जाट वर्ग तथा समराथल
उस समय सम्भराथल के आसपास कई कोसों में जाट लोगों का ही बाहुल्य था। शिक्षा सदाचार का कहीं प्रचार नहीं था। लोग पशु पालन तथा खेती पर ही निर्भर रहकर जीवन व्यतीत करते थे। अध्यात्म के नाम पर तो अधिकतर भूत-प्रेत, देवी-देवताओं की पूजा अर्चना करना उन्हें पंडे पुरोहितों ने सिखाया था। अनेक प्रकार के मायाजाल को गूंथ करके पंडित लोग उन लोगों को जाल में फंसा करके अपना उल्लू सीधा करते थे।
ऐसी विकट परिस्थितियों में बिश्नोई पंथ का उदय हुआ था। उस समय जम्भदेव जी ने यह घोषणा भी कर दी थी कि “सुर नर तणो संदेशो आयो, सांभलियो रे जाटो। चांदण थके अन्धेरे क्यूं चालो, भूल गया गुरु बाटो।।”
कैलाश पर्वत सदृश सम्भराथल की उस घोषणा को श्रवण करके जो सुविज्ञ सज्जन थे वो तो सम्भराथल पर पहुंचकर सद्पंथ के अनुगामी बनने लगे थे तथा जो दुष्ट प्रकृति के जन थे वो भी उत्सुकता वश सम्भराथल पहुंचकर वाद-विवाद करते थे। अनेक प्रकार के दिव्य अलौकिक लीलायें दिखाने का हठ किया करते थे। जो भी जैसर भावना को लेकर आता उनको वैसा ही उपहार देकर वापिस लौटाया करते थे।
वे लोग आते समय तो अग्नि सदृश होकर आया करते थे किन्तु जाते समय शब्दामृत की बूंद ग्रहण करके शीतलता का अनुभव करते हुए जाया करते थे। इस प्रकार से शब्द नं. 13 से 25 तक लगातार जाटों के प्रति ही कहे गये हैं और भी अनेक जगहों पर समयानुसार केई शब्द जाटों को ही लक्ष्य करके श्रवण करवाये गये थे। इसलिये अधिकतर बिश्नोई पंथ को ग्रहण करने वाले जाटों की तथा बिश्नोईयों की गोत्र में साम्यता है।
कवि हरजी ने कहा है कि “जाटा ऊपर झुक पड़या नै हम कले अवतार” यह सत्य ही कहा है कि इस सम्भराथल अवतार ने तो विशेष रूप से जाटों को ही अपनाया है। इससे पहले के जितने भी अवतार हुए हैं उन्होनें कभी भी इस मरूभूमि तथा इस दलित वर्ग पर ध्यान नहीं दिया था किन्न अबकी बार तो विशेष रूप से जाट समाज को ही कृतकृत्य कर दिया है।
ऐसे-ऐसे उदण्ड लोगों को सद्पंथ के अनुयायी बनाना किसी साधारण पुरुष का कार्य नहीं था इसलिये तो कहा है-“जाटा हूंता पात करीलो यह कृष्ण चरित परिवाणो” जाट लोगों को परम पवित्र कर देना यह तो कृष्ण चरित्र का ही कमाल है। जिस प्रकार से लोहा भी काठ की संगति करता है तो जल से तिरकर पार उतर जाता है उसी प्रकार से यदि जाट लोग भी यदि जम्भ देव जी की संगति करके संसार सागर से पार उतर जाये तो इसमें आश्चर्य ही क्या हो सकता है।
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इसी सम्भराथल की पवित्र भूमि पर विराजमान होकर जंभ देव जी ने अनेकों बार शब्दों में कहा है कि “विष्णु-विष्णु तूं भण रे प्राणी” इससे पूर्व तो लोग विष्णु परमात्मा तथा भूत-प्रेत, जोगिणी, भेरूं आदि में कुछ भेद नहीं समझते थे। न ही उन्हें कुछ स्वर्ग-नरक या मुक्ति का ही पता था। केवल सांसारिक तुच्छ इच्छाओं की पूर्ति के लिये इन क्षुद्र देवताओं की पूजा करके इतिश्री समझ लिया करते थे।
प्रथम बार जम्भदेव जी ने ही लोगों को सचेत किया कि तुम लोग सही मार्ग पर नहीं चल रहे हो यदि तुमको सदा के लिये सुख शांति मुक्ति चाहिये तो उस सर्वेश्वर विष्णु परमात्मा का ही स्मरण, भजन, पूजन, यजन करो जिससे तुम्हें शाश्वत सुख शांति मिल सकेगी अन्यथा मरकर भूत-प्रेत आदि योनियों में ही भटकना पड़ेगा उन्हें यह भी बतलाया कि जितने भी अवतार होते हैं वे सभी विष्णु परमात्मा के ही होते हैं इसलिये राम या कृष्ण शिव या अन्य का अलग-अलग स्मरण करने से कुछ भी लाभ नहीं होगा इससे तो अच्छा यह होगा कि इन सभी के मूल रूप विष्णु का ही स्मरण किया जाय जिससे सभी का स्मरण हो जाये।
इसलिये कहा कि “भल मूल सींचो रे प्राणी जिहिं का भल बुद्धि पावै” तथा साथ में यह भी तो कहा कि “सींचो काय कुमूलू” कुमूलूं अर्थात् भूत-प्रेत, भेरू आदि को क्यों जल से सींचित कर रहे हो ये तो विषमय फल देने वाले कुमूल ही है। इसलिये सुमूल रूपी विष्णु की ही उपासना उस समय जाटों को सम्भराथल पर विशेषतः बतलाई थी और अन्य पाखण्डों से निवृत्त करके सदा के लिये सुखी कर दिया था। जिससे आज भी इन पाखण्डों से मुक्त होकर सुखमय जीवन व्यतीत करते हुए मुक्ति को प्राप्त करने में समर्थ है।