गुरु आसन समराथल भाग 3 ( Samarathal Dhora )

गुरु आसन समराथल भाग 3 ( Samarathal Dhora )
गुरु आसन समराथल भाग 3 ( Samarathal Dhora )
                  गुरु आसन समराथल भाग 3 (Samarathal Dhora )

मेरे पास पापो का खण्डन करने के चार साधन है प्रथम नाद,वेद,शील,और शब्द। इन साधनो की महता बढ़ती है तो पाप भाग जाते है ऐसा मैं पापो का खण्डन करने वाला पाखण्डी हूं। ऐसे पाखण्डी को कोई पहचान ले तो उसका सहज में ही जन्म मरण मिट जायेगा। जीवन मुक्त होकर आत्मानन्द का लाभ मिलेगा।

साध शबद कै सांवली। सतगुरु नै साच करि जाणै। साध के हिरदे की खिड़की खुली। साध को सबद कह्यो

शब्द-82

ओ३म् अलख अलख तू अलख न लखणा, तेरा अनन्त इलोलूं। कौण सी तेरी कर्म पूजा, कोण से तिहि रूप सतूलूं।

हे साधो । तू वाणी द्वारा तो “अलख अलख” ऐसा उच्चारण करता है किन्तु उस अलख को तुमने जाना-पहचाना नहीं है उस अलख को जान लो तो तेरे अन्दर आनन्द उमंग की लहर उठ रही है उससे परिचित हो जायेगा। ऐसा होने पर फिर संसार के दुखो से दुखित नहीं होगा वह आनन्द तुझे अपने में डुबोये रखेगा।

ऐसा कौन सा कर्म तू करता है,ऐसी कौन सी तूं पूजा करता है जिससे आत्मानन्द की अनुभूति हो सके। तूं है तो सच्चिदानन्द रूप। तेरे स्वरूप की तुलना किससे की जाय। ऐसा कुछ है भी नहीं जो तुम्हारी बराबरी कर सके।

देवजी कहै सबद मत कहै। तेरे जीव को भलो हुवो। तेरा जीव काया छोडिसी जदि अढाई घड़िये सुरगे जासी। सारिये कह्यौ देवजी। अणी सिर का केस मैल्ह कराया नहीं चलु लियो नहीं। इह नै थे सुरग दीन्हौ। औरा नै तो घणा घणा वर्ष हुवा। भजन भगति करता नै। जाह नै तो कदे कहो नहीं। देवजी को – अणि म्हणे रूड़ा पिछाण्यां।

 उस साधु के मन में उस स्त्री के प्रति रोप था,क्योंकि उसने जाम्भोजी को पाखण्डी कहा था वह कुछ अप शब्द कहने लगा जाम्भोजी ने रोक दिया और कहा ऐसा किसी के प्रति मत बोलो। अब पीछे की बात को भूल जाओ। तुम्हारा भला हो गया। तुम्हारा जीव तुम्हारी काया को छोड़ कर जायेगा तो अवाई पड़ में हो स्वर्ग पहुंच जायेगा।

 साथरियो ने पूछा हे देवजी | इस साधु ने तो आपसे संपर्क सत्संग किया ही नहीं,सिर के बाल कटवाये ही नहीं,नियमो का पालन किया ही नहीं, पाहल भी ग्रहण नहीं किया,इसको आपने अति शीघ्र ही मुल होने का वरदान दे दिया। हम लोगो को तो देखिये तथा दूसरो को भी, बहुत वर्ष हो गये है आपकी संगति करते हुए भी पहचान नहीं सके है। ” क्यूं क्यू भणता क्यूं क्यूं सुणता, समझ विना कळू सिद्धि न पाई समझ से ही सिद्धि की प्राप्ति होती है केवल कहने या सुनने से कुछ भी प्राप्त नहीं हो पाता।

 अन्य अनेक क्षत्रिय वैश्य आदि के आगमन पर जाम्भोजी ने बतलाया

 एक समय जाट रजपूत मुंडिया नै लैर देवजी के दौवाणी आया। थे जाण्यौ म्हे जिसड़ो ज्ञान पोहरे | कोई नहीं । मुडिया कहै थे किसे ठिकाणे रा अतीत। जाम्भोजी श्री वायक कहै

शब्द-83

ओ३म् जो नर घोड़े चढ़े पाग न बांधे, ताकी करणी कौण विचारूं।

शुचियारा जायसी आय मिलसी, करड़ा दो जग करूं ।

जीव तडै को रिजक न मेटू, मुवां परहथ मारूं।

 हाथ न धोवै पग न पखालै, नहीं सुधी बुधि गिरूं।

 म्हे पहराजा सू कौल ज लियो, नारसिंघ नर काजू।

जुग अनन्त अनन्त बरत्या, म्हे सुनि मण्डल का राजू।

एक समय रजपूत एवं जाट बहुत सारे एकत्रित होकर एक साधु-मोडा को साथ लेकर सम्भराथल पर देवजी के पास आये और कहने लगे कि आप समझते हो कि मैं लोगो को प्रमोध-ज्ञान देता हूँ,जागृत करता हूँ। किन्तु हमारे जैसा ज्ञान आपको नहीं है, हम तुम से ज्ञानी ज्यादा है। साधु मुडिया कहने लगा-आप किस आम या मठ के साधु है? आप कौन से पंरपरा से सम्बन्ध रखते है

जाम्भोजी ने शब्द सुनाया जो मनुष्य घोड़े पर तो चढना चाहता है किन्तु पागड़ा रकाय नहीं बांधता पागड़ा पर ही पैर रख कर घोड़े पर चढ़ा जा सकता है। विना पागड़ा चढना नादानी है,अज्ञानता है। उसी प्रकार से सर्वोच्च शिखर वैकुण्ठ धाम तो पहुंचना चाहता है किन्तु साधना रूपी मार्ग नहीं पकड़ता तो ऐसे पुरूष के कर्मों के बारे में क्या विचार करे। उसका कर्म तो विना बीज की खेती की तरह व्यर्थ ही है।

 जो शुचि पवित्र आत्मा है वह तो कही से भी आकर मिलेगा,और जो कठोर,अपवित्र,अब्रद्धालु होगा वह दोजक नरक में गिरेगा। इसलिये आप लोग पहले शुचि बनो। इस संसार में जिसने भी जन्म लिया है वह अपने पूर्वकृत कर्मों के अनुसार जैसा भी जीवन व्यतीत कर रहा है उन्हें पूरी आजादी है उनके कृत कर्मों को मिटाया नहीं जा सकता,किन्तु मरने पर दूसरो के हाथ चढ जायेगा स्वंय पराधीन हो जायेगा, कुछ भी करने में स्वतंत्र नहीं होगा यह स्वतन्त्रता तो जीते जी ही है

जो व्यक्ति हाथ भी नहीं धोता, पैरों को भी नहीं धोता,सान आदि शुचि क्रिया भी नहीं करता ऐसे गंवार मुर्ख पुरूष को शुद्धि एवं बुद्धि कहाँ से आयेगी हे साधो । आपने पूछा कि मैं कहां का साधु हूं? सुनो । मैं तो वैकण्ठ वासी विष्णु है। प्रहलाद की रक्षा हेतु जब मैंने नृसिंह का रूप धारण किया था हिरण्यकशिपु को मारा था तब मैने प्रहलाद को वचन दिया था, उन वचनो को मैं पूरा करने के लिये में यहां आया हूं|

 वेसे असली मेरा पता पूछते हो तो सुनो । अनन्त युगव्यतीत हो गये मेरे देखते हुए, मैनें प्रलय एवं सृष्टि की संरचना देखी है मैं शून्य मण्डल का राजा हू। शून्य मण्डल ही मेरा निवास है,मैं ही उस मण्डल का मडलेश्वर हूं।

 मुंडिया कहै म्हे दाढी मुंछ माथै का केस सह मुंडाया भदर हुवा। डाफडोफ काई राखी नहीं। जाम्भोजी श्री वायक कहै

शब्द-84

ओ३म् मूंड मुंडायो मन न मुंडायो, मूंहि अबखल दिल लोभी। अन्दर दया नहीं सुर काने,निंदरा हड़े कसोभी।

गुरु गति छूटी टोट पड़ेला, उनकी आवा एकपख सातो।

 वे करणी हुंता खूंटा, असी सहंस नव लाख भवैलां कुंभी दौरे ऊंधा।

यह साधु फिर से कहने लगा – मैंने दाी मुं तथा सिर के केश सभी मुडया लिये है। मैं भदर हो चुका हूं। तथा अन्य कोई दिखावा पाखण्ड नहीं है मैं स्वर्ग मुक्ति का अधिकारी क्यों नहीं हुऐ कहा

हे साधो । तुमने सिर आदि तो मुंडवा लिये ये तो बाहा जटाऐ थी। किन्तु तुमने अपने चंचल मन को नहीं मुडाया। इस मन की चंचलता को नहीं मेटा। इसे स्थिर नहीं किया। मुख से अप शब्द बोलना नहीं छोड़ा। दिल में बैठा हुआ लोभ उसको भी नहीं छोड़ा। तो केवल सिर मुंडाने से क्या होगा तुम्हारे अन्दर दया भाव नहीं है। कर्ण द्वारा परमात्मा का शब्द स्वर सुनने की क्षमता नहीं है। नित्य प्रति दूसरो की निंदा करता है।

अपनी ही हानि करता है स्वर्गीय यश को ही पलिता लगाता है। दूसरो का यश समाप्त करने के चकर में स्वंय का हो यश नाश करता है सतगुरु का बताया हुआ मार्ग छूट गया तो तुझे बहुत ही हानि उठानी पड़ेगी।

यह दुर्लभ मानव जीवन हाथ से चला जायेगा तो आगे चौरासी लाख छोटी छोटी योनियो में भटकना पड़ेगा। उनकी आयु एक सप्ताह या दो सप्ताह से ज्यादा नहीं होगी। बार बार अति शीघ्र ही जन्म और मरण को प्राप्त होगा। वे अपने ही कर्म से नरक में गिरेगे। जीयेगे तो मारे जायेगे,आयु अति अल्प होगी। नव लाख असी हजार वर्षों तक कठिन दुखदायो कुंभी पाक नरक में चक्कर काटेगा इसलिये यही समय है सुकृत करने का, इससे मुख न मोड़ो। आगे फिर से जाट मुंडिया कहने लगे –

 जाट रजपूत मुडिया परचि पाऐ लागा कह- जाम्भोजी – कोई मोटो हुव स बतावौ, जक नुजपा। जाम्भोजी श्री वायक कहै

शब्द-85

ओ३म् भोम भली कृष्ण भी भला, खेवट करो कमाई।

 गुरु प्रसाद क्या गढ़ खोजो, दिल भीतर चोट न जाई।।

 थलिये आय सतगुरु परकाश, जोलै पड़ी लोकाई।

एक खिण मांहि तीन भवन में पोखरा, जीवाणु सवाई।

 करण समो दातार न हो, जिन कंचन बाहू उठाई।

भज राधे गोविंदा रे पगले: भजन (Bhaj Radhe Govinda Re Pagle)

तेरे दर पे ओ मेरी मईया: भजन (Tere Dar Pe O Meri Maiya)

अथ दुर्गाद्वात्रिंशन्नाममाला - श्री दुर्गा द्वात्रिंशत नाम माला (Shri Durga Dwatrinshat Nam Mala)

 सोई कवीसा कवल नवेड़ी, जिण सुरह सुबछ दुहाई।।

 मेर समो कोई केर न देख्यो, सायर जिसी तलाई।

लंक सरीखो कोट न देख्यो, समंद सरीखी खाई।।

 दशरथ सो कोई पिता न देख्यो, देवल देवी भाई।

 सीत सरीखी तिरिया न देखी, गरब न करीयो काई।।

 हनुमत सो कोई पायक न देख्यो, भीम जैसो सबलाई रावण सो कोई राव न देख्यो, जिण चेचक आन फिराई।

एक तिरिया के राहा बैधी, लंका फेर बसाई।

 संखा मोहरा सेतम सेतुं,ताक्यूं बिलगै काई।।

 ब्राह्मण था ते वेदे भूला, काजी कलम गुमाई।

जोग बिहूणा जोगी भूला, मुंडिया अकल न काई।।

 इहिं कलयुग में दोय जन भूला, एक पिता एक माई।

 बाप जाणे मेरे हलीयो टोरे, कोहराम चण जाई।

 माय जाणे मेरे बहुत आवे, बाजे बिरध बधाई।।

म्हें शिम्भू का फरमान आया, बैठा तखत रचाई।

दो भुजडंडे परबत तोला, फेरा आपण राई।।

एक पलक मैं सर्व संतोषी, जीया जूण सवाई।

जुगां जुगां को जोगी आयो, बैठो आसन धारी।

हाली पूछे पाली पूछे, यह कलि पूछण हारी।

थाली फिरतो खिलेरी पूछे, मेरी गुमाई छाली।

बाण चहोड़ पारधियो पूछे, किहिं अवगुण चूकै चोट हमारी। रहो रे मूर्ख मुग्ध गंवारा, करो मजूरी पेट भराई।

 है है जायो जीव न घाई।

मेड़ी बैठो राजेन्द्र पूछे, स्वामी जी कती एक आयु हमारी।

चाकर पूछ चाकर पूछ, और पिंकी कहानी।

 सोक दुहागण तेपण पूछे, लेले हाथ सुपारी।

 बांझ तिरिया बहुतेरी पूछे, किसी परापति म्हारी।

त्रेता युग में हीरा बिणज्या, द्वापर गऊ चराई।

 वृन्दावन में बंसी बजाई, कल जुग चारी छाली।

नव खेड़ी म्हें आगे खेड़ी, दशवें कालिका की बारी।

 उत्तम देश पसारो माड्यो, रमण बैठो जुवारी।

एक खंड बैठा नव खंड जीता, को ऐसा लहो जुवारी।।

रजपूत मुंडिया परिचित हुऐ और श्री देव जी के चरणों में प्रणाम किया कहने लगे हे देवजी । जो सबसे महान हो वही हमें बतलाओ। जिसका हम जप करे। जाम्भोजी ने शब्द सुनाया, जिसका भावार्थ

 सबसे उत्तम तो खेती है। क्योंकि उसी से हो सभी पलते है। भोजन करने से ही सभी जीते है केवल खेती करना ही पर्याप्त नहीं है। खेती के साथ ही साथ साधना भी जरूरी है खेती तथा साधना दोनो ही श्रम साध्य है। इसके लिये भूमि अच्छी चाहिये जहां खेती निपज सकेगी।

साधना भी देश काल को ध्यान में रखकर करनी चाहिये। जिससे शीघ्र फलदायी हो सके। स्वंय परिश्रम करे किन्तु इतना ही पर्यास नहीं है गुरु की कृपा भी साथ में चाहिए ताकि खेतो साधना सफल हो सके।

 इस काया रूपी गढ के काम क्रोधादि चोर प्रवेश न कर जाये इसके लिये सचेत रहना जरूरी है उसी आत्मा परमात्मा को काया रूपी गढ में देखो, वही इदय देश में अवस्थित है। इस सम्भराथल पर सतगुरु के रूप में स्वंय विष्णु आये है उनका प्रकाश ज्ञान फैल रहा है। अब अन्धेरा मिट गया है। जो कुछ छुपा हुआ है जो अन्धेरे में नहीं दिख रहा था अब उसे खोजलो दीख जायेगा।

गुरु आसन समराथल भाग 4

Picture of Sandeep Bishnoi

Sandeep Bishnoi

Leave a Comment