा। यह स्थूल शरीर तो यहीं पर ही रह जाता है। किन्तु सूक्ष्म काया अपना कर्म संस्कार लेकर यहां से प्रयाण करती है। इसलिए इन सज्जन पुरुषों ने हंसते हुए प्राणों का बलिदान दिया है। ये लोग जीत गये हैं। जीवन को सफल बना लिया है। मैं इनके कार्य से अतिप्रसन्न हूँ, ऐसा कहते हुए श्री देवजी ने शब्द सुनाया-
शब्द-23
ओ३म साल्हिया हुआ मरण भय भागा, गाफिल मरणै घणा डरे।
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सतगुरु मिलियों सतपंथ बतायो, भ्रान्त चुकाई, मरणे बहु उपकार करै।
रतन काया सोभंति लाभै, पार गिराये जीव तिरे।
पार गिराये सनेही करणी,जंपो विष्णु न दोय दिल करणी।
जंपो विष्णु न निन्दा करणी,मांडू कांध विष्णु के सरणै।
अतरा बाल करो जे साचा,तो पार गाय गुरु की बाचा।।
रवणां ठवणां चवरां भवणां, ताहि परे रै रतन काया छै,लाभे किसे बिचारे।
जे नविये नवणी, खविये खवणी, जरिये जरणी।
करिये करणी, तो सीख हुवां घर जाईये।
रतन काया सांचे की ढाली गुरू प्रसादे केवल ज्ञाने धर्म अचार शील संजमे, सतगुरु तुटे पाये।
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