जाम्भोजी और रणधीर के प्रश्न 2. रणधीर ने पूछा- गुरुदेव ! प्रहलाद कौन था ? और उसको वरदान क्यों देना पड़ा ?
उत्तर- भगवान बोले- रणधीर ! प्रहलाद हिरण्यकश्यपु का पुत्र था। वह बचपन से ही मेरी भक्ति करने लग गया। यह देखकर हिरण्यकश्यपु ने मना किया कि विष्णु की भक्ति नहीं करेगा, क्योंकि विष्णु हमारा शत्रु है। प्रहलाद अपने पिता की बातों को न मानकर मेरी भक्ति करता ही रहा। राक्षस राज हिरण्यकश्यपु ने भक्त प्रहलाद को मारने के अनेक उपाय किये पर सफल नहीं हो सके।
एक दिन स्वयं हिरण्यकश्यपु अपने हाथ में खड़ग लेकर प्रहलाद को मारने के लिए उनके पास आया और बोला कहाँ है तेरा परमात्मा ? मैं देखूं कि वो तेरी रक्षा कैसे करता है ?
अपने पिता की बात सुनकर प्रहलाद बोला- पिताजी ! मेरा परमात्मा तो सर्वत्र है। वे आप में, मेरे अन्दर, और आपके हाथ में जो खड़ग है उसी में भी तथा खम्भे में भी मौजूद है।
अपने पुत्र की बात सुनकर राक्षसराज ने खम्भे पर प्रहार किया। तब मैं खम्भे से प्रकट हुआ और हिरण्यकश्यपु को मारकर भक्त प्रहलाद को वरदान मांगने को कहा। तब प्रहलाद ने वरदान मांगा प्रभु ! मेरे जितने अनुयायी है उन सब जीवों का कल्याण हो। रणधीर ! तब मैंने वरदान दिया कलियुग में अवतार लेकर तेरे शेष जीवों का उद्वार करूँगा उस वरदान को पूरा करने के लिए मैं यहां प्रकट हुआ हूँ।
प्रश्न 3. गुरुदेव ! हिरण्यकश्यपु भक्ति का विरोध क्यों करता था ?
उत्तर रणधीर ! हिरण्यकश्यपु पहले बैकुण्ठ में मेरा द्वारपाल था। सनकादि के शाप से उसको राक्षस होना पड़ा इसलिए मेरी भक्ति का विरोध करता था।
प्रश्न 4. गुरुदेव ! सनकादि कौन थे उन्होंने बैकुण्ठ में जाकर आपके द्वारपालों को शाप क्यों दिया ?
उत्तर प्रभु बोले ! चारों सनकादि ऋषि ब्रह्माजी के मानस पुत्र थे। उनको ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना करने का आदेश दिया। जब सनकादि चारों भाई मेरी तपस्या करने लगे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर मैंने वरदान मांगने को कहा। तब उन चारों भाइयों ने पांच वर्ष के से रहने का वरदान मांगा। जब मैंने उन्हें वरदान दे दिया। तब से ये चारों ऋषि मेरा गुणगान करते हुए सर्वत्र विचरण करते थे।
एक दिन वे चारों ऋषि बैकुण्ठ में आये। वहाँ जय और विजय नामक मेरे दोनों द्वारपालों ने बैकुण्ठ में प्रवेश करते हुए सनकादिको को रोक दिया तब अपना अपमान व द्वारपालों की अयोग्यता समझकर सनदादिकों ने शाप देते हुए कहा तुम लोग बैकुण्ठ में रहने के योग्य नहीं इसलिए मृत्यु लोक में जाकर राक्षस बन जाओ। सनकादिकों के शाप के कारण वे दोनों दीती के गर्भ से राक्षस के रूप में जन्मे और शाप को याद करके मेरा विरोध करने लगे।
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प्रश्न 5. भगवन् ! शाप तो सनकादिकों ने दिया और विरोध आपका करने लगे इसका क्या कारण है स्पष्ट रूप से कहिये ?
उत्तर भगवान बोले. रणधीर ! उन दोनों ने मेरे से जब यह निवेदन किया कि प्रभु हमें शाप से छुटकारा कैसे मिलेगा ? ताकि आपके दुबारा द्वारपाल बने। मैंने उन दोनों से कहा यदि तुम मृत्यु लोक में जाकर मेरी भक्ति करोगे तो सात जन्म लेने होंगे और शत्रुता की तो केवल तीन ही जन्म में मेरे पास आ जाओगे।
इस बात को याद करके वे मेरे से शत्रुता करने लगे। प्रहलाद मेरा भक्त है, यह जानकर हिरण्यकश्यपु उससे भी विरोध करने लगा अर्थात् उसे मारने लगा तब मैंने उसकी रक्षा की तथा वरदान दिया। उस वरदान को पूरा करने के लिए मेरा आगमन हुआ है।
प्रश्न 6. भगवन् ! आपके दो द्वारपाल थे उनमें से आपने एक का ही वर्णन किया। प्रभु! दूसरे के बारे में भी बताइये ?
उत्तर रणधीर ! एक के बारे में तो तुमने सुन ही लिया। अब तुम दूसरे हिरण्याक्ष के बारे में सुनो। हिरण्याक्ष बड़ा बलवान था। इसने पृथ्वी की शक्ति को अपने अधीन कर लिया तथा पूरे संसार के लिए संकट बन गया। तब मैंने ही वराह अवतार लेकर इसका उद्धार किया।
प्रश्न 7. प्रभु ! आपके द्वारपालों ने कौन-कौन से तीन जन्म लिये ?
उत्तर रणधीर उन्होंने सबसे पहले हिरयाक्ष व हिरण्यकश्यपु के रूप में जन्म लिया। फिर रावण तथा कुम्भकरण के रूप में तत्पश्चात शिशुपाल व दंतवक्र के रूप में जन्म लिया। इस तीसरे जन्म के पश्चात वे मेरे पास बैकुण्ठ में आ गये।