श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान की बाल लीला भाग 5

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श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान की बाल लीला भाग 5

श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान की बाल लीला भाग 5
श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान की बाल लीला भाग 5

 श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान की बाल लीला भाग 5 : पुरोहित के सभी प्रयत्न विफल हो गये, प्रयत्न करने पर भी जनेऊ नहीं डाल सका। पुरोहित ने ध्यान में देखा तो शरीर में हाड, माँस आदि धरती एवं जल के तत्व नहीं है। केवल वायु, आकाश एवं तेज तत्व से निर्मित शरीर को देखा। विचार किया कि इस शरीर पर जनेऊ पहनायी नहीं जा सकती। इस पृथ्वी तत्व से बनी जनेऊ को धारण करने वाला शरीर भी तो पृथ्वी तत्व का ही होना चाहिए।

पुरोहित चुपचाप उठकर घा की तरफ चला, उपस्थित लोग हँसने लगे। पुरोहित का अँहकार गिर गया। शिष्य बनाने आया था किन शिष्य बनकर घर की तरफ चला। उस दिन से लोहट एवं पींपासर के लोगों का ब्राह्मण के प्रति अश्रद्धा का भाव हो गया।

वील्हा ने पूछा- हे गुरुदेव! आप यह कृपा करके बतलाइये कि जाम्भोजी महाराज ने पुरोहित से जनेऊ धारण क्यों नहीं किया? यह तो हिन्दू धर्म के मुख्य संस्कारों में आता है ! जाम्भोजी तो हिन्दू धर्म को मर्यादा के रक्षक थे फिर उन्होनें स्वयं ही मर्यादा भंग क्यों की? इसमें अवश्य ही कुछ राज होगा।

 नाथोजी बोले- हे शिष्य! सर्वप्रथम तो यह विचारणीय विषय है कि जनेऊ का क्या अर्थ है। जनेऊ संस्कार को उपनयन कहते हैं। इसका सीधा सा यही अर्थ है कि उप-समिप,नयन-लाना अर्थात् आत्मा को परमात्मा के निकट लाना। जो परमात्मा से अभी दूर है उसे निकट लाया जा सकता है,

किन्तु जो परमात्मा के अति निकट है या स्वयं ही परमात्मा स्वरूप है उसे निकट लाने का कोई अर्थ नहीं है। पीसे हुए को दुबारा क्या पीसना? साधारण व्यक्ति जो अभी परमात्मा से दूर है उसे ही यह निकट लाने के लिए यह उपनयन संस्कार है।

जब विप्र जनेऊ धारण कर लेता है तो वह अहंकार को स्वीकार कर लेता है मैं ब्राह्मण हूं अर्थात् सर्वोत्तम हूँ, इस प्रकार की भ्रान्ति को स्थान देता है जो एक साधक के लिए प्रतिकूल है। इसे अस्वीकार करने का अर्थ है कि मैं भी इन सामान्य पुरुषों की तरह एक मानव तनधारी जीव हूँ। सभी में समता की दृष्टि का प्रचार प्रसार होगा जिससे ज्ञान की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होगा।

गले में सूत का धागा डालना तो बंधन स्वीकार कर लेना है यह जीव तो सदा मुक्त अविनाशी है इसे बन्धन में डालने की प्रक्रिया जाम्भोजी को कतई स्वीकार नहीं है उनका आने का प्रयोजन तो जीवों को मुक्ति प्रदान करना है। जाम्भोजी ने इस प्रक्रिया द्वारा यह बतलाया है कि अब तुम लोग जन्म जन्मान्तरों के बन्धन से मुक्त हो जाओगे, अब तुम्हें गले में फांसी डालने की आवश्यकता नहीं है इतने जन्मों तक डाली गयी है इसलिए तो तुम जन्म मरण के चक्कर में चल रहे हो।

अब मैं तुम्हें मुक्त कर दूंगा। यह तीन धागों वाली जनेऊ, तीन देवता, तीन गुणों की प्रतीक है इसे धारण करें किन्तु जाम्भोजी का कहना है कि तीन देवता को बाह्य मत समझो, ये तीनों तो मेरे ही स्वरूप है। मैं ही विष्णु स्वरूप होकर पालन-पोषण करता हूँ ब्रह्मा रूप होकर सृष्टि की उत्पति करता हूँ और शिव रूप होकर सँहार भी करता हूँ।

हे जीवों! तुम तीनों देवता स्वरूप हो, तुम्हारे से ये भिन्न नहीं है, वे तो तुम्हारे रग- रग में समाये हुए हैं। इसलिए तो तुम लोग जब सत्व गुण सम्पन्न होते हो तो विष्णु बन जाते हो, पालन-पोषणकर्ता स्वयं शांत स्वरूप। जब रजोगुण में स्थित होते हो तो ब्रह्मा बन जाते हो। उस समय सृष्टि के उत्पतिकर्ता तुम बन जाते हो तथा तमोगुण में होते हो तो शिव बन जाते हो जो स्वयं विनाशशील हो जाते हो।

ये तीनों देवता तुम्हारे अन्दर ही है। तुम्हीं तीनों देव तीनों गुणों से युक्त हो यह तुम्हें समझना है। केवल बाह्य दिखावे मात्र से कुछ भी नहीं होगा।

छः अंगुल ओछी हो जाती है, इसमें भी बहुत कुछ रहस्य भरा हुआ है। हमारे यहां छः आस्तिक दर्शन प्रसिद्ध है वे है छः दर्शन ईश्वर, जीव एवं जगत के बारे में बताते हैं। अंगुली द्वारा बताया कि यह तुम्हारा मार्ग है, इस मार्ग से चलिये तो पंहुच जाओगे। तुम्हारी यह जनेऊ हमारे दर्शन शास्त्रों के सामने बहुत ही छोटी पड़ जायेगी।

यहां तो कुछ भी संकेत नहीं देती है जो स्वयं ही ढकी रहती वह दूसरों के क्या मार्गदर्शक बन सकेगी? दर्शनशास्त्र कहीं ज्यादा श्रेष्ठ है इस बात को प्रगट करने के लिए छ: अंगुल जनेऊ छोटी पड़ जाती है।

पुरोहित स्वयं को ज्ञानी समझकर पीपासर के स्त्री पुरुषों के सामने अपनी औकात बता रहा था। किन्हु उनकी सभी क्रियाएँ असफल हो गयी थी, जिससे ज्ञान का अँहकार गिर पड़ा था। पंडित का लज्जित होना तो स्वाभाविक ही था। अपने जीवन में प्रथम बार ही इतने लोगों के सामने अपनी असफलता देख रहा था।जिसको देखकर ग्रामीण लोग हँसने लगे थे।

 ये लोग यह बता रहे थे कि हे पुरोहित ! अब तेरा पाखण्ड जाल यहाँ पर सफल नहीं होगा। हमें तो वह परिपूर्ण परमेश्वर मिल गया है हमें किसी प्रकार का भय नहीं है। हम निर्भय होकर हंसते हैं। हरष न खोइये, सदा खुश रहिये। हर प्रकार की परिस्थिति में हमें खुशी रहना हमें सिखा दिया है। इसलिए हम | तो सदा ही सुख-दुःख में हँसते रहते हैं।

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 उस दिन पीपासर के ग्रामवासियों ने ब्राह्मण को मानना छोड़ दिया, क्योंकि अब वो जान गये थे बिना जाने केवल मानना तो अंधरे में लठ पटकना है। अब तो प्रकाश हो चुका था अज्ञान अँधकार निवृत्त हो चुका था। पुरोहित तो केवल मानने की बात तक ही सीमित था। एक बार अनुभव हो जाये तो फिर मानने का सवाल ही कहाँ होता है। मानने से तो जानना बेहतर है।

 जाम्भोजी की लीला का रहस्य साधारण पींपासर ग्रामवासी जनों के समझ में नहीं आता था। जब नित्य नये चरित्र देखते तो सभी को अच्छे लगते थे। संसार के कार्यकलापों से सदा ही उदासीन रहते थे। व्यावहारिक वार्ता में इच्छुक नहीं थे। जो भी बोलते थे वह आध्यात्मिक विषयक वार्ता थी।

 छोटे-छोटे पीपासर के बालक खेलने के लिए जाम्भोजी के पास आने लगे थे। उनके साथ खेलने के | लिए चले जाते थे। उनके साथ घुल-मिल नहीं पाते थे, दूर बैठे हुए दृष्टा बनकर उनको देखते रहते थे। ये बालक खेले या मैं खेलू कोई अन्तर नहीं है। खेल को खेल की तरह ही खेलना आवश्यक है। केवल दृष्टा बनकर खेलते रहें।

यह संसार भी एक खेल ही है। भगवान स्वयं खेल रहे हैं, किन्तु दृष्टा साक्षी बनकर के इसलिए स्वयं इस खेल में लिपायमान नहीं होते। हमें भी इसी प्रकार से लिपायमान नहीं होना है। जल में कमलवत नितेश निर्मोही,सुख-दुख,हानि-लाभ,जाति-हार, सर्दी-गर्मी इत्यादि द्वन्द्वों में समता आ जाये,यही जीवन जीने की विधि है। यही जाम्भोजी ने बतलाई है।

अन्य बालक तो खेल खेलते थक जाते हैं। भूख-प्यास सताने लगती है तो वापिस अपने-अपने घरों को लौट आते हैं किन्तु लोहट लाला वहीं पर बैठे एकान्त में ध्यान-समाधि में मग्न हो जाते हैं। अन्य बालक तो दूध-दही आदि में रस लेते थे उसके प्रभाव से जीवन धारण करते थे किन्तु जाम्भोजी के जीवन | का आधार अमृत रस था। उस अमृत रस की प्राप्ति समाधि में ही हो पाती थी। उस प्रकार का नित्यप्रति का कार्यक्रम होने लगा।

जब अन्य बालक खेल समाप्त करके घर चले जाते । माता हाँसा चिन्तित होती कि अब तक मेरा बेटा आया नहीं, दूसरे बालक तो आ गये हैं, स्वयं जाती और हाथ पकड़ करके ले आती। जब तक कोई लेने नहीं जाता तब तक ही बैठे ध्यानमग्न रहते।

 बालक बछड़े चराने वन में जाते थे किन्तु पीपासर से दूर नहीं जाते थे, जाम्भोजी भी इनके साथ बछडे चराने जाया करते थे। वहीं पर बच्छड़े हरी-हरी घास चरते, उछलकूद करते, उन्हें देखकर बालक भी उत्सव मनाते, खेलते-कूदते, अनेकों प्रकार से किलोल करते हुए समय व्यतीत करते थे। सायं समय गायों

के लौटने से पूर्व वापिस घर लौट आते थे।

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एक दिन वन में सभी बालक एकत्रित होकर सिंह-बकरी का खेल खेलने लगे आज उन्होनें जाम्भोजी को भी खेल में सम्मिलित कर लिया था आज तो उमंग विशेष हो रही थी। कुछ नया ही करने का भाव बन गया था। खेलने को सहर्ष तैयार हो गये थे। बालकों ने कहा- हे जम्भेश्वर! आज आप हमारे साथ खेल खेलेंगे, यह हमें मालुम हुआ है।

हम सभी सिंह-बकरी का खेल खेलेंगे। आप प्रथम सिंह बने हम सभी बकरी बनते हैं। हम बकरी, सिंह से बचाव हेतु प्रयास करेंगे आप सिंह बनकर हमें खाने का प्रयास करेंगे। हमें पकड़ने उद्योग आपका होगा, हमारा बचने का प्रयास होगा।

 प्रथम हमें छुपने का अवसर दीजिए फिर आप सिंह बनकर ढूंढ़ लीजिये। बालकों की आज्ञा स्वीकार की और असली सिंह बन गये बालकों ने देखा लोहट का लाला तो वहां नहीं है किन्तु उस जगह एक सिंह प्रगट हो गया है।

यह तो हमें तथा हमारे बछड़ों को खा जायेगा। देखो-देखो कैसे जीभ लपलपा रहा है।इसकी आँखे कैसे जल रही है। हमारी तरफ देखकर कैसे घूर रहा है। अपने को बचाओ, स्वयं की रक्षा करो, यहाँ से भागे, किन्तु अब भागकर भी कहाँ जाओगे? अब तो हमारी रक्षा स्वयं भगवान ही कर सकते हैं।

 हे सिंह! हमने तुम्हारा क्या अपराध किया है जो तुम हमें खाने के लिए दौड़ आये। हमारे देवता! लोहट के लाल भी गये, हमे बचाओ! कहीं तुम स्वयं ही सिँह तो बनकर नहीं आये हो। हम डर के मारे काँप रहे हैं, कुछ भी नहीं सूझ रहा है कि क्या करें और क्या न करें? हमने तुम से कब कहा था कि असली सिंह बन जाओ। हम तो खेल ही तो खेल रहे थे।

नकली सिंह की बात थी हम भी तो नकली बकरी बने थे। हम कोई असली बकरी थोड़े ही है और तुम तो असली सिंह बन गये अब हम हाथ जोड़ते हैं आपके पैरों में पड़ते हैं, हमें बताओ-हमारे बछड़ों का बचाओ।

हे नृसिंह ! हमारी रक्षा करो, हमारी आँखो के सामने से हट जाओ, हम तुम्हारा तेज देखने में असमर्थ हैं। हे वन देवता! तुम हमारे वन से चले जाओ! यहाँ फिर कभी मत आना। यहाँ तो हम लोग खेलते हैं। हमारे बछड़े हरी-हरी घास चरते हैं। यहाँ पर तुम्हारा क्या कार्य है? इस प्रकार से सभी बच्चे व्याकुल हो उठे और कुछ-कुछ कहने लगे किन्तु देवमयी रहस्य को कोई नहीं समझ सके।

 जम्भेश्वर जी ने देखा कि बच्चे खेल खेलना चाहते हैं किन्तु ये तो सिंह रूप देखकर ही घबरा गये हैं। इन्हें निर्भय कर देना चाहिये, मैं तो यह खेल ही खेल रहा था किन्तु ये लोग मेरे खेल अच्छा है, जब ये बच्चे कह ही रहे हैं तो गहरे वन में चले जाते हैं। मेरे यहां से चले जाने से ही इनका भला होगा। मुझे तो वही कार्य करना है जिससे सभी का भला होवे।

ऐसा विचार करते हुए सिंहरूपी जाम्भोजी समझ नहीं पाये। धीरे धीरे वन की ओर चले गये। बालक पुनः प्रसन्न होकर खेल खेलने लगे, किन्तु अब तो खेल में कुछ सार नहीं था, जो खेल में रस था वह तो चला गया। अब तो हृदय केवल चर्म का थैला ही रह गया था अन्दर जो प्राणरस जीवनी शक्ति थी वह तो चली गयी, केवल शरीर को हिलाने डुलाने से क्या प्राप्त होने वाला था। इसलिए सभी बालक खेल से निवृत्त होकर वापिस अपने-अपने घरों को चले गये माता हाँसा का बेटा नहीं आया, अन्य बालक तो अपने-अपने घरों को लौट आये।

 हांसा अन्य बालकों के पास पँहुची और उनसे पूछा- क्या बात है मेरा लाला नहीं आया? आप लोग उन्हें अकेला कहाँ छोड़ आये? तुम्हे ऐसा तो नहीं करना चाहिये था।

 बालक कहने लगे- हे माता ! तुम हमें झूठा ओलाणो-आरोप मत दे। हमने नहीं छोड़ा, किन्तु वह तुम्हारा बेटा ही हमें छोड़कर चला गया।

दूसरा बालक कहने लगा- हम तो सभी साथ में मिलकर सिंह बकरी का खेल खेलते थे हमने कहा कि तुम सिंह बनो, हम बकरी बनते हैं, किन्तु तुम्हारा लाडला तो हमारे देखते-देखते ही असलो सिँह बन गया।

तीसरा बालक कहने लगा- हमें भी झूठा ओलाणो मत दे, जब वह वन में जा रहा था तब हमने पीछे से हेला भी दिया कि वापिस आ जाओ? किन्तु हमारी तो बात ही नहीं सुनी।

 चौथा बालक कहने लगा- मैं बताऊं तुझे! हमने कहा था कि तुम असली सिँह क्यों बने और यदि बन गय हो तो वापिस बालक जैसे थे वैसे बन जाओ और यदि नहीं बनते हो तो यहाँ से चले जाओ हम डर के मारे काँप रहे हैं, हमारे कहने से ही वन में गया था।

पांचवा कहने लगा- वह तो मैंने देखा कि बिना मार्ग ही उजड़ जा रहा था। अब पता नहीं कहाँ गया है, मार्ग-मार्ग चले तो खोज की जा सकती है, किन्तु बिना मार्ग तो खोज असम्भव।

बालकों द्वारा इस प्रकार की वार्ता श्रवण करके लोहट-हाँसा ढूंढ़ने के लिए गये किन्तु बालक जहाँ पर खेल खेलते थे वहाँ पर बालकों के तो पैरों के निशान थे किन्तु जाम्भेश्वरजी के कहीं पैरों के निशान नजर नहीं आये। उधर सूर्यास्त हो गया, रात्रि ने आ घेरा था इसलिए लोहट हाँसा वापिस घर लौट आये। वह रात्रि युग के समान व्यतीत हुई। प्रातः काल होते ही लोहट हाँसा ने वन में जाकर खोजबीन की तो वह सम्भराथल पर बैठे ध्यान लगा रहे हैं। दम्पति ने देखा तो अपार सुख की प्राप्ति हुई, हाथ पकड़ करके घर ले आये। पीपासर के लोग सभी देखने के लिए आये। खुशियाँ मनाई, बहुत-बहुत बधाईयाँ बाँटी, मंगल गीत गाये।

पीपासर के लोगों ने पूछा- यह जाम्बा बालक कहाँ मिला? लोहट ने बतलाया कि थल पर बैठा था, ईश्वर के ध्यान में था। इन्हें संसार की स्मृति नहीं थी, ऐसा ध्यान तो यह लगाता ही है, कोई नयी बात नहीं हैं, किन्तु सिँह बनकर दूर वन में जाने वाली बालकों की बात पर ग्रामीणजनों ने सहसा विश्वास नहीं | किया। एक मानव शरीर धारी कैसे सिंह बन सकता है? ये बालकों की बातें क्या पता सच्च है या झूठ है।

 कोई कहने लगा कि यह तपस्वी है, कोई कहने लगा कि यह तो युगों-युगों का योगी है, कोई कहने लगा कि यह तो साक्षात् विष्णु है। कोई कहने लगा कि यह तो यशोदा का पुत्र कन्हैया ही है। अन्यथा तो यह ऐसे दिव्य चरित्र कहाँ से दिखाता? कोई-कोई नास्तिक कहने लगा- छोड़ो इन बातों को यह तो बावला है। इसे हमारी जैसी बुद्धि-ज्ञान प्राप्त नहीं है। जितने मुँह उतनी ही बातें होती थी।

 यह क्या है? कौन है? इस बात को कोई जान नहीं पाया। सभी अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार निर्णय कर रहे थे। यदि बालकों की बात सत्य मान ली जाय तो यह सिँह बना था, क्या प्रयोजन था, इस बात को जानने की क्षमता नहीं थी।

श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान की बाल लीला भाग 6

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Sandeep Bishnoi

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