भुवा तांतू को शब्दोपदेश

jambh bhakti logo

भुवा तांतू को शब्दोपदेश

भुवा तांतू को शब्दोपदेश
भुवा तांतू को शब्दोपदेश

  लोहटजी की छोटी बहन जो ननेऊ गाँव में विवाहित थी एक दिन अपने भतीजे को देखने हेतु पीपासर चली आयी। जाम्भोजी उस समय गायें चराते थे। जब जाम्भोजी पलने में थे तब पहली बार देखा था अब तो गायें चराते हुए देखना चाहती थी। लोहट-हांसा ने तांतूं का स्वागत किया। बहुत दिनों के बाद बहन अपने भाई-भाभी से मिलने के लिए आयी थी। मन में बड़ा उत्साह था, अब मेरा भतीजा कुल का दीपक अपने पिता के कार्य में हाथ बटाना है, ऐसा सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई थी।

सांयकाले गायें वन से चरकर लौट रही थी। आकाश गऊवों के खुरों से उठी हुई धूल से आच्छादित था। घर पर आने की सूचना धूल से आच्छादित आकाश दे रहा था। छोटे बड़े टोकरे टोकरिया की गम्भीर ध्वनि बजती हुई सुनाई देती थी। ऐसा लगता था कि मानो मंदिर में सांयकालीन भगवान विष्णु की पूजा हो रही हो। सप्त स्वरों का गुंजायमान हो रहा था।

भगवान श्री की आरती उतारी जा रही थी ऐसे समय में घर की महिलाएं अपने अपने पूजा मंदिर में दीपक जला रही थी। संध्या समय में बड़े-बूढ़े हाथ-पांव धोकर आचमन लेकर संध्या करने में बैठ गये थे। ऐसी पवित्र बेला तो भगवान के निमित्त कार्य करने हेतु होती है।    

उसी बेला में जाम्भेश्वरजी गऊवों के पीछे-पीछे आज पींपासर नगरी में अपनी बुआ तांतू से मिलने आ रहे हैं। बहुत दिनों के बाद भुवाजी आयी है, उनसे भेंट होगी, प्रसन्नता होगी, उस प्रसन्नता से किसी को भी उचित नहीं रखना चाहते थे भूवाजी को देखकर, केवल इस शरीर से ही नहीं, पूर्व जन्म से भी, उनकी आदत, विचार से पूर्व जन्म का निर्धारण करूंगा।

यह जीव तो प्रहलाद पंथी ही है, फिर इसे भी तो वापिस अपने घर ले जाना होगा। अब समय आ गया है, इन जीवों को चेताना चाहिये। अपने अपने घरों में बछड़े अपनी-अपनी माँ की प्रतीक्षा में रम्भा रहे थे। उन्हें भी तो भूख लगी है न जाने कब दूध पीने को मिलेगा। गृहिणियां भी अपने अपने बेटे ग्वाल बालों के आने की प्रतीक्षा कर रही है। सुबह गये थे, दिनभर वन में भटकते रहे।

इन बालकों को भूख लग गयी होगी। हालांकि दुपहरा तो साथ में दे दिया था किन्तु बालकों को भूख बहुत ही जल्दी लग जाती है, सभी ने दूध दही मक्खन आदि का सुमधुर सात्विक भोजन बनाकर के तैयार किया था, वे आने की प्रतीक्षा में थी।  

ग्वाल बालों सहित जाम्भोजी पीपासर में आ गये, अपने माता-पिता, वृद्धजनों को सादर प्रणा किया। तांत् बुवा ने विशेष रूप से मिलन किया, प्रेमाश्रु की धारा बह चली । एकमात्र भाई का बेटा व भी वृद्धावस्था में किसी योगी महाराज के आशीर्वाद से प्राप्त हुआ है। अब तो बड़ा हो गया है। विवाह के योग्य हो चुका है। इसका विवाह कर देना चाहिये।    

लोहटजी बोले-बहन! मैं तो पहले ही कह रहा हूँ, तथा तुम्हारी भाभी भी कह रही है। घर में बह देखना चाहती है। माँय जाणे मेरे बहुटल आवै, बाजै बिरध बधाई। माता तो स्वभाव से ही चाहती है कि मेरे घर पर बहू आवे, बधाईयाँ बाँटी जाय, महोत्सव किया जाय। किन्तु यह तुम्हारा भतीजा विवाह के लिए तैयार ही नहीं है।

तुम भी समझाकर देखलो, यदि मान जाये तो अच्छा हम तो अभी करने को तैयार हैं।   बहन! हमारे शरीर का क्या पता कब यह छूट जाये। नदी के किनारे वाले रूंख का क्या पता कब बाढ़ आवे और कब गिर जाये। तांतूं कहने लगी- हे जम्बेश्वर ! हम सभी परिजन, मित्र, ग्रामवासी यही चाहते हैं कि तुम विवाह कर लो, जिससे तुम्हारा वंश आगे बढ़ सके, अन्यथा तो यह वंश परम्परा ही लुप्त हो जायेगी, दुनियां से सदा के लिए नाम उठ जायेगा।    

जम्बेश्वर बोले- हे भूवाजी ! आपने सत्य ही कहा है कि हम सभी लोग चाहते हैं किन्तु किस लिये? क्या वंश परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए? मेरी बात सुनो! दो प्रकार से वंश परम्परा चलती है, एक नाद से दूसरी बिन्द से। मैं तो पहली परम्परा आगे बढ़ाने के लिए यहाँ आया हूँ, दूसरी परम्परा तो पिता से आगे बढ़ती है। पहली परम्परा गुरु से आगे बढ़ती है।    

न तो मेरा कोई पिता है न ही कोई माता है, मैं तो स्वयंभू हूँ। जब मेरे ही कोई नहीं है तो मैं किसका पिता बनूं? मैं यहां संसार में गुरु परम्परा जो नाद शब्द परम्परा है उसे आगे बढ़ाने हेतु आया हूँ। हमारे गुरु परम्परा में आदि प्रहलाद गुरु है । उन्होनें अपने शिष्यों को शब्द दिया था वही शब्द त्रेतायुग में अपनी प्रजा को हरिश्चन्द्र ने दिया था।

वही शब्द पुनः द्वापर में युधिष्ठिर ने दिया था। वही शब्द इस समय आपको देने के लिए मैं आया हूँ। तुम लोग वही प्रहलाद पंथ के बिछुड़े हुए जीव हो, प्रहलाद ही तुम्हारे गुरु पिता है, हम सभी उनकी संताने हैं। उन्हें स्मरण करो, पंथ को आगे बढ़ाओ। हे भूवाजी! मैं ठीक कह रहा हूँ। संसार में नाम कीर्ति उसकी ही स्थिर रही है, जो नाद परम्परा से शब्द लेकर संसार में आगे बढ़ा है, अपना कल्याण किया है, ध्रुव,प्रहलाद,हरिश्चन्द्र,युधिष्ठिर आदि। केवल माता-पिता के रज, वीर्य से उत्पन्न होने से कोई अमर नहीं हो जाता, इस संसार में कितने राजा हो गये जिन्होनें गुरु की शरण ग्रहण करके शब्द नहा लिया उनका संसार से नामोनिशान मिट गया।  

कवण न हुवा, कवण न होयसी, कौन रह्या संसार। अनेक अनेक चलंता दीठा, कलि का माणस कौन विचारूं। जो चित होता, सो चित नाहीं, भल खोटा संसारू।

   तांतु बोली-हे भतीजे ! मैं तो अब तक तुम्हें सामान्य बालकही समझती थी। तमने तो बहुत सी ऐसी बातें कह दी है, मैं तो इन बातों का कुछ भी अर्थ नहीं समझती हैं, तुमने तो न जाने कब कब की बात बतलाई है। तुम क्या इन प्रहलाद आदि के बारे में जानते हो? तुमने क्या इनको कभी देखा है? इन मरूभूमि में बसने वाले जीवों के बारे में भी क्या तुम जानते हो? क्या यही प्रहलाद पंथ के बिछुड़े हुए जीव हैं।

यदि ये सभी बातें जानते हो तो मैं कुछ भी नहीं कह सकती, किन्तु मैं तो स्वयं अपने आप के बारे में भी नहीं जानती हूँ कि मैं कौन हूँ? ये दूसरे लोग कौन है। इस जन्म की सभी बातें तो मुझे स्मरण ही नहीं है तो पर्व जन्म की बातें स्मरण कैसे रहेगी? क्या ? तुम बता सकते हो कि मेरा यह जन्म तथा पूर्व जन्म क्या था, मैं कौन थी, यहाँ पर ही मेरा जन्म क्यों हुआ?    

मेरी संतान एक भी नहीं बची है, वे क्यों मर गयी है? मुझे सुख-दुःख के झूले में बार-बार क्यों झलना पड़ा? प्रथम संतान की प्राप्ति फिर समाप्ति, मेरा क्या पाप था जिससे दुःख हुआ? और मेरा पुण्य भी क्या था जिसे मुझे कुछ ही क्षणों में सुख भी हुआ था। मैं अपने बारे में क्या बतलाऊं बेटा? मेरे से बढ़कर दुखिया इस संसार में कोई नहीं है।    

जाम्भोजी बोले- हे बुआजी! मैं तुम्हें पूर्वजन्म की बात बतलाता हूं सुनो इस जन्म से पूर्व में तूं नाहरी भेडिया थी। अनेक जीवों को मारकर खाया करती थी। उसमें तुम्हारा क्या दोष था, वह तो तुम्हारा भोजन ही था। भोजन करके संतोष करना चाहिये, व्यर्थ में जीवों की हत्या नहीं करनी चाहिये, किन्तु तुम्हारे में कभी संतोष नहीं था, व्यर्थ में जीवों को मारना तुम्हारी आदत बन गयी थी। जब देखा तभी निरपराध जीवों को मार दिया करती थी। कभी तुमने दया नहीं दिखाई।  

Must Read : दुदोजी को परचा देना    

एक समय की बात है कि एक गाय वन में अकेली रह गयी, क्योंकि वह शीघ्र बच्चा देने वाली थी, वन में ही ब्याह गयी। उसके पास अभी अभी जन्मा छोटा बच्चा था या वह अकेली गाय ही थी और उसका रक्षक कोई नहीं था। उसी समय ही तूं बहुत खूंखार हो रही थी, जिसे भी देखा उसे मारना तेरा धर्म था, किन्तु उस दिन तो नयी प्रसूता गाय एवं उसके बच्चे को देखेकर तेरे में भी मातृभाव उमड़ आया।

वह भी एक बच्चे की माता थी, उसे उस बच्चे से कितना दुलार था उस समय यदि तूं चाहती थी तो उस बच्चे तो तथा उस बच्चे की माँ को मार सकती थी। उस समय उन्हें छुड़ाने वाला कोई नहीं था। यदि तुम चाहती तो केवल बच्चे को मार देती तो उसकी माँ तड़पती-रोती रह जाती। उसके ऊपर दुःख का पहाड़ टूट पड़ता।

मधुराष्टकम्: अधरं मधुरं वदनं मधुरं (Madhurashtakam Adhram Madhuram Vadnam Madhuram)

गंगा के खड़े किनारे, भगवान् मांग रहे नैया: भजन (Ganga Ke Khade Kinare Bhagwan Mang Rahe Naiya)

हे नाथ दया करके, मेरी बिगड़ी बना देना: भजन (Hey Nath Daya Karke Meri Bigdi Bana Dena)

यदि तू चाहती तो उस बच्चे की माँ को मार देती तो वह बच्चा बिना माँ के तड़प तड़प कर मर जाता। यह खेल तूं कर सकती थी। किन्तु उस दिन तो न जाने तेरे अन्दर कहाँ से मातृभाव उमड़ पड़ा।न तुमने माँ को ही मारा, न ही तुमने बच्चे को हो मारा बल्कि अन्य वन्यजीवों से उनकी रक्षा ही की थी । वही शुभ घड़ी शुभ दिन था जिस पुण्य से तुम्हें मानव शरीर मिला है।    

जो तुम्हें दुःख देखना पड़ा है, तुम्हारे पुत्र मर गए, नहीं बच पाये, माँ के सामने उसकी संतान मर जाये, इससे तो बढ़कर दुःख माँ को अन्य हो ही नहीं सकता। ये वेही जीव थे जिसको तुमने दुःख दिया था वे ही तुम्हें इस मनुष्य शरीर में दुःख देने के लिए अपना हिसाब-किताब पूरा करने के लिए आये थे और | अपना ऋण चुकता करके चले गये हैं मनुष्य अपने कर्मों का ही फल सुख-दुःख भोगता है उन्हें इस बात का पता नहीं है, इसलिए दोष दूसरों को देता है।  

अपने पूर्व जन्मों का वृतान्त सुनकर तांतू घबरा गयी, क्या? मैं नाहरी थी? ओह? इतनी हिंसक! कैसा विधि ये तेरा विधान है। पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ कर्म कभी मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ते, उन्हें तो भोगने सही पीछा छुड़ता है। हे बुआ! तुमने उस दिन मातृभाषा जगाया था उसी दिन से तुमने जीव हत्या करनी छोड़ दी। क्या? माता भी किसी को मारती है। कदापि नहीं। जो जीवों की हत्या करते हैं उनका दिल कठोर पत्थर जैसा होता है। वह पर दुःख से पिघलने वाला मक्खन जैसा हृदय नहीं होता।    

हे बुआ! तुमने अहिंसा भाव को धारण कर लिया, तू भी एक माता बन गयी, जीवों के पालन-पोषण का भाव तुम्हारे अन्दर जागृत हो गया। जीव हत्या करनी छोड़ दी। भोजन का त्याग करके तुमने उस दूषित शरीर को त्याग दिया। अन्त काले च मामैव स्मरणमुक्त्वा कलेवरम् अन्त समय में मातृभाव से विभोर होकर शरीर का परित्याग किया जिससे इस जन्म में तुम्हें माता का ही शरीर मिला तथा उच्चकुल में जन्म हुआ है अब इसे सफल करने के लिए हे बुआजी प्रयत्नशील हो जाओ।    

यह मानव शरीर तो संसार सागर से पार उतरने की नौका है। तांतू ने ये सभी बातें श्रवण करके, अपनी स्थिति के बारे में ज्ञान प्राप्त करके सचेत हुई और कहने लगी-गयी सो गयी, अब राख रही को समय व्यतीत हो गया सो हो गया वह तो वापिस लौटकर आयेगा नहीं। हे जम्बेश्वर! अब मुझे क्या करना चाहिये, यह बतलाओ, जिससे मेरा कल्याण हो जाये।

बार-बार जन्म मृत्यु के चक्कर में न आना पड़े। मानव भूलकर जाता है किन्तु उससे कैसे पार पंहुचा जा सके, ऐसी विधि बतलाओ जिससे थोड़े समय में ही अपना जीवन संभाल सकूं? बुआ तांतू की प्रार्थना सुनकर जाम्भेश्वरजी ने शब्द सुनाया।  

                          नवण संध्या

 ओ३म् विसन विसन तूं भणिरे प्राणी, साधा भगतां ऊधरणो।

देवला सह दानूं दास्यब दानूं, मदसु दानों महमह णौ।

चेतो चित जाणी सारंग पाणी, दे निज रहो।

आदि विसन वाराहां, दाढ़ा पति धर उधरणौं ।

लिछमी नारायण निहचल, थानों थिर रहणौ।

निमोह निपाप निरंजण सांमी, भणि गोपाल त्रिभुवन तारूं ।

भणता गुणता पाप खयौ।

तिह तूठे मोख मुगति चीतै दीठे व लाभ, अवचल राजू खापर खानूं खै गुवणौँ।

मिरघ तरासै, तीर पुल्ये गुण बाण हयौ।

तपति बुझे धारा हरि बूठे, यों विसन जपंता पाप क्यों।

ज्यों भूख को पालन अन्न अहारू, विष को पालन गुरड़ दवारूं।

काहीं नाहीं पंखरेवा सींचाण तरासे, विसन जपंता पाप विणासै।

विसनु ही मन विसनु भणियों, विसनु ही मन विसनु रहीयौ।

इकवीस करोड़ वैकुण्ठ पहोंता, साचै सतगुरु को मंत्र कहियो ।

   हे भूवा! नित्यप्रति संध्या वेला में इस मंत्र का उच्चारण कर इस विष्णु मंत्र का जप करने से साधु भक्त संसार सागर से पार उतर गये। तूं भी दुःखों से छूट जायेगी। विष्णु परमात्मा है जो देवों का भी देव है। सूर्य चन्द्र तारा आदि में जो तुम्हें ज्योति दिखाई देती है वह विष्णु की ही है। देवता को तो परमात्मा अपनी शक्ति प्रदान करते हैं कि दानवों से उनकी अनीति से प्राप्त शक्ति का हरण करके उन्हें निस्तेज कर देते हैं। भगवान विष्णु ही शारंग धनुष लेकर दुष्टों का विनाश करते हैं। वही विष्णु ही नाद वेद रूप में है।    

सर्वप्रथम विष्णु ने ही तो वाराह रूप धारण करके धरती को अपनी दाढ़ों पर रखकर जल से डूबी हुई का उद्धार किया था, तथा हिरण्याक्ष को मारा था। वेद ब्रह्माजी को दिया था। भगवान विष्णु ही लक्ष्मी, ऐश्वर्य, धन-धान्य के पति हैं, वही नारायण नाम से जाने जाते हैं। भगवान विष्णु का धाम वैकुण्ठ है। जो सदा ही स्थिर है। वहाँ किसी प्रकार से काल का चारा नहीं है।    

वह भगवान स्वयं निर्मोही होते हुए भी सभी जीवों पर अहैतु की कृपा करते हैं स्वयं भगवान निष्पापी हैं किन्तु जो पापी भी उनकी शरण में आ जाते हैं, उन्हें वे अपना लेते हैं। स्वयं तो भगवान माया रहित है किन्तु अपनी माया से ही सम्पूर्ण सृष्टि के रचयिता हैं उस गोपालक भगवान विष्णु का भजन करें। जो तीनों लोकों को तारने वाले हैं, उनका भजन करने से पापों का नाश हो जाता है।

जिनके प्रसन्न हो जाने से संसारिक भोग पदार्थ प्राप्त होते हैं तथा अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्ति भी सहज में ही हो जाती। अविचल सदा स्थिर रहने वाले राज्य की प्राप्ति उनकी भक्ति से ही संभव है। जिस प्रकार से चित्ते को देखकर मृग भयभीत होकर भाग जाता है। बाघ को देखकर या उसकी दहा़ सुनकर गऊ भाग जाती है भयभीत हो जाती है उसी प्रकार से विष्णु का भजन करने से पाप भाग जाते हैं।  

जिस प्रकार से तीर पर चढ़ा हुआ बाण अपने लक्ष्य को जाकर बेध देता है। ठीक उसी प्रकार से विष्णु का जप भी अपने लक्ष्य पापों को बेध देता है, नष्ट कर देता है। जिस प्रकार से गर्मी की शांति वर्षा से होतो है, ठीक उसी प्रकार से संसार के दुःखों के निवृत्ति भी विष्णु का जप करने से हो जाती है।

जिस प्रकार से अन्न का भोजन करने से भूख की निवृत्ति होती है, विष की निवृत्ति गरूड़ से होती है, कुछ छोटे छोटे पक्षी सीचाण-बाज को देखकर भयभीत होकर भाग जाते हैं। उसी प्रकार से विष्णु का भजन करने से पापों का विनाश हो जाता है।    

हे तांतू ! विष्णु ही विष्णु मन तथा जबान से कहो और हर समय विष्णु में ही लवलीन रहो। उठते, बैठते, चलते,फिरते, सोते, जागते प्रत्येक क्षण में विष्णु को मत भूलो। उस विष्णु का जप करते हुए हे बुवा! इक्कीस करोड़ बैकुण्ठ पंहुच गये हैं।    

पांच करोड़ सतयुग में प्रहलाद के साथ, सात करोड़ त्रेतायुग में राजा हरिश्चन्द्र के साथ तथा नव करोड़ द्वापरयुग में धर्मराज युधिष्ठिर के साथ, अब इस समय बारह करोड़ जो प्रहलादपंथी जीव इसी मरूदेश में छिपे हुए हैं, उनको पार उतारने के लिए मैं यहाँ पर आया हूँ। उन्हीं जीवों में तुम भी एक जीव हो। हे बूआजी ! मैं तुम्हारी जाति तथा उन सभी जीवों की जाति स्वभाव जानता हूँ।    

तांतू ने उक्त शब्द सुना तथा कहने लगी-हे देव! आपने जो यह संध्या वेला का मंत्र बताया है यह तो बड़ा है मुझे तो इस आयु में यह याद होना कठिन है कोई छोटा सा मंत्र बतला दे, ताकि मैं जप कर सकूँ।   जाम्भोजी ने शब्द बतलाया- हे तांतूं! यदि तुमसे इतने बड़े मंत्र का जप नहीं होता तो मैं तुम्हें संक्षेप में सुनाता हूँ। केवल विष्णु-विष्णु इस महामंत्र का जप तूं किया कर, इसी से ही तुम्हारा कल्याण हो।

Sandeep Bishnoi

Sandeep Bishnoi

1 thought on “भुवा तांतू को शब्दोपदेश”

Leave a Comment