धर्मराज युधिष्ठिर कथा भाग 7

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धर्मराज युधिष्ठिर कथा भाग 7

धर्मराज युधिष्ठिर कथा भाग 7
धर्मराज युधिष्ठिर कथा भाग 7

 हे शिष्य ! धर्मराज युधिष्ठिर को उस स्थान में खड़े हुए एक मुहूर्त भी नही बीतने पाया था कि इन्द्र आदि देवता वहाँ आ पंहुचे। साक्षात् धर्म भी शरीर धारण करके युधिष्ठिर से मिलने के लिए आये। उन तेजस्वी देवताओं के आने से वहाँ का सम्पूर्ण अंधकार मालिन्य दूर हो गया। पापियों के यातना का दृश्य कहीं दिखाई नहीं दिया। फिर से शीतल, मंद, सुगन्ध वायु चलने लगी।

 इन्द्र सहित मरुद्गण, वसु, अश्विनी कुमार, साध्य, रूद्र, आदित्य तथा अन्य स्वर्गवासी देवतासिद्धों और महर्षियों के साथ एकत्रित हुए। उस समय सांत्वना देते हुए इन्द्र ने कहा- महाबाहो ! अब तक जो हुआ सो हुआ, अब इससे आगे कष्ट उठाने की आवश्यकता नहीं है। आओ हमारे साथ चलो। तुम्हें बहुत बड़ी सिद्धि मिली है। साथ ही अक्षय लोकों की प्राप्ति हुई है। तुम्हें जो नरक देखना पड़ा है, इसके लिए क्रोध नहीं करना।

मनुष्य अपने जीवन में शुभ और अशुभ दो प्रकार के कर्मों की राशि एकत्रित करता है। जो पहले शुभ कर्मों का फल भोगता है उसे पीछे नरक भोगना पड़ता है। और जो पहले ही नरक का कष्ट भोग लेता है वह पीछे स्वर्गीय सुख का अनुभव करता है। जिसके पाप कर्म अधिक है और पुण्य कर्म थोड़े हैं वह पहले स्वर्ग सुख को भोगता है तथा जो पुण्य अधिक पापकर्म थोड़े है वह पहले नरक का कष्ट भोगता है पीछे स्वर्गीय सुखों को भोगता है।

इसी नियम के अनुसार तुम्हारी भलाई सोचकर ही मैनें तुम्हें नरक दर्शन करवाया, तुमने अश्वत्थामा की मृत्यु की बात कहकर छल से द्रोणाचार्य को उनके पुत्र की मृत्यु का विश्वास दिलाया। इसलिए तुम्हें भी छल से नरक दिखलाया। तुम्हारे पक्ष के जितने भी राजा युद्ध में मारे गये हैं, वे सभी स्वर्गलोक में पहुंच गए हैं।

महान धुरंधर शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ कर्ण भी जिनके लिए तुम सदा दुःखी रहते हो, वह कर्ण उत्तम सिद्धि हैं। । तुम्हारे दूसरे भाई तथा अन्य तुम्हारे पक्ष के राजा भी अपने अपने योग्य स्थानों को प्राप्त को प्राप्त हुए हुए हैं। उन सभी को चलकर देखो और अपनी मानसिक चिंता को त्यागकर मेरे साथ विहार करो। अपने किए हुए पुण्य,कर्म,दान तप के फल भोगो। राजसूय यज्ञ द्वारा जीते हुए समृद्धिशाली लोकों को स्वीकार करो।

युधिष्ठिर! तुम्हें प्राप्त हुए सम्पूर्ण लोक राजा हरिश्चन्द्र के लोकों की भांति सब राजाओं के लोकों से ऊपर है। उन्हीं में तुम विचरण करो। जहाँ राजऋषि मान्धाता, राजा भागीरथ और दुष्यंतकुमार भरत गये हैं। उन्हीं लोकों में निवास करके तुम भी दिव्य सुख का उपभोग करो। महाराज! वह देखो! त्रिभुवन को पवित्र करने वाली देवनदी मन्दाकिनी सामने ही दिखाई दे रही है। उसके पवित्र जल में स्नान करके तुम दिव्य-लोक में जा सकोगे। यहां गोता लगाते ही तुम्हारा मानव स्वभाव दूर हो जाएगा तुम्हारे मन के शोक-संताप ग्लानि और वैर आदि सभी मिट जाएंगे।

देवराज की बात समाप्त होने पर शरीर धारण करके अए हुए साक्षात् धर्म ने कहा- बेटा ! तुम्हारा विषयक अनुराग, सत्य भाषण, क्षमा और इन्द्रिय संयम आदि गुणों के कारण मैं तुम पर बहुत ही प्रसन्न धर्म हूँ। यह मेरे द्वारा तीसरी परीक्षा हुई है। किसी भी युक्ति से कोई तुम्हें अपने स्वभाव से विचलित नहीं कर सकता। द्वैतवन में अरणीकाष्ठ का अपहरण करने के पश्चात यक्ष के रूप में मैनें ही तुम से प्रश्न पूछे थे। वह तुम्हारी पहली परीक्षा थी। उसमें तुम भली भांति उत्तीर्ण हो गए थे फिर द्रौपदी सहित तुम्हारे सभी भाईयों की मृत्यु हो जाने पर कुत्ते का रूप धारण करके तुम्हारी दूसरी बार परीक्षा ली थी, उसमें भी तुम्हें सफलता मिली थी।

 यह तुम्हारी परीक्षा का तीसरा अवसर था, किन्तु इस बार तुम अपने सुख की परवाह न करके भाईयों के हित के लिए नरक में रहना चाहते थे। अत: तुम हर तरह से शुद्ध प्रमाणित हुए। तुम में पाप का नाम भी नहीं है। इसलिए स्वर्ग का सुख भोगो। तुम्हारे भाई नरक के योग्य नहीं है। तुमने जो उनको नरक भोगते हुए देखा है वह देवराज इन्द्र द्वारा प्रकट की हुई माया थी अर्जुन, भीम,नकुल,सहदेव और सत्यवादी शूरवीर कर्ण इनमें से कोई भी नरक में जाने के योग्य नहीं है।

भारत श्रेष्ठ! आओ अब मेरे साथ चलकर त्रिलोक गामिनी गंगाजी का दर्शन करो। धर्म के इस प्रकार कहने पर राजर्षि युधिष्ठिर ने धर्म तथा समस्त स्वर्गवासी देवताओं के साथ जाकर मुनिजन वन्दित परम पावन देवी गंगाजी में स्नान किया। स्नान करते ही उन्होनें मानव शरीर का त्याग करके दिव्य देह धारण कर लिया। उनके हृदय का शोक संताप और वैरभाव जाता रहा।

तत्पश्चात वे देवताओं से घिरकर महर्षियों से स्तुति सुनते हुए धर्म के साथ-साथ उस स्थान को गये, जहां उनके भाई, पाण्डव और धृतराष्ट्र के पुत्र क्रोध त्यागकर आनन्दपूर्वक निवास कर रहे थे।

वील्हा उवाचः हे सतगुरु देव! मैनें आपके श्रीमुख से भक्त प्रहलाद, सत्यवादी हरिश्चन्द्र एवं धर्मराज युधिष्ठिर के बारे में विस्तार से कथा सुनी, किन्तु उपरोक्त ये सभी बातें, जो आपने कहा था कि पांच करोड़ का उद्धार प्रहलाद के साथ सतयुग में हुआ था। सात करोड़ का उद्धार हरिश्चन्द्र के साथ त्रेतायुग में हुआ तथा नी करोड़ का उद्धार द्वापरयुग में युधिष्ठिर के साथ हुआ। अन्य शास्त्रों में तो ये बातें सुनने में नहीं आती? ये बातें आप ही कहते हैं या अन्य शास्त्र भी इनका वर्णन करते हैं। कृपा करके स्पष्ट कीजिए।

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नाथोजी ने कहा: हे वील्ह! यह तुम्हारी बात ठीक है कि अन्य शास्त्रों में इन महापुरूषों की कथा विस्तार से आयी है किन्तु पांच,सात,नव करोड़ की बात नहीं होगी। जो बात शास्त्रों में नहीं कही गयी है वे ही बातें बताने के लिए विष्णु जाम्भोजी के रूप में अवतरित हुए थे। जो कुछ पहले कहा जा चुका था पुनः कहने की क्या आवश्यकता थी।

जाम्भोजी ने कहा है- शास्त्रे पुस्तके लिखणा न जाई, मेरा शब्द खोजो ज्यूं शब्दे शब्द समाई।यही गुरु जम्भेश्वर जी की विशेषता थी। जो न कही हो किन्तु कहना आवश्यक है, ऐसी गूढ रहस्य की बातें कहना ही वेद कथन है। इसलिए तो शब्दवाणी को पांचवा वेद कहा जाता है। जो बात पहले कही जा चुकी है दुबारा उसे करना वेद नहीं है वह तो नकल है।

गुरु जाम्भोजी ने किसी की नकल नहीं की है। जो भी कहा है वह सत्य आंखो देखी बात कही है। अन्य विद्वान लोग सुनी सुनायी या वेद शास्त्रों की बातें पढ़कर आगे बखान करते हैं । जिन्होनें आंखों द्वारा नहीं देखा वह स्वयं प्रमाण नहीं है। वह पर प्रमाण है। किन्तु जिन्होनें स्वयं देखा है, परखा है, अनुभव

| किया है और कथन किया है वह स्वयं प्रमाण है। जाम्भोजी स्वयं प्रमाण है।

 उन्होंने कहा है- रावण सो कोई राव न देख्यो, हनुमत सो कोई पायक न देख्यो, सीत सरीखी तिरिया न देखी। यहाँ देखने की बात है अन्यत्र सुनने की बात है।

आल्हा उवाच सतयुग में भगवान विष्णु ने नृसिंह के रूप में अवतार लिया। त्रेता में राम रूप में अवतार लिया तथा द्वापर में स्वयं कृष्ण रूप में अवतार लेकर आये, इसी बात को जाम्भोजी ने कहा है, | किन्तु मुझे संशय इस बात का हो रहा है कि जाम्भोजी ने पांच,सात,नव करोड़ के उद्धार तथा कलश | स्थापना की बात क्रमशः प्रहलाद, हरिश्चन्द्र एवं युधिष्ठिर से क्यों जोड़ी? इन अवतार पुरूषों से जोड़नी चाहिए थी? ये अवतार ही तो अपने-अपने युग का प्रतिनिधित्व करते हैं।

नाथोजी उवाच हे विद्वान। प्रथम बात यह है कि जाम्भोजी ने तो जैसी घटना घटित हुई थी उसी का ही विवरण दिया है। ऐसा क्यों हुआ? इसके बारे में तो भगवान स्वयं ही जान सकते हैं, फिर भी मै अपनी समझ के अनुसार तुम्हें बताने का प्रयास करूँगा । ध्यानपूर्वक सुनो! कोई भी कार्य संसार में भगवान अपने हाथों से नहीं करते जो कुछ भी उन्हें करना होता है तो किसी को निमित्त अवश्य ही बनाते हैं।

 महाभारत के युद्ध में अर्जुन को भगवान ने निमित्त बनाया था। त्रेतायुग में भी भगवान राम ने रावण को मारने के लिए लक्ष्मण, सीता तथा हनुमान को निमित्त बनाया था सतयुग में भी राक्षसों को मारने के लिए प्रहलाद को निमित्त बनाया था। संसार के राजा उस समय प्रहलाद,हरिश्चन्द्र एवं युधिष्ठिर ही थे। यथा राजा तथा प्रजा जैसा राजा होता है वैसी प्रजा भी होती है। राजा का ही प्रजा अनुकरण करती है। प्रजा के लिए राजा ही भगवान होता है।

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भगवान स्वयं यश के भागी नहीं बनते, अपने प्रिय भक्तों को ही यश प्रदान करते हैं । गुणिया म्हारा सुगणा चेला, म्हें सुगणा का दासू। मद भक्त से मे प्रिय भगवान कहते हैं कि मेरा भक्त मुझे बहुत ही प्यारा है। मैं ऐसे भक्तों का दास हूं क्योंकि वे मेरे भक्त मेरे दास है। भक्तों के लिए मेरे लिए अदेय कुछ भी नहीं है। मैं उनको देता हूं वे मेरे लिए सभी कुछ समर्पित कर देते हैं। उनके योग एवं क्षेम का मैं वहन करता हूँ।

 हे वील्हा! इसलिए तो भगवान स्वयं कलश की स्थापना करते हुए भी स्वयं अकर्ता बन जाते हैं। और अपने भक्तों को कलश स्थापना का महत्वपूर्ण कार्य सौंप देते हैं। इन तीन युगों के प्रतिनिधि ये राजा हुए हैं। इन्होनें अनेकों कष्टों को सहन करते हुए भी धर्म की मर्यादा नहीं छोड़ी। इन्हें परीक्षा की अग्नि में | तपाकर शुद्ध कनक बनाया है। इनमें किंचित भी खोट रहने की संभावना नहीं है। ऐसे लोग ही धर्म की मर्यादा बांध सकते हैं। सद्गुरु ने कहा भी है- पहले किरिया आप कमाईये तो औरां ने फरमाईये।

 वील्हा उवाचः हे गुरुदेव! आपने मुझे यह बतलाया है कि 33 करोड़ लोग प्रहलाद के समय सतयुग में थे, उन में से पांच करोड़ तो प्रहलाद को गुरु मानकर पार उतर गये अर्थात् मुक्ति को प्राप्त हो गये बाकी बचे हुए आगे तीन युगों में पार हो जायेंगे, किन्तु यह कैसे पता चला कि आने वाले तीन युगों में जो पार उतर जायेंगे, ये वे ही जीव है जो प्रहलाद के अनुगामी थे? वे तो और भी हो सकते हैं। उनका पता लगाना भी तो टेढ़ी खीर है।

नाथोजी बोले: अपने लिए तो अवश्य ही जीवों की जाति पहचानना कठिन है किन्तु परमात्मा के लिए तो सामान्य सी बात है। जिस प्रकार से बहुत सी गायों में से हम अपनी गाय पहचान लेते हैं उसी प्रकार से असंख्य जीवों में अपने जीव हैं, उन्हें पहचानना है। वे ही संस्कारी जीव पार उतर गये हैं। श्री देवजी ने कहा भी है- क्रोड़ तेतीसूं बाड़े दीन्ही, तिन की जात पिछाणी। मैनें उनकी जाति को पहचान लिया है। जाति अर्थात् स्वभाव से पहचान की जा सकती है। परमात्मा सर्वज्ञ है सभी जीवों की जाति जानते हैं। हम लोग अल्पज्ञ हैं, इसलिए शंका होनी स्वाभाविक ही है।

 ये सभी अपनी-अपनी साधना पर ही निर्भर करता है। जो ज्यादा भक्ति भाव में ओतप्रोत थे अब किनारे लग ही चुके थे, उन्हें तो मात्र एक अन्तिम धक्का लगना था। वे कूदने के लिए तैयार ही थे उनकी तो सतयुग में परमात्मा की महाज्योति से जीव की अल्प ज्योति मिल गयी। किन्तु अब तक कुछ कच्चे थे, पकने में कुछ समय लगेगा।

उन्हें पुनः त्रेता द्वापर तथा कलयुग में जन्म लेना पड़ा। उन्हें सचेत करते हुए बतलाया था कि तुम प्रहलाद पंथी हो, तुम्हारा मार्ग ही दूसरा है, तुम्हें तो पुनः सागर में प्रवेश करना है। अब तुम्हारा समय आ गया है, इस प्रकार से जागृत करके उन्हें पार उतार दिया।

विल्हा उवाच : आपने जो कलश स्थापना के बारे में कुछ कहा है, मैं ठीक प्रकार से कलश स्थापना के महत्व को जानना चाहता हूं ? इसमें कुछ कहने योग्य कुछ गुह्य ज्ञान हो तो आप मुझे अवश्य ही बतलाने का कष्ट करें? कुछ ऐसी बातें है जो बिना जाने तृप्ति नहीं होती?

नाथोजी उवाच: वैसे तो ऊपर से देखने से तो कुछ भी विशेष दिखलाई नहीं पड़ता, जल से भरा हुआ मिट्टी का घड़ा ही तो है। किन्तु इसमें बहुत कुछ गम्भीर ज्ञान छिपा हुआ है। दरअसल में तो यह कलश ही सृष्टि का रूप है। इसी कलश में जल भरा हुआ है पृथ्वी भी भीतर बाहर जल से ओतप्रोत है। जल से ही सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पति होती है।

जल में भगवान विष्णु शरीर धारी सर्वप्रथम प्रकट होते हैं। उन्हीं विष्णु की नाभि से कमल प्रकट होता है। कमल से सृष्टि के रचियता ब्रह्मा प्रकट होते हैं। तीन गुणों की सम्पूर्ण सृष्टि है। ये तीन गुण सत्व, रज तथा तम है। इन्हीं तीन गुणों के प्रतीक तीन देवता है। सत्व पालन पोषण करता विष्णु, रज रचियता ब्रह्मा और तम सहार कर्ता शिव।

गंगा यमुना और सरस्वती नदियां भी जल रूप में ही है, 33 करोड़ देवता भी जल में ही देवत्व रूप से विराजमान है वही जल कलश में भरा जाता है, इन्हीं देवताओं का आह्वान किया जाता है। तब वह जल देवरूप हो जाता है। उसी अभिमंत्रित जल को पाहल कहा जाता है। जो भी पाहल ग्रहण करता है वह मानों देवता को ही ग्रहण कर रहा है।

ये देवता हमें शक्ति प्रदान करते हैं। हमें सद्गुणों से सम्पन्न बना देते हैं। हम स्वयं देव ही बन जाते हैं। जल की विशेषता है कि वह दूसरों के गुणों को ग्रहण करता है। वह कलश में स्थित जल कोरे मिट्टी के घड़े से पृथ्वी का गुण सुगन्धी ग्रहण करता है। काठ की माला जल में घुमाई जाती है वह जल काष्ठ के मनकों से भगवान के नाम का स्मरण ग्रहण करता है तांबे के पैसों से तांबे का गुण तथा तत्कालीन की सभ्यता को ग्रहण करता है।

ऋषि थाप्या गति ऊघरे कलश की स्थापना करने वाले ऋषि प्रहलाद, हरिश्चन्द्र, युधिष्ठिर आदि जैसे पवित्र आत्मा से उनके अन्दर स्थित भक्ति, सत्य, धर्म को जल ग्रहण करता है। पास में ही परमात्मा की ज्योति जलती है, हवन होता है। उस हवन की तेजस्विता, उष्णता तथा प्रकाश जल ग्रहण करता है। इसी प्रकार से सृष्टि के सभी गुणों को जल ग्रहण करता है।

जिसको भी इस प्रकार का अभिमंत्रित जल दिया जायेगा, पाहल पान करने वाला हाथ में जल लेकर संकल्प करता है कि मैं सभी दुर्गुणों का त्याग करूंगा। सद्गुणों से सम्पन्न होऊंगा ऐसे संकल्पवान पुरुष के लिए पान किया हुआ पाहल सद्गुणों से परिपूर्ण कर देता है। संसार में जीने की युक्ति प्रदान करता है और मृत्यु पर मुक्ति प्रदान करता है।

 जल देवता है, जल ही जीवन है, वह जल कलश यानि सृष्टि से भरा हुआ है। उस जल को अभिमंत्रित किया गया है। अन्दर शुभ भावना से अमृतमय बनाया गया है। इस प्रकार के अमृतमय जल का पान करते हुए, जाम्भोजी महाराज कहते हैं कि 21 करोड़ पार पहुंच गए हैं। उन्हीं प्रहलादपंथी जीव जो 12 करोड़, यहां मरूभूमि में जन्म लेकर आ गये हैं। उनको भी पाहल पिलाकर उनकी सद्गति करनी है।

 यह सतोपंथ जो प्रहलाद के समय में स्थापित हुआ था वह तीन युगों को पार करता हुआ अब कलयुग | में अटक गया है, उस भूले हुए पंथ की उन प्रहलाद पंथियों की याद दिलानी है। उन्हें इस संसार सागर से पार कर देना है। वैसे तो लोग बहुत ही लम्बा मार्ग तय कर आये हैं, किन्तु उन्हें अपने मार्ग का ख्याल नहीं है। अब तो उन्हें दूसरे की ही जरूरत है।

अंगुली द्वारा संकेत की ही जरूरत है, वे शीघ्र ही जग जायेंगे। जिन्हें अभी सोना है वह तो सोयेगा ही वे लोग इधर इस मार्ग में नहीं आयेंगे। क्योंकि उन्हें अब कोई जन्म और भी लेने पड़ेंगे कहा भी है- जुग जागो जुग जाग पिराणी, कांय जागतां सोवो।

धर्मराज युधिष्ठिर कथा भाग 1

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Sandeep Bishnoi

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