सबदवाणी तथा समराथल …….(:- समराथल कथा भाग 13 -:)
इस समय प्रामाणिक रूप से प्राप्त जितने भी शब्द गुरु जम्भेश्वर जी ने उच्चारण किये थे उनमें अधिकतर इसी समय दिव्य सर्वोच्च थल के ऊपर हरि कंकेहड़ी के नीचे विराजमान होकर ही किये हैं। इसी थल की कुछ ऐसी ही महिमा थी कि दूर से आने वाला व्यक्ति क्रोधित होकर सर्वनाश की भावना लेकर अपने घर से प्रस्थान करता था किन्तु यहां सम्भराथल की सीमा में प्रवेश करता था तो कुछ नरम शीतल स्वभाव वाला हो जाता था धीरे-धीरे ज्यों-ज्यों ऊपर चढ़ता जाता था त्यों-त्यों ही उसका सम्पूर्ण क्रोध तथा दुष्ट विचार स्वत: ही समाप्त हो जाया करता था।
पतंजलि ने कहा है कि “अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सम धौ वैर त्यागः” जो भी योगी अहिंसा में प्रतिष्ठित हो जाता है वह तथा उसके समीपस्थ सभी प्राणी आपस में वैरभाव भूल जाया करते हैं। ऐसी दशा सम्भराथल की थी। वहां पर आने वाला व्यक्ति सर्वथा बैरभाव भूलकर मैत्री भाव अपना लेता था और इस प्रकार से द्वैष भाव रहित जन का अन्त:करण पवित्र हो जाता था तब उसको शब्दवाणी का उपदेश दिया जाता था उसको वह सहर्ष स्वीकार करके कृतकृत्य होकर वापिस घर लौटता था।
इस प्रकार से नित्यप्रति अनेकों घटनायें घटित होती थी आज भी वहां की वृक्षावली तथा वह बालुकामय पवित्र धरती साक्षी रूप से विद्यमान होकर आगन्तुक जनों को उस स्मृति का आभास कराती हुई मालूम पड़ती है।
समराथल धोरा के सम्बन्ध में सं. 1500 से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक गुरु जम्भदेव जी समकालीन प्रमुख घटनाओं का यहां तक सूक्ष्म विवेचन किया गया है। जो कुछ भी उस परम पवित्र भूमि की महत्ता के बारे में लिखा गया है वह इतना ही नहीं है, इससे आगे भी बहुत कुछ कहा जा सकता था किन्तु अब इस समय इतना कहना लिखना ही पर्याप्त होगा। जम्भेश्वर जी का सम्पूर्ण जीवन चरित्र तथा सम्भराथल की महिमा आपस में ओतप्रोत हो चुकी है।
यदि हम सम्भराथल पर पूर्णतया विचार करते हैं तो जम्भेश्वर जी का चरित्र सामने अनायास ही प्रस्तुत हो जाता है और यदि हम जम्भेश्वर जी के जीवन चरित्र सम्बन्ध में कुछ ज्ञान करना चाहते हैं तो सम्भराथल स्वतः प्रगट हो जाता है।
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अपरा / अचला एकादशी व्रत कथा (Apara / Achala Ekadashi Vrat Katha)
परमात्मा विष्णु स्वयं दिव्य हैं, उनके अवतार भी तो उनसे ही अधिक विशेषता से युक्त होंगे क्योंकि जो वस्तु शक्ति देश काल परिस्थितियों अनुसार लाल कर सामने आयेगी, वह तत्काल के लिये अति शक्तिशाली तथा उतनी ही सदुपयोगी हो सकेगी तथा विष्णु स्वयं तथा अवतार रूप में ऐसे ही बिरले होते हैं। इसलिये वही कौतुकी विष्णु जिस स्थल पर इतने लम्बे समय तक निवास करेंगे उस थल की महिमा का भी तो अन्त पार कैसे हो सकता है इसलिये सम्भराथल के सम्बन्ध में अनगिनत दिव्य छोटी-मोटी घटनायें साहित्य संतों द्वारा ज्ञात भी छूट चुकी है
और कितनी ही घटनायें जो इस समय जानने का हमारे पास कोई साधन न होने से छूट गई है। पांच सौ वर्षों का अन्तराल हो चुका है। इतना लम्बा समय बीत जाने पर अलिखित घटनायें इस समय जानना अति कठिन ही मालूम पड़ती है। अतः जो कुछ भी लिखा गया है इतना ही अन्त नहीं है इससे आगे भी बहुत कुछ है वह तो एक जिज्ञासा बढ़ाने के लिये प्रयास मात्र ही है।