मौनी बालक की कथा
एक विसनोवण एक डावड़ो ले आयी। जाम्भाजी | ओह मोटो हुवो, अजु बोल नहीं । जाम्भोजी कह बालका बोल्या डावड़ो सिध बोला मोनी भजन-जाम्भोजी श्री वायक कहे
शब्द-118
ओ३म् सुरगा हूंते शिंभु आयो, कहो कूणा के काजै।
नर निरहारी एक लवाई, परगट जोत विराजै।
प्रहलादा सू वाचा कीवी, आयो बारां काजल।
बारा मैं सू एक घटै तो, चेलो गुरु लाजे।
नाथोजी कहते है कि हे बील्ह जब श्री जाम्भेश्वर जो सम्भराचल पर विराजमान थे उस समय उनके पास में आने वालों में एक विश्नोई महिला अपने एक छोटे से बालक को साथ लेकर सम्भराथल पर आयी।
कहने लगे-हैं जाम्भाजी! यह मेरा बच्चा अब ब्रह्म बोलने लायक हो गया है। किन्तु यह तो बोलता नहीं है। एक बार इसे बोला दौजिये। इससे मेरा संशय मिट जायेगा हे देव । मुझे यह संशय है कि यह बोलना तो जानता है किन्तु बोलता नहीं है क्या यह बोलना नहीं जानता? यदि जानता है तो बोलता क्यों नहीं ?
श्री जाम्भोजी ने उस माता की बात सुन कर बालक से कहा- अरे! बालक बोल ऐसा कहते हुऐ चुटकी बजाई तो बालक बोलने लगा प्रथम वाणी का उच्चारण सिद्धों की वाणी का ही किया। प्रथम दो लाईन तो मोनो बालक के वचन है अन्तिम दो लाइन जाम्भोजी के वचन है। प्रथम तो बालक ने प्रश्न पूछे है आगे जाम्भोजी ने उतर दिये है।
क्योंकि वह बालक जाम्भोजी की प्रेरणा से ही बोला था इस लिए इन दो लाइनों को जाम्भोजी के शब्दों में ही समिलित कर लिया है, जिस प्रकार से वेद भी तो ईश्वर की प्रेरणा से हो ऋषियों ने उच्चारण किये थे। वेद ईश्वर रचित कहे जाते है इसलिए यह शब्द भी जाम्भोजी द्वारा रचित माना जाता है। इस शब्द द्वारा बालक ने क्या पूछा था और श्री देवजी ने क्या जवाब दिया था इसके बारे में शब्द बतलाता है।
बालक ने पूछा हे देव! आप तो स्वर्ग बैकुष्ठ धाम में थे, मैंने आपको वहां पर देखा था तथा आप तो स्वम्भू है, स्वतंत्र है, कर्मों के बंधन से परे है, तब यह बतलाओ कि यहां मृत्यु लोक में कैसे आए? | किस प्रयोजन से आपका आना हुआ? बालक ने फिर से कहा- मैं आपको यहां बैठा देखता है, आप बड़े |विचित्र है, आप नर रूप में होते हुए भी निरहारी है, भोजन नहीं करते, ऐसा क्यों है?
आप इस समय अकेले ही आये है, साथ में लक्ष्मी, सीता, रूवमणी को क्यों नहीं लाये इससे पूर्व तो साथ लेकर आते थे। पूर्व अवतारों में सीता- रूक्मणी रूप में आप के साथ थी। आप यहां पर प्रगट शांति स्वरूप से विराजमान हो। जहां आप कष्ट धाम में रहते है तो आपको ज्योति से हो वह लोक प्रकाशित होता है। वहां अन्य प्रकाश करने वाले सूर्य चन्द्रादि नहीं है, वही यहां पर विराजमान हो रहे है। लक कहने लगा- मैं नहीं समझ पा रहा है यह अपूर्व आपको लीला अद्भुत है।
आगे जाम्भोजी ने उतर देते हुए कहा- हे बालक मैंने सतयुग में नृसिंह रूप धारण करके प्रहलाद को वचन दिया था, उन वचनों को पूरा करने के लिए मेरा यहां आना हुआ है। उस समय मैंने प्रहलाद भक्त से कहा था कि तुम्हारे तैतीस करोड़ साथियों का उद्धार मैं समय समय पर करूंगा।
पांच करोड़ इस समय तुम्हारे साथ ही सतयुग में, सात करोड़ त्रेता युग में हरिचन्द्र के साथ, द्वापर युग में नौ करोड़ युधिष्ठिर के साथ उद्धार होगा कलयुग में मैं स्वयं ही आउंगा और शेष बचे हुए बारह करोड़ का उद्धार करूंगा।इस समय इस देश में वहीं प्रहलाद पंथ के बिछुड़े हुए जीव जन्म लेकर आये है।
उनका उद्धार करूंगा।
हे बालक! उन्हीं बारह करोड़ों में तुम भी एक हो, तुम्हारा समय आ चुका है। अब दुबारा तुम्हारा जन्म नहीं होगा। तुम भागे हुए चले आए हो। यही तुम्हारा प्रहलाद पंथी होने का प्रमाण है। यदि इस समय प्रहलाद को दिया हुआ वचन पूरा नहीं करूं तो सुचेला और गुरु दोनों को ही लन्जा लगेगी पहले तो वचन दिया था किन्तु अब निभा नहीं सके, इसीलिए मेरा यहां पर आगमन हुआ है।
हे वील्ह। बालक तथा श्री देवजी की परस्पर इस प्रकार से हुई वार्तालाप को हमने सुनी थी। जब श्री देवजी अपनी बात बता चुके थे तब वहां पर उपस्थित भक्तों की भावना को देखते हुए मैंने पूछा था कि हे देव! यह बालक पहले तो मौन था अब बोलने लगा है। यह बात स्वर्ग की करता है. आपको भलिभाति जानता भी है। इसकी आपकी मुलाकात कहां पर और कैसे हुई थी? इसके बारे में तथा इस बालक का परिचय ठीक से देने की कृपा करें।
श्री जाम्भेश्वर जी ने कहा- इस बालक की कथा मैं क्या बतलाठंगा, यह स्वयं ही बतला देगा ऐसा कहते हुए श्री देवजी ने बालक से कहा रे बालक। तू अपने पूर्व जन्म की कथा स्वयं ही इन लोगों को बतला दे, क्योंकि अब तूं मेरे पास है अब तुम्हे डरने की आवश्यकता नहीं है। पहले जन्म में तूं बोलने से ही फंस गया था अब तुझे डरने की जरूरत नहीं है क्योंकि मैं तुम्हारे साथ हूं। देवजी की वार्ता प्रवण कर के वह बालक अपनी कथा स्वयं ही कहने लगा
बालक बोला- मैं पूर्व जन्म में ऋषि था लखनऊ के उत्तर दरवाजे पर तपस्या करता था इस बात को वहां के लोग सभी जानते है। वहां का राजा नित्य प्रति मुझे भोजन देने आता था वह राजा संतों का सेवक था। उसी शहर में एक भटियारी रहती थी। वह नित्य प्रति धूणी के लिए लकड़ी डाल कर जाती
थी। इस प्रकार से एक राजा दूसरी भटियारी की सेवा से मैं बारह वर्ष तक तपस्या करता रहा।
एक समय वह भटियारी मेरे सामने आकर रोने लगी मैंने पूछा-माई क्यों रो रहो हो। उस भटियारी ने कहा- महाराज । मेरे एक ही लड़का है वह तो चोरी करता है डाका डालता है, मेरे बेटे ने चौरी की है, उसके हाथ से एक लड़की मर गयी है नगरी के लोग रोते पीटते राजा के पास गये और चोर को | पकड़ कर फांसी देने की बात राजा से कही। राजा ने प्रजा को शांत किया और मेरे बेटे को फांसी का आदेश दिया। मेरा बेटा पकड़ा गया है, आज ही यह राजा जो आपके पास आता है यही फांसी देगा। कृपा करके मेरे बेटे को बचाइए। अन्यथा मैं भी बेटे के वियोग में रो रो कर मर जाउंगी।
यह बात सुन कर मैंने कहा- हे माई। तुम चिंता मत कर। रोना बंद कर दे, मैं तेरे बेटे को बचा दूंगा।उसी समय ही राजा आया और मुझे भोजन जिमा कर वापिस जाने लगा तो मैंने पूछा- हे राजन! आज जल्दी क्यों जा रहे हो ? राजा ने कहा- हे ऋषिवर। आज एक सख्स को फांसी देना है इसीलिए मुझे जाना होगा। मैंने कहा- हे राजन! उस व्यक्ति को फांसी नहीं देना। एक बार तो उसके अवगुण माफ कर देना। राजा ने मेरी बात मान ली और भटियारी के बेटे को छोड़ दिया।
भठियारी का चोर बेटा छूट गया, मैंने तो छुड़ाया तो उसके भले के लिए ही था किन्तु उस चोर को तो और अधिक गर्व हो गया पकड़े जाने पर छूटने की आसा हो गयी थी। इसी ए उस चोर ने अब की बार और भी ज्यादा तबाही मचा दी थी। बाजार में लूट पाट की तथा अपने साथियों सहित भठियारी के बेटे ने अनेक लोगों का खून कर दिया।
श्री चित्रगुप्त जी की आरती - श्री विरंचि कुलभूषण (Shri Chitragupt Aarti - Shri Viranchi Kulbhusan)
जय दुर्गे जय दुर्गे: मंत्र (Jaya Durge Daya Durge)
नगरी के लोग एकत्रित हो कर राजा के पास गये और कहने लगे-हे राजन! हम तो जुल्म सहते सहते थक गये है। इस बार तो चार लोगों को इस डाकू ने मार डाला है। जिस राजा के यहां न्याय नहीं है वहां प्रजा को नहीं रहना चाहिए। हम तो तुम्हारे देश को छोड़ कर प्रदेश चले जायेंगे, तभी हमारा क्लेश कटेगा।
प्रजा की पुकार राजा ने सुनी और कहने लगा- कल का दिन छिपने से पूर्व ही मैं इस डाकू को पकड़ कर फांसी चढ़ा दूंगा। आप लोग अब जाइए। ऐसा कहते हुए प्रजा को आश्वासन दिया। दूसरे दिन राजा भोजन लेकर ऋषि के पास चला। राजा के पहुंचने से पूर्व ही भठियारी आकर पुनः रोने लगी ऋषि रूप में स्थित मैंने कहा- हे माई। क्यों रोती हो? वह कहने लगी- हे महाराज। क्या बताऊ। आज मेरे बेटे का मरने का दिन आ गया है, मैंने पूर्व जन्म में कोई ऐसा पाप कर्म किया होगा इसीलिए मैं रो रही हूं।
ऋषि ने कहा- मैं तेरे पुत्र को मरने नहीं दूंगा ऐसे कहते हुए भठियारी को चुप किया। यह वार्ता चल ही रही थी कि बादशाह ऋषि के लिए भोजन लेकर सदा की भांति आ गया और ऋषि को भोजन करवा कर के तुंरत वापिस चल भी पड़ा। महात्मा ने पूछा- हे राजन! आज इतनी जल्दी क्यों जा रहे हो? रूको कुछ वार्ता करो। बादशाह कहने लगा- आज मुझे जल्दी जाना है उस पहले वाले द्यकू को फांसी देना है उसने खून कर दिया है।
ऋषि कहने लगा- हे राजन । उसको फांसी नहीं देना। मेरे कहने से छोड़ देना है। बादशाह कहने | लगा-महाराज । यह तो चार आदमियों का खून करने वाला है। इसको मैं कैसे छोड़ सकता हं। जो राजा अपराधी को दण्डित नहीं करता वह राजा नरक का अधिकारी हैं। अब आप ही बतलाइए मैं तो जो कुछ
आप कहोगे वही करूंगा। मुझे मालूम है कि आप मुझे अधोगति में नहीं जाने देगे।
ऋषि ने कहा- यद्यपि तुम्हारी बात सत्य है फिर भी आप इसे छोड़ दे। ऋषि के कहने पर राजा ने उस हत्यारे को छोड़ दिया। वह भठियारी का बेटा चोर डाकुओं से जा मिला। एक रात्रि में उन द्यकुओं ने मिल के नगरी पर हमला कर दिया। शहर की जनता ने जाकर राजा के पास पुकार की। राजा ने कहा अब को बार में इस बात को छोडूंगा नहीं चाहे कोई भी मुझे क्यों न रोके। ऐसा कहते हुए प्रजा को शांत | किया और उस डाकू को पकड़ लिया। फांसी पर चढ़ाने का हुकम जारी कर दिया और राजा ने कहा
मैं पहले ऋषि को भोजन देकर आता हूं वापिस आकर फांसी चढ़ा दूंगा। इधर भठियारी भी ऋषि के पास आकर रोने लगी। तब पूछा माई क्यों रो रही हो। भठियारी कहने लगी- हे महाराज जो क्म करेगा उसको फल तो नहीं मिलेगा आज मेरा बेटा बचेगा नहीं। ऋषि ने कहा- मैं राजा से तुम्हारे बेटे को बचाने का प्रयास करूँगा।
उसी समय राजा भी आ गया और भोजन देकर जल्दी में वापस जाने लगा- तब ऋषि ने पूछ ही लिया आज जल्दी क्यों जा रहे हो। राजा ने पुनः वही बात दोहरायो तब पुनः ऋषि ने कहा मेरा कहना करे तो इसे फांसी नहीं देना। ऐसी वार्ता सुन राजा पुनः बैचेन हो गया, ऋषि बार बार एक ही बात कहे जा रहे है। नीति कहती है कि जिस राजा के राज में कोई व्यक्ति जुल्म करे और राजा उसको दण्डित नहीं करे तो स्वयं पाप का भागी होता है। इसने तीन अपराध कर लिये है किन्तु मैंने आप के कहने से माफकर दिये है अब प्रतिज्ञा पूर्ण हो गयी है। अधिक से अधिक तीन बार माफ किया जा सकता है।
ऋषि ने कहा- हे राजन। सुनो। यदि चोर अपनो आदत चोरी करना नहीं छोड़ता तो हम साधु अपनी साधुता कैसे छोड़ सकते है। यदि अपना स्वभाव ही छोड़ दिया तो साधुपना ही अपना व्यक्तित्व हो चला जाएगा। अब जो तुम्हारी राजनीति कहती है वही तुम करो। जो दण्ड इसके लायक है वही इसे प्रदान करो। मैं कुछ भी नहीं कहता। इस प्रकार से राजा ने भठियारी के बेटे फांसी चढ़ा दिया और अपना कार्य पूरा किया।
उस राजा सेरविलोल ने संत की सेवा की थी इसका फल राजा को मिला। उसके स्वाति शाह पुत्र हुआ।यह jambhoji का शिष्य बना था। दोजक छोड़ भीस्त की प्राप्ति की थी
नाथोजी कहने लगे हे वील्ह उस भठियारी ने संत की सेवा की थी। नित्य प्रति लकड़ी डाल कर जाना, झाडू बुहारी करना, यह निस्वार्थ सेवा का फल भठियारी को भी मिलना था वह अपने पुत्र को तो नहीं बचा सकी थी। दिन रात पुत्र के मोह में बैचेन रहती थी। एक दिन उस ऋषि ने कहा- हे माता। अब मैं संसार से चलना चाहता हूँ, मेरा समय आ गया है, मेरा जीवन पूर्ण हो गया है,
अब तू मेरे से क्या चाहतो है? जो कुछ मांगोगी वही मैं ढूंगे। तब भठियारी कहने लगी मैं आपके ही जैसा पुत्र चाहती हूं। ऐसा वरदान सुन कर ऋषि चिंता में पड़ गया और कहने लगा यह संसार कुछ भी काम का नहीं है। मेरे जैसा पुत्र तो मैं ही हो सकता हूं, दूसरा कहां से लाता। इस जन्म में तो तुम्हारौ पुत्र प्राप्ति की इच्छा पूरी नहीं कर सकता किन्तु दूसरा जन्म लेकर ही आना होगा, तभी इस माता का बेटा बन सकूंगा, इसकी इच्छा को पूर्ति कर सकता हूं। इस प्रकार के वचन देकर वह ऋषि शरीर छोड़ चुका था।
संत सेवा के प्रभाव से वह भठियारी विश्नोई के घर पर जन्म लेकर आयी है। और वह ऋषि पुत्र हुआ। यह जांभोजी का शिष्य बना था। दोजक छोड़, भिस्त की प्राप्ति की थी।
इसका बेटा बन कर आया है। वह बालक कहने लगा मैं अपने पुण्य के प्रताप से स्वर्ग तो गया था किन्तु वहां पर मुझे कौन रहने देता क्योंकि मैंने बेटा बनने का वचन इस मां को दिया था इस समय यह माता मुझे घर पर लिए डोलती है। कह रही है कि यह मेरा बेटा बोलता नहीं है। मैं बोलना तो जानता था किन्तु यह जान कर नहीं बोला था कि पूर्व जन्म में मैंने बहुत बकवास किया था उसका फल जो मुझे मिल ही गया है स्वर्ग लोक में पहुंचा हुआ मुझे वापिस मृत्यु लोक में आना पड़ा।
इस समय जाम्भोजी को कृपा से मैं इन्हीं को शरण में आ गया हूं। इनकी आज्ञा रो मैं चोल चुका हूँ। अच मुझे किसी भी प्रकार का भय नहीं है। अपनी जगह पर वापिस चला आया हूं मैं तो अब यही रहूंगा, ऐसा कहते हुए उस योग भ्रष्ट बालक ने अपने पूर्व जनम की कथा सुनायी। आर पुनः कौन हो गया।
माता ने यह सभी कुछ सुना और आश्चर्य चकित हो गयी| कहने लगी- क्या मैं पूर्व जन्म में भठियारी थी यह जन्म मेरा विश्नोई के घर पर हवा है। क्या यह मेरा बेटा पूर्व जन्म में ऋषि था ? इस समय अपनी स्वाभाविक गति को प्राप्त हो गया। मुझे भी इसको साधना में फिर से विघ्न नहीं डालना है पूर्व जन्म में मैं विघ्न बन कर आयी थी अब विष्न नहीं बनूंगी। ऐसा विचार करते हुए वह माता उस बच्चे को वहीं छोड़ कर वापिस चली गयी।
मौनी बालक की कथा, मौनी बालक की कथा मौनी बालक की कथा मौनी बालक की कथा मौनी बालक की कथा, मौनी बालक की कथा, मौनी बालक की कथा मौनी बालक की कथा मौनी बालक की कथा मौनी बालक की कथा, मौनी बालक की कथा
मौनी बालक की कथा, मौनी बालक की कथा मौनी बालक की कथा मौनी बालक की कथा मौनी बालक की कथा, मौनी बालक की कथा, मौनी बालक की कथा मौनी बालक की कथा मौनी बालक की कथा मौनी बालक की कथा, मौनी बालक की कथा
मौनी बालक की कथा, मौनी बालक की कथा मौनी बालक की कथा मौनी बालक की कथा मौनी बालक की कथा, मौनी बालक की कथा, मौनी बालक की कथा मौनी बालक की कथा मौनी बालक की कथा मौनी बालक की कथा, मौनी बालक की कथा