पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 16 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 16)

श्रीनारायण बोले, ‘हे महाप्राज्ञ! हे नारद! बाल्मीकि ऋषि ने जो परम अद्भुत चरित्र दृढ़धन्वा राजा से कहा उस चरित्र को मैं कहता हूँ तुम सुनो।

बाल्मीकि ऋषि बोले, ‘हे दृढ़धन्वन! हे महाराज! हमारे वचन को सुनिये। गरुड़ जी ने केशव भगवान्‌ की आज्ञा से इस प्रकार ब्राह्मण श्रेष्ठ से कहा।

गरुड़जी बोले, ‘हे द्विजश्रेष्ठ! तुमको सात जन्म तक पुत्र का सुख नहीं है यह जो वचन हरि भगवान्‌ ने कहा सो इस समय तुमको वैसा ही है, फिर भी कृपा से स्वा्मी की आज्ञा पाकर मैं तुमको पुत्र दूँगा। हे तपोधन! हमारे अंश से तुमको पुत्र होगा। जिस पुत्र से गौतमी के साथ तुम मनोरथ को प्राप्त करोगे; किन्तु उस पुत्र से होनेवाला दुःख तुम दोनों को अवश्य होगा।
हे द्विजशार्दूल! तुम धन्य हो जो तुम्हा्री बुद्धि हरि भगवान्‌ में हुई। हरिभक्ति सकाम हो अथवा निष्कातम हो, हरि भगवान्‌ को दोनों ही प्रिय हैं। मनुष्यों का शरीर जल के बुदबुद के समान क्षण में नाश होनेवाला है उस शरीर को प्राप्त कर जो हृदय में हरि के चरणों का चिन्तन करता है वह धन्य है। इस अत्यन्त दुस्तर संसार से तारनेवाले हरि भगवान्‌ के अलावा दूसरा और कोई नहीं है, यह हरि भगवान्‌ की ही कृपा से मैंने तुमको पुत्र दिया है। मन में श्रीहरि को धारणकर सुखपूर्वक विचारों और उदासीन भाव से संसार के सुखों को भोगो।

बाल्मीकि ऋषि बोले, ‘गौतमी और सुदेव दोनों स्त्री पुरुष के देखते-देखते उत्तम वर को देकर उसी समय गरुड़ पर सवार होकर भगवान्‌ हरि शीघ्र ही वैकुण्ठो को चले गये। सुदेव शर्मा भी स्त्री के साथ अपने मन के अनुसार पुत्ररूप वर को पाकर अपने घर को आया और उत्तम गृहस्थाश्रम के सुख को भोगने लगा।

कुछ समय बीतने के बाद गौतमी को गर्भ रहा और दशम महीना प्राप्त होने पर गर्भ पूर्ण हुआ। प्रसूतिकाल आने पर गौतमी ने उत्तम पुत्र पैदा किया और पुत्र के होने पर सुदेव शर्मा बहुत प्रसन्न हुआ। श्रेष्ठ ब्राह्मणों को बुलाकर जातकर्म संस्कार किया और अच्छी तरह स्नान कर ब्राह्मणश्रेष्ठ सुदेव शर्मा ने उन ब्राह्मणों को बहुत दान दिया। ब्राह्मण और स्वजनों के साथ बुद्धिमान्‌ सुदेव शर्मा ने नामकरण संस्कार किया। कृपालु गरुड़जी ने प्रेम से यह पुत्र हुआ था।

शरत्‌कालीन चन्द्रमा के समान उदय को प्राप्त, तेजस्वी, यह शुक के सदृश है इसलिए मेरा यह प्रिय पुत्र शुकदेव नामवाला हो। माता के मन को आनन्द देनेवाला वह पुत्र पिता के मनोरथों के साथ-साथ शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान बढ़ने लगा।

पिता ने हर्ष के साथ उपनयन संस्कार कर गायत्री मन्त्र का उपदेश किया। बाद वह बालक वेदारम्भ संस्कार को प्राप्त कर ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित हुआ। उस ब्रह्मचर्य के तेज से युक्त बालक साक्षात् दूसरे सूर्य के समान शोभित हुआ। बुद्धिसागर उस बालक ने वेद का अध्ययन प्रारम्भ किया। उस गुरुवत्सल बालक ने सद्‌बुद्धि से अपने गुरु को प्रसन्न किया और गुरु के एक बार कहने मात्र से समस्त विद्या को प्राप्त किया।

बाल्मीकि ऋषि बोले, ‘एक समय कोटि सूर्य के समान प्रभाव वाले देवल ऋषि आये। उनको देखकर हर्ष से सुदेव शर्मा ने दण्डवत्‌ प्रणाम किया। अर्ध्य, पाद्य आदि से विधिपूर्वक उन देवल मुनि की पूजा की और महात्मा देवल के लिए आसन दिया। अति तेजस्वी देवदर्शन देवल ऋषि उस आसन पर बैठ गये। बाद अपने चरणों पर बालक को गिरे हुए देखकर देवल ऋषि बोले।

देवल मुनि बोले, ‘अहो हे सुदेव! तुम धन्य हो, तुम्हारे ऊपर भगवान्‌ प्रसन्न हुए, क्योंकि तुमने दुर्लभ, सुन्दर, श्रेष्ठ पुत्र को प्राप्त किया है। ऐसा विनीत, बुद्धिमान्‌, बोलने में चतुर वेदपाठी और शीलवान्‌ पुत्र कहीं भी किसी के यहाँ नहीं देखा।

हे पुत्र! यहाँ आओ, तुम्हारे हाथ में यह कौतुक क्या देखता हूँ? सुन्दर छत्र, दो चामर, यवरेखा के साथ कमल, जानु तक लटकने वाले हाथी के सूँड़ के समान ये तुम्हारे हाथ, कान तक फैले हुए विशाल लाल नेत्र, शरीर गोल आकार का, त्रिवली से युक्त पेट है। इस प्रकार उस बालक के विषय में कहकर उस ब्राह्मन को उत्कण्ठित देख कर देवल ऋषि फिर बोले, अहो! हे सुदेव! यह तुम्हारा लड़का गुणों का समुद्र है। कंधा और कोख का सन्धि स्थान गूढ़ है, शंख के समान उतार-चढ़ाव युक्त गला वाला, चिक्कण टेढ़े शिर के बाल वाला, ऊँची छाती, लम्बी गर्दन, बराबर कान, बैल के समान कन्धा, इस तरह समस्त लक्षणों से युक्त यह पुत्र श्रेष्ठ भाग्य का निधि है।

शंख पूजन मन्त्र (Shankh Poojan Mantra)

हे त्रिपुरारी गंगाधरी: भजन (Hey Tripurari Gangadhari)

कैंलाश शिखर से उतर कर: भजन (Kailash Shikhar Se Utar Kar)

एक ही बहुत बड़ा दोष है जिससे सब व्यर्थ हो गया। इस प्रकार कह कर शिर काँपते हुए दीर्घ श्वास लेकर देवल मुनि बोले, ‘प्रथम आयु की परीक्षा करना, बाद लक्षणों को कहना चाहिये। आयु से हीन बालक के लक्षणों से क्या प्रयोजन है? हे सुदेव! यह तुम्हारा लड़का बारहवें वर्ष में डूब कर मर जायगा, इससे तुम मन में शोक नहीं करना। अवश्य होने वाला निःसन्देह होकर ही रहता है, मरणासन्न को औषध देने के समान उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं है।

बाल्मीकि मुनि बोले, ‘देवल मुनि इस प्रकार कहकर ब्रह्मलोक को चले गये और गौतमी के साथ सुदेव ब्राह्मण पृथिवी पर गिर गया।

पृथिवी पर पड़ा हुआ देवल ऋषि के कहे हुए वचनों को स्मरण कर चिरकाल तक विलाप करने लगा। बाद उसकी स्त्री गौतमी धैर्य धारण करती हुई पुत्र का अपनी गोद में लेकर, प्रथम प्रेम से पुत्र का मुख चुम्बन कर बाद पति से बोली।

गौतमी बोली, ‘हे द्विजराज! होने वाली वस्तु में भय नहीं करना चाहिये। जो नहीं होनेवाला है वह कभी नहीं होगा और जो होने वाला है वह होकर रहेगा। क्या राजा नल, रामचन्द्र और युधिष्ठिर दुःख को प्राप्त नहीं हुये?

राजा बलि भी बन्धन को प्राप्त हुआ, यादव नाश को प्राप्त हुए, हिरण्याक्ष कठिन वध को प्राप्त हुआ, वृत्रासुर भी मृत्यु को प्राप्त हुआ। सहस्रार्जुन का शिर काटा गया, रावण के भी उसी तरह शिर काटे गये, हे मुने! भगवान्‌ रामचन्द्र भी वन में जानकी के विरह को प्राप्त हुए। राजर्षि परीक्षित भी ब्राह्मण से मृत्यु को प्राप्त हुये। हे मुनीश्वेर! इस प्रकार जो होने वाला है वह अवश्य होता है। इसलिये हे नाथ! उठिये और सनातन हरि भगवान्‌ का भजन करिये जो समस्त जीवों के रक्षक हैं और मोक्ष पद को देने वाले हैं।

बाल्मीकि ऋषि बोले, ‘इस प्रकार सुदेव शर्मा ने अपनी स्त्री गौतमी के वचन को सुन कर स्वस्थ हो हृदय में हरि भगवान्‌ के चरणों का ध्यान कर पुत्र से होने वाले शोक को जल्दी से त्याग दिया।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये षोडशोऽध्यायः ॥१६॥
॥ हरिः शरणम् ॥

Sandeep Bishnoi

Sandeep Bishnoi

Leave a Comment