बिश्नोई पंथ ओर प्रहलाद भाग 2
उन्होंने पूछा- देवराज । यह क्या करने जा रहे हो। इस बेचारी अबला कयाधू को कहां ले जा रहे हो। इसका पति अभी तपस्या करने गया है। एक तो यह अबला-निराश्रिता तथा गर्भवती भी है।
इन्द्र के कहा-हे नारद । इस के गर्भ में जो बच्चा बड़ा हो रहा है उसको जन्म के पूर्व ही नष्ट करने जा रहा हूँ। क्योंकि यह पुत्र भी पिता जैसा ही होगा। आग लगने से पूर्व ही कुआं खोद लेना चाहिए ऐसी नीति है। नारद तो तीनों कालों की जानने वाले देव ऋषि है उन्हें मालूम था कि यह गर्भस्थ बालक कौन है।
नारदजी ने इन्द्र से कहा कि आप इसे नष्ट करने की न सोचे इसे मारने से तीनों लोक मर जाएंगे। यह बालक तुम्हारा देवताओं का भी संरक्षक है। देवराज तुम इस बात से पूर्णतया अनभिज्ञ हो मैं जानता हूं इसीलिए आदर सहित कयाधू को छोड़ दीजिए इसके गर्भ में भगवान का भक्त पल रहा है। शीघ्र पैदा होकर सम्पूर्ण दुनियां को भक्ति का पाठ पढाएगा। पुनः मर्यादा बांधेगा। न जाने कितने ही जीवों का उद्धार करेगा।
इन्द्र को इस प्रकार समझाने पर मेरी माता को बंधन मुक्त कर दिया वहां से नारदजी मेरी माता को ऋषियों के आश्रम में ले आये। वहीं पर उन्होंने मेरी माता को ज्ञान-ध्यान की बातें सुनायी थी। मैं तो अभी जन्म भी नहीं ले सका था अपनी मां के पेट में ही सभी प्रकार की ज्ञान-ध्यान की बातें सुनी थी।
उस समय तो मैं पवित्र हृदय वाला कोरा कागज ही था जो भी बात मेरी माता ने सुनी मेरे हृदय पर ज्यों कि त्यों अंकित हो गई। उन्हीं बातों का प्रभाव इस समय मेरे पर हो रहा है। उन्हीं बातों को स्मरण करके मैं आनंदित हो रहा हूँ। अब मुझे कुछ भी सुनने की अभिलाषा नहीं है। जो कुछ भी सुनना था सुन लिया जो कुछ भी जानना था वह जान लिया। अब क्या जानना व सुनना शेष है।
बालकों ने पूछा- हे प्रहलाद। आप हमें भी तो इतना ज्ञानी बना दीजिए जितना आप स्वयं हो। हमें भी तो आपकी तरह गर्भ में ज्ञान क्यों नहीं हुआ? प्रहलाद बोले हे बालको। यह तो तुम्हारी पात्रता पर ही निर्भर करता है तुम्हारी माताओं को अच्छी संगति नहीं मिल पायी असुरों की संगति करने से तुम्हारा मन असुरता को ग्रहण कर गया है
किन्तु घबराओ मत धीरे-धीरे अभ्यास करते-करते एक दिन तुम भी अवश्य ही भगवान की भक्ति रस से भर जाओगे तब तुम्हें संसार तथा संसार सुख तुच्छ ही मालूम पड़ेंगे। अभी तो कुछ भी देरी नहीं हुई है। बहुत सुनहरा अवसर तुम्हारे पास है इसका सदुपयोग तुम कर सकते हो।
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एक दिन राजा हिरण्यकश्यप ने अपने प्रिय पुत्र प्रहलाद को अपने पास बुलाया, मुख चूमा, प्यार किया और अपनी गोदी में बिठाया तथा पूछा- बेटा बतलाओ कि अब तुम्हें पाठशाला में रहते हुए बहुत दिन व्यतीत हो गये तुमने कितनी विद्या पढ़ी तथा क्या पढ़ा? मुझे भी सुनाओ मैं सुनना चाहता हूँ। तुम मेरे प्रिय पुत्र हो इसलिए घबराने की आवश्यकता नहीं है, निडर होकर जो कुछ भी पढ़ा है वह मुझे शीघ्र ही सुनाओ।
अपने पिता की बात सुनकर प्रहलाद बड़े ही प्रसन्न हुए और कहने लगे है मेरे पूज्य पिता श्री। मैनें हरि का नाम हृदय में लिख लिया है और जंजाल सब छोड़ दिये हैं। एक हरि का नाम ही सुखदायी है। वह भगवान ही सभी के माता-पिता सर्वस्व है। उनकी सत्ता से ही सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन होता है। उस विष्णु को छोड़कर मैं किसका नाम लूं और किसकी शरण लूं वही मेरे तथा आपके जीवन आधार है इसलिए हे मेरे दैहिक पिताश्री| आप भी उन्हीं का स्मरण कीजिये इसमें ही सभी का भला है।
ऐसी आश्चर्यजनक एवं विरोधी बात सुनकर हिरण्यकश्यप आग बबूला हो गया और प्रहलाद को गोदो से नीचे झटक दिया और कठोर वचनों से ताड़ना देते हुए वह भयंकर राक्षस कहने लगा- रे रे विप्रो। इस बालक को मेरे सामने से हटा लो ! मैं इसे देखना ही नहीं चाहता। यह बालक तो अभी छोटा है, ये सभी करतूत इन गुरुओं की है जिन्होनें मेरे बालक को बिगाड़ दिया।
मैनें तो उन पर विश्वास किया था कि उन्होनें मेरे से विश्वासघात किया है। मेरा बैरी विष्णु, उसका ध्यान-नाम लेना सिखा दिया है। मेरा बेटा ही मेरा दुश्मन का नाम लेता है। इन लोगों ने मेरे घर में ही दुश्मन पैदा कर दिया है, घर में आग लगा दी है।
हिरण्यकश्यप ने गुरु शुक्राचार्य के पुत्रों को बुलाकर प्रहलाद का हाथ पकड़ाया। शुक्र के पुत्रों ने पाठशाला में लेजाकर साम,दाम,दण्ड भेद की नीति से समझाने की कोशिश की किन्तु प्रहलाद ने उनकी एक भी नहीं मानी।
शुक्र ने आखिर हारकर प्रहलाद को उनके पिता को सौंप दिया और कहा- यह तुम्हारा बालक हमसे नहीं मानेगा हमने सभी प्रकार की नीति का आचरण करके देख लिया। पहले तो यह एक ही था किन्त अब इसकी देखादेखी अन्य सभी बालक विष्णु का ही नाम लेते हैं। हमारी एक भी बात नहीं मानते हैं। केवल प्रहलाद की ही बात को स्वीकार करते हैं।
हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद को पास में बुलाया, प्रेम से गोदी में बैठाया, मीठे-मीठे वचनों द्वारा स्वयं समझाने का प्रयास करने लगा। हिरण्यकश्यप बोला-देख बेटा! तुम्हे मालूम नहीं है, हमारा यह राक्षस कुल ही सबसे बड़ा कुल है, यह उत्तम कुल श्रेष्ठ भी है। अपने से महान कोई नहीं है। मेरा भाई हिरण्याक्ष था, उसको विष्णु ने मारा था और तूं विष्णु का नाम लेता है, जो मेरा शत्रु है।
हे बेटा! जो मेरा शत्रु वह तेरा भी तो शत्रु है। शत्रु का नाम नहीं लेना चाहिये, यह नीति आज ही तूं विष्णु का नाम लेना छोड़ दे तो मैं तुम्हारे पर बहुत ही प्रसन्न होऊंगा, मैं तुम्हे आज ही राजतिलक दे दूंगा। अब तुम बड़े, तथा सयाने हो गये हो। यदि मेरा कहना नहीं मानोगे तो मैं तुझे स्वयं अपने हाथों से मार गिराऊंगा। या तो राजा बन जाओ या मरने के लिए तैयार हो जाओ। दोनों में से एक फैसला तुम्हें करना ही होगा।
प्रहलाद ने बिना किसी झिझक के कहा- हे पिता! आप अपने ढ़ंग से जो बात कह रहे हैं वह अपनी जगह पर नीति युक्त है। मेरे लिये ये बातें अनुकूल नहीं है। जिन्होनें अमृत का पान कर लिया है वह भला बताओ विष से क्या करे । आप अब तक उस अमृत से वंचित रहे हैं। इसलिए तो ऐसी बात कर रहे हैं। यदि आपको भी एक बार अमृत के आनन्द का अनुभव हो जाता तो आप कभी ऐसा नहीं कहते।
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तब आप मेरा ही समर्थन करते किन्तु मैं क्या करूं? यह आपका दुर्भाग्य है! राज-पाट तो नाशवान है। आज है कल नहीं रहेगा। वह अटल राज तो भगवान का सान्निध्य है, उसकी बराबरी यह तुम्हारा राज्य कभी नहीं कर सकता। मरने और मारने की बात तो जहां तक है, उसका कुछ पता नहीं है कौन किसको मारता है और कौन मरता है, जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु ध्रुव है।
जब मृत्यु आयेगी तो आयेगी ही और नहीं आयेगी तो कौन लायेगा? हे पिताजी !आप अपना अहँकार विसर्जन कीजिए और विष्णु को स्वीकार कीजिये तथा जीवन में खुश रहिये । क्यों किसी से विरोध बढ़ा रहे हैं, वह भी किसी सामान्य व्यक्ति से नहीं सम्पूर्ण चराचर स्वामी भगवान विष्णु से! हे पिताजी ! आपकी और विष्णु की क्या बराबरी है? वे तो तीनों लोकों के राजा है आप तो इस छोटे से राज्य का भी शासन नहीं कर पा रहे हैं। व्यर्थ का बैर विरोध बढा रहे हैं। इसे यही पर ही शांत कीजिये और विष्णु से मित्रता स्थापित कीजिये।
मैंने स्वीकार किया है कि आपके भाई को विष्णु ने मारा था किन्तु आप यह क्यों नहीं मानते कि आपके भाई ने दुनिया को दुःख देने का बीड़ा उठाया था तो वह अपने कुक्मों से ही मारा गया है। आप उसकी चिन्ता न करें। यदि इस प्रकार से आपका विरोध चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जो आपको भी आपके भाई के पास जाना पड़े। यह दो दिन का छोटा सा जीवन यूँ ही व्यर्थ में गंवाने के लिए नहीं है।
आप तो पिताजी राज के मद में मस्त हो गये हैं। अब आपको तो कर्त्तव्य-अक्त्तव्य का ज्ञान ही नहीं है। आप से मैं केवल निवेदन मात्र ही कर रहा हूँ। आप इस बात को अन्यथा न समझें। एक पिता होने के नाते आप हमें सद्मार्ग का पथिक बनायें, अन्याय से दूर हटायें, किन्तु मुझे आपको उचित्त बात कहनी पड़ रही है। मेरे तो रोम-रोम में सर्वत्र रमण करने वाले राम प्रवेश कर गये हैं।
इसमें उचित या अनुचित्त का मुझे तनिक भी ज्ञान नहीं हो रहा है। हो सकता है आपकी अपनी निजी बुद्धि अनुसार मैं कुछ अनुचित्त भी कर रहा हूँ किन्तु अब मेरे वश की बात भी नहीं है। आप स्वयं ही इस स्थिति को देख रहे हैं। मेरा ऐसा कोई विचार नहीं है कि मैं अपने पूज्य पिता से विरोध करूं। लेकिन जो होनहार है वही होगा।
आप अपने को समर्थ मान करके मेरे को तुच्छ बालक मानकर अपराध क्षमा करें। पिता तो बालक की न्याय सत्यता देखकर क्रुद्ध नहीं होते अपितु प्रसन्न ही होते हैं किन्तु आप में ऐसी प्रवृत्ति देखने को नहीं मिल रही है।
प्रहलाद के न्याययुक्त वचनों को हिरण्यकश्यपू ने सुना और झुंझलाकर कहने लगा रे अनुचरों! इस दुष्ट बालक को मेरी आँखों के सामने से हटा लो। मैं एक क्षण भी इसे जीवित नहीं देखना चाहता। जिस उपाय से यह मारा जावे ऐसा प्रयत्न करो। भृत्यगणों ने अपने राजा के वचनों को ही प्रमाण मानकर प्रहलाद को अनेकों प्रकार से कष्ट देना आरम्भ किया, जिससे दुःखी होकर हरि का स्मरण त्याग दे अथवा मृत्यु को ही प्राप्त हो जाये।
प्रहलाद को विषधर नागों द्वारा डसाया गया ताकि जहर चढ़ जाये, भयभीत हो जाये, मर जाये, हमारे स्वामी का कार्य हो जाये। हमारे स्वामी हमें बहुत सा पुरस्कार प्रदान करेंगे। किन्तु जहर भी भगवान की कृपा से अमृत हो गया। जिसके रोम-रोम में भगवान रमे हो उसके विष भी क्या कर सकता है? पीने के लिए भी विष दिया गया किन्तु भगवान का प्रसाद मानकर पी गये, कुछ भी नहीं बिगड़ा। दैत्य समूह प्रहलाद की अमृतता को देखकर घबरा गये।
प्रहलाद को एक कुएं में डाला गया, उस सूखे कुएँ में अनेकों विषैले साँप आदि थे, उनके काटने से मर जायेगा। कहीं बाहर न निकल जावे, इसके लिए ऊपर मिट्टी पत्थर डाल दिये गये, नीचे दबकर मर जाये, किन्तु वहाँ पर भी परमेश्वर ने रक्षा की। प्रहलाद सकुशल बाहर निकल आये। यह प्रहलाद कएँ के अन्दर तो नहीं मर सकता, शायद कुछ देवता या मंत्र इसके सहायक सिद्ध हो रहे हैं।
अब इसे पहाड़ के ऊपर से गिरवायेंगे, तब देखते हैं इसे कौनसा देवता तंत्र या मंत्र बचाते हैं। हमारे स्वामी का जिस प्रकार से भी प्रिय हो हमें तो वही कार्य करना है। एक बहुत ऊँचे पहाड़ की चोटी पर ले जाकर हाथ-पाँव बांधकर प्रहलाद को नीचे गिरा दिया। गिरता हुआ, नीचे आता हुआ सभी ने देखा। सभी दैत्यों ने बड़ी खुशी मनाई थी।
अब हम अपने कार्य में सफल हो गये हैं। इस पहाड़ की इतनी ऊंचाई से अब इसे कोई नहीं बचा पायेगा। प्रहलाद झूले में झूलते हुए क्रमशः नीचे आ रहा है। नीचे की धरती जहाँ पर गिरना था वह दूध के फेन-झाग की तरह कोमल हो गयी। प्रहलाद उन्हीं कोमल फेनों में जिस प्रकार भगवान विष्णु शेषनाग की शैया पर सोते हैं, उसी प्रकार सोते हुए आनन्दित हो रहे थे। ऐसा आश्चर्य देखकर सभी अचम्भित हो गये।
बिश्नोई पंथ ओर प्रहलाद भाग 3👇👇