योगीनाथ साधुओं का सम्भराथल आगमन
उस समय मरुभूमि में नाथ सम्प्रदाय के साधुओं का बाहुल्य था तथा अन्य भी वैष्णव, संन्यासी भी यत्र-तत्र निवास किया करते थे। ये सभी लोग कुछ तो जो अपने को सिद्ध मानते थे वे तो परीक्षार्थ आते थे तथा कुछ लोग ज्ञान श्रवणार्थ भी आया करते थे। यथा समय सभी लोग एक दो बार तो अवश्य ही सम्भराथल पर पहुंच करके अपनी विशेषता दिखलाई ही है। उनमें लक्ष्मण नाथ तथा लोहा पांगल अत्यधिक अभिमानी अपने को सिद्ध पुरुष मानते थे। ये लोग अपनी मण्डली सहित यथा अवसर पर सम्भराथल पहुंच करके अपनी धाक जमाने की भरपूर कोशिश की थी।
एक समय लक्ष्मणनाथ अपनी मण्डली सहित हिमटसर में डेरा डालकर बैठा हुआ था और अपने एक शिष्य को जम्भ देव जी के निकट सम्भराथल पर भेजा और कहलवाया कि यहां पर लक्ष्मणनाथ आये हुए हैं,उनसे जाकर माफी मांगो। तब उनके प्रति कहा कि “लक्ष्मण-लक्ष्मण न कर आयसां” यह शब्द सुनाया और उस लक्ष्मणनाथ के दूत को तो अपने पास में ही बिठा लिया और एक दूसरे महात्मा निहाल दास को लक्ष्मण के पास भेजकर अपने पास में बुलवाया। तभी सभी लोग जम्भ शिष्य निहालदास की सिद्धि देखकर सम्भराथल पर पहुंच गए थे।
लक्ष्मण नाथ ने वहां पर पहुंचकर कहा कि हमने सुना है कि जम्भदेवजी निरहारी है किन्तु हम आज परीक्षा लेंगे या तो ये रात्रि में कहीं जाकर भोजन कर आते हैं या फिर कोई भोजन दे जाता है इसलिये हम लोग सभी जागरूक होकर पहरा देंगे कहते हैं कि तीन दिन व रात्रि वहीं पर लक्ष्मण नाथ भूखा-प्यासा मण्डली सहित कड़ा पहरा लगाये बैठा रहा तीसरे दिन परमात्मा की इच्छा से सूर्यदेव अत्यधिक उग्र रूप धारण करके तपने लगा। लक्ष्मणनाथ की मण्डली तथा स्वयं भी यह ताप सहन नहीं कर सका। कुछ तो भूख-प्यास से बेहाल होकर इधर-उधर भिक्षा के लिये गांवों में चले गये तथा कुछ वहीं पर कंकेहड़ी की छाया के नीचे जाकर बैठ गये।
तब जम्भदेव जी ने कहा कि आप लोग क्यों भूख से व्याकुल हो रहे हो। मैं आपके लिए अभी भोजन की व्यवस्था कर देता हूं। कहते हैं कि उस समय जम्भदेवजी के पास सम्भराथल पर दो सावन भादो नाम के दो विशाल कड़ाहे थे, जिसमें भोजन पकाकर आगन्तुकों को खिलाया जाता था उन्हीं में तैयार किया गया, भोजन सभी के लिये परोसा गया। तब लक्ष्मणनाथ कहने लगा-आप भी आइये, भोजन कीजिये, आपके बिना हम अकेले भोजन कैसे कर सकेंगे।
तब जम्भदेव जी ने कहा-मुझे भूख नहीं है यदि भूख होती तो भोजन अवश्य ही करता। “भूख नहीं अन्न जीमत कोंण”। सभी लक्ष्मणनाथ की मण्डली ने एक स्वर से लक्ष्मण नाथ की बात को स्वीकार करते हुए भोजन समाप्ति का निर्णय ले चुके थे किन्तु श्रावण भादव नामक कड़ाहे में बना हुआ भोजन तो अखूट ही हुआ करता था तो कैसे खत्म किया जा सकता था। सभी ने प्रेमपूर्वक भोजन करके आदेश-आदेश कहते हुए वहां से प्रस्थान किया था। इसी प्रसंग में लक्ष्मणनाथ को सचेत करते हुए शब्द नं. 48 से 52 तक अबाध गति से श्रवण करवा करके उनकी पाखण्डमय क्रियाओं का खंडन करके शुद्ध योग मार्ग में प्रवृत्त करवाया था।
जिस प्रकार से लक्ष्मणनाथ को सदुपदेश देकर उनके अभिमान का खंडन किया था, ठीक उसी प्रकार से लोहा पांगल को भी भूत प्रेत सेवा पूजा की भावना से निवृत्त करके सद्मार्ग का अनुयायी बनाया था। इसी प्रसंग में शब्द नं. 40 से लेकर 47 तक तथा पुन: शब्द नं. 53 से 55 तक सुनाया था और बिश्नोई बनाकर र्सीवर गोत्र रखा था तथा गो सेवा व प्याऊ में जल पिलाने की सेवा कार्य करने की आज्ञा दी थी। कालान्तर में उन्हें खींदासर ग्राम में भण्डारे की सेवा करने के लिये भंडारी नियुक्त किया था।
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इसी सम्भराथल की पवित्र भूमि पर अनेक लोगों की समस्यायें तथा शंकायें निवृत्त हुई थी क्योंकि जिस भूमि पर अनादिकाल से ही देव निवास होता आया है उसके कण-कण में वह अलौकिक शक्ति समाहित हो चुकी है जिससे उस पर पैर रखने वाला कदापि पाखण्ड तथा असत्य का अनुसरण नहीं कर सकेगा। सदा सद्मार्ग का अनुयायी बन करके समाज को भी सत प्रेरणा से प्रेरित करना समझेगा। ऐसा ही सदा से होता आया है, भविष्य में भी होता रहेगा।