जम्भेश्वर भगवान अवतार के निमित कारण भाग -2

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जम्भेश्वर भगवान अवतार के निमित कारण भाग -2
जम्भेश्वर भगवान अवतार के निमित कारण भाग -2
जम्भेश्वर भगवान अवतार के निमित कारण भाग -2

लोहटजी भी गायें चराते हुए सबकी खुशी में अपनी खुशी प्रकट कर रहे थे। इसी प्रकार एक दिन थी, उस दिन गऊओं को चराने की बारी लोहटजी की थी। रात्रि में अंधेरा था, अमावस्या के आसपास के दिन थे। लोहटजी अंधेरी रात को पार करके ब्रह्ममुहूर्त में गाये जंगल से लेकर वापिस अपने स्थान की ओर आ रहे थे   स्नान – संध्या की वेला है, अतिशीघ्र वापिस पहुचना है, नियम का पालन करना है।

कहीं सूर्योदय हो जायेगा तो नियम भंग हो जायेगा स्नान सूर्योदय से पूर्व हो जाये तो संध्या सूर्योदय के साथ की जा सकती   गाये भी शीघ्रता के साथ अपने-अपने बछड़ों के पास पहुच जाना चाहती है रात्रि में भरपेट पास खाया है तथा दूध स्तनों में उतर आया है, अपने बछड़ों को दूध पिलाना चाहती है। लोहटजी गार्यों के साथ ही दोणपुर के निकट पहुंच चुके हैं। शीघ्र ही अपने स्थान को पैंहुच जायेंगे।  

द्रोणपुर का जोधा जाट भी जल्दी में था रात्रि में ही छकड़े पर बीज हल आदि खेती का सामान लादकर खड़ा कर दिया था क्योंकि सुबह जल्दी ही घर से रवाना हो जाना था तब तक सभी लोग सोते रहेंगे, पशु पक्षी,मानव,दानव आदि कोई सामने मिलेगा नहीं तब तक अपने खेत में जाकर हल जोड़ दूंगा। यदि देर हो जायेगी तो कोई अपशकुन हो जाएगा अपशकुन हो जाने पर खेती करना व्यर्थ हो जायेगा।

एक भी दाना नहीं होगा, भंयकर दुष्काल पड़ेगा, ऐसा विचार करते हुए जोधा अपने घर से बाहर निकला हो था कि सामने पीपासर के ग्रामपति ठाकुर लोहट जी पंवार मिल गये उन्हें देखते ही जोधा दुमना हो गया। आगे जाऊं या पीछे? ऐसा विचार करते हुए वहीं खत्म हो गया। न आगे जा सका और न ही पीछे मुड़ सका। कहा भी है  

गाड़ी गाड़ी गांव में, पुणे सुगन निरधार।

निकसई सामा मिल्या, लोहट जी पंवार।

देखत ही दुमनो भयो, बोल्यो बचन करुर।

 दाणो एक न होयसी, पड़सी काल जरूर।।

     लोहट जी ने सम्बोधित करते हुए कहा- भाई। क्या बात है ? रूक क्यों गये? आगे बढ़ो, तुम्हारे खेतों में अच्छी वर्षा हुई है। बाजरी बोने का समय अनुकूल है। जोधा कहने लगा- मैं क्या कहूँ, किसे दोष दूं? जिन अपशकुनों से बचना चाहता था, वही हुआ जो मैं नहीं चाहता था तुम्हारे जैसे संतानहीन का दर्शन आज मुझे स पवित्रवेला में हुआ है।

तुम यह मानों की आज मेरे घर तो बिजली ही गिर गयी। ऐसा कहते हुए जोधा पाकिस अपने घर की ओर मुड़ गया। लोहटजी को एक झटका लगा। सोये हुए थे, जग गये। मेरा मुंह देखने व अबाल पड़ जाता है। अन्न,धन, धान्य नहीं होता, सभी जीव मेरी वजह से दुःखी होंगे, ऐसा यह जोधा कह हा है, यदि ऐसी ही बात है तो मेरा जीना किस काम का?

यह जीवन जीकर भी मुझे क्या मिलेगा? केवल अपयश, अपमान के अतिरिक्त जिन्दगी में क्या रखा है? मैं तो विष की घूंट पी जाऊंगा किन्तु मेरी वजह से अकाल पड़े और अन्नादिन हो तो सभी जीव दुःखी होवे यह मैं कदापि नहीं चाहता। इसलिए अब एक क्षण भी मुझे जीने का अधिकार नहीं है।   ऐसा विचार करते हुए लोहटजी भी रकर गोवल्वास में जाना वापिस मुड़ गये।

अब तो वापिस लौटकर गोवल्या नहीं है। ऐसा विचार करते हुए जंगल की तरफ चल पड़े। बालक ग्वाल मिल गये, उन्हें समझाते। लगे-हे साथियों । अब मैं तो वापिस जंगल की राह पकड़ रहा हूँ, आप लोग वापिस अपने-अपने ही स्थानों पर जाइये। हमारे पशुधन को भी मैं आज से आप के ही सुपुर्द करता हूँ। सभी को राजी खा समाचार देना। तुम्हारा मेरा साथ बस यहीं तक का था।

अब आगे तुम्हारा और मेरा भगवान ही मार है। देहं वा पातयामि, कार्य या साधयामि। या तो कार्य ही पूरा करूंगा या शरीर ही छोड़ दंगा। की कोई विकल्प नहीं है।    गर्मी का मौसम था। लोहटजी भंयकर गहरे वन में जाकर ध्यानावस्थित हो गये। परमात्मा भान विष्णु जगत के पालन-पोषण कर्त्ता हैं। वह बचायेंगे या मारेंगे तो दोनों हाथ में लड्डु हैं।

बचायेंगे तो इ पूरी करेंगे, अन्यथा अपने ही पास बुलायेंगे। वह भी स्वीकार है। बिना अन्न जल के मानव रहित वन में लोहटजी ने तपस्या प्रारम्भ की। मन प्राणों को जीत करके एकटक दृष्टि से भगवान में ध्यान लगाकर बैे हुए मूर्तिमान स्वयं शिव ही मालूम पड़ते थे।बिना अन्न जल के प्राणों को कैसे धारण करेंगे। ये कोई गि सदृश योगी तो है नहीं, एक साधारण किसान ही तो है।

इन्होनें कोई योग साधना का अभ्यास तो किया नहीं है, किन्तु श्रद्धाभाव बलवान है। इसी के सहारे तपस्या में संलग्न हुए हैं।    गोवळवास में हांसादेवी अपने पति के आने की प्रतीक्षा कर रही है, नित्यप्रति की भांति स्नान संध्या का समय हो चुका है। अब तक लौटकर नहीं आये हैं। गऊएं तो अपने-अपने बछड़ों को दूध पिलाने के लिए आ गयी है।

आज मेरे प्राणप्रिय पतिदेव नहीं आये। बाहर जाकर देखू तो शायद अतिशीघ्र ही आते होंगे। लोहट तो आते दिखाई नहीं दिये किन्तु एक बालक ने आकर धीरे से कहा- हे दादी ! आज हमारे दादाजी तो वन में तपस्या करने चले गये हैं। हम लोग भी पीछे-पीछे जा रहे थे, किन्तु हमें वापिस लौटा दिया। वे आज नहीं आयेंगे।

दादीजी ! ये बछड़े एवं गायें आपकी तरफ एकटक दृष्टि से देख रहे हैं, उनकी आंखो में झांककर देखो? सभी कुछ शून्य उदासीनता दिखाई दे रही है। केवल तुम्हारे ही स्वामी तुम्हें छोड़कर नहीं गये हैं। वे तो हमारे सभी ग्रामवासियों के छोटे बड़ों के मित्र थे हमें तथा इन गायों को भी दुःख हो रहा है ये बेचारे मूक प्राणी स्पष्ट शब्दों में तो बोलकर कुछ कह नहीं सकते किन्तु रम्भा-रम्भा कर कुछ जरूर कह रहे हैं।  

हे दादीजी! आप चिंता न करें, अतिशीघ्र ही परमात्मा विष्णु के दर्शन करके वापिस लैट आयेंगे। ऐसा हमें पूर्ण विश्वास है। हांसा ने पूछा हे बालकों! उन्हें क्या हुआ? क्यों वन में चले गये? कही ऐसा न हो कि मैं अपने पीहर-मायके में रह रही हूं किसी ने गांव का दामाद मानकर के कुछ कट्वचन या हंसी ठिठाला तो न कर दी है। जिससे रूठकर वन में चले गये, यह गांव ही छोड दिया।

कहीं ऐसा तो न हुआ हो कि आप लोगों ने ही अपने वृद्ध दादा का कोई वचन अस्वीकार कर दिया हो? तुम लोगों से रूठ गय अथवा में आलसी ठहरी उनकी सेवा में कुछ कमी आ गयी हो। पति को परमेश्वर मानना चाहिए किन्तु यहाँ पीहर में बैठकर कुछ लापरवाही कर दी है। ऐसा क्या कुछ हुआ सो बतलाओ।  

ग्वाल बालों ने कहा- हे ठकुरानी ! न तो हमने कोई दोष दिया है और न ही आपने ही कुछ कहा है। इस गांव का जोधा जाट प्रथम बार खेत में हलोतिया करने जा रहा था। कुदरती कुछ ऐसा संयोग हुआ जो होनहार हो उसे टाला नहीं जा सकता। लोहटजी उनको सामने मिल गये, जोधा शकुनों पर विचार रखता था लोहटजी एक तो गांव के ठाकुर, दूसरे दामाद और तीसरे निपुत्र ये सभी योग सुयोग एक साथ मिल गये।

जोधा इसे अपशकुन मानकर वापिस घर लौट गया और हमारे दादाजी भी यहाँ पर न आकर वन में वापिस लौट गये। अब न जाने कहाँ गये हैं। अपनी धुन के पक्के हैं। हमारे दादाजी कार्य पूर्ण होने से पहले लौटकर नहीं आयेंगे।
 

दादीजी! आप भी भगवान को ही याद करो। अब तो वही इस संकट से उबारेंगे। लोहटजी तपस्या में तल्लीन हो गये, लेकिन अन्न जल के बिना प्राण ज्यादा दिन तो नहीं टिक सकते, किन्तु लोहटजी पर तो भगवान की अपार कृपा है, उन्हें जीवित रखना है। प्राण ही तो भोजन करते हैं, प्राणों की गति अवरुद्ध हो जाये तो भोजन कौन करे? अब तो प्राण बाह्य वस्तु को छोड़कर अन्तर का अमृत रस पान करने लगे हैं। उसी के प्रभाव से योगी लोग युगों-युगों तक जीते हैं। लोहटजी भी बिना अन्न जल के जीना सीख गये हैं।

प्राकृतिक प्रकोप भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता। जिनका प्राण मन आत्मस्थ हो जाये। सूक्ष्म रूप से भगवान स्वयं लोहटजी में प्रवेश कर गये। उनके अंग-अंग से ज्योति बाहर छिटकने लगी अब तो स्वयं तेजस्वी तपस्वी बन गये थे।

क्यों न होगा जिनके पुत्र रूप में स्वयं भगवान विष्णु स्वयं आने के लिए राजी हैं। लोहटजी ने बहुत से दिन समाधिस्थ होकर व्यतीत किए। उन्हें समय का कुछ भी ज्ञान नहीं रहा। न ही सुख-दुःख का अनुभव हुआ।


 देवताओं को यज्ञ की आहुति मिलती रहे तो देवता प्रसन्न होते हैं। देवताओं के लिए मृत्युलोक से आने वाली यज्ञाहुति बन्द हो गयी थी। पुनः प्रारम्भ करवाने हेतु एकत्रित होकर भगवान शिव, ब्रह्मा के पास पंहुचे और विनती करने लगे-हे प्रजापति ! इस समय लोहट जो स्वयं तपस्या करने बैठे हैं, आर्त भक्त है, इनके दुःख की तरफ ध्यान दीजिये?

शिव ब्रह्मा ने कहा-है देवताओं! आप हम सभी मिलकर हमारे ही देवाधिदेव पालन पोषण कर्त्ता भगवान विष्णु के पास चलते हैं। ब्रह्माजी ने कहा- उनकी तपस्या का समाधान पुत्र की प्राप्ति ही है। वह मेरे पास सामर्थ्य नहीं है। मैं उन्हें कुछ दे सकूं तथा तपस्या से निवृत्त कर सकूं। अब हम सभी लोग भगवान विष्णु के पास ही चलते हैं।

हमारी समस्या एवं लोहट की तपस्या का समाधान एक ही है। ऐसा कहते हुए सभी देवता भगवान विष्णु के पास पंहुचे और विनती करते हुए इस प्रकार से कहा- हे देवाधिदेव! लोहट जी पंवार द्रोणपुर में पुत्र प्राप्ति हेतु तपस्या में तल्लीन है। यह समय सर्वथा अनुकूल है। आप कष्ट एवं लोहटजी की व्यथा कीजिये। हम सभी देवता मिलकर के कुछ भी नहीं कर सकते किन्तु आप अवतार लेने में क्षमता रखते हैं। पूर्ण अवतारों की भांति इस समय हमारी विपत्ति दूर कीजिये।

 मृत्युलोक में यज्ञादि बंद हो चुके हैं। जो सुगन्धि सर्वत्र होनी चाहिये थी उसका लोप ही हो गया है पनः प्रारम्भ करवाईये? उसके बिना हम देवता दुर्बल हो रहे हैं। राक्षसों की ताकत बढ़ती जा रही है।

दैवीय शक्ति का हास एवं आसुरी शक्ति का बढ़ावा रोकिये। बेचारा मानव दोनों संस्कृतियों के बीच में जा रहा है। यह कार्य आप स्वयं अवतार लेकर ही कर सकते हो।

 इसलिए हे देव। आप अवतार लीजिये, ये वही लोहट नन्दरायजी है तथा हांसादेवीजी स्वयं आ माता यशोदाजी है। और वही पीपासर ब्रजभूमि है आपने वचन दिए थे उन्हें पूरा करने का अवसा गया है। यदि समय रहते आपने देरी कर दी तो पीछे पछताना ही पड़ेगा। क्योंकि लोहट एवं हांसा की। नहीं रहेगी तो फिर आप जन्म कहाँ लेंगे?

आपके वचनों का क्या होगा? लोहट के भाग्य में संतान नही आयु भी पार कर गये हैं। अब प्राकृतिक उपायों से तो संतान होनी असम्भव है। बिना कुछ प्राप्त कि लोहटजी वहां से उठेंगे नहीं। उन्होनें प्रतिज्ञा कर ली है कि देह यां पातयामि, कार्य या साधयामि।

 भगवान विष्णु ने देवताओं को आश्वासन देते हुए कहा- आप लोग वापिस अपने-अपने स्थान को लौट जाईये। मैं स्वयं ही इस बात से परिचित हूँ। मैं अभी जाता हूँ और लोहट को सचेत करता हूँ। उने माता पिता के रूप में स्वीकार कर लेता हूँ तथा अपने वचनों को निभाता हूं। आयो बारा काजै, बारा मैं सू एक घटे तो सुचेलो गुरु लाजे। अनेक रूप रूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे।

जो एक से अनेक रूपों में अपने आप को परिवर्तित करने में सक्ष्म है वह विष्णु लोहटजी की तपोस्थली पर साधु के वेश में जा पहुंचे ।

अलख जगाई, सत्य विष्णु की बाड़ी कहते हुए। यह विष्णु की सृष्टि ही सत्य है। सदा हरी-भरी फूलती-फलती रहे। यह बाग सदा ही सुगन्ध देता रहे। हे लोहट! उठ जाओ। योगी तुम्हारे द्वार पर खड़ा भिक्षा मांग रहा है। गृहस्थ के धर्म को निभाओ, लोहट! लोहटजी ने आंखे खोली, कानों में सुमधुर योगी की ध्वनि की झंकार सुनी, आंखो से दिव्य दर्शन हुए। लोहट ने आश्चर्यचकित नेत्रों से देखा था ऐसा योगी यति तो कभी देखा भी नहीं था, बिल्कुल अपरिचित असामान्य।

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 लोहट ने हाथ जोड़कर योगी को प्रणाम किया और कहने लगे हे महाराज ! मेरा अहोभाग्य है कि इस जनशून्य देश में आपका दर्शन हुआ है। मैं कृतार्थ हुआ, किन्तु साथ ही मेरा दुर्भाग्य भी है कि इस समय मैं आपकी इच्छा पूर्ण करने में असमर्थ हूँ। यदि आपको भिक्षा प्राप्त करनी है तो हमारे परिवार के लोग द्रोणपुर में गोवळवास का समय व्यतीत कर रहे हैं। उनके वहां जाईये, आपको भिक्षा अवश्य ही मिलेगी। मैं तो स्वयं हो कई दिनों से निराहारी हूँ।

 हे लोहट। मिथ्या भाषण मत करो! पीछे देखो एक बच्छी खड़ी है। इसका दूध दूहकर मुझे पिला दा। मैं अतिशीघ्र ही चला जाऊंगा, तुम्हारी तपस्या में विघ्न नहीं डालूंगा। हे योगी महाराज! आप क्या कहते हैं? यह बच्छिया तो मैं यहाँ प्रथम बार ही देख रहा हूँ। यह भी आश्चर्य ही है तथा आप भी अचम्भा ही हैं। इस विना ब्याही बच्छी के दूध कहाँ से आयेगा? आप मांग भी विचित्र ही कर रहे हैं।

 हे लोहट। आप उठिये! तथा यह मेरा कमण्डल लीजिये, इसका दूध निकालिये, मुझे पान कराइ मेरी बात पर विश्वास कीजिये तभी तुम्हारी यह तपस्या सफल होगी। योगी के वचनों पर विश्वास केर लोहटजी ठठे, योगी का कमण्डल ग्रहण किया, बच्छी के पीठ पर हाथ फेरा और दुहने बैठ गये। तत्व ही स्तनों में दूध उतर आया।

दूध तो स्नेह से ठतरता है, वह स्नेह प्रकृति से परमात्मा का हुआ, ईश्वर के आशीर्वाद से बच्छी के दूध उतर आया। कमंडल भर गया, लाकर योगी को दिया ओर कहा – हे भगवन् ! अब दुग्धपान कीजिए। 

योगी ने लोहे से कहा- इस दूध को तुम पीलो। यह ईश्वरीय प्रसाद है। यह तुम्हारी तपस्या का फल इसको पान कर लोगे तो तुम्हारी मनोकामना पूर्ण हो जायेगी। लोहटजी ने प्रेम से परमात्मा का प्रसाद पीने के लिए होठों पर लगाया था। प्रसाद का प्रेमरस हृदय में प्रवेश कर गया। उसी समय ही भगवान वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गये। आकाशवाणी ही सुनाई दी कि अब तुम तपस्या से निवृत्त हो जाओ वापिस अपने घर चले जाओ, मैं तुम्हारे पुत्र रूप में नये वर्ष में आऊंगा।

 जब तुम्हारे गांव-वन में पुन: वर्षा होगी, हरियाली का साम्राज्य हो जायेगा, खेतों में नया अन्न-फलादि मिलने लग जायेगा तब मैं आऊंगा। तुम उठो, घर जाओ, अपना कार्य करो। लोहट एक दृष्टि से देखते रह गये।

यह तो एक चमत्कार हुआ है। ईश्वर की जैसी इच्छा है। मेरे घर पर स्वयं भगवान ही आयेंगे। क्या यही भगवान अभी-अभी दर्शन दिये थे। ये तो भगवा वस्त्रधारी योगी थे। अच्छा है जो भी जैसे भी आयेंगे तो अवश्य ही। आगे से लोग मुझे निपुता कहकर तो नहीं पुकारेंगे।

मेरा मुँह देखने से अकाल तो नहीं पड़ेगा। मैं अकाल पड़ने में निमित्त कारण बनूं और संसार में जीवित रहूं यह कैसे हो सकता है ? ऐसा विचार करते हुए लोहटजी उठ खड़े हुए और घर की तरफ चल पड़े। अपनी धर्मप्ली को यह समाचार सुनाने की शीघ्रता हो रही है। अपने साथियों को भी तपस्या का वृतान्त और वरदान की बात बतानी है। इसीलिए अतिशीघ्रता से जा रहे हैं।


 माता हासा अपनी सखियों के बीच में बैठी विलाप कर रही है। हांसा कहने लगी- हे सज्जनी ! मेरी दुःख की कथा तुम श्रवण करो। मैं अपनी बात किससे कहूँ? यह ब्रह्माजी ही हम से तो टेढ़ा है यदि एक ही पुत्र दे देते तो क्या उनके कमी आ जाती ? राजा सागर को तो सुना है साठ हजार पुत्र दिये थे मेरी कोख में एक पुत्र भी नहीं दिया।

यदि मेरे पुत्र हो जाता वह चाहे साधु ही हो जाता घर नहीं बसाता तो कम से कम आज मेरी यह दशा नहीं होती, मेरे पतिदेव मरने के लिए अनशन पर बैठे हैं।

उनके बिना यह देह कैसे रहेगी? पति तो प्राण होते हैं वही नहीं है तो फिर यह शरीर मेरा जीवित कैसे रहेगा? आज मुझे कई दिन हो गये रोते-रोते नींद-भूखादि मुझे छोड़कर चले गये हैं। अब मेरा जीवन भी क्यों हो रहा है यह कुछ। भी पता नहीं है।

 सखियां कहने लगी-हे देवी! आप चिन्ता न करें। आप तथा आपके पति बिना अन्न जल के भी अब तक जीवित हैं तो आपको जिलाने वाला कोई और ही है। वह शक्तिदाता आपसे कुछ कार्य लेना चाहता है। अन्यथा तो आप दोनों के प्राण कभी के प्रयाण कर जाते ईश्वर के हाथ लम्बे हैं वह न जाने कब क्या करेगा, कुछ पता नहीं है। अनहोनी को भी होनी कर दे। असंभव को भी संभव कर दे।

 हे देवी! हमारा तो यह कहना है कि विकट परिस्थितियों में भी भगवान को न भूलें। वह सभी का योग কम बहन करने वाला है। सदा समय एकरस नहीं रहता, परिवर्तनशील है हमें तो ऐसा ही लगता है कि भी कुछ ठीक ही होगा। आप पुनः सामान्य जीवन जीयेंगे। तुम्हारे पूज्यपति तपस्या करके अतिशीघ्र ही लाट आयेंगे। थोड़े दिनों की ही तो बात है, धैर्य धारण करो।

जब हांसा कह रही थी कि साधु ही पुत्र हमारे होते, तो मम पति प्राणन किम खोते। उसी , वह योगी लोहटजी को शुभवचन कह करके तुरंत हांसा के सामने उपस्थित हो गया। आवाज लगाक सत विष्णु की बाड़ी। हे देवी । तुम्हारा बगीचा हरा-भरा रहे। उत्तरोतर उन्नते को प्राप्त होवे। तुम्हारा वंस आगे बढ़े।

हांसा बोली-हे महाराज आपके वचन सत्य हो। किन्तु सत्य होने में मुझे संदेह है, क्योंंकि यही नहीं हो रहा है। जो हम चाहते हैं वही होगा कैसे? आप भी हमें यही आशीर्वाद दे रहे हैं। योगी बोले-हे माते । आप चिंता न करें तुम्हारे अवश्य ही पुत्र होगा किन्तु होगा साधु ही तुम्हा अन्तिम वचन ही प्रमाण है ऐसा कहते हुए भिक्षा प्राप्त करके वहां से असमित हो गये। हांसा ने पीछे से देखा किन्तु न तो आते हुए दिखाई दिये और न ही जाते हुए। हांसा देखती ही रह गयी।

साधु ही हमारे पत्र होगा ऐसा क्यों कहा? ये योगी बाबा ही स्वयं पुत्र रूप में आयेंगे। कब आयेंगे, तब तक पता नहीं हम जिं् रहे या न रहें। विचार किया हांसा ने यह तो कोई साधारण योगी तो नहीं है।

क्या स्वयं शिव या विष्णु ही तो नहीं आये हैं वे अवतारधारी विष्णु ही पुत्र रूप में आ सकते हैं। अन्य कोई संसारी जीव तो मेरे गर्भ से कैसे आ सकता है? क्योंकि शरीर तो अब वृद्ध हो गया है, गर्भ धारण करने की शक्ति तो नहीं है। क्या होगा?


कैसे होगा? यह समाचार में अपने पति तक कैसे पंहुचाऊ। उन्हें तपस्या से निवृत्त भी कैसे करूं। उनको सफल हुई है। यह समाचार भी उन्हें कौन कहेगा?

हांसा अपने विचारों के उहापोह में डूबती इतराती हुई खुशी में मग्न थी कि लोहटजी घर पर आ गये। दोनो दम्पति प्रेम से मिले। लोहटजी ने अपनी तपस्या तथा पुत्र प्राप्ति के वरदान की बात बतलाई । हांसा कहा – हे पतिदेव। वही योगी मुझसे भी भिक्षा मांगने आया था, मैं भिक्षा देने लगी तब मेरी पुत्र प्राप्ति की इच्छा जानकर मुझे भी वरदान दिया है। अब तो भगवान ही मालिक है, क्या होगा वही जाने।

 पीपासर में अच्छी वर्षा हुई है। धन धान्य तृणादिक से धरती आच्छादित हो गयी है। इन्द्र देवता प्रस्न हो गये हैं। ऐसा समाचार उन गोवलवासी लोहट एवं अन्य साथियों ने सुना और तुरंत ही वापिस पीपासर की ओर प्रस्थान कर गये वापिस अपनी मातृभूमि में गोपाल गौ आदि पंहुच गये। गोवलवास का समय पूरा किया और वापिस अपने घर आ गये।

सभी लोग यथावत अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त हो गये लोहटजी का अपार धन्यवाद करने लगे। सभी ने कहा हमारे ग्रामपति ठाकुर साहब बहुत ही अच्छे हैं, इनकी वजह से हमने अकाल का समय अच्छी तरह से व्यतीत किया है।

ये तो साक्षात् देवता ही हैं। गोवलवास में हमारे साथ ही सुख-दुःखम रहे। हालांकि इनका तो वहीं ससुराल भी था, ये चाहते तो हमें अकेले छोड़कर स्वयं दामाद बनकर रह सकते थे। किन्तु ये शरणागत की रक्षा करने के धर्म को अच्छी प्रकार से जानते हैं, इनके ससुराल वाल ने इनसे बारबार आग्रह किया तो भी हमें छोड़कर नहीं गये। 

अपने देश में अच्छी वर्षा होने में भी तो हमारे ठाकुर साहब की तपस्या का ही फल है। अबका तो भगवान हमारे पर कुछ ज्यादा ही प्रसन्न है। ऐसा लगता है कि भगवान स्वयं ही इन घास, धान, न घास, धान, पेड़ पौधों के रूप में प्रकट हो रहे हैं। कुछ लगता है कि क्या होगा? प्राचीन रूढ़ियों को तोड़कर अस’ तोड़कर असंभव भी संभव होने जा रहा है।

सम्पूर्ण प्रकृति आनन्द विभोर हो रही है। इस वर्ष भाइयों । प्रकृतिरूपी स्त्री का पति परमेश्वर से मिलन हो गया है किन्तू पूर्व वर्षों में तो ऐसा नहीं था प्रकृति अपने पुरुष चेतन के अभाव में उदासीन रहती थी, आप देखिये । जहां देखो वहां प्रकृति पूर्णतया खिली हुई है। अपने यौवन पर पूर्णता को प्राप्त हो रही है।

 हांसा कहने लगी- हे पतिदेव ! मैं क्या कहूं? कुछ कहा नहीं जाता, किन्तु कुछ कहे बिना रहा भी नहीं जाता । मेरी इस अवस्था को देखती हूँ तो निराशा ही होती है। जब योगी के वचनों पर विश्वास करती हूँ तो पुत्र होने की आशा जगती है। मेरे शरीर में कुछ गर्भ जैसा मालूम पड़ता है। लेकिन हिलता डूलता सा तो मालूम नहीं पड़ता।

यदि गर्भ में बच्चा हो तो भार होना चाहिये, किन्तु वह तो बिल्कुल ही निर्भार है उस अवस्था का बखान कैसे करें। जो कोई सुनेगा वही हंसी उड़ायेगा। वे जाने क्या कहेंगे, लोगों के लिए तो जितने मुंह उतनी ही बातें होगी। लोहटजी कहने लगे हे देवी! चुप ही रहना ठीक है, समय व्यतीत हो जाने पर वृक्ष के फल फूल नहीं लगते। कहा भी है

 सम्बन्धी जन जो सुने, हंस ही कर ही चवाब। वृद्ध भये है वृक्ष के, फूलहू फल नहीं आव।। वचन सुने अवधूत के, लगी पुत्र की आस। सत्य जान मन हरष है, वृद्ध करि होय उदास।।



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Sandeep Bishnoi

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