जम्भेश्वर भगवान शिशु अवस्था। समराथल धोरा कथा
शिशु अवस्था बाल सुलभ क्रियाओं द्वारा माता-पिता को आनन्दित करते हुए जब जसी बालक बड़े हुए तब बालकों के साथ खेलने के लिये जाते थे। वहां पा बालकों के साथ अनेकों क्रीड़ायें करते थे उसी समय ही एक बार सभी बालकों ने सिंह बकरी का खेल रचा। उसमें एक तो सिंह बनता दूसरे लोग बकरियां बना करते थे। सिंह ही बकरी पर हमला करता है बकरियां तो अपने प्राणों की रक्षा का उपाय करती है।
अपनी चतुरता से यदि सिंह से बकरी बच जाये तो सिंह विफल हो जाता है यानि हार जाता है। इसी खेल के अन्तर्गत जम्भदेव को सिंह बनने के लिये सभी बालकों ने एक स्वर से कहा तब जम्देव असली सिंह बन गये उनका वास्तविक सिंह का रूप देखकर बालक घबरा गये और हाथ जोड़कर कंपित स्वर से कहा कि कृपया हे वन देवता आप यहां से दूर चले जाइये आपको इष्टदेव परमात्मा विष्णु की आण है।
ऐसा कहते ही तुरन्त वह सिंह वहां से गायब हो गया। बालक भागकर अपने-अपने घरों को चले गये। जब जम्भ बालक घर पर नहीं पहुंचा तो माता-पिता बालकों से पूछने आये कि हमारा भोला बालक नहीं आया तभी सभी बालकों ने कहा कि हम तो सिंह-बकरी का खेल खेल रहे थे उसी समय जब तुम्हारे बालक की सिंह बनने की बारी आयी तो वह असली सिंह बनकर वन में चला गया है। झूठा ओलाणा हमें नहीं देना हमारा इसमें कोई दोष नहीं है।
उसी समय ही वन में पहुंच कर सिंह के बनावटी रूप को मिटा करके सम्भराथल पर जाकर ध्यान लगाकर बैठ गये, धीरे-धीरे प्राणों की गति को वश में करके मन को भी प्राणों में लीन कर लिया और अखण्ड समाधि को प्राप्त होकर स्थिर होकर बैठ गये। ऐसी स्थिति में देश, काल शरीर तथा शरीर के प्राणों के धर्म भूख प्यासादि से निवृत हो जाते हैं।
परम सत्ता के साथ एकरसता हो जाती है तो वहीं से जीवन ऊर्जा शक्ति का द्वार खुल जाता है अमृत रस में आनन्द विभोर होकर सांसारिक सुख और गतिविधियों को भूल जाते हैं ऐसी दशा को प्राप्त होकर जम्भदेव जी आसन लगाकर बैठ गये। पीछे पीपासर के सुविज्ञ जनों सहित लोहट जी ढूंढ़ते हुए सम्भराथल पर पहुंचे तो आसन लगाकर मूर्ति सदृश स्थिर भाव से बैठे हुए दिखाई दिये।
सभी लोग सहर्ष समीप जाकर समाधि टूटने की प्रतीक्षा में बैठे रहे। उन्हें भी प्रथम बार यह अनुभव हुआ कि इस भूमि की यह पवित्र देन है जो कि इस छोटे से बालक को भी समाधिस्थ कर दिया, हमें भी उसी आनन्द का अनुभव हो रहा है जिसको बड़े-बड़े योगी लोग भी समाधि अवस्था में अनुभव कर पाते हैं। उस बाह्य तथा आन्तरिक शून्यता में जब मानव की प्रवेशता से वहां का वातावरण कुछ हलचल को प्राप्त हुआ तो जम्भदेव जी की आंखें खुली, सभी ने एक स्वर से जय जयकार किया और जम्भ बालक सहित सभी वापिस पीपासर पहुंचे।
उपनिषदों में कहा है कि “एकाकी न रमते” एकोऽहं बहुस्यां प्रजायेय अर्थात् अकेले से तो खेल खेला ही नहीं जा सकता। इसलिए एक से बहुत हो जाऊं। उसी रमण की पूर्ति के लिये संवत् 1508 के उत्तर में इसी सम्भराथल को चयनित किया था। इस सम्पूर्ण संसार के जीव बकरियां ही है जो अहंकार के वशीभूत होकर मैं-मैं, मेरा-मेरा कहते हुए अज्ञानता के अथाह सागर में डूबे हुए है ये लोग कभी भी अपने असली स्वरूप को नहीं जान सकेगे जब तक उनका बकरी अपना, अज्ञानता मूलतः नष्ट न कर दिया जाय।
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इसको नष्ट करने के लिये तो सिंह ही हो सकता है, जो बकरीपने को खाकर दहाड़ सके इसी भाव को प्रगट करने के लिये जम्भदेव जी सिंह बने थे ताकि बकरी रूपी अज्ञानता से उत्पन्न अहंकारजन्य मैंपने को मिटाया जा सके। बाल्यावस्था से ही इसी बात का संकेत दिया था और बताया कि इसी परम दिव्य देव भूमि पर बैठकर मैं सिंह सदृश अज्ञानता रूपी बकरियों को भयभीत करके ज्ञान का संचार रूपी निर्भया को प्रदान करूंगा तथा उसका साधन मात्र होगा नाद शब्द विद्या।
जिस ऊर्जा शक्ति का संचरण सम्भराथल पर हो रहा है उसका पीपासर में संभव नहीं हो सकेगा। इसलिए यदा-कदा पीपासर से सम्भराथल पर आगमन होता रहता था। आगे भी समय-समय पर झुकाव सम्भराथल की तरफ ही अधिक रहा है।