समराथल कथा भाग 8
गुरु जम्भेश्वर जी सम्भराथल पर विराजमान होकर सदुपदेश द्वारा आगन्तुक जनों को पवित्र मानवता के धर्म से ओत-प्रोत कर रहे थे। उनकी वाणी में ऐसी दिव्य शक्ति थी जो किसानों द्वारा अबाध गति से हृदय स्थान तक पहुंच करके अन्त:करण को पवित्र करके हृदय को परिवर्तन कर देती थी। धीरे-धीरे यह अलौकिक आश्चर्ययुक्त घटना विस्तार को प्राप्त हो रही थी। ज्यों-ज्यों लोग यह वार्ता सुनते त्यों-त्यों ही जम्भगुरु जी की शरण में संभराथल पर तांता लगने लगा था।
उस समय आज की तरह आवागमन का साधन नहीं होने पर भी जम्भगुरु जी के शब्द गंगा-यमुना नदियों को पार करते हुए वर्तमान में स्थित उत्तर प्रदेशीय जन समाज तक पहुंचे थे। वहां के रहने वाले जागरूक लोगों ने यह वार्ता श्रवण की कि मरूदेश में कोई पुरुष प्रगट हुए है जो जीवन जीने की तो कला सिखाते है तथा मृत्यु पर मुक्ति प्रदान करते है तथा
उनकी शब्दवाणी अमोघ होती है जिसको भी एक बार कुछ कथन कर देते है वह कभी भी उस वार्ता को न तो भूल ही सकता है और न ही आनाकानी ही कर सकता। उसके जीवन को निश्चित ही सुधार देता है इसलिये जिसको भी शब्द श्रवण तथा दर्शन करना हो, अपने जीवन का कल्याण करना हो वह अतिशीघ्र मरूप्रदेश सिद्धथल सम्भराथल पर सहर्ष पहुंचे।
इस प्रकार से एक दूसरे से वार्ता श्रवण करते हुए वहां के जागरूक नागरिकों की जमात ने वहां से प्रस्थान किया। अपनी मातृ भूमि, देश, परिवार, भाई बन्धुओं को छोड़कर इस जीव की भलाई के लिये वे लोग अनेकों कष्टों का सामना करते गंगा तथा यमुना नदी को पार करके दिल्ली में यमुना के किनारे पर अपना आसन लगाया था। वहीं पर सभी देवतुल्य सुन्दर मानव शांत चित से यमुना में स्नान करके हवन कर रहे थे तथा उच्च स्वर से शब्दवाणी वेद मन्त्रों का पाठ कर रहे थे
उसी समय ही हासम-कासम नाम के दो दर्जी सभी पंथ मत मतान्तर के जाल से ऊपर उठकर सत्य ज्ञानमागी थे, उन्होंने इस प्रकार का शुद्ध आचार-विचार देखकर पूछ ही लिया कि आप लोग कौन हैं संभराथल और कहां जा रहे हैं। तब उन भद्र पुरुषों ने अपना वृतान्त सुनाया और उनसे कहा कि यदि तुम भी अपनी भलाई चाहते हो तो हमारे साथ में चल सकते हो।
हमारे यहां पर सच्चे दरबार में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है। तब हासम-कासम ने कहा कि हम इस समय साथ में तो नहीं चल सकते किन्तु एक रूपया पल्ले से खोलकर देते हुए कहा कि यह हमारी तुच्छ भेंट वहां तक अवश्य ही पहुंचा दीजिये और हमारी सुधी मात्र दिला दीजिये। तथा वापिस आते समय कृपा करके हमें जम्भदेव जी की आज्ञा बताते जाइयेगा।
रात्रि में निवास वहां पर करने के पश्चात् दूसरे दिन प्रात: काल ही वहां से चल पड़े तथा एक-दो रात्रि बीच में व्यतीत करके नागौर से पूर्व एक गोठ मांगलोद गांव में पहुंचे वहां पर एक महमाई देवी का मन्दिर था तथा एक स्वच्छ तालाब के किनारे अपना डेरा लगा लिया था। नित्यप्रति की भांति उसी दिन भी स्नान, संध्या ध्यान हवनादिक शुभ नित्य कार्य कर रहे थे कि उसी समय महमाई का पूजारी ऊदो भक्त तालाब से पानी लेने आया था।
उन्होनें जमात को इस प्रकार से देखा तो सोचा कि ये तुम्हारे ही मन्दिर में पूजा करने के लिये यात्री आये हैं। किन्तु उन लोगों ने न तो ऊदे पुजारी की तरफ ही ध्यान दिया और न ही मन्दिर की तरफ भी। तब हैरान होकर ऊदे ने पूछ ही लिया कि आप लोग मन्दिर में पूजा करने क्यों नहीं गये। तब उन लोगों ने बताया कि हम लोग तो तुम्हारे मन्दिर के पुजारी नहीं हैं हम तो सम्भराथल पर स्थित जम्भदेव जी के शिष्य हैं
उनके पास ही जा रहे हैं तथा तन, मन, धन सभी कुछ उन्हीं के अर्पण करके जीया न युक्ति और मुवा ने मुक्ति प्राप्त करेंगे, यदि तुम्हें भी ये पवित्र वस्तु चाहिये तो हमारे साथ में चलो। ऊदा भक्त कहने लगा कि ये चीजें मेरी माता यदि आप लोगों को दे तो फिर तो वहां पर नहीं जाओगे यदि ऐसी बात आप लोग यहीं ठहरना।
ऊदा मन्दिर में पहुंचा वहां जाकर अनेक प्रकार से देवी को प्रसन्न करने की कोशिशें की किन्तु वहां पर देवी कहां थी। वह तो कोई प्रेत था जो अपनी पूजा करवा रहा था। उस प्रेत ने प्रगट होकर कहा कि मेरे पास न तो युक्ति है और न ही मुक्ति बल्कि इसके विपरीत मैं जीवन को दुःखमय बनाकर नरक का अधिकारी तो बना ही सकता हूं यदि ये बातें उन्हें स्वीकार हो तो उनको यहां पर ले आना नहीं तो ऊदा भक्त तूं उनके चक्कर में नहीं पडना।
वे लोग अपने वश के नहीं है ऐसे लोगों से तो दूर ही अच्छा है तथा उनको यहां से जाने देना ही अच्छा है नहीं तो यहां पर अपने दोनों की जमी-जमायी दुकानदारी फेल हो सकती है।
भजन: ईश्वर को जान बन्दे, मालिक तेरा वही है। (Ishwar Ko Jaan Bande Malik Tera Wahi Hai)
मंत्र: अलसस्य कुतः विद्या (Alasasya Kutah Vidya)
सच्चे मन से माँ की, ज्योत तुम जगाओ: भजन (Sacche Man Se Maa Ki Jyot Tum Jagao)
इस प्रकार से ऊदे ने पहली बार असलियत को जाना था और निराश होकर अपने पाखण्डमय जीवन पर पश्चाताप करता हुआ लम्बी-लम्बी सांसें छोड़ता हुआ जमात के साथ ही सम्भराथल पर पहुंचा था। वहां पर जम्भदेव जी विराजमान थे। संत मण्डली समीप में बैठी हुई दिव्य ज्योति को आत्मसात् करते हुए शब्द श्रवण कर रही थी। उसी समय उत्तर प्रदेशीय जन समुदाय भी पहुंचा था और अपनी-अपनी दिव्य भेंट चढ़ाते हुए दर्शन करते हुए दूर बैठ जाते थे इसी क्रम में सबसे पीछे ऊदे की भी बारी आ गई थी किन्तु संकोचवश ऊदा सामने आकर भेंट चढ़ाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था।
तब जम्भदेव जी ने कहा-ऊदा सामने तो आओ, अपनी प्रेम की भेंट तो चढ़ाओ किन्तु ऊदा भेंट तो कुछ लाया भी तो नहीं था, मार्ग में आते समय दो पैसे की खली ही तो मिल पाई थी। उसको कैसे चढ़ा पाता लेकिन अब तो भेद खुलने ही वाला था, कब तक छुपा कर रखी जा सकती थी। ऊदे ने हाथ को आगे बढ़ाया था तो कहते हैं “कंचन पालट कीयो कथीरो, खल नारेलो गीरियो” अभिमानपूर्वक चढ़ाया गया सोना तो वहां पर कथीर हो जाता है और प्रेमपूर्वक समर्पण की हुई खली तो नारियल हो जाती है।
इस प्रकार के आश्चर्य को प्रथम बार ऊदे ने प्रत्यक्ष देखा था। फिर ऊदे से कहा कि भाई कुछ भजन आदि गा करके सुनाओ क्योंकि तुम पुजारी हो। ऊदे ने कहा कि प्रभु मैं तो माता का भजन ही जानता हूं, पिता का तो कुछ भी नहीं जानता। तब ऊदे के सिर पर हाथ रखा जिससे आनन्द के अनुभव की धारा-प्रवाहित होने लगी। तब ऊदे ने अनेक साखियां आरतियां गाकर सभासदों को सुनाई। फिर ऊदे सहित सभी जमात ने पाहल ग्रहण करके बिश्नोई पंथ को स्वीकार किया।
तब एक दिन ऊदो कहने लगा-हे प्रभु! मै अब एक बार पुनः अपने गांव जाकर अपने परिवारजनों को भी बिश्नोई बनाने के लिये आपकी शरण में लाना चाहता हूं किन्तु मुझे अब भी उस प्रेत
का भय लगता है आप कृपा करके कुछ वरदान दीजिये। तब जम्भदेव जी ने उसके प्रति शब्द नं. 97 “विष्णु-विष्णु तूं भणि रे प्राणी, जो मन माने रे भाई”
यह शब्द श्रवण करवाया और वहां से विदा करते हुए कहा कि जब भी तुम्हें डर-भय लगे तो इस महामंत्र को स्मरण कर लेना, तेरे सभी भय निवृत्त हो जायेंगे।
इस प्रकार से ऊदो भक्त वापिस घर पहुंचा था और अपने कुटुम्बियों को लाकर बिश्नोई बनाया था। जमात के लोग भी कुछ दिन वहां पर रहने के पश्चात् वापिस दिल्ली में हासम-कासम को जम्भगुरु जी का संदेशा देकर अपने-अपने घर पहुंचे। हासम-कासम को सिकन्दर लोदी ने जेल में डाल दिया था तथा उनके सामने गोस्त डाल दिया था और कहा कि इन काफिरों को इनके देवता स्वयं आकर छुड़वायेंगे तभी मैं छोडूंगा। इस प्रकार से विपत्ति में फंसे हुए हासम-कासम को जम्भदेव जी ने स्वयं दिल्ली जाकर सिकन्दर लोदी को सचेत करके छुड़वाया था। शब्दवाणी में कहा भी है “जम्बू दीप ऐसो चर आयो सिकन्दर चढ़ायो. मान्यो शील हकीकत जाग्यो हक की रोजी धायो”