संत साहित्य ..(:- समराथल कथा भाग 15 :-)

jambh bhakti logo
संत साहित्य ..(:- समराथल कथा भाग 15 🙂
समराथल कथा
समराथल कथा

साहित्य के क्षेत्र में गुरु जम्भेश्वर जी के कुछ ही वर्षों के पश्चात् संत शिरोमणि वील्होजी का आगमन होता है। उन्होनें साहित्य का निर्माण करते हुए समाज सुधार का बीड़ा उठाया था। उस कार्य के लिये जोधपुर राजा से सहायता प्राप्त करके पुनः धर्म मार्ग पर चलाने का कार्य किया था तथा समाज में टूटती हुई मर्यादा को पुनः जोड़ने का कार्य किया था।      

वील्हाजी को भी सर्वप्रिय स्थल यदि कोई संसार में नजर आया तो यह एक मात्र सम्भराथल ही था। उन्होंने कहा है “संभराथल रलि आवणो जित देव तणो दिवाण” अर्थात् सम्भराथल भूमि को देवभूमि स्वीकार किया है और उसी पर अपनी श्रद्धा नियोजित करके अपने को धन्य मानते हैं तथा अन्य भी प्रसिद्ध बिश्नोई कवियों ने भी अपनी रचना में संभराथल का नाम बड़े ही आदर के सहित लिया है।

वील्होजी के परम शिष्य केशोजी ने भी यही कहा है-“आप लियो अवतार, साम्य संभराथल आवियो, सम्भराथल जाग जगावन को” तथा अन्य कवि आलम जी ने कहा है-“सो संभरि सो मथुरा द्वारिका, सब रंग जंभ अचंभ” तथा कवि रायचन्द जी ने भी कहा है- “साथरी गुरु की वन संभरथलि, जहां खेल पसारिये”।    

साखियों तथा छन्द हरिजस कथाओं का अध्ययन करने से ऐसा मालूम पड़ता है कि उस समय के विद्वान सुविज्ञजन सम्भराथल पर जाकर दर्शन निवास करने के लिये अति आतुर दिखलाई पड़ते है किन्तु परिस्थितिवश वहां पर पहुंच जाने पर भी निवास करने में असमर्थ ही पाते हैं। वे कहीं पर भी दूर देश या समीपस्थ में रहें, उनका मन पंछी तो हमेशा सम्भराथल के आसपास में ही मंडराता नजर आ रहा है।

जब भी कभी कविता का भाव हृदय में उमड़ता है तो अनायास ही सम्भराथल पर जाकर केन्द्रित हो जाता है। बार-बार अन्य विषयों पर ले जाने की कोशिश की जाती है परन्तु सफल नहीं हो पाते। इसी भाव को रामोजी ने साखी के द्वारा प्रगट किया है। यथा-“जां थलियां देव जी भंवरो अवतरयो, जां थलिये छै गाढ़ो नूर । भक्तां रे मन चांदणो दिल मां ऊगो सूर।।”  

यह संवत् 1600 से 2000 तक का युग आर्थिक दृष्टि से भले ही कमजोर रहा हो, धार्मिक स्थानों की उन्नति न हो सकी किन्तु धर्म कर्म तथा साहित्य की रचना की दृष्टि से तो अति उत्तम युग कहा जा सकता है। जितने कवि साहित्यकार संत इस युग में हुए हैं उतने आज भी नहीं हो पा रहे हैं। हम भले ही शिक्षित होने का दावा कर सकते हैं, शिक्षित होना एक बात है साहित्यकार तथा धर्म कर्म के प्रति सजग होकर पालन करना दूसरी बात है। जो भी उस समय लिखा गया वह आधुनिक युग के लिये प्रामाणिक है।

यह तो सृष्टि का नियम ही है कि कभी किसी वस्तु विशेष या स्थान विशेष की उन्नति होती है और कभी अवनति भी तो हो जाती है। कहा भी है-“ऊजड़ वसा से ऊर्जा का शहर करे दोय घरियो जीवनै” (साखी) तथा शब्दवाणी में भी कहा है-“जो चित्त होता सो चित्त नाहीं, भल खोटा संसारूं” इसलिये यह महाकाल किसी को भी स्थिर नहीं रहने देता है। सभी कुछ परिवर्तनशील है ऐसे परिवर्तन के चक्र में सम्भराथल भी यदि आ जाये तो आश्चर्य ही क्या है।      

श्री बृहस्पति देव की आरती (Shri Brihaspati Dev Ji Ki Aarti)

तेरी मुरली की मैं हूँ गुलाम - भजन (Teri Murli Ki Main Huun Gulaam Mere Albele Shyam)

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 23 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 23)

भूतकाल की बातें जानने के लिये हमारे पास इतिहास ही आंखें होती हैं। यदि वे आंखें हमें सुलभ न हो सके तो फिर मात्र एक मन ही सहारा रह जाता है। चूंकि मन तो अपना-अपना निजी धन है वह तो कैसे भी देख सकता है तथा अपना अनुभव कल्पना के माध्यम से प्रगट करता है। इसलिये सभी की कल्पना भी तो सदृश नहीं हुआ करती है। इसलिये सं. 1600 से 2000 तक का सम्भराथल के सम्बन्ध में इतिहास नहीं प्राप्त हो रहा है।

कुछ विशेष घटनायें घटित यदि हुई भी होगी तो भी तत्कालीन शून्यता में ही विलीन हो गई। किसी के कानों में प्रवेश करके आगे प्रसारित न हो सकी।    यहां पर इन चार सौ वर्षों के बारे में यत्किञ्चित कहने की कोशिश करना तो अन्धकार में से कोई वस्तु को खोज करके लाने जैसा ही है। फिर भी जो कुछ कहा गया है इसमें अनुमान ही प्रमाण है। क्योंकि कार्य को देखकर कारण का अनुमान किया जा सकता है और वह अनुमान सत्य भी होता है। इस कार्य रूप हेतु को हम सं. 2000 के प्रारम्भिक काल में देख सकते हैं जो एक शिला लेख से प्राप्त होता है।  

समराथल कथा भाग 16

Picture of Sandeep Bishnoi

Sandeep Bishnoi

Leave a Comment