बिश्नोई पंथ ओर प्रहलाद भाग 3
इस बार दैत्यों के विचार में बात कुछ इस प्रकार से आयी कि-अग्नि सभी को जलाकर भस्म कर देती है क्यों न प्रहलाद को अग्नि में जलाया जावे? यह मत सभी को पसन्द आया, इसके लिए उन्होनें एक लोहे का खम्भा अग्नि से तपा कर लाल कर दिया और प्रहलाद को उस खम्भे से बाँध दिया।
प्रहलाद लाल-लाल तपता हुआ लोहे का खम्भा देखकर कुछ घबराये किन्तु तुरंत देखते हैं कि उस तपे हुए खम्भे पर छोटी-छोटी चिंटियां घूम रही है। उन्हें देखकर प्रहलाद को दृढ़ निश्चय हो गया कि ये छोटी छोटी चिंटियां भी नहीं जल रही है तो तेरा क्या बिगड़ेगा? उस तपते हुए लोहे के खम्भे को भी ईश्वर मानकर दोनों बाहुओं द्वारा आलिंगन किया और कहा- आईये मेरे प्रभु! इस बार आप इस रूप में भी आ गये मुझे गले लगाने के लिए।
धन्य हो मेरे प्रभु! दैत्य अब तो पूरी तरह हार मान गये और हिरण्यकश्यप से कहने लगे- यह तुम्हारा बेटा न तो हमसे मारा जायेगा और न ही किसी प्रकार से डरता ही है। हमने तो सभी यत्न करके देख लिया है। अब आप जैसा ठीक समझे वैसा ही करें। हे दैत्यराज! हमारा कहना मानों तो इस बालक से समझौता कर लो, यह बालक सामान्य नहीं है।
यह तो कोई देवता हो है, जो न तो अग्नि, वायु, जल, पहाड़ से डरता है और न ही मरता है। हम तो पूरी तरह हार गये हैं। वील्हा ने अपने सतगुरु नाथाजी से पूछा- हे गुरुदेव आप कृपा करके आगे पुनः बतलाईये कि जब दैत्यों ने अपने सम्पूर्ण हथियार प्रहलाद के सामने डाल दिये तब हिरण्यकश्यपू ने क्या किया? क्या अपने अनुचरों के कहे अनुसार समझौता कर लिया था या अन्य कुछ उपाय अवशिष्ट थे जिससे प्रहलाद को मारा जा सके तथा यह बताने की कृपा करें कि सम्पूर्ण दैत्य समाज तो प्रहलाद का पूरी तरह विरोधी था,
एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखता था जो प्रहलाद का सहयोग करे, प्रहलाद पंथ का पथिक बन सके। क्या हिरण्यकश्यप के भय से भयभीत थे। यदि ऐसा ही था तो यह प्रहलाद पंथ किस प्रकार से प्रकाशन में आया। ये बातें आप मुझे विस्तार पूर्वक बताएं! जिससे मेरी जिज्ञासा शांत हो सके और मेरी श्रद्धा विष्णु परमात्मा के प्रति हो सके तथा मैं भगवान का भक्त हो सकूं।
वील्हा की भक्ति पूर्वक जिज्ञासा श्रवण करके नाथोजी अपने शिष्य के प्रति प्रेमपूर्वक इस प्रकार से कहने लगे- जब दैत्यों ने हिरण्यकश्यप को यह कह दिया कि हम सभी आपके बालक को मारने में असमर्थ है तब हिरण्कश्यपू चिन्ता में पड़ गया कि यह बालक अवश्य ही कोई देवता है जो मेरे यहाँ बेटा बनकर आया है। यह मारा नहीं जायेगा तो हो सकता है मेरे को मारकर मेरा राज छीन ले।
अब क्या किया जाये। मारने के जितने उपाय थे, वे सभी कर लिये, अब तो डर के मारे रात्रि में नींद ही नहीं आ रही है। एक-एक पलक कल्प के समान व्यतीत हो रहा है। चिंता में हिरण्यकश्यपू थकने लगा था। ऐसा ही हॉता है भगवान के विमुखी अहंकारी प्राणी को। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
हिरण्यकश्यप चिंता में थक रहा है। एक दिन हिरण्यकशिपु की बहिन होलिका आ गयी और अपने लाडले भाई से पूछा- भाई! तुम दिनों-दिन थकते जा रहे हो क्या बात है? तुम्हें इस असुर कुल में जन्म लेने से चिंता नहीं करनी चाहिये। हे भाई! मुझे बतलाओ मैं आपकी क्या सेवा करूं? यदि मुझे सेवा का अवसर मिलेगा तो मैं अपने आप को धन्यभागी समझूंगी। विपत्तिकाल में भाई-बहन एक दूसरे के सहयोगी होते हैं। तुम मुझे अपनी संपत्ति की बात निसंकोच होकर कहो।
हिरण्यकश्यप बोला- क्या कहूँ बहन! मेरा बेटा प्रहलाद, तुम्हारा प्रिय भतीजा ही मेरा शत्रु हो गया है।बाह्य शत्रु का तो मैं सामना कर सकता हूँ। उसे जड़-मूल से उखाड़ सकता हूँ। किन्तु मेरा ही पुत्र जब मेरा शत्रु बन जाये तो क्या किया जाए? मैं तो अपने ही दैत्यकुल को बढ़ाना चाहता हूँ। मैं अपने पुत्र को कैसे मार सकता हूँ? यही मेरे से होना कठिन है।
हे बहिन ! अन्य लोगों द्वारा तो मैनें उसे मारने, डराने, धमकाने के कई उपाय कर लिये हैं। किन्तु यह बालक न तो विष्णु की भक्ति ही छोड़ता है और न ही राज-पाट,परिवार का लोभ से मेरी तरफ आकर्षित करता है। मेरा शत्रु विष्णु और यह विष्णु की भक्ति करता है । तुम्ही बतलाओ- यह मेरे से सहन कैसे हो ।
जब तक यह प्रहलाद मरेगा नहीं तब तक मैं सुख चैन से नहीं बैठ सकता। होलिका बहन ने अपने भैया की कथा-व्यथा सनी और कहने लगी- भाई साहब! आप चिंता न करें। तुम्हें इस बात का पता नहीं है कि” काज पराया सीवला, जहाँ दुखे तहाँ पीड़” पराया कार्य ठण्डा ही होता है। दूसरा क्या जाने परायी पीड़ा को। जिसके पीड़ा होती है दुःख भी उसी को ही होता है। मैं तुम्हारी बहन हूँ, इसलिए तुम्हारी पीड़ा का निकटता से अनुभव करती हूँ।
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सुनो! मैं तुझे भक्त प्रहलाद के मरण का उपाय बतलाती हूँ। मैं महादेवजी के चरणों की पूजा-ध्यान करती हूँ। महादेवजी द्वारा मुझे वरदान प्राप्त है, मुझे एक शीतल वस्त्र-ओढ़ना महादेवजी ने प्रदान किया है जिसको ओढ़कर मैं अग्नि में बैठ जाऊंगी, मैं तो जलूगी नहीं किन्तु प्रहलाद को गोदी में लेकर जला दूंगी तुम लोग मेरे चारों तरफ लकड़ियां चिन देना और पूरा यत्न कर देना कि जब प्रहलाद को आग की ताप लगे कहीं निकलकर भाग न जाये पहरेदार खड़े कर देना, यह कार्य तुम शीघ्र करो।
मैं आज शाम को ही प्रहलाद को लाड़-प्यार करते हुए शीतल ओढ़ना ओढ़कर प्रहलाद को गोदी में लेकर बैठ जाऊंगी। आप लोग चारों तरफ लकड़ियां चिनकर के आग लगा देना प्रहलाद कहीं निकलकर भाग न जाये इसके लिए पूरा यत्न कर देना। निश्चित ही प्रहलाद मारा जायेगा और मैं बचकर निकल आऊंगी। सदा-सदा के लिए तुम्हारा काँटा निकल जायेगा। तब तुम निश्चित होकर राज करोगे।
हिरण्यकश्यप ने तुरंत सभी उपाय कर दिये, होली तैयार करदी और अपने अनुचरों को सावधान कर दिया। वह बोला खबरदार! यदि किसी प्रकार की लापरवाही की तो दण्ड दिया जायेगा। होलिका अपने भतीजे प्रहलाद को गोदी में लेकर बैठ गयी। चारों तरफ से आग लगा दी गयी, लकड़ियां एवं होलिका धू धूं कर जलने लगी। पहरेदरों ने सोचा कि प्रहलाद जल रहा है किन्तु वहाँ पर तो होलिका जल रही थी, होली जलाकर सभी दैत्य अपने-अपने घर लौट आये। हिरण्यकश्यप को सूचना दे दी कि प्रहलाद अग्नि में जल गया है।
होली के शाम को दैत्यों ने खुशी मनाई। आज प्रहलाद का मरण हो गया है। उस अपार खुशी में यह किसी को भी पता नहीं चला कि होलिका कहाँ गयी। खुशी में कौन किस की परवाह करता है। प्रहलाद की माता कयाधू को यह पता चला कि आज मेरी ननद ही मेरे बेटे को मारने के लिए अग्नि में लेकर बैठ गयी है। दुःख की कोई सीमा ही नहीं रही।
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रोने लगी विलाप करते हुए कहा हे बेटा प्रहलाद! अब तुम कहाँ हो! एक बार आओ दर्शन दे जाओ। आज मेरा बेटा अपनी बुआ तथा पिता की वजह से अग्नि की भेण्ट चढ़ गया है। मुझे क्या मालूम था कि एक दिन ऐसा होगा।मैं पुत्रविहीन नारी कैसे अपना कलंकित जीवन जी सकूं। मैं अपनी ननदरानी को हाथ जोड़ती, पाँव पकड़ती, प्रार्थना करती तो क्या पता अपने पुत्र को बचा लेती। मेरे पति तो नर है तथा दैत्य भी है, वो क्या जाने माँ के हृदय की बात।
किन्तु हे ननद । तूं तो एक माँ का हृदय लेकर आयी है। तुम्हारे से यह कैसे सम्भव हुआ? असंभव है कि एक नारी यह कार्य कर सके। पता नहीं मैनें कौन पाप कर्म किए थे जिस वजह से मैं अपने ही सामने पुत्र की मृत्यु देख रही हूँ। यदि मेरे में ही सहृदयता होती तो मैं यह कार्य कदापि नहीं होने देती। स्वयं अपने प्राण त्याग देती किन्तु अपने बेटे को बचा लेती। किन्तु क्या कहूँ किससे कहूँ? अभी तो सब कुछ बीत चुका है। भगवान ही इस समय तो मेरे बेटे के रक्षक हैं।
इससे पूर्व भी अनेकों बार भगवान ने बचाया था। ये लोग तो अब तक कभी मार सकते थे। हे भगवान! आप ही रक्षा कीजिये। मैं प्रात:काल की वेला में प्रहलाद के दर्शन नित्यप्रति की भांति करना चाहती हूँ। इस प्रकार से माता कयाधू एवं प्रहलाद के अनुयायी लोगों ने भगवान का भजन करते हुए रात्रि व्यतीत की।
यह रात्रि, शोक रात्रि प्रहलाद पंथियों के लिए कही जाती है। किन्तु हिरण्यकश्यपू पंथियों के लिए खुशी की रात्रि मानी जाती है। प्रात:काल हुआ दैत्य लोग सूर्योदय होने के पश्चात उठे और कहने लगे-देखो भाई! रात्रि के उत्सव में किसी को कुछ नुकसान तो नहीं हो गया है। अब तो सचेत हैं किन्तु रात्रि में तो अचेत ही थे। सभी ने अपनी-अपनी उपस्थिति दी, सभी कुशल थे।
हिरण्यकश्यप ने पूछा- क्या बात है? अब तक होलिका नहीं आयी, तुम तो सभी लोग आ गये हो, खुशी मना रहे हो, बिना बहिन के खुशी कैसी? दैत्यों ने देखा कि होलिका तो नहीं आयी किन्तु प्रहलाद खेलता हुआ आता दिखाई दिया। दैत्यों के तो प्रहलाद को देखते होी मानो सौ घड़ा ठण्डा पानी सिर पर गिर गया हो।
दैत्यों ने हिरण्यकश्यप को कहा- हे राजन! जिसकी तुम आने की प्रतीक्षा कर रहे हो वह होलिका लौटकर कभी नहीं आयेगी। जल बल कर राख हो गई है। वहां पर दो मूठी राख पड़ी हुई है। कहो तो लाकर दे दें। तथा जिसके आने की प्रतीक्षा तुम कभी नहीं करते वह तुम्हारा शत्रु प्रहलाद आ रहा है। हे राजन्। जैसा नियति का विधान है वैसा ही होगा। ये सभी कार्य उलट पुलट हो गये।
हिरण्यकश्यप ने कहा- रे दुष्टों ! तुमने ठीक से पहरा नहीं दिया। प्रहलाद निकल कर भाग आया यह कैसे हुआ? दैत्यों ने कहा- हे राजन! यहां विधि का विधान कुछ और ही है, किसी का कुछ जोर चलता ही नहीं है। जब अब पहरेदार खड़े थे तब अग्नि लग चुकी थी उसी समय जोरों की पवन चली थी, उस पवन ने सारा कार्य गड़बड़ कर दिया था।
जो शीतल वस्त्र होलिका ने ओढ़ रखा था वही वस्त्र पवन देवता ने प्रहलाद को ओढ़ा दिया, जिसके प्रभाव से प्रहलाद तो बच गया और बेचारी होलिका जलकर राख हो गयी। भगवान का विरोध करने वालों की यही गति होती है।
हे राजन् ! इसमें हमारा कोई दोष नहीं है सभी कुछ तुम्हारा ही दोष है। जो राक्षस प्रभु की सत्ता को नहीं जानता था वह तो दूसरों को ही दोषी ठहराता था। उन लोगों ने एक दूसरों पर कीचड़ उछाला,दोषारोपण किया,अपने तथा दूसरों को धिक्कार ही दिया इस प्रकार से होली खेली गयी भक्त प्रहलाद के अनुयायी लोग तथा माता कयाधू ने खुशियां मनाई, बधाईयाँ बांटी गई।
इस प्रकार शांत सौम्यता से होली का त्यौहार मनाया गया था। प्रहलाद के अनुयायी लोग आज भी उसी रूप में खुशी मनाते हैं। उसी होलिका के जलन और प्रहलाद के ताकतवर होने के दिन से ही यह प्रहलाद पंथ चला था। प्रहलाद ने सतयुग में सर्वप्रथम कलश की स्थापना की थी। उस दिन असत्य अन्याय की पराजय और सत्य की विजय थी।
देरी से भले ही हो किन्तु आखिर जीत तो सत्य की ही होती है। प्रहलाद ने अपने सेवक अनुयायियों को एकत्रित किया और उन्हें कलश का अभिमंत्रित जल पाहल हाथ में देकर संकल्प करवाया।
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