विश्नोई पंथ एवं प्रहलाद भाग 1
समय बड़ा ही बलवान है। हम लोग इस काल को चार विभागों में बांटते हैं। वैसे तो काल-समय बांटा ही नहीं जा सकता है। फिर भी काल गणना की सुविधा के लिए सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग तथा कलियुग प्रसिद्ध है। 17 लाख 28 हजार वर्षों का सतयुग, 12 लाख 96 हजार वर्षों का त्रेतायुग, 8 लाख 64 हजार वर्षों का द्वापर युग तथा 4 लाख 32हजार वर्षों का कलयुग होता है।
सतयुग सृष्टि के आदि का है। इस युग में शरीर धारी भगवान विष्णु प्रकट होते हैं। वही निराकार विष्णु जब सृष्टि का प्रारम्भ, स्थिर एवं विनाश करना चाहते हैं तब सर्वप्रथम विष्णुरूप में प्रकट होते हैं। उन्हीं शेषशायी भगवान विष्णु की नाभि से कमल प्रगट होता है। उसी कमल में ब्रह्मा बीज रूप से प्रगट होते हैं ।
वह ब्रह्मा सृष्टि के रचियता हैं। स्वयं विष्णु सृष्टि के पालन-पोषण करते हैं। शिव रूप से सृष्टि का संहार करता है। एक ही सत्ता के तीन नाम प्रसिद्ध है क्योंकि कार्य तीन ही करते हैं। भगवान की इच्छा का खेल ही यह सम्पूर्ण सृष्टि है।
ब्रह्माजी से मरीचि ऋषि हुए तथा मरीचि के कश्यप हुए। कश्यप के दो पत्नियां थी-दिती और अदिती। अदिति के जो संतान हुई वे आदित्य देवता कहलाए तथा दिति से जो संतान हुई वह दैत्य कहलाई। बडी विचित्र बात है कि पिता एक ही किन्तु संतान दैत्य और आदित्य। अपने स्वभाव गुणों से राक्षस एवं देवता बन गये। इसी समय भी प्रायः ऐसा ही हो रहा है।
वील्होजी ने पूछा कि- हे गुरुदेव! यह कैसे संभव हुआ कि एक पिता देव दानवों का होते हुए भी संतान में एकता क्यों नहीं हो सकी? क्या माता पिता भी अपनी प्रिय संतानों में भेदभाव रखते हैं?
नाथोजी उवाच- माता-पिता तो अपनी संतानों में भेदभाव नहीं रखते किन्तु संतानों का जन्म, कर्म एवं भाग्य अपने-अपने साथ ही पैदा होता है। इसमें जन्म भी कारण बन जाता है। बच्चा जब अपनी मां के गर्भ में प्रवेश करता है वह समय भी बहुत महत्वपूर्ण योगदान देता है। एक समय की बात है कि जब कश्यप ऋषि ध्यान में बैठे थे उसी समय उनकी धर्मपत्नी दिती उपस्थित हुई और उन्होनें अपने पति से ऋतुदान की याचना की। ऋषि संध्या के लिए तैयार थे किन्तु पत्नी इस कुबेला में ऋतुदान की याचना कर रही थी।
ऋषि ने अपनी पत्नी को बहुत प्रकार से समझाया कि यह वेला ऋतुदान की नहीं है। यह तो संध्या वेला है। इस समय तो परमात्मा का ध्यान, जप, ब्रह्मचर्य पालन एवं हवन करना चाहिए। इसके अतिरिक्त (काय रे मुख्खा तैं पालंग सेज निहाल बिछाया) यह विपरीत कार्य नहीं करना चाहिए। इस समय राक्षस लोग भ्रमण करते रहते हैं।
उनसे आकृष्ट हो जावोगी मर्यादा का उल्लंघन करोगी तो तुम्हारे होने वाली संतान राक्षस ही होगी। दिति कामातुर थी, उसने ऋषि की बात का उल्लंघन किया। ऐसे समय में गर्भ में जो बालक आया था वह राक्षस ही स्वभाव से था। ऋषि ने कहा हे दिति। तुम्हारे जो संतान होगी वह राक्षस ही होगी क्योंकि तुमने नियम को तोड़ा है।
सम्पूर्ण सृष्टि नियम से ही चलती है। जहाँ नियम टूट जाता है, वहीं उपद्रव एवं विनाश उपस्थित हो जाता है। दिति ने अपने पति कश्यप के वचनों को सुना और घबरा गयी अब क्या हो सकता है?
बेटा राक्षस हो हे पतिदेव! इस जाए तो माँ के दुःख का कोई पार नहीं होता। दिति ने प्रार्थना करते हुाए क पाप का प्रायश्चित कैसे होगा? ऋषि ने ध्यान लगाया और देखा कि दिति के गर्भ में जो बच्चा है, वह तो राक्षस ही होगा किन्तु इसका पुत्र तथा हमारा पौत्र होगा वह ईश्वर का परमभक्त होगा। तीन लोकों को जीतने वाला होगा।
इसलिए देवी तुम निश्चित हो जाओ, परमात्मा को स्मरण करो, वही तुम्हारी रक्षा करेगा। समय आने पर दिति के गर्भ से दो जुड़वां बालक पैदा हुए। प्रथम बालक हिरण्याक्ष तथा दूसरा बालक हिरण्यकश्यप के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इनके संसार में आते ही बहुत सारे अपशकुन होने लगे। दुनिया दुःख से त्राहि-त्राहि करने लगी। माता दिति ने तो अपने पुत्र के जन्म अवसर पर खुशी ही मनाई थी। क्योंकि माँ के तो अपने बेटे ही सर्वस्व होते हैं। चाहे कैसे भी क्यों न हो?
वील्होजी ने पूछा- हे गुरुदेव ! कुछ वर्ष पूर्व ही तो सृष्टि की संरचना हुई थी। इस प्रथम शुभवेला में ये दो राक्षस कैसे पैदा हो गये? ये दोनों कौन थे? जो इस प्रकार से जन्म लेकर दुनिया को दुःख देने के लिए तैयार थे, आप तो इनके पूर्व की जन्म की कथा वृतान्त अवश्य ही जानते होंगे क्योंकि सद्गुरु जाम्भोजी भगवान के आप अतिनिकट रहे हैं।
यदि इस विषय में आप जानते हैं तो अवश्य ही बतलाने का कष्ट करें। नाथोजी कहने लगे- हे शिष्य! भगवान विष्णु का बैकुण्ठ प्रसिद्ध है। सदा ही वहां भगवान चतुर्भुजी पालनपोषण करता, विराजमान रहते हैं। उस धाम में पंहुचने के लिए योगी लोग सदा ही ध्यान ज्ञान पूजा अर्चना करते हैं। उसी धाम में जाने के लिए एक बार सनकादिक चारों भाई जो सदा ही पांच वर्षों की अवस्था में रहते हैं, जाने के लिए तैयार हुए।
तब पांचवे दरवाजे से प्रवेश करने लगे तब वहां पहले से ही उपस्थित जय और विजय नाम के पहरेदारों ने अन्दर प्रवेश करने से रोक दिया। सनकादिकों का आदर सत्कार करना चाहिये था। किन्तु उन्हें अप्रिय शब्दों द्वारा फटकारते हुए कहने लगे- तुम लोग विष्णुपुरी में प्रवेश करने योग्य नहीं हो। तुम्हारा कुरुप तथा दिगम्बर ही वेश है।
तुम वस्त्र ही धारण करना नहीं जानते, विष्णुपुरी में प्रवेश कैसे कर सकते हो? वैसे तो सनकादिक पूर्ण ज्ञानी थे। उन्हें मान-अपमान से कुछ भी लेना देना नहीं था। फिर भी उन परहेदारों को अनधिकारी मानकर उन्हें उनके कर्त्तव्य का बोध कराया और कहा-जय विजय! तुम दोनों मृत्युलोक में जाओ, वहां जाकर अपनी दुष्टता प्रकट करो।
यहां तो सज्जन व्यक्ति का होना चाहिये, तुम्हारा यहां क्या काम है? तुम लोग मृत्युलोक में जाकर राक्षस बन जाओ! यही कारण था कि जय-विजय को मृत्युलोक में आना पड़ा और राक्षस बनकर अपना समय पूरा करने के लिए मजबूर होना पड़ा। भगवान विष्णु सदा ही अपने प्रिय भक्तों के सहायक है। सनकादिकों का ही समर्थन किया और कहा- इन संतों के वचन ही प्रमाण है।
जय-विजय ने बहुत प्रकार से प्रार्थना की और कहा-हे देव! हमने भूल की है तथा हम क्षमा मांगते हैं। इन परम ऋषियों के वचन प्रमाण है। हे विष्णो! हमारा वापिस आना कब और कैसे होगा, आप कृपा करके अतिशीघ्र ही हमें वापिस बुलाईयेगा।
भगवान ने कहा- तुम्हें जीवन जीना है, मृत्युलोक में किन्तु खेल की तरह ही। यदि इस संसार में खेल को सत्य मानकर इसमें लिप्त हो गये तो वापिस आने में बहुत ही देर लग जायेगी, तुम सावधान रहना भूल मत करना। किन्तु तुम्हारे वश की बात कहां है? तुम तो अवश्य ही करतूत करोगे। संसार में सहयोग की भावना से तुम्हारा जीना मुझे दिखलाई नहीं दे रहा है।
इसलिए तुम विरोधी जीवन जीओगे, तुम्हारे बराबर का अन्य कोई शत्रु तुम्हें नहीं मिलेगा तो तुम मुझ विष्णु से ही विरोध ठानकर अपनी ताकत का प्रदर्शन करोगे। इसलिए तीसरे जन्म में तुम्हारा आगमन हो सकेगा और यदि सहयोग भाव, भक्ति श्रद्धा से जीवन जीओगे तो सात जन्म वापिस आने में लग सकते हैं।
क्योंकि विरोधी भी अपने शत्रु को याद रखता है, मित्र भी अपने मित्र को याद रखता है प्रेमी मित्र तो अपने सुहृदय प्रिय को भूल जाता है किन्तु शत्रु कभी भूलता नहीं है, दिन रात आठों पहर याद रखता है। यह ध्यान की तीव्रता एवं मन्दता पर निर्भर है। इसलिए जय विजय तुम दोनों मृत्युलोक में जाओ, इन संतों का शाप शिरोधार्य करो तथा तीन जन्मों को पूरा करके वापिस लौट आओ।
इतनी बातें कहते ही जय विजय का दैविक शरीर लोप हो गया। मृत्युलोक में कश्यप की पत्नी दिति के गर्भ से दो बच्चे हुए उनका नाम हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकश्यपू रखा गया जो सृष्टि के आदि में भयंकर राक्षस भगवान के विरोधी हुए।
शिष्य वील्हा ने अपने गुरु नाथोजी से पूछा- हे गुरुदेव। यह जानने की मेरी प्रबल इच्छा है कि जय विजय ने इस धरती पर आकर क्या उपद्रव किया जिससे भगवान को अवतार लेना पड़ा? क्या भगवान अपनी इच्छा मात्र से ही राक्षसों का विनाश करने में सक्षम नहीं हो सकते? क्योंकि भगवान तो सर्वसमर्थ है। उनके लिए तो कुछ भी अकरणीय नहीं है। भगवान स्वयं ही ऐसा क्यों करते हैं। आप मेरे इस संशय को निवृत्त कीजिए।
नाथोजी अपने परम शिष्य से इस प्रकार कहने लगे- हे शिष्य ! पहली बात तो यह है कि भगवान स्वेच्छा से ही अवतरित होते हैं। अपना स्वयं का अनेक रूपों में परिवर्तन कर लेना तो उनकी अपनी इच्छा ही है। दूसरी बात यह है कि भक्तों की श्रद्धा भगवान के प्रति बढ़े इसलिए भगवान निराकार से साकार रूप में आकर साक्षात् दर्शन स्पर्श एवं वार्तालाप करते हैं जिससे भक्तों की निष्ठा दृढ़ हो सके।
राक्षसों के अभिमान को भी भगवान प्रगट होकर चूर चूर कर देते हैं अन्यथा उन्हें भी कैसे पता चले कि हमारे से ऊपर कोई और भी सत्ता विद्यमान है। हम तो उसकी एक कला की बराबरी नहीं कर सकते। वरदान या श्राप के कारण भी भगवान स्वयं आकर अपने वचनों को पूरा करते हैं तथा अपना कर्त्तव्य निभाते हैं।
सृष्टि का कालचक्र यथावत चलता रहे, जीओ और जीने दो, के सिद्धांत को भगवान स्वयं आकर स्थित करते हैं। सभी का पालन पोषण होवे उसमें कोई विघ्न उपस्थित करे तो भगवान से सहन नहीं होता वे स्वयं झटिति किसी भी रूप में प्रकट हो जाते हैं और अपना कार्य स्वयं कर लेते हैं। जैसे माँ अपने शिशु के कष्ट को स्वयं अपने ऊपर लेकर सभी प्रकार से रक्षा करती है। भगवान कहीं माता कहीं पिता तथा भाई बन्धु सहायक का पाठ अदा करते हैं।
हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप ये दोनों बड़े ही उपद्रवकारी थे। जहाँ-तहाँ देखो दूसरों को दुःख देने में ही अपना सुख मानते थे। हिरण्याक्ष तो बड़ा ही वीर था। हाथ में गदा-शस्त्र लेकर पृथ्वी पर भ्रमण के लिए निकल पड़ा और युद्ध के लिए ललकारने लगा था। हिरण्याक्ष की भीषण हुँकार का जवाब देने वाला कोई नहीं था।
वह किससे लड़े, दूसरों को दुःख दिये बिना उसे चैन नहीं पड़ता था। इस पृथ्वी पर उसे बराबरी का कोई मिला ही नहीं जिससे युद्ध कर सके। भगवान विष्णु ही एक योद्धा है जो युद्ध में उसे आनन्द दे सके, किन्तु विष्णु उसे कहाँ मिले और कब मिले तथा कब अपनी ताकत का अजमाईस कर सकूँ।
विष्णु नहीं मिले तो क्या हुआ? विष्णु की बनाई हुई यह कृति धरती है इससे ही छेड़खानी की जाये। विष्णु स्वयं ही अपनी दुर्दशा देखकर आ जायेंगे और मैं अपनी इच्छा युद्ध करके पूर्ण करूँगा ऐसा विचार करके हिरण्याक्ष ने सम्पूर्ण धरती को जल में डुबाने का प्रयास प्रारम्भ किया धरती पर जल ही जल कर दिया जाये जिससे न तो अन्न पैदा होगा और न ही कहीं पर मनुष्यों को रहने की जगह मिल सकेगी।
लोग दुःखी होंगे, विष्णु से पुकार करेंगे। रोयेंगे-दिलाएंगे तब कहीं भगवान विष्णु आयेंगे। तब मुझे अपनी इच्छा पूरी करने का अवसर मिलेगा। यही किया हिरण्याक्ष ने, धरती को जल में डूबो दिया ब्रह्मादि देवता भगवान विष्णु से पुकार करने लगे। विष्णु ने प्रकट होकर देवताओं को दर्शन दिया, उन्हें धैर्य बंधाया कि तुम लोग चिंता मत करो मैं पहले से ही तैयार हूँ। जब पाप का घड़ा भर जायेगा, तब फूटेगा, अभी फूटने ही वाला है। देवता लोग अपने-अपने स्थान पर लौट आये।
भगवान विष्णु अपनी प्रकृति-माया को वशीभूत करके अपनी ही इच्छा से देश-काल परिस्थिति के अनुसार शूकर का रूप धारण किया और पुष्कर में धरती को जल से ऊपर उठाते हुए प्रकट हुए। वहीं पर पाताल लोक से पीछे-पीछे दैत्य हिरण्याक्ष आ रहा था। दोनों में भयंकर युद्ध हुआ। भगवान ने पृथ्वी को जल से बाहर निकाला।
पृथ्वी को अन्न पैदा करने की योग्यता प्रदान की और उजड़े हुए लोगों को पुनः बसाया। दैत्य से भयंकर युद्ध किया और उसे मार गिराया। देवताओं ने जय जयकार की। दुष्ट राक्षस हिरण्याक्ष को भगवान ने शूकर रूप धारण करके मार दिया। भगवान ने यह बड़ी विचित्र लीला की।
पुत्र का इस प्रकार मारा जाना सुनकर दिति शोक से व्याकुल हो गयी। अपने दूसरे बेटे को पास में बुलाकर कहने लगी-बेटे! अब तो तुम ही मेरे एक सहारे हो। मेरे लाल! तुम्हारे भाई को तो साक्षात् विष्णु ने ही शूकर रूप धारण कर मारा है। वह विष्णु के साथ युद्ध करते हुए वीरगति केा प्राप्त हो गया है।
अब तुम्हें ही वही कार्य करना चाहिये जो तुम्हारे भाई ने किया। जब तक विष्णु जिन्दा रहेगा तब तक तम्हें भी सुख से नहीं जीने देगा। अपने कुल परिवार की अभिवृद्धि भी नहीं होने देगा। तुम ऐसा कार्य करो कि तुम्हारा जन्मजात शत्रु मारा जाये और तुम निष्कलंक होकर राज्य करो। किन्तु विष्णु के जीवित रहते हुए यह असंभव है।
अब तो तुम्हारा बैरी विष्णु बन ही गया है तुम्हारा भाई हिरण्याक्ष अप्रतिम वीर था जो सम्पूर्ण धरती को तोलता था। उसकी हत्या शूकर रूप धारण कर विष्णु ने ही की है। अन्यथा एक मामूली सा शूकर जानवर तुम्हारे भाई को कैसे मार सकता है। हमारे किये हुए कार्य पर तो विष्णु ने पानी फेर ही दिया, अब हमें भी शान्त नहीं रहना चाहिए हमें भी विष्णु के कर्त्तव्यों पर पानी फेर देना चाहिये।
अपनी माता की बात सुनकर पहले तो हिरण्यकश्यपू कुछ घबराया किन्तु धैर्य धारण करके अपनी माता को धीरज बंधाते हुए कहने लगा- हे मात! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। मुझे अपनी जान की बाजी लगा देनी पड़े तो भी पीछे नहीं हटेगा। पहले विष्णु को मारूंगा फिर अन्न-जल ग्रहण करूंगा।
ऐसा कहते हुए दैत्यराज हाथ में गदा लेकर विष्णु को मारने के लिए वैकुण्ठ धाम की तरफ अबाध गति से चल पड़ा। भगवान विष्णु ने देखा कि दैत्यराज बड़े ही क्रोध से भरकर युद्ध करने की इच्छा से आ रहा है। इस राक्षस को अब तक यह पता नहीं है कि भविष्य में क्या होने वाला है? भगवान तो जानते थे कि अब तो युद्ध को टालना है, जब युद्ध का समय आयेगा तो अवश्य ही युद्ध होगा।
अब तक समय नहीं आया है। इस समय तो इसे शांत करना चाहिये ऐसा विचार करके भगवान विष्णु हिरण्यकश्यपु के हृदय में प्रवेश कर गये। अब दैत्य तो भगवान को बाहर देखता है किन्तु विष्णु तो दैत्य के हृदय में प्रवेश कर गये हैं, कैसे मिलेंगे? जहाँ पर है वहाँ पर तो खोजता नहीं है। जहाँ पर नहीं है वहाँ पर खोजता है, यही सभी की विडम्बना है।
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भगवान वैकुण्ठ में मिले नहीं दैत्य वापिस लौट आया। अपने साथियों की सभा बुलाई और कहने लगा-भाई लोगों? यह बतलाओं कि आततायी विष्णु कैसे मरे ? सभी दैत्यों ने मिलकर विचार किया- इस प्रकार से प्रत्यक्ष युद्ध में मायावी विष्णु मारे नहीं जा सकते। उनको मारने का एक ही उपाय है जिससे जीवित विष्णु तुरंत मारे जा सकते हैं केवल डाली पतों में पानी डालने से पेड़ हरा भरा नहीं हो सकता।
जब तक कि उसके मूल में सिंचाई न की जावे। ये देवता तो डाली पतों की तरह है इन सभी का मूल तो विष्णु है। स्वयं विष्णु तो सभी का मूल है , उनका मूल, कोई नहीं है। मूल रूप विष्णु को काटने से डाली रूप देवता स्वयं ही कट जायेंगे।
महिमा तेरी समझ सका ना, कोई भोले शंकर - भजन (Mahima Teri Samjh Saka Na Koi Bhole Shankar)
श्री झूलेलाल चालीसा (Shri Jhulelal Chalisa)
ऐसो चटक मटक सो ठाकुर - भजन (Aiso Chatak Matak So Thakur)
सर्व मूल रूप विष्णु को मारने का एक ही उपाय हो सकता है कि विष्णु की बनाई हुई मर्यादा को मिटा दिया जावे। इससे विष्णु मरे हुए के समान ही हो जाएगा। जो लोग हवन-पूजा, पाठ,शास्त्र अध्ययन भजन-कीर्तन तथा नियमों का पालन करते हैं ये ही विष्णु के मूल है। इन्हे हीं बन्द करवा दिया जावे। इससे विष्णु स्वतः कमजोर हो जायेंगे, यदि जीयेंगे तो भी मरे हुए जैसे शक्तिविहीन हो जायेंगे।
तब तो अपना ही आदेश-राज्य चलेगा हम स्वयं ही भगवान-सम्राट बन जायेंगे विष्णु तथा उनके चाटुकार देवताओं को मार गिरायेंगे। हम ही एकछत्र साम्राज्य करेंगे हमारे ही विधि विधान इस लोक में चलेंगे।
ऐसा विचार करते हुए सभी दैत्य एकत्रित हुए और गांव-नगरों को चारों तरफ से घेर लिया। विष्णु की मर्यादा उठवा दी और अपनी राक्षसी मर्यादा स्थापित करने का प्रयास होने लगा। स्वयं हिरण्यकश्यूप अपने साथियों को इस कार्य के लिए नियुक्त कर वन में तपस्या करने के लिए चला गया।
हिरण्यकश्यपू ने ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की। ब्रह्माजी हमारे पितामह हैं, वही हमें वरदान देकर शक्तिसम्पन्न बनायेंगे। दिव्य शत वर्षों तक घोर तपस्या की। ब्रह्माजी प्रसन्न हुए तथा वरदान मांगने को कहा- तब हिरण्यकश्यप ने अपनी तपस्या का फल साक्षात प्रगट देखा और कहने लगा- मैं आपका पौत्र प्रणाम करता हूँ यदि आप मेरी तपस्या से प्रसन्न हो गये हैं तो मुझे ऐसा वरदान दीजिये जिससे मैं अजर अमर हो जाऊं।
ब्रह्माजी ने कहा तथास्तु! ऐसा ही होगा। किन्तु हे तपस्वी ! मैं तुम से यह जानना चाहता हूँ कि इस तेरी मांग का क्या अर्थ है ? जरा मुझे खोलकर बताओ ताकि मैं तुम्हें ठीक से जो तुम मांगो वही दे सकें।
प्रसन्नता से प्रफुल्लित दैत्यराज मांग दुहराते हुए कहने लगा सुनो! मैं दिन में नहीं मरूं, रात्रि में भी नहीं मरूं, मैं अन्दर भी नहीं मरूं, बाहर भी नहीं मरूं, नर से भी नहीं मरूं, नारी से भी नहीं मरूं, घाव से भी नहीं मरूं, शस्त्र से भी नहीं मरूं, देव से भी नहीं मरूं, दैत्यों से भी नहीं मू। हे प्रभु! आप यदि मेरे पर प्रसन्न हो गये हैं तो इनमें से मुझे कोई नहीं मार सके। ऐसी व्याख्या सुनकर ब्रह्माजी ने वरदान दिया और अन्तर्ध्यान हो गये।
हमारा राजा वरदान लेकर, शक्ति सम्पन्न होकर वापिस लौटा है। ऐसी वार्ता सुनकर दैत्यों की खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा और दिनों दिन अपराध को बढ़ादा देने लगे। यह सभी कुछ उस सृष्टि के नियंता परमेश्वर की इच्छा से हो रहा था किन्तु दैत्य इस बात को समझने में असमर्थ थे। जिससे दिनों दिन उपद्रव बढ़ते ही जा रहे थे।
बील्होजी ने पूछा- हे गुरुदेव! तब तो यह सिलसिला रूकने का नाम ही नहीं ले रहा होगा? दुनियां में त्राहि-त्राहि मच गयी होगी, तब तो भगवान को अवतार लेना था। दैत्य वंश का विनाश करना था। भगवान सर्वज्ञ होते हुए भी न जाने इतनी देर क्यों करते हैं? यह भगवान के द्वारा कैसी परीक्षा, जिससे तबाही मचती हो?
नाथोजी महाराज बोले हे शिष्य! भगवान एक कार्य को एक ही बार करते हैं। दुबारा उसकी नकल कभी नहीं करते। अबकी बार तो कुछ नया करना था। इस बार तो भगवान स्वयं नहीं आये किन्तु पहले अपने भक्त को यहां पर भेजा था। भक्त एवं भगवान में कितना गहरा सम्बन्ध है। भक्त के लिए भगवान आते हैं यह बताने के लिए ही तो प्रथम प्रहलाद को भगवान ने हिरण्यकश्यपू की पत्नी कयाधू के गर्भ में भेजा था तथा यह बताया कि मैं पीछे आऊंगा, पहले तुम जाकर भक्ति को दृढ़ करो। हिरण्यकश्यपू के अपराध को पराकाष्ठा तक पंहुचा दो।
फिर भगवान ने कहा- मेरा आना ठीक होगा। पिता राक्षस, बेटा भक्त देवता, कैसा यह मोहमाया का जाल, बाप बेटे का सम्बन्ध किन्तु वैचारिक मतभेद से किस प्रकार भक्ति का अंकुर फुटेगा और पनप सकेगा। यही परीक्षा है जिसमें उत्तीर्ण हो जाये तो समझो असली भक्त है।
माता कयाधु के गर्भ से हिरण्यकश्यप के पुत्र के रूप में प्रहलाद ने जन्म ले लिया। तीनों लोकों में खुशी का ठिकाना नहीं रहा। सम्पूर्ण प्रकृत्ति खिल उठी, बाजे बजने लगे, मंगल गीत गाये जाने लगे, माता- पिता, कुटुम्बी जनों को यह आभास हुआ कि हमारे कुल दीपक आ गये हैं। अब हमारा कुल आगे बढ़ेगा।
प्रहलाद ही हमारे सर्वेसर्वा होंगें देवता एवं भक्तजनों को भी अपार खुशी हुई। एक दूसरे को बधाईयाँ बांटने लगे। अपने कुल-दीपक आ गये हैं। ठण्डी-ठण्डी हवा आती है तो पीछे मेघ भी अवश्य ही आते हैं। प्रथम भक्त आये हैं तो पीछे अवश्य हमारे प्राणों के प्यारे भगवान भी आयेंगे।
बील्हा ने अपने गुरु देव नाथाजी से पूछा- हे गुरु देव! आपने तो सुना ही होगा कि प्रहलाद ने बहुत ही दुःख उठाया किन्तु अपने पिता की आज्ञा नहीं मानी ऐसा क्यों हुआ? माता पिता की आज्ञा तो पुत्र को आंख मूंद कर भी माननी चाहिए? प्रहलाद को भगवान की भक्ति की तरफ अग्रसर करने में किसका सहयोग था, ऐसा माना जाता है कि वहां उस समय तो असुरों का ही साम्राज्य था।
भगवान की भक्ति के तो वे लोग विरूद्ध ही थे। प्रहलाद भक्त की पढाई-लिखाई कहां किस प्रकार से हुई,जिससे प्रहलाद के अंदर सोया हुआ बीज अंकुरित हो सका। अन्य भी बाल सुलभ लीलाएं जो प्रहलाद ने की थी उनका विवेचन करे? मेरे मन में प्रभु परमात्मा एवं आत्मा के मिलन की कथा सुनने की अति जिज्ञासा है।
आपके अमृतमय वचनों से मैं तृप्ति को प्राप्त नहीं हो रहा हूँ। ऐसे जिज्ञासु शिष्य के वचनों को श्रवण करके गुरु जांभोजी विष्णु के परम भक्त-आचार्य नाथोजी ने विस्तार पूर्वक प्रहलाद की कथा कहते हुए इस प्रकार से बोले- देखिए! इस असार संसार की क्या नियति है यह कुछ भी नहीं कहा जा सकता, परमात्मा किसके द्वारा क्या करवाना चाहते है यह कहना अति कठिन है, फिर भी अपनी मति के अनुसार ही ऋषि महात्मा जन अपनी-अपनी बात कहते है।
जिस कथा में भगवान का परम पवित्र चित्रण न हो उसे कथा ही नही कहना चाहिए और जिस व्यक्ति ने भगवान की परम पवित्र लीला का श्रवण नहीं किया उसका संसार में जन्म लेना ही व्यर्थ है।
जब प्रहलाद बड़ा हो गया तो माता-पिता ने प्रहलाद को पाठशाला में पढ़ने के लिए भेजा। दैत्य गुरु शुक्राचार्य को बुलाया और प्रहलाद का हाथ गुरु के हाथ में सौंप दिया, और हिरण्यकश्यप निश्चिंत हो गया। शुक्राचार्य ने अपने बेटे शण्ड और अमर्क से कहा कि प्रहलाद को नीति और आसुरी विद्या सिखलाओ। अन्य दैत्य बालकों की भांति प्रहलाद को भी विद्या पढाना प्रारम्भ किया।
प्रहलाद ने प्रारम्भिक अक्षर ज्ञान श्रवण किया। प्रहलाद तो राज कुमार था, वह कोई सामान्य बालक तो नहीं था। अब तक प्रहलाद की सोयी हुई आत्मा-धर्म जागृत भी नहीं हुआ था। ज्ञान तो बीज रूप में था। उस बीज को फलने फलने के लिए हवा,जमीन,पानी,मौसम आदि चाहिए था वह प्राप्त नहीं था।
संयोग वश एक दिन प्रहलाद घोड़े पर सवार हो कर नगर भ्रमण को निकला था। अपने पिता की राज्य व्यवस्था एवं प्रभाव देखने के लिए। एक जगह गरीब की झोंपड़ी के पास से होकर प्रहलाद गुजर रहा था। उसी समय ही प्रहलाद के कानों में ओम् की ध्वनि विष्णु का नाम जप सुनाई पड़ा। प्रहलाद ने प्रार्थना के उद्गार अपने पिता के राज्य में प्रथम बार ही सुना था। प्रहलाद का घोड़ा वहीं रूक गया आगे नहीं बढ़ सका। प्रहलाद तत्काल घोड़े से नीचे उतर गया और झोंपड़ी में जाकर देखा तो दो व्यक्ति पति-पत्नी आसन पर बैठे हुए भगवान के नाम का जप कर रहे थे वह उनकी ही ध्वनि थी।
अचानक प्रहलाद के आ जाने पर जप नहीं रूका किन्तु डर के मारे मौन भाव से। प्रहलाद ने कहा डरो मत। मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ कि पूर्व में जो नाम की ध्वनि आ रही थी वह अब शांत क्यों?यदि कोई परमात्मा है तो फिर डर क्यों? किसलिए यह नाम जप हो रहा है? क्या मेरे पिता के अतिरिक्त भी ईश्वर जैसी सत्ता हो सकती है जिसका तुम नाम लेते हो। तुम्हें जो कुछ चाहिए वह मेरे पिता राजा से ले सकते हैं राजा ही ईश्वर होता है। कहिए क्या विपत्ति आई है?
उन दम्पति ने डरते-कांपते हुए कहा- हे राजकुमार! क्षमा करें,हमारी भूल हुई है। हमने आपके पिता का नाम एवं शरण छोड़ कर उस परम पिता परमात्मा की शरण ली है। हम तो कुम्हार है। मिट्टी के बर्तन बनाना हमारा कर्म है। हम अपनी ही भूल का पछतावा कर रहे है हमने बरतन पकाने के लिए निहाई (आवा) में रख दिए और आग लगा दी। पूरा ईंधन समाप्त हुए बिना आग ठंडी कैसे होगी। भूल से अंदर रहे हुए बिल्ली के छोटे बच्चे जल कर मर जाएंगे। उन्हें ईश्वर के बिना कौन बचाएगा।
हे राजकुमार ! जलती अग्नि से इन्हें न तो तुम बचा सकोगे, न ही हम और न ही तुम्हारे पिताजी केवल एक पालन-पोषण कर्ता भगवान विष्णु ही रक्षा कर सकता है। हमें घोर पाप से उबार सकता है। हम तो उन्हीं का स्मरण-भजन कर रहे है। अब आप हमें चाहे मारो या उबारो यह आप पर ही निर्भर है।
प्रहलाद को भी यह वार्ता प्रिय लगी और कहा- तब ठीक है, आप अवश्य ही परमात्मा विष्णु का स्मरण कीजिए। किन्तु एक बात अवश्य ही सुनलो-मैं भी इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण चाहूंगा। जब तुम्हारे बर्तन पक जाए तो पहले मुझे बुला लेना फिर निहाई खोलना । मैं बिल्ली के बच्चों को जिंदा अपनी आंखो से देखना चाहता है। अब तो मैं अपने घर जाता हूँ। आप लोग जितना प्रयत्न करना चाहे वह कर लेना। यदि ईश्वर- विष्णु रक्षा नहीं कर सका तो मैं आपको मृत्यु-दण्ड दूंगा, घाणी में पिलवा दूंगा। ऐसे कहते हुए प्रहलाद अपने घर लौट गया।
इधर कुम्हार दम्पती निश्चित होकर एक मन एक चित से भगवान का स्मरण करने लगे, हार्दिक पुकार करने लगे। भगवान बचाएंगे तो ये निरीह प्राणी तथा हम भी बच जाएंगे। अन्यथा तो सभी का मरना निश्चित है। एक सप्ताह तक निरंतर हरि का स्मरण-पुकार की और सातवें दिन नियम से बर्तन पक गये तथा ठण्डे भी हो गये। निहाई खोलने का समय उपस्थित हुआ।
प्रथम प्रहलाद को बुलाया गया उसके सामने ही बर्तन निकालने प्रारम्भ किए गए। बिल्कुल पके हुए बर्तन निकलते जा रहे है प्रहलाद एक दृष्टि से निहार रहे है। वह चमत्कार न जाने कब होगा, उसकी प्रतीक्षा में खड़े हुए है। प्रहलाद के देखते हुए वह समय शीघ्र ही उपस्थित हुआ और प्रहलाद ने देखा-बाहर तो सभी बरतन पके हुए है किन्तु बीच में कुछ बर्तन अभी कच्चे है, उन बर्तनों को उठाया तो बिल्ली के बच्चे खेलते हुए दौड़ कर बाहर आये।
यह देखकर कुम्हार दम्पती को खुशी का ठिकाना ही न रहा। भगवान को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया। प्रहलाद की उदारता का भी गुण-गान किया। प्रहलाद ने अपने छोटे से जीवन में यह प्रथम छोटी सी अलौकिक घटना प्रत्यक्ष देखी थी। आश्चर्य चकित नेत्रों से देखता ही रह गया। यह देख कर वापिस घर लौट आया।
बाल हृदय पर जो अमिट प्रभाव पड़ा वही अंत तक निकल न सका। प्रहलाद का जीवन ही बदल गया, अब तो सर्वत्र ईश्वर का ही दर्शन होने लगा। माता-पिता तो केवल जन्म दाता है, किन्तु यह विचित्र कार्य करने वाला तो कोई और ही होगा, जिसका प्रमाण मैंने प्रत्यक्ष देखा है। बालक प्रहलाद विद्या पढ़ने को गुरु स्थान पाठशाला में तो अवश्य ही जाता किन्तु गुरु के बताए हुए वचनों की तरफ ध्यान नहीं देता।
बार बार गुरु उसे सम्बोधन करते हुए कहते-हैं बालक प्रहलाद तूं अभी छोटा है, तुम्हें पता नहीं है, जैसा हम पढाते है वैसा पढो। असुरों की विद्या पढ लीजिए जिससे सम्पूर्ण विघ्नों का नाश हो जाएगा। तुम्हें ही तो राजा बनना है। यदि हमारी बात पर अब ध्यान नहीं दोगे तो बाद में पछतावोगे। यदि तुम्हारे पिता को इस बात का पता चल गया तो वे हमें भी मारेंगे और तुम्हें भी मार गिरायेंगे।
प्रहलाद ने अपने गुरु की एक बात भी नहीं मानी। उल्टा समझाते हुए कहा – हे गुरु जनो। आप मुझे क्षमा करें।आप जो मुझे विद्या सिखाना चाहते है, उस विद्या की मुझे आवश्यकता ही नही है। जो कुछ मुझे जानना वह मैंने जान लिया है। अब कुछ भी मेरे लिए जानना शेष नहीं है। मेरे तथा तुम्हारे भी माता-पिता गुरु-बंधु जन सभी कुछ वह विष्णु परमात्मा ही है।
उसी एक को जानने से सभी कुछ जान लिया जाता है। और यदि उस एक को ही नहीं जाना तो तुमने कुछ भी नहीं जाना। अन्य सभी बातें जानना व्यर्थ है। जिस देही में प्राण ही नहीं है वह तो स्वतः मृत है। सभी ज्ञानों का प्राण स्वरूप ज्ञान तो ईश्वरीय ज्ञान ही है। वही तो मुझे प्राप्त हो चुका है। जो व्यक्ति खेती तो करता है, हल चलाता है किन्तु उसमें बीज नहीं बोता है, वह खेती व्यर्थ है। उसी प्रकार से बिना भगवद् ज्ञान के अन्य ज्ञान तो व्यर्थ ही समझो।
आप लोग तो पुस्तकों की देखी बात करते है। किन्तु मैं अपनी आंखो देखी कहता हूँ इसमें संदेह कहाँ है? जब गुरु जन प्रहलाद की वार्ता श्रवण करके अनमने मन से घर चले गये तब अन्य बालकों ने प्रहलाद से पूछा- हे राजकुमार! यह विद्या तुमने कहाँ से प्राप्त की, अभी तो ऐसा अवसर दिखाई नहीं देता। हे प्रहलाद! यह कार्य तो बड़ा ही जटिल है।
यहाँ पर सभी का विरोधी बन कर तुम कैसे जीवन जी सकोगे?कैसे विद्या पढ़कर राजा बन सकोगे? हमें तो इस बात पर संदेह है कि शायद तुम्हारा जीवित रहना भी मुश्किल जान पड़ता है। इसीलिए गुरु एवं राजा ही ईश्वर होता है उनकी आज्ञा मानने से विघ्न नहीं होते अन्यथा तो अनेक विघ्नों का सामना करना पड़ेगा।
प्रहलाद उवाच-हे साथियो! अभी आपको पता नहीं है तुम बहुत भोले हो। जिन्होंने गर्भ में रक्षा की है क्या वह अब बच्चा बनने पर रक्षा नहीं करेगा यह सम्पूर्ण सृष्टि उसकी ही शक्ति विशेष से उत्पन्न होती है। उसी से स्थिर एवं प्रलय भी हो जाती है। भगवान के हाथ लम्बे है वे हमें उबारेंगे। तुम लोग श्रद्धा भक्ति विश्वास से उसी का स्मरण करो तभी तुम्हारा भला होगा।
अपने जन्म से पूर्व की कथा प्रहलाद ने अपने साथियों को बताते हुए कहा- जब मेरे पिताजी वन में तपस्या करने चले गए थे तब मैं अपनी मां के गर्भ में था। अभी मैं अचेत अवस्था में बड़ा हो रहा था तब देव राज इन्द्र ने सोचा कि एक तो दुष्ट तपस्या करने को चला गया दूसरा यही उसी का ही अंश अपनी मां के पेट में पल रहा है। जैसा बाप वैसा बेटा।
क्यों न इस गर्भस्थ शिशु को नष्ट ही कर दिया जाए। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। न तो यह पैदा ही होगा नहीं उपद्रव करेगा। देवराज इन्द्र मेरी मां को अधीन करके स्वर्ग लोक में के जा रहे थे।तभी मार्ग में नारदजी मिल गए।