जोगियों के प्रति शब्दोपदेश(Jambh Bhakti)

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जोगियों के प्रति शब्दोपदेश
जोगियों के प्रति शब्दोपदेश

                जोगियों के प्रति शब्दोपदेश

कनफड़ो जोगी जांभजी कह जुरे आयो, आय अभखल बाणी बोल्यो, जांभजी बरज्यो। जाम्भेजी वायक कह –

                            शब्द-35

ओ३म् बल बल भरत व्यास, नाना अगम न आँसू। नाना उदक उदासं।

बल बल भई निराशा, गल मैं पड़ी परसों, जां जां गुरु न चीन्हों।

 तइया सींच्या न मूलं, कोई कोई बोलत थूलूं।।

 नाथोजी उवाचः- हे शिष्य। एक समय हम सभी लोग देवजी के सन्मुख बैठे हुए थे। उसी समय एक नाथ सम्प्रदाय का कनफटा मुद्रा कानों में पहनी हुई अपने योग सिद्धि के अहंकार से गर्वित हुआ सम्भराधल पर आया। योगी ने कुछ ऐसी बातें पूछी जिसका ज्ञान योग से कोई सम्बन्ध ही नहीं था। जैसे सांसारिक लोग जो चाहे वही मुख से बोलते हैं उसी प्रकार मर्यादा से बाहर की बात उस योगी ने कही।

उसे वाणी का संयम का ज्ञान नहीं था। कुछ भी व्यर्थ की बात बोलता ही गया बिना प्रयोजन अप्रिय वाणी बोलना भी तो झूठ हो है श्री देव ने उसे व्यर्थ झूठ बाणी बोलने से रोका और उसके प्रति यह शब्द सुनाया, जिसका भाव में बतलाता हूं।

 श्री गुरुदेव ने कहा- हे नाथ। तुम इस समय व्यास की पदवी को धारण किए हुए हो। तुम्हें ऐसी व्यय की बात नहीं बोलनी चाहिए। व्यास होकर केवल बोलता ही है किन्तु यह पता नहीं है कि क्या बाल है। केवल कथन करने से वेद शास्त्र का ज्ञाता नहीं हो जाता। ज्ञाता तो तभी होगा जब कथानुसार आचरण करेगा।

 व्यास होकर अनेकानेक प्रतिज्ञा करते हैं और पुनः तोड़ भी देते हैं। हाथ में जल लेकर संकल्प क हैं बार-बार संकल्प करना और तोड़ देना, यह तो जीवन की निराशा को प्रगट करता है। जल देवता की रूष्ट कर देता है तो व्यास लोगों का भला कैसे होगा ऐसी दशा में तो गले में फांसी पड़ेगी कोई भी बच वाला नहीं होगा। जिसने भी गुरु को नहीं पहचाना, उसने मूल की सिंचाई नहीं की। डाल पता में ही पानी डालता रहा। उसे फल कहां से मिलेगा।

कई-कई लोग स्थूल बात बोलते हैं। उन्हें कुछ भी बोलने की सुध नहीं है। सत्य प्रिय हितकर वचन बोलना चाहिये। सत्य प्रतिष्ठाया क्रिया फलाश्रयत्वम्। सत्य में प्रतिष्ठित हो जाने से उसके द्वारा किया जाने वाला कार्य फलदायी होता है। उसका किया हुआ कार्य निष्फल नहीं होता। पुनः वही योगी कहने लगा- हे जम्बेश्वर । काजी कुरान का कथन करता है, इसलिए तो वेद कुराण व्यर्थ ही सिद्ध हो रहे हैं। ज्ञान कैसे होगा यह बतलाने की कृपा करे? श्री देवजी ने शब्द सुनाया

                              शब्द – 36

ओ३म् काजी कथा पुराणों, न चीन्हों फरमाणों,

 काफर थूल भयाणों, जड़या गुरु न चीन्हों।

तड़का सींच्या न मलू, कोई 2 बोलत थूलू।

 जम्बेधरजी ने कहा- काजी केवल कुराण कथन ही करते हैं। पण्डित केवल वेद का कथन ही करते हैं। जैसा कहते हैं वैसा आचरण नहीं करते। दूसरों से सुनकर या पढ़कर दूसरों को सुनाना प्रारम्भ कर देते हैं वेद पुराण में तत्व है उसका कुछ भी उनको पता नहीं है। ये लोग काफिर नास्तिक है।

 बाहा बातों तक ही सीमित है तथ्य का कुछ भी पता नहीं है इनका जीवन अनुभव शून्य ही है। जिसने भी गुरु को शरण ग्रहण नहीं की, गुरु को पहचाना नहीं है उन्होनें मूल की सिंचाई नहीं की। वह जो कुछ भी कहता है वह अनुभव शून्य स्थूल वार्तालाप करता है ऐसे लोगों से सत्य प्राति आशा करना व्यर्थ ही है।

उसी समय एक दूसरा योगी कहने लगा-हे देव मेरो चात सुनो, में भी कुछ अर्ज करना चाहता हूँ मैने सुना है कि ब्रह्म एक ही सम्पूर्ण सृष्टि अद्वैत,अज, निरंजन, आदि विभूतियों से विभूषित है यह फैसो बात है? इसमें कहाँ सत्य है या झूठ है। श्री जाम्भेश्वरजी ने शब्द उच्चारण किया-

                            शब्द – 37

ओ३म् लोहा लंग लुहारू, ठाठा घड़े ठठारू।

 उत्तम कर्म कुम्हारू, जईया गुरु न चीन्हों।

तइया सींच्या न मूलं, कोई 2 बोलत थूलू।

 श्री जांभोजी ने कहा- जिस प्रकार लुहार लोहे को तपाकर अनेकानेक बर्तन, औजार बना देता है ठठेरा पीतल का अनेकानेक आकार देता है। कुम्हार मिट्टी को अनेक रूपों में घड़े आदि में परिवर्तन करके नाम रूप प्रदान करता है। ठठेरा की भांति एक अद्वैत ब्रह्म सृष्टि का पालन पीषण करता रचियता एवं संहारकर्ता भी है। वह स्वयं ही सृष्टि के कण कण में विद्यमान होकर अपनी माया द्वारा विस्तार को प्राप्त होता है। जिस प्रकार मिट्टी तो एक ही है किन्तु नाम रूप से भित्र भित्र है उसी प्रकार से ब्रह्म एक है तो भी संसार रूप में नाम रूप से भिन्न-भित्र हो दृष्टिगोचर होता है।

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 उन तीनों में कुम्हार का कर्म उत्तम है क्पोकि पह मिट्टी की बर्तन का आकार देता है उसी से ही सम्पूर्ण व्यवहारिक कार्य संपन्न होते हैं। जिसने गुरु को नहीं पहचाना, उसने मूल की सिंचाई नहीं को अन्य लोग तो स्कूल व्यर्थ की ही बात बोलते है। जो थिश्ास योग्य नहीं है।

श्री देवजी जब विराजमान थे, अनेक लोग अपनी अपनी शंका का समाधान करने को आतुर थे। ज समय हो एक गोसाई वहां पर आया हुआ था, वह भी बोला- हे देव! आप देखिये मैने गले में ता (मनका) सम्प्रदाय विशेष की पहचान हेतु पहन रखा है। यह वेशभूषा ही सत्य है। इसी तुमरे से में ठीक मालूम पड़ता हूँ। इसी से ही मैं संसार सागर पार उतर जाऊंगा। ऐसा मेरे गुरु ने बतलाया है। क्या सत्य है? श्रीदेवी ने शब्द सुनाया-

                          शब्द 38

ओ३म् रे रे पिण्ड स पिंडू, निरघन जीव क्यों खंडू।

ताछै खंड बिहडू, घड़िये से घमण्डूं,

अइया पंथ कुपंथू, जईया गुरु न चीन्हों।

तड़का सींचा न मुलूं, कोई कोई बोलत थूलू।

श्री देवजी ने कहा- हे साधो ! तुमने परमतत्व की तो खोज की नहीं, कवेल शरीर तक ही सीमित रहा। यह शरीर तो नाशवान है। इस शरीर में बैठे हुए ईश्वरूपी जीव को क्यों खण्डित करता है। जीवों कि सताने में ही तुम सुख लेते हो। यह जीव तो ईश्वर का ही रूप है तुम जीव को नहीं सता रहे हो, ईश्वर को हो सता रहे हो। वह तुम्हें कभी भी माफ नहीं करेगा उसका दुःखरूपी फल तो तुम्हें भुगतना ही पड़ेगा।

 अब तक तुमने तपस्या के बहाने इस जीव को ही सताया है। अब तुम क्षमा याचना करो। अपने किए हुए का पक्षाताप करोगे तभी मुक्त हो सकोगे जिस काया की तुम रचना नहीं कर सकते, उन्हें खण्डन करने का क्या अधिकार है ? इसलिए हे साधो। यह तुम्हारा पंथ सुपंच नहीं कुपंथ है। इस पंच से तुम पार नहीं उतर सकते।

 जिसने भी गुरु को नहीं पहचाना उसने मूल को नहीं सौंचा। केवल डाल पात तक हो सीमित होकर उस ब्रह्म एक अज को प्राप्त नहीं हो सकेगा। इस प्रकार से पृथक पृथक सारग्राही शब्द श्रवण करने पर योगी लोग कहने लगे

हे तात। किस प्रकार से हम लोग योगयुक्त होवें, किस प्रकार से श्री को प्राप्त करें। किस प्रकार से स्व स्वरूप का बोध कर सकें। वही मार्ग हमें आप बताइये श्री देवजी ने शब्द सुनाया

                         शब्द-39

ओइम् उत्तम संग सुसंगु, उत्तम रंग सुरंगू।

 उत्तम लंग सुलगु,उत्तम ढंग सुढ़ंगु।

 उत्तम जंग सुजंगू, तातें सहज सुलीलू।

सहज पंथ, मरतक मोक्ष दवारू।

 हे योग्यजनों । यदि संसार सागर से पार उतरना है, जीवन युक्ति एवं मुक्ति चाहते हैं तो सर्वप्रथम तुम्हारा कर्तव्य है कि संगति उत्तम पुरुष के साथ करना है। यदि जीवन में कुछ धारण करना है कुछ साख तो रंग उत्तम हो पढ़ना है। यदि संसार सागर से पार उतरना है तो पूर्णतया महासागर से पार उतर जाओगे। यदि जीवन का ढंग सीखना है तो उतम ढंग रहन-सहन व्यवहार हो सीखना है। यदि किसी से जंग भी करना है तो उतम जंग ही करें। ऐसा युद्ध करे जिससे तत्व की प्राप्ति हो जाये। ऐसी ज्ञान की वार्तालाप के जिससे पूर्ण जान की प्राप्ति हो सके। वही सहज में ज्ञान प्राप्ति का मार्ग है।

परमात्मा को लीला में रम जाना हो जीवन का आनन्द प्राप्त करना है। यही सहज में सुपंथ है। मार्ग हो सुपंथ है। सुपंथ का पथिक ही मोक्ष को प्राप्त करता है। इस प्रकार से शब्दों का श्रवण किया, मन का धोखा मिटाया और बिश्नोई पन्थ को उत्तम स्वीकार करके पन्थ में सम्मिलित हो गये।

जोगियों के प्रति शब्दोपदेश

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Sandeep Bishnoi

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