पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 29 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 29)

पुण्यशील-सुशील बोले, ‘हे विभो! गोलोक को चलो, यहाँ देरी क्यों करते हो? तुमको पुरुषोत्तम भगवान्‌ का सामीप्य मिला है।

कदर्य बोला, ‘मेरे बहुत कर्म अनेक प्रकार से भोगने योग्य हैं। परन्तु हमारा उद्धार कैसे हुआ जिससे गोलोक को प्राप्त हुआ? जितनी वर्षा की धारायें हैं, जितने तृण हैं, पृथिवी पर धूलि के कण हैं, आकाश में जितनी तारायें हैं उतने मेरे पाप हैं। मैंने यह सुन्दर तथा मनोहर शरीर कैसे प्राप्त किया? हे हरि भगवान्‌ के प्रिय! इसका अति उग्र कारण मुझसे कहिये।

श्रीनारायण बोले, ‘कदर्य के इस प्रकार वाणी को श्रवणकर हरि के दूतों ने कहा।

हरिदूत बोले, ‘अहो! आश्चर्य है। हे देव! आपने इस पद की प्राप्ति का कारण महान्‌ साधन कैसे नहीं जाना। हे प्रभो! सबमें उत्तमोत्तम, विष्णु का प्रिय, महान्‌ पुण्यफल को देनेवाला, पुरुषोत्तममास नाम से प्रसिद्ध मास को क्यों नहीं जाना? उस पुरुषोत्तम मास में देवताओं से भी न होनेवाला तप तुमने किया। हे महाराज! वन में वानर शरीर से अज्ञान में वह तप हुआ है। मुखरोग के कारण अज्ञान से अनाहार व्रत हुआ और तुमने बन्दरपने की चंचलतावश वृक्ष से फलों को तोड़कर पृथिवी पर फेंका उन फलों से दूसरे मनुष्य तृप्त हुए। अन्तःकरण में विशेष दुःख होने से पानी भी नहीं पान किया। इस तरह श्रीपुरुषोत्तम मास में अज्ञानवश तुम से तीव्र तप हो गया। हे अनघ! फलों के फेंकने से परोपकार भी हो गया। वन में घूमते-घूमते शीत, वायु, घाम को सहन किया और श्रेष्ठ तीर्थ में सुन्दर महातीर्थ में पाँच दिन गोता लगाया। जिससे श्रीपुरुषोत्तम मास में तुमको स्नान का पुण्य प्राप्त हो गया। इस प्रकार तुम्हारे रोगी के अज्ञान से उत्तम तप हो गया। सो यह सब सफल हुआ और तुमने इस समय अनुभव किया। जब बिना समझे पुरुषोत्तम मास के सेवन हो जाने से तुमको यह फल मिला है, तो मनुष्य इस पुरुषोत्तम मास के उत्तम माहात्म्य को जानकर श्रद्धा से विधिपूर्वक कर्म करे तो उसका क्या कहना है।

तुमने अपना जो अर्थ साधन किया वैसा करने को कौन समर्थ है? पुरुषोत्तम भगवान्‌ को और कोई वस्तु प्रीति को देनेवाली नहीं है। इस भरतखण्ड में अति दुर्लभ मनुष्य योनि में जन्म लेकर जो पुरुषोत्तम भगवान्‌ की सेवा करते हैं। जिस पुरुषोत्तम मास में एक भी उपवास के करने से मनुष्य पापपुञ्ज से छूट जाता है वहाँ तुमने महीनों उपवास किया इस उग्र तपस्या का फल कहाँ जायगा?

इस मास के समान वे प्राणी धन्य और कृतकृत्य हैं। वे सदा भाग्यवान्‌ पुण्यकर्म के करनेवाले पवित्र हैं और उनका जन्म सफल है जिनका सबमें उत्तम पुरुषोत्तम मास स्नान, दान, जप से व्यतीत हुआ है। श्रीपुरुषोत्तम मास में दान, पितृकार्य, अनेक प्रकार के तप ये सब अन्य मास की अपेक्षा कोटि गुण अधिक फल देने वाले हैं। जो पुरुषोत्तम मास के आने पर स्नान-दान से रहित रहता है उस नास्तिक, पापी, शठ, धर्मध्वज, खल को धिक्कार है।

श्रीनारायण बोले, ‘पुण्यशील और सुशील से वर्णित अपने अदृष्ट को सुनकर, चकित होता हुआ कदर्य प्रसन्न हो रोमांचित हो गया। तीर्थ के देवताओं को नमस्कार कर बाद कालञ्जार पर्वत को नमस्कार किया। और वन के देवताओं को तथा गुल्म, लता वृक्ष को नमस्कार किया। बाद विनय से युक्त हो विमान की प्रदक्षिणा कर मेघ के समान श्यामर्ण, सुन्दर पीताम्बर को धारण कर वह कदर्य विमान पर सवार हो गया।

सम्पूर्ण देवताओं के देखते हुए गन्धर्व आदि से स्तुत और किन्नर आदिकों से बार-बार बाजा बजाये जाने पर, इन्द्रादि देवताओं ने प्रसन्न होकर मन्द पुष्पवृष्टि को करते हुए उसका आदरपूर्वक पूजन किया। फिर आनन्द से युक्त, योगियों को दुर्लभ, गोप-गोपी-गौओं से सेवित, रासमण्डल से शोभित गोलोक को गया। जरामृत्यु रहित जिस गोलोक में जाकर प्राणी शोक का भागी नहीं होता है, उस गोलोक में यह चित्रशर्मा पुरुषोत्तम मास के सेवन से गया। व्याज से पुरुषोत्तम मास के सेवन से वानर शरीर छोड़कर दो भुजाधारी मुरली हाथ में लिये पुरुषोत्तम भगवान्‌‍ को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ।

श्रीनारायण बोले, ‘इस आश्चर्य को देखकर समस्त देवता चकित हो गये और श्रीपुरुषोत्तम की प्रशंसा करते अपने-अपने स्थान को गये।

नारद मुनि बोले, ‘हे तपोधन! आपने दिन के प्रथम भाग का कृत्य कहा। पुरुषोत्तम मास के दिन के पिछले भाग में होने वाले कृत्य को कैसे करना चाहिये। हे बोलनेवालों में श्रेष्ठ! गृहस्थ के उपकार के लिये मुझसे कहिये। क्योंकि आपके समान महात्मा सदा सबके उपकार के लिये विचरण करते रहते हैं।

श्रीनारायण बोले, ‘प्रातःकाल के कृत्य को विधिपूर्वक समाप्त कर, बाद मध्याह्न में होनेवाली सन्ध्या को करके, तर्पण को करे। देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, सिद्ध, यक्ष, सर्ष, दैत्य, प्रेत, पिशाच, नाग ये सब जो अन्न की इच्छा करते हैं वे सब मेरे से दिये गये अन्न को ग्रहण करें। फिर पंचमहायज्ञ को करे, उसके बाद भूतबलि को करे और काक, कुत्ता को श्लोक पढ़ता हुआ बलि देवे। इस प्रकार कहकर समस्त भूतों को पृथक्‌-पृथक्‌ बलि देवे, फिर विधिपूर्वक आचमन कर प्रसन्न होकर श्रद्धा से अतिथि प्राप्ति के लिये गो दुहने के समय तक द्वार का अवलोकन करे। यदि भाग्य से अतिथि मिल जाय तो बुद्धिमान्‌ प्रथम वाणी से सत्कार करके उस अतिथि का देवता के समान पूजन करे और यथाशक्ति अन्न-जल से सन्तुष्ट करे।

फिर विधिपूर्वक सब व्यञ्जन से युक्त सिद्ध अन्न से निकाल कर भिक्षु और ब्रह्मचारी को भिक्षा देवे। संन्यासी और ब्रह्मचारी ये दोनों सिद्ध अन्न के मालिक हैं। इनको अन्न न देकर भोजन करनेवाला चन्द्रायण व्रत करे।

प्रथम संन्यासी के हाथ पर जल देकर भिक्षान्न देवे तो वह भिक्षान्न मेरु पर्वत के समान और जल समुद्र के समान कहा गया है। संन्यासी को जो मनुष्य सत्कार करके भिक्षा देता है उसको गोदान के समान पुण्य होता है इस बात को यमराज भगवान्‌ ने कहा है। फिर मौन होकर पूर्वमुख बैठकर शुद्ध और बड़े पात्र में अन्न को रखकर प्रशंसा करते हुए भोजन करे।

अपने आसन पर अपने बर्तन में एक वस्त्र से भोजन नहीं करे। स्वयम्‌ आसन पर बैठ कर स्वस्थचित्त, प्रसन्न मन होकर जो मनुष्य अकेला ही अपने काँसे के पात्र में भोजन करता है तो उसके आयु, प्रज्ञा, यश और बल ये चार बढ़ते हैं।

दिन में, ‘सत्यं त्वर्तेन परिषिञ्चामि’ रात्रि में, ‘ऋतं वा सत्येन परिपिञ्चामि’ इस मन्त्र से हाथ में जल लेकर निश्चय कर, घृत व्यञ्जैन युक्त अन्न का भोजन करे।

भोजन में से कुछ अन्न लेकर इस प्रकार कहे, ‘भूपतये नमः, प्रथम कहकर भुवनपतये नमः, कहे भूतानां पतये नमः, कह कर धर्मराज की बलि देवे फिर चित्रगुप्त को देकर भूतों को देने के लिये यह कहे, जिस किसी जगह स्थित, भूख-प्यास से व्याकुल भूतों की तृप्ति के लिये यथासुख यह अक्षय अन्न हावे, प्राणाय, अपानाय, व्यानाय, उदानाय तथा समानाय कहे।

प्रणव प्रथम उच्चातरण कर, अन्त में स्वाहा पद जोड़ कर घृत के साथ पाँच ग्रास जिह्वा से प्रथम निगल जाय, दाँतों से न दबावे। फिर तन्मय होकर प्रथम मधुर भोजन करे, नमक के पदार्थ और खट्टा पदार्थ मध्य में, कडुआ तीखा भोजन के अन्त में खाय। पुरुष प्रथम द्रव पदार्थ भोजन करे, मध्य में कठिन पदार्थ भोजन करे, अन्त में पुनः पतला पदार्थ भोजन करे तो बल और आरोग्य से रहित नहीं होता।

मुनि को आठ ग्रास भोजन के लिए कहा है। वानप्रस्थाश्रमी को सोलह ग्रास भोजन के लिये कहा है। गृहस्थाश्रमी को ३२ ग्रास भोजन कहा है और ब्रह्मचारी को अपरिमित ग्रास भोजन के लिये कहा है।

आपने अपना बनाया मेहरबानी आपकी - भजन (Aapne Apna Banaya Meharbani Aapki)

भावयामि गोपालबालं (Bhavayami Gopalabalam)

दत्तात्रेय स्तोत्रम् (Dattatreya Strotam)

द्विज को शास्त्र के विरुद्ध भक्ष्य भोज्य आदि पदार्थों को नहीं खाना चाहिये। शुष्क और बासी पदार्थ को विद्वानों ने खाने के अयोग्य बतलाया है। घृत दूध को छोड़कर अन्य वस्तु सशेष भोजन करे। भोजन के बाद उस शेष को अंगुलियों के अग्र भाग में रख कर अञ्जलि जल से पूर्ण करे। उसका आधा जल पी जाय और अंगुलियों के अग्र भाग में स्थित शेष को पृथिवी में देकर ऊपर से अञ्जलि का शेष आधा जल। विद्वान्‌ उसी जगह इस मन्त्र को पढ़ता हुआ सिंचन करे। ऐसा न करने से ब्राह्मण पाप का भागी होता है, फिर प्रायश्चित्त करने से शुद्ध होता है।

रौरवे पूयनिलये पद्मार्बुदनिवासिनाम्‌॥
आर्थिनामुदकं दत्तमक्षय्यमुपतिष्ठतु॥

मन्त्रार्थ, ‘रौरव नरक में, पीप के गढ़े में पद्म अर्बुद वर्ष तक वास करने वाले तथा इच्छा करने वाले के लिये मेरा दिया हुआ यह जल अक्षय होता हुआ प्राप्त हो।

मन्त्र पढ़ के जल से सिंचन कर दाँतों को शुद्ध करे। आचमन कर गीले हाथ से पात्र को कुछ हटा कर उस भोजन स्थान से उठकर, बाहर बैठकर, स्वस्थ होकर, मिट्टी और जल से मुख-हाथ को शुद्ध कर, सोलह कुल्ला कर, शुद्ध हो सुख से बैठकर इन दो मन्त्रों को पढ़ता हुआ हाथ से उदर को स्पर्श करे।

अगस्त्यं कुम्भकर्णं च शनिं च वडवानलम्‌॥
आहारपरिपाकार्थं स्मरेद्भीमं च पञ्चमम्‌ ॥
आतापी मारितो येन वातापो च निपातितः॥
समुद्रः शोषितो येन स मेऽगस्त्यः प्रसीदतु॥

अगस्त्य, कुम्भकर्ण, शनि, बड़वानल और पंचम भीम को आहार के परिपाक के लिये स्मरण करे। जिसने आतापी को मारा और वातापी को भी मार डाला, समुद्र का शोषण किया वह अगस्त्य मेरे ऊपर प्रसन्न हों।

इसके बाद प्रसन्न मन से श्रीकृष्ण देव का स्मरण करे। फिर आचमन कर ताम्बूल भक्षण करे। भोजन करके बैठ कर परब्रह्म श्रीकृष्ण का उत्तम मार्ग के अविरोधी उत्तम शास्त्रों के विनोद से विचार करे। बुद्धिमान्‌ अध्यात्मविद्या का श्रवण करे। सर्वथा आजीविका से हीन मनुष्य भी एक मुहूर्त स्वस्थ मन होकर श्रवण करे।

जो श्रवण कर धर्म को जानता है, श्रवण कर पाप का त्याग करता है, श्रवण के बाद मोह की निवृत्ति होती है, श्रवण कर ज्ञानरूपी अमृत को प्राप्त करता है। नीच भी श्रवण करने से श्रेष्ठ हो जाता है और श्रेष्ठ भी श्रवण से रहित होने से नीच हो जाता है। फिर बाहर जाकर यथासुख व्यवहार आदि करे और सर्वथा सिद्धि को देनेवाले श्रीकृष्ण भगवान्‌ का मन से ध्यान करे।

सूर्यनारायण के अस्ताचल जाने के समय तीर्थ में जाकर अथवा गृह में ही पैर धोकर, पवित्र वस्त्र धारण कर, सायंसन्ध्या की उपासना करे। जो द्विजों में अधम, प्रमाद से सायंसन्ध्या नहीं करता है वह गोवध पाप का भागी होता है और मरने पर रौरव नरक को जाता है। कभी समय से न करने पर, संकट में, मार्ग में हो तो द्विजश्रेष्ठ आधी रात के पहले सायंसंध्या को करे। जो ब्राह्मण श्रद्धा के साथ प्रातः, मध्याह्न और सायंसन्ध्या की उपासना करता है उसका तेज घृत छोड़ने से अग्नि के समान अत्यन्त बढ़ता है।

सायंकाल में सूर्यनारायण के आधा अस्त होने पर प्राणायाम कर ‘आपो हिष्ठा’, ‘इस मंत्र से मार्जन करे। और सायंकाल ‘अग्निश्च मा॰-‘ इस मन्त्र से आचमन करे और प्रातःकाल ‘सूर्यश्च मा॰-‘ इस मन्त्र से आचमन करे। पश्चिम मुख बैठ कर मौन तथा समाहित मन होकर, प्रणय और व्याहृति सहित गायत्री मन्त्र का रुद्राक्ष की माला लेकर तारा के उदय होने तक जप करे। वरुण सम्बन्धी ऋचाओं से सूर्यनारायण का उपस्थान कर, प्रदक्षिणा करता हुआ दिशाओं को तथा पृथक्‌-पृथक्‌ दिशाओं के स्वामी को नमस्कार करे।

सायं सन्ध्या की उपासना कर अग्नि में आहुति देकर भृत्यवर्गों के साथ अल्प भोजन करे। बाद कुछ समय तक बैठ जाय। सायंकाल और प्रातःकाल भोजन की इच्छा नहीं होने पर भी वैश्वदेव और बलि कर्म सदा करना चाहिये। यदि नहीं करता है तो पातकी होता है। शाम को भोजन कर बैठने के बाद गृहस्थाश्रमी हाथ-पैर धोकर तकिया सहित कोमल शय्या पर जाय। अपने गृह में पूर्व की ओर शिर करके शयन करे, श्वसुर के गृह में दक्षिण की ओर शिर करके शयन करे, परदेश में पश्चिम की ओर शिर करके शयन करे, परन्तु उत्तर की ओर शिर करके कभी शयन नहीं करे। रात्रिसूक्त का जप करे और सुखशायी देवताओं का स्मरण कर अविनाशी विष्णु भगवान्‌ को नमस्कार कर, स्वस्थचित्त हो, रात्रि में शयन करे।

अगस्त्य, माधव, महाबली मुचुकुन्द, कपिल, आस्तीक मुनि ये पाँच सुखशायी कहे गये हैं। मांगलिक जल से पूर्ण घट को शिर के पास रखकर वैदिक और गारुड़ मन्त्रों से रक्षा करके शयन करे। ऋतुकाल में स्त्री के पास जाय और सदा अपनी स्त्री से प्रेम करे, ब्रती रति की कामना से पर्व को छोड़ कर अपनी स्त्री के पास जाय। प्रदोष और प्रदोष के पिछले प्रहर में वेदाभ्यास करके समय व्यतीत करे। फिर दो पहर शयन करनेवाला ब्रह्मतुल्य होने के योग्य होता है।

यह सब प्रतिदिन के समस्त कृत्यसमुदाय को कहा। गृहस्थाश्रमी भलीभाँति इसको करे और यही गृहस्थाश्रम का लक्षण है। अहिंसा, सत्य वचन, समस्त प्राणी पर दया, शान्ति यथाशक्ति दान करना, गृहस्थाश्रम का धर्म कहा है। पर स्त्री से भोग नहीं करना, अपनी धर्मपत्नी की रक्षा करना, बिना दी हुई वस्तु को नहीं लेना, शहद, मांस को नहीं खाना। यह पाँच प्रकार का धर्म बहुत शाखा वाला, सुख देनेवाला है। शरीर से होने वाले धर्म को उत्तम प्राणियों को करना चाहिये।

श्रीनारायण बोले, ‘सम्पूर्ण वेदों में कहा हुआ यह उत्तम चरित्र गृहस्थाश्रम का लक्षण है। हे मुने! इसको लोक के हित के लिये संक्षेप में लक्षण के साथ आपसे मैंने अच्छी तरह कहा।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥२९॥

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Sandeep Bishnoi

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