लोहट-हांसा को जाम्भोजी का अंतिम उपदेश

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लोहट-हांसा को अन्तिम उपदेश

लोहट-हांसा को जाम्भोजी का अंतिम उपदेश
लोहट-हांसा को जाम्भोजी का अंतिम उपदेश

  वील्होजी ने पूछा- हे गुरुदेव! आपके श्रीमुख से गुरु जाम्भोजी द्वारा गायें चराने की कथा मैनें सुनी,कब तक गउवें चराते रहे ? लोहट हांसा की आयु भी तब तक अन्त को प्राप्त हो गयी होगी उन्होनें कब शरीर का परित्याग किया? तथा श्री जम्भेश्वर जी कब तक अपने कर्तव्य का निर्वाह करते रहे। उन्होनें गृहत्याग एवं संन्यास कब ग्रहण किया एवं किसको अपना गुरु बनाया? ये सभी बाते मैं आपके श्रीमुख से सुनना चाहता हूँ, कृपया विस्तारपूर्वक बतलाये।    

नाथोजी उवाच:- हे शिष्य ! काल की गति बड़ी विचित्र है। यह तो किसी पर भी दयाभाव नहीं करता है। वह अन्तिम समय तो सभी के लिए आना निश्चित है। अन्य कार्यों का तो कुछ पता नहीं है शायद हो या न भी हो किन्तु काल का तो आना अवश्य ही है। लोहटजी एवं हांसा दोनों ही वृद्धावस्था को प्राप्त चुके थे। अथर्ववेद में ऋषियों ने सूर्यदेव से प्रार्थना की है कि  

 पश्येम शरदः शतम्, जीवेम शरदः शतम्।

 बुध्येम शरदः शतम्, रोहेम शरदः शतम्।

 पूषेम शरदः शतम्, भवेम शरदः शतम्।

 भूयेम शरदः शतम्, भूयसी शरदः शतात्।

   लोहट हांसा सौ वर्ष की आयु प्राप्त कर चुके थे। सौ वर्ष तक देख चुके थे। सौ वर्ष तक जीवन जी लिया था सौ वर्ष तक बुद्धिमान बने रहे थे अन्त समय तक बुद्धि सुचारू रूप से कार्य कर रही थी। सौ वर्ष तक ओजवान, तेजवान बने रहे थे। सौ वर्ष तक भोजनादिक आहार सुचारू रूप से उपभोग करते रहे थे। सौ वर्ष तक कीर्तिमान बने रहे थे।

जीने की ताकत अस्तित्व सम्यक प्रकारेण सौ वर्ष तक उपस्थित था। जीवन की सम्पूर्ण लालसा पूरी हो चुकी थी। अब तो आगे के घर में जाने की तैयारी में थे।    

स्वयं जाम्भोजी भी अपना कार्य करने में उद्यत थे। अब समय आ चुका था, जिसकी प्रतीक्षा की जा रही थी। गोचारण कार्य पूर्ण हो चुका था। माता पिता की सेवा का कार्य भी अब पूर्ण था। विवाह से पूर्व ही बेटा माता पिता की सेवा में संलग्न रहता है। विवाह के पश्चात तो उसका सम्पूर्ण ध्यान-शक्ति अपने बच्चों के पालण-पोषण में ही व्यतीत हो जाती है। माता पिता की तरफ देखने का अवसर कम ही मिलता है। यह तो सभी प्राकृतिक ही है। पानी तो सदा नीचे की ओर ही बहता है। ऊपर चढ़ाने के लिए ता प्रयत्न करना पड़ेगा।    

एक दिन मृत्यु से पूर्व लोहट ने अपने बेटे को पास बुलाया और कहने लगे- हे बेटा! मैं तो अब इस संसार को छोड़कर जा रहा हूं। मेरे वियोग में तुम्हारी माता भी अपना जीवन धारण नहीं कर सकेगी। वैसे ही अब तो हमारे दोनों का समय आ ही गया है, यहाँ से प्रस्थान करना ही होगा। हमें किसी बात का भी भय नहीं है।

इहलोक तो हमारा सुधर ही गया है तो हम समझते हैं कि हमारा परलोक भी सुधरा हुआ है। फिर हमें किस बात की चिंता है। तुम्हारे जैसे योगी अवधूत स्वयं स्वयंभू ही हमारे पुत्र हो। पुत्र तो सभी नरकों-दुःखों से त्राण दिला देता है, वही तो पुत्र नाम का अधिकारी होता है। ये सभी पुत्र के गुण तुम्हारे में विद्यमान हैं।    

बेटा ! हमने इस संसार में आकर कभी किसी को हानी नहीं पहुंचाई है। सदा ही परोपकार के कार्य में लगे रहे। जो भी धन संग्रह किया है वह हमने नीति पूर्वक किया है। कभी भी अंहकार को पास में नहीं फटकने दिया । जो कुछ है वह सभी कुछ ईश्वर का ही है। हमारा कुछ भी नहीं है । इसलिये इस वियोग की अवस्था में हमें कुछ भी दुख नहीं है।

हम अच्छी तरह से जानते है कि तुम भी इस सम्पति का उपभोग नहीं कर सकोगे । यह प्रजा की सम्पति है इसे प्रजा के लिये ही खर्च करे तो ही अच्छा होगा । हमने तो अपना हिसाब-किताब चुकत कर लिया है। इस समय तो हमें आगे का मार्ग दिख रहा है। हमारे जाने के पश्चात तुम क्या करोगे,कैसे रहोगे,यह हम जानना चाहते हैं।

हमने तो कुल परंपरा वृद्धि हेतु विवाह का प्रस्ताव किया था किन्तु तुमने स्वीकार नहीं किया । न जाने क्या-क्या तर्क दिये थे । तुम्हारे विचारो के सामने हमें भी चुप होना पड़ा था ।    

बेटा ! एक योगी अवधूत के आशीर्वाद से तुम्हारा जन्म हुआ था । तुम कोन हो,क्या हो,हम लोग अब तक ठीक से समझ नहीं पाये है क्योंकि हम तो पुत्र के मोह में मोहित ही थे अब तक मृत्यु जीवन के बीच में झूल रहे है जब पूर्व की स्मृति आती है तो तुम्हारी एक-एक लीला को स्मरण करके आनन्द जोर हो जाते हैं ।

ऐसी विचित्र लीला सामान्य बालक में कहां है? मुझे ऐसा लगता हैकि तुम स्वयं कन्हैया सीहो जो मेरे जैसे अभागी के यहां पुत्र बनना स्वीकार किया । इसमे भी कुछ अवश्य ही राज होगा।  

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हमारे देश की प्रजा बड़ी भोली-भाली सीधी-साधी है। इन्हे अब तक धर्म-कर्म का ज्ञान नहीं बोलोग अनेक प्रकार के व्यसनो में डूबे हुए है । धन तो खर्च करते है किन्तु युक्ति बिना किया हुआ खर्च व्यर्थ में चला जाता है,जिस प्रकार से कालर उसर भूमि में बोया हुआ बीज,इन्हे कुछ ज्ञान,घ्यान,शुभ कर्म,युक्ति से जीने की कला सिखाते रहना ।    

हम ग्राम पति ठाकुर है,हमारा तो मात्र ये लोग मेरी तरफही देखते ही यह कर्तव्य बनता है । इन लोगों का और कोई सहारा भी नहीं है। । मैं ही इनकी हर प्रकार की विपति में सहायक था अब ये लोग मेरे बिना बेसहारा न हो जाये । हर प्रकार से सुख दुख में इनका सहयोगी बने रहना । यही मेरी अन्तिम इच्छा है तथा उपदेश भी।  

अब आगे मेरी जो भी गति होगी वह तो भगवान जाने,यदि ज्ञान की दृष्टि से देखता हूँ तो तुम भी भगवान ही हों,अन्यथा ऐसे दिव्य चमत्कार कैसे हो सकते थे,ऐसी ही कुछ बाते कहते हुए लोहट जी मौन हो गये।  श्री गुरु जम्भेश्वर जी बोले – हे पिता श्री ! ये पंच भौतिक शरीर तो एक दिन अवश्य ही जायेगा चाहे राजा हो चाहे रंक।  

अनेक अनेक चलंता दीठा,कलि का माणस कौन विचारों।

जो चित होता सो चित नाही,भल खोटा संसारी ।

“जबरारे तौं जग डांडिलों,देह नीति जाणो”।

   मैं भी पंच भैतिक शरीर में बंधा हुआ स्वयं ईश्वर हूँ किन्तु मैं तो अपनी माया द्वारा स्वेच्छा से बंधा हुआ हूँ किन्तु जीव तो परवस होकर बंध गया है । अपने कर्मानुसार कर्म फल सुख दुख भोगने हेतु यहां संसार से जन्म लेता है । जो जन्म लेगा वह मरेगा भी अवश्य ही । मरेगा क्या? केवल पंच भूत आकाश,वायु, तेज,जल और धरणी ये पांचो ही शरीर की रचना मैं उपस्थिति रहते है ये ही मृत्यु समय अपने अपने तत्व में विलीन हो जाते है । वह जीव तो अजर अमर अविनाशी है । न कभी जन्म लेता है और न कभी मरता है।    

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हे पिता श्री ! आपका जीवन निर्मल है,यह शरीर रूपी वस्त्र उतार दीजिये,यदि चाहो तो नया वस्त्र नया शरीर धारण कर लीजिये । या जीव का ईशवर से मिलान कर दीजिये । सदा सदा के लिये जन्म,मरण,जरा,व्याधि,सुख,दुख आदि का क्लेश मिट जायेगा ।

जबसे मेरे उपर आप अपना वरद हस्त रखते आये है,तभी से आपके इस पुण्य पुंज हाथ से में भी कृतार्थ हो गया हूँ, इसलिये में कहता हूँ कि यह आपका अन्तिम जन्म ही है । आपके आने का जो उद्देश्य था वह पूर्ण हो चुका है । इस बात को पिताजी आप नहीं जानते में जानता हूँ।    यह रहस्य की बात है मैं आपको बतलाता हूँ।

आपका मेरा पूर्व जन्म का भी सम्बन्ध था और आगे चलकर भी आप अशरिरी हो जाओगे तो भी बना रहेगा । हे पिताजी ! पूर्व जन्म मे आप तो नन्दजी थे और |माता हांसा यशोदा थी उस जन्म मैं कृष्ण था । आपके मन में एक टीस सदा ही बनी हुई थी कि कृष्ण ने जन्म हमारे यहां नहीं लिया वसुदेव देवकी के यहां लिखा है।    

यह दुख और भी बढ़ गया जब मैने कंस को मार दिया,उग्रसेन को राज तिलक दे दिया, और मैं जब मथुरा में आये हुये आप नन्दजी के पास मिलने के लिये गया,में उन्हे मथुरा से विदाई देने के लिये गया था कन्तु स्वयं ही फंस गया उस बंधन से अब तक नहीं निकल सका हूँ ।

जब मैने कहा- पिताजी ! आप वापिस वृंदावन में लोट जाइये आपकी वहां पर प्रतिक्षा हो रही है,तब उन्होने कहा था कि हम तुम्हे छोडको अकेले वापिस नहीं जायेंगे । तब मैंने आपसे कहा था कि आप चलो,मैं आउंगा,अभी मुझे कुछ कार्य करने है मैं आउंगा,यही मेरा वचन आपने पकङलिया,अन्त समय तक यही रटन लगाते रहे,मेरा कन्हैया आयेगा,किन्त मैं नहीं जा सका।    

नन्द-यशोदा संसार छोडकर चले गये । उनका ही यह दूसरा जन्म पिता श्री आप है । पुत्र से मिलने की वासना आप इस जन्म में भी लेकर आये है जीवन भर यही वासना आपके अन्दर बनी रही । उस वचन को पूरा करने के लिये मुझे यहां आना पङा,क्योंकि मैं आपकी वृद्धावस्था में ही आया था,ताकी आपके पुत्र की इच्छा पूर्ण कर दूं,तथा आपको यहां से विदाई भी दे दूं ।

पिता की इच्छा रहती है कि अन्त समय में मेरा पुत्र मेरे सामने रहे,उनके कन्धों पर बैठ कर मेरी शव यात्रा निकले । क्योंकि उसी कन्धे पर तो कभी पुत्र को बैठाया था । आज पिता भी उसी कंधे पर बैठकर चले । मैं यह इच्छा नन्दजी की पूरी नहीं कर सका था । इस बार पूरी करके ही अन्य कार्य में लगेंगे,जो मेरे लिए निश्चित है।    

प्रेम पाश भी ऐसा ही बन्धन है । जो भगवान को भी बेटा बनने के लिए भी बाध्य कर देता है मै इसलिए तुम्हारा बेटा बनकर आया और आपकी सेवा कर सका । पिता पुत्र से जो भी अपेक्षा करता है वह सम्पूर्ण तो पूरी नहीं हो पाती किन्तु फिर भी मेरा आपकी सेवा करने के लिए पिंपासर में रहना हुआ,अन्यथा तो मेरा यहां पर कुछ भी तो काम नहीं था ।

आपकी जो भी सम्पति है वह मै आपके आदेशानुसार शुभ कार्य में ही खर्च करूंगा । इसलिये आप निश्चित रहे।    मैने विवाह नहीं किया आपके कुल की वृद्धि करने में मैं सफल नहीं हुआ किन्तु में ऐसा धर्म पन्थ चलाउंगा जो सदा सदा के लिये आपके कुल को अमर कर देगा । केवल जो विन्द से जो कुल परम्परा चलती है वह स्थाई एवं यशस्वी नहीं हो पाती ।

न जाने कितने लोग इस कुल परम्परा में आये और चले गये किसी का भी इस समय नामोनिशान तक नहीं है । धर्म की परम्परा स्थाई होती है। और सम्पूर्ण कुल को तारने वाली होती है।    

अब अन्त समय में सभी प्रकार की कामनाओं से मन को हटा कर के केवल एक आत्मा परमात्मा में ही स्थिर करो । ओम विष्णु कहते हुए इस नश्वर शरीर का पिताजी त्याग कर दो । अन्त समय में जो भी भावना रहेगी वही दूसरे जन्म का कारण बन जाएगी।यह समय बहुमुल्य है इसे ऐसे ही व्यर्थ में बरबाद न होने दे।      

अपने बेटे की ज्ञान युक्त वार्ता श्रवण करके लोहट जी ने संवत1540 की चैत्र सुदी नवमी को इस पंच भौतिक शरीर का त्याग ओम का उच्चारण करते हुए कर दिया । जैसा सांप कांचली को छोङदेता है, जैसे पुराना वस्त्र उतार करके नया वस्त्र धारण कर लेते है पांच भूतों में प्रधान भूत धरती है । इसलिये इस पार्थिव शरीर की अन्तिम क्रिया धरती में ही विलीन कर दी ।

ठीक पांच माह बाद भादवे माह की पूर्णिमा को हांसा देवी ने भी अपने शरीर का परित्याग कर दिया अनुसरण करते हुए पत्नी हांसा भी पहुंच गई ।    जहां पर पति देव पहुंचे थे वही उसी मार्ग का जाम्भोजी ने अपने पिता के कथनानुसार ही गृह सम्पति का परित्याग कर दिया । अभाव ग्रस्तो की अनाज देना है, इसके लिये प्रतीक्षा करते हुए, स्थायी रूप से सम्भराथल पर ही रहने लगे।

Sandeep Bishnoi

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