धर्मराज युधिष्ठिर कथा भाग 4
मेरे पिता की कुन्ती और माद्री दो भार्याएं थी, वे दोनों ही पुत्रवती बनी रहे, ऐसा मेरा विचार है। मेरे लिए जैसी कुन्ती है वैसी माद्री भी है। इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है। मैं दोनों माताओं के प्रति समान भाव ही रखना चाहता हूँ, इसलिए नकुल ही जीवित हो जाय।
यक्ष ने कहा- भरतश्रेष्ठ! तुमने अर्थ और काम से भी समता का विशेष आदर किया है। इसलिए तुम्हारे सभी भाई जीवित हो जाय। ऐसा यक्ष के कहते ही चारों भाई पुनः जीवित हो गये एक क्षण में ही उनकी भूख प्यास समाप्त हो गई।
युधिष्ठर ने पूछा- हे भगवन्! आप कौन हैं? कोई देव श्रेष्ठ हैं ? आप यक्ष ही है ऐसा तो मुझे मालूम नहीं
पड़ता? क्योंकि मेरे सभी भाई बलवान है, बुद्धिमान है। आप मात्र युद्ध में तो इन्हें मार नहीं सकते। ये मरे हुए जैसे अवश्य ही थे किन्तु अब तो बिल्कुल स्वस्थ होकर उठ खड़े हुए हैं। ऐसा लगता है कि अभी गहरी नींद से सोकर उठे हैं। आप क्या हमारे सुहृद है या हमारे पिता तुल्य हमारे रक्षक है।
यक्ष ने कहा- धर्मराज! मैं तो तुम्हारा पिता धर्म ही हूँ। मैं तुम्हें देखनके लिए आया हूँ। यश, सत्य,दान,शौच, मृदुता, लज्जा, अचंचलता, दान,तप और ब्रह्मचर्य ये सभी मेरे शरीर है तथा अंहिसा, समता, शांति, तप, शौच और अमत्सर इन्हें तुम मेरा मार्ग समझो। तुम मुझे सदा ही प्रिय हो। यह बड़ी प्रसन्नता की बात है कि तुम्हारी शम,दम,उपरति,तितिक्षा और समाधान इन पांच साधनों पर प्रीति है तथा तुमने भूख-प्यास, शोक,
मोह और जरा-मृत्यु इन छः दोषों को जीत लिया है। हे पुत्र तुम्हारा मंगल हो, मैं धर्म हूँ और तुम्हारा मैं व्यवहार जानने के लिए ही आया हूँ। निष्पाप राजन्! तुम्हारी समदृष्टि के कारण में तुम्हारे पर प्रसन्न हूँ। तुम अभिष्ट वर मांग लो? जो मेरे भक्त है उनकी कभी दुर्गति नहीं होती।
युधिष्ठिर ने कहा- हे भगवन्! पहला वर तो यही मांगता हूं कि जिस ब्राह्मण की अरणी सहित मन्थन काष्ठ को मृग लेकर भाग गया था उसके अग्नि होम का लोप न हो जाय। यक्ष ने कहा- राजन् ! उस ब्राह्मण के अरणी सहित मन्थन काष्ठ को तो तुम्हारी परीक्षा के लिए मैं ही मृग रूप में लेकर भाग गया था यह मैं तुम्हें देता हूं तुम कोई दूसरा वरदान और मांग लो।
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युधिष्ठिर बोले- हम बारह वर्षों तक वन में रहे,अब तेरहवां वर्ष आ लगा है, अत: ऐसा वर दीजिए कि इसमें हमें कोई पहचान न सके। धर्मराज बोले-हे राजन् ! यह वर मैं देता हूँ। तुम लोग इस पृथ्वी पर इसो रूप में विचार तो भी तुम्हें कोई नहीं पहचान सकेगा किन्तु आप लोग अपनी सुविधानुसार जैसा चाहे वैसा रूप बना सकते हो।आप मैं जो चाहे जैसा चाहे वैसा रूप बना सकते हैं।
हे राजन् । इसके अतिरिक्त भी अन्य कोई तीसरा वरदान भी मांग लो मैं तुम्हें सहर्ष दूंगा। युधिष्ठिर बोले- हे भगवन्। आप स्वयं मेरे बारे में मेरे से अधिक ज्ञाता है। मेरी धर्म में निष्ठा सदा बनी रहे। किसी प्रकार से स्वार्थ में पड़कर मैं धर्म को न छोडूं। मुझ में कभी दुर्गुण न आ जाये। मैं कभी लोभ-मोह और क्रोध के वशीभूत न हो जाऊं तथा सदा दान,तप और सत्य में प्रतिष्ठ रह सकूं।
ऐसी आपकी कृपा मेरे ऊपर सदैव बनी रहे। धर्म ने तथास्तु कहते हुए धर्मराज की बात का समर्थन ही किपा स्वयं धर्म ही यक्ष रूपधारी ऐसा कहते हुए वहां से अन्तर्ध्यान हो गए। पाण्डव वापिस आश्रम में आ गये। इस प्रकार से पाण्डवों ने अपने धर्म का निर्वाह किया।
दूसरे दिन ही पाण्डवों ने सभी यति तपस्वी, ऋषि मुनियों को हाथ जोड़कर प्रार्थना करते रए कहा अब हम आपसे बिछुड़कर अज्ञातवास को जायेंगे आप लोग हमें क्षमा करें हम आप लोगों की सेवा नहीं कर सकेंगे। ऐसा कहते हुए पांचो पाण्डव- द्रौपदी, धौम्य ऋषि के साथ राजा विराट के वहां जाकर तेरहवां वर्ष अज्ञातवास पूरा करने की योजना बनायी। वे सभी पहले तो अपने शस्त्र एक शमी (खेजड़ी) वृक्ष पर बांध दिये और पांचो भाई तथा द्रौपदी ने धर्म के बताए हुए नियमानुसार वेश बदल कर राजा विराट के यहां पर एक वर्ष व्यतीत किया।
पाण्डवों का वनवास काल पूर्ण हुआ। भगवान कृष्ण दूत बनकर कौरवों की सभा में जा पंहुचे।उन्होनें धर्म के अनुसार पाण्डवों के लिए उनके हक की मांग की किन्तु दुर्योधन ने कृष्ण के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। उस सभा में दूत कृष्ण ने कहा- यदि आप आधा राज नहीं देते तो उन्हें पांच गांव ही दे
दीजिये, पाण्डव शांति चाहते हैं। दुर्योधन ने यह प्रस्ताव भी ठुकरा दिया।
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भगवान ने कहा- दुर्योधन तूं ही बतलादे क्या देगा? दुर्योधन ने कहा- सुई की नोक टिके इतनी जगह भी नहीं दूंगा। यदि युद्ध होगा तो मैं उसके लिए भी तैयार हूँ। दुर्योधन ने तो दूत बनकर गये कृष्ण को भी
बांधने का प्रयत्न किया। वह कब शांति चाहता था? भगवान कैसे बंध सकते हैं? भक्तों के बंधन में तो भले ही आ जाये किन्तु दुर्योधन जैसे अहंकार के बंधन को स्वीकार नहीं करेंगे।
भगवान कृष्ण ने पाण्डवों को जाकर के दुर्योधन की करतूत सुनायी और बताया कि युद्ध अवश्यंभावी है। भगवान ऐसा कहकर द्वारिका चले गये। कौरव तथा पाण्डवों ने सेना एकत्रित करना प्रारम्भ कर दिया। इस उद्योग में दुर्योधन भगवान कृष्ण के पास द्वारिका जा पंहुचा सैनिक सहायता के लिए। पीछे-पीछे अर्जुन भी पहुंच गया। अर्जुन ने देखा कि भगवान सोये हुए हैं। किन्तु दुर्योधन मेरे से पूर्व ही आकर सिर की तरफ बैठ गया। भगवान उठकर देखते हैं तो पहले अर्जुन दिखाई दिया।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन का स्वागत किया। तब दुर्योधन कहने लगा- हे भगवन्! पहले मैं आया था, मेरा स्वागत होना चाहिए था भले ही तुम पहले आये हो किन्तु मैंने पहले देखा अर्जुन को है। इसलिए प्रथम स्वागत अर्जुन का है। पीछे तुम्हारा भी है। कहिये! अपने आने का प्रयोजन? दुर्योधन ने कहा- आप हमें युद्ध में सहायता प्रदान कीजिए, इसलिए मेरा आना हुआ है।
भगवान ने कहा-अर्जुन! मै दोनों का बंटवारा कर देता हूं, एक तरफ तो मेरी नारायणी सेना रहेगी दूसरी तरफ मैं अकेला रहूंगा किन्तु मैं शस्त्र धारण नहीं करूंगा। दुर्योधन ने कहा- हे कृष्ण! आप तो मुझे नारायणी सेना ही दे दीजिए । दुर्योधन को सेना लेकर चला गया।
तब भगवान ने अर्जुन से कहा- हे अर्जुन! तुम चुपचाप क्यों बैठ रहे? दुर्योधन ने बाजी मार ली, तुम बोले भी नहीं?
तो तुम्हें पहले मौका दिया था। तूं अर्जुन क्या चाहता हैं? हे कृष्ण! आप स्वयं हो मेरे को दे दीजिये। मैनें तो अभी कहा था कि मैं शस्त्र नहीं उठाऊंगा, मुझे शस्त्र रहित से तुम क्या करोगे? हम आपको अपना सारथी बनायेगे और अपने जीवन का सम्पूर्ण भार आपको सौंप देंगे। हम निश्चित होकर युद्ध करेंगे। यदि हार होगी तो आपकी और जीत होगी तो आपकी।
धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में दोनों ओर से सेना एकत्रित हो गयी शंख नगाड़े बज चुके थे अर्जुन ने सारथी कृष्ण से कहा- हे कृष्ण! मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिये। मैं देखलू कि मुझे किसके साथ युद्ध करना है। सारथी कृष्ण ने महारथी अर्जुन की आज्ञा मानी और दोनों सेनाओं के बीच में रथ खड़ा कर दिया और बताया कि- हे अर्जुन! ये तुम्हारे दादा, गुरु, मामा, चाचा, भाई-बन्धु आदि खड़े हैं इनको देख और युद्ध के लिए तैयार हो जा। अभी शंख बज चुका है। अर्जुन ने अपने प्रियजनों को देखा और मोहग्रस्त कुछ मैनें हो गया।
कहने लगा- हे कृष्ण! मैं युद्ध नहीं करूंगा। मैं अपने ही जनों को मारकर जीना भी नहीं चाहता, न ही राज करना चाहता। वनवासी होकर अपना गुजारा भिक्षा से कर लूंगा। ऐसी विकट परिस्थिति में भगवान ने अर्जुन को गीता सुनाई और अर्जुन के मोह को भंग किया तथा युद्ध के लिए पुनः तैयार किया। दोनों ओर से घमासान युद्ध हुआ जिसमें सभी वीर मारे गये। अन्त में केवल पांच पाण्डव, सात्यकी, कृष्ण ये सात तो पाण्डव पक्ष से युद्ध भूमि से लौटकर वापिस आये। कौरव पक्ष की तरफ से कृपाचार्य, कृतवर्मा और अश्वत्थामा ये तीन वीर ही बच पाये।
धर्मराज युधिष्ठिर कथा भाग 5