सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र भाग 3
क्योंकि वह जीव मेरा तेरा कुछ भी नहीं था। जो था अब भी है, फिर रहेगा सदा अजर अमर अविनाशी के लिए रोना कहाँ तक उचित्त है?
चलू. .अपना कर्त्तव्य निभाओ। इस मेरे शरीर से उत्पन्न हुआ यह शरीर पड़ा हुआ है, इसकी दुर्गति हो रही है। इसे ले जाकर गंगा में प्रवाहित कर दूं। मेरे पुत्र के शरीर की दुर्गति हो रही है, जिसको कंधा देने वाले इस अपरिचित जगह पर कोई नहीं है। कौन दुखियारी दासी के बेटे को श्मशान तक ले जाने के लिए सहयोग करेगा? ऐसी विपत्ति की घड़ी में भगवान ही एकमात्र सहारा है। स्वयं ही अपने ऊपर विश्वास करूं, ईश्वर ही मात्र अपना है। ऐसा कहते हुए मृत शरीर को कंधे पर उठाया और श्मशान भूमि पर चली।
कुल-देवता भगवान सूर्य भी अस्ताचल हो गये हैं अन्यथा अपने कुल की दुर्गति देखकर दो आँसू तो अवश्य ही बहाते। विश्वामित्र ने देखा- यह रानी चली है बेटे का अन्तिम संस्कार करने के लिए। देखता हूँ कि किस प्रकार से अन्तिम संस्कार कर पाती है। तारा अपने पुत्र के शरीर को कंधे पर उठाये हुए एक एक कदम आगे बढ़ी संध्या वेला में वहाँ पर पंहुची थी। हरिश्चन्द्र पहरा दे रहे थे।
हरिश्चन्द्र आवाज लगाते हैं कि कोई भी व्यक्ति बिना कर दिए मुर्दे का संस्कार न करें, नदी में न बहाएं, किनारे पर त्याग न करें और न ही जलायें। यहाँ का मालिक कालू स्याह है। मेरे मालिक की सख्त आज्ञा है, इसका पालन करें अन्यथा दण्ड दिया जायेगा।
तारादेवी ने सना कि यहाँ पर भी मृत शरीर का संस्कार करने के लिए कर चुकाना होगा। चुपके से छुपकर यदि मैं कोई अनहोनी बात करती हूँ तो यह तो चोरी कही जाएगी। यह कार्य मेरे पतिदेव तथा हमारे कुल परिवार के लिए ही होगा। हमें अपने धर्म में अडिग रहना चाहिए। विपत्तिकाल में ही तो धर्म की परीक्षा होती है। यह आवाज देने वाला यहाँ आकर मांगे तो मैं क्या दूंगी? मेरे पास देने को तो कुछ नहीं है।
यहाँ पर पहरेदार तो मेरे पतिदेव ही होंगे, वे क्या मेरे से पैसे मांगेगे जैसा यह मेरा पुत्र है वैसा इनका भी तो है। अपने ही पुत्र का स्वयं ही कर मांगे यह कैसे हो सकता है? इस प्रकार से श्मशान भूमि में बैठी हुई तारा विचार कर रही थी।
हरिश्चन्द्र जिनका दुबला शरीर, हाथ में डण्डा लिये हुए मात्र एक धोती पहनी हुई खबरदार कहते हुए वहाँ आ गये। हरिश्चन्द्र ने देखा- एक महिला बैठी हुई अपने भाग्य को रो रही है। पास में लाश पड़ी हुई है। कौन होगी यह अभागिन ! कौन है इसके पास? जरा पास में जाकर पता करूं? बेचारी इस दुखिया की सहायता करें?
हरिश्चन्द्र ने पास में जाकर पूछा- हे देवी! तुम कौन हो जो इस प्रकार भयंकर दुःख में पड़कर यहाँ इस समय भयंकर श्मशान भूमि में आयी हो। यहाँ तो रात्रि में भूत-प्रेत नृत्य करते हैं। जंगली जानवर रात्रि को आते हैं. बिखरी हुई हड्डियां चबाते हैं। यहाँ का दृश्य रात्रि में भयंकर हो जाता है। अंधकार का सन्नाटा छा जाता है। यहाँ तो कोई तब ही आता है जब इनका कोई प्रियजन मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।
मैं तो यहाँ रात-दिन पहरा देता हूँ, मेरे मालिक का खरीदा हुआ दास हूँ, मेरा अपना कोई स्वतंत्र जीवन नहीं है। मेरे मालिक की आज्ञानुसार मुझे जीना होता है। अब तुम अपना परिचय दो कौन हो? यहां पर क्यों आयी हो? अवश्य ही तुम्हारे पास मृतक शरीर है।
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यहाँ तो रोज न जाने कितने शरीर आते हैं और भस्मी भूत होते हैं। क्या इस शरीर का कोई सगा सम्बन्धी-भाई-बन्धु जन नहीं है। जिससे तुम्हें लेकर यहाँ तक आना पड़ा। देवी! अतिशीघ्र ही मुझे कर चुकाओ और बालक के शरीर को गंगा में प्रवाहित करके वापिस लौट जाओ। रात्रि घनी होती जा रही है।
तारा ने पहचान लिया कि यह मेरे पति हैं। प्रकट में कहने लगी- मेरे सर्वस्व ! आप अनजान व्यक्ति जैसी बातें क्यों करते हैं,मैं तो तुम्हारी प्राणवल्लभा रानी तारामती हूँ। यह मृत पड़ा हुआ शरीर और कोई नहीं है आपका प्यारा पुत्र रोहिताश्व है। इसको संस्कार करने के लिए गंगा किनारे लेकर आयी हूँ। इसे तो काला डस गया। देखते हो रंग नीला हो गया है। अब आपका इकलौता बेटा संसार में नहीं है। आप मुझसे कर मांग रहे हो, मेरे पास देने को कुछ भी नहीं है जो मैं आपके स्वामी का कर-धन दे सकूं।
हे देव! जैसा मेरा पुत्र है, वैसा आपका भी तो यह पुत्र है। फिर भी आप मेरे से कर माँग रहे हैं। मेरे तो इसके कफन के लिए भी पैसे नहीं है। यह शरीर बिना कफन के ही है। हे देवी! मैनें माना कि तुम मेरी अद्धांगिनी हो, और यह मेरा प्रिय पुत्र है किन्तु इस समय मैं धर्म से बंधा हुआ हूँ, न तो मैं तेरा पति हूं और न ही रोहिताश्व का पिता, मैं तो केवल दास मात्र हूँ। दास की स्वतंत्र विचार धारणा नहीं होती। जो मालिक का आदेश होगा, वही पालनीय होता है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकता।
हे देवी! आप मुझे अपने धर्म से मत डिगाओ। मेरे मालिक का वचन है कि-किसी से बिना कर लिए छोड़ना मत। मुझे इस वचन का पालन करना है, चाहे मेरे प्राण भी चले जाये तो परवाह नहीं है। धर्मो रक्षति रक्षितः हम धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म हमारी रक्षा करेगा। इसलिए अतिशीघ्र ही कर चुकाओ और अपने पुत्र का संस्कार कर दो। मेरे पास कुछ देने को नहीं है, आप बिना कुछ लिए संस्कार करने नहीं देंगे। अब क्या होगा?
हे नाथ! आप ही हमारे धर्म की रक्षा कर सकेंगे अब हमने तो सम्पूर्ण जीवन का भार आपके कंधे पर डाल दिया है। हे जगद् के स्वामी विष्णु! हमने अपनी ताकत को पूरी लगा दी किन्तु विपत्ति में दिनों दिन फंसते ही गये हैं। अब तो आप ही हमारी नैया खेवणहार हो। आपके अतिरिक्त और तो कोई भी हमें सहायक दिखाई नहीं देता। सभी अपने पराये बंधन में फंसे हुए है, स्वयं बंधा हुआ व्यक्ति दूसरे के बंधन को कैसे काट सकता है। हे देव! आप ही हमारे सर्वश्रेष्ठ जीवन के आधार है। कृपा कीजिये? डूबती नैया को पार लंघा दीजिये।
विश्वामित्र ने देखा कि यह तारादेवी तो भगवान विष्णु को याद कर रही है। कहीं ऐसा न हो कि भगवान स्वयं आ जाये और इनका उद्धार कर दे तो मेरी योजना धरी की धरी रह जायेगी। अतिशीघ्र यहाँ से चले और परीक्षा की अन्तिम विधि पूरी कर लूं। ऐसा विचार करते हुए अतिशीघ्र हो काशी के राजा के
पास पंहुचे और कहा- हे राजन! तुम्हारे राज में बड़ा ही अन्याय हो रहा है। एक डायन श्मशान भूमि में बैठी हुई एक बच्चे की लाश को खा रही है, कोई भी इस अन्याय को रोकने वाला नहीं है। कितने बच्चों की माँ रोती विलखती है, किन्तु यहाँ तो कोई सुनने वाला ही नहीं है। आप स्वयं चलिये, जाकर देखिये,मैं अभी देखकर आया हूँ।
राजा ने आज्ञा दी कि श्मशान भूमि का मालिक जो वहाँ पर कर लेता है, उसे जाकर आज्ञा प्रदान करो कि उस डायन का काम तमाम कर दे। वह डायन जीवित नहीं रहनी चाहिए। यह राजाज्ञा उस डूम से जाकर कह दो। राजसेवकों ने ड्रम राज से राजाज्ञा कही। ड्रम ने तुरंत अपने दास हरिश्चन्द्र को आज्ञा दी कि. यह मेरी आज्ञा है कि जो डायन शमशान भूमि में बैठी हुई है, उसे मार दे। अपने स्वामी की आज्ञा हरिश्चन्द्र ने सुनी और तुरंत खड़ग हाथ में लेकर तारा को मारने के लिए तैयार हो गये।
तारा ने कहा- जल्दी कीजिये। स्वामी जल्दी कीजिए! मुझ दुखियारी को मारकर अपना धर्म निभाये।मरने का मुझे कुछ भी दुःख नहीं होगा। अपना राज, पति, पुत्र सभी खोकर अब संसार में जीना नहीं चाहती। हे मेरे स्वामी ! मैनें तो अब सभी संसार से नाता तोड़कर, एक ही श्रीपति लक्ष्मी भगवान विष्णु से नाता जोड़ लिया है, अब मुझे कुछ भी भय नहीं है। मैं अपने धर्म पर अडिग रही हूँ, भी धर्म को मत छोड़िये।
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