बिश्नोई पंथ स्थापना तथा समराथल ……. समराथल धोरा कथा भाग 5
“वर्ष पांच बावीस पाले बहुता धेनु चराई” सताईस वर्ष तक लगातार गऊवें चराई थी, गोवंश संवर्धन का महान प्रयास किया। इसलिये सम्भराथल पर अडिग आसन रहते हुए भी पीपासर की सुधी भी रहा करती थी वहां पर अपने वृद्ध माता-पिता को भी संतुष्ट रखने के लिये नित्य दर्शन दिया करते थे और उनका कार्य गोपालन द्वारा किया करते थे।
इसी बीच सं. 1540 के लगभग लोहटजी का देहान्त हो गया और कुछ ही दिन पश्चात् माता हांसा भी स्वर्गवासी हो चुकी थी। स्वयं तो जम्भदेव जी बाल ब्रह्मचारी ही थे अब घर पर आने जाने का प्रयोजन कुछ रहा ही नहीं था। गऊवें घर-बार, धन-संपत्ति सभी कुछ परित्याग करके वन में ही सम्भराथल पर अडिग आसन स्थिर कर लिया था। अब तो लोहट जी के बालक जम्भदेव पूर्ण वयस्क हो चुके थे वे दिन व्यतीत हो चुके थे।
जब गऊवें चराते समय खेल-खेला करते थे। यहां पर संसार में आगमन का प्रायोजन कुछ था उसी पर विचार मग्न रहते हुए योग साधना एकान्तवास किया करते थे। इस परम पवित्र सम्भराथल पर बैठकर लोगों के अन्दर बैठे हुए पाप की जड़मूल को खोदकर काटने का उपाय पर अन्वेषण हो रहा था। इसके लिये मन ही मन उन लोगों के लिये उन्नतीस नियमों की आचार संहिता तैयार कर ली थी।
उस आचार संहिता को प्रसिद्ध करने के लिये अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे। उस समय कुछ लोग सम्भराथल भी आ जाते थे। वहां पर आकर कोई अच्छी जीवनोपयोगी वार्ता तो नहीं पूछा करते थे और न ही बताने पर ध्यानपूर्वक श्रवण ही किया करते थे ऐसी परिस्थिति में उनसे कोई अच्छी नियम धर्म की बात कहना तो व्यर्थ ही था। कुछ लोग बिना प्रेम भाव से ही पास में बैठ जाते। नमन प्रणाम करना भी नहीं जानते यदि कोई कुछ पूछता तो भी या तो अपनी भेड़, बकरी, गाय, ऊंट आदि के बारे में पूछते कि अमुक पशु हमारा खो गया है कृपा करके बतला दीजिये।
तथा कुछ लोग उन्हें गूंगा या भोला भी कहते थे कि यह लोहट जी का बालक गृहस्थी तो बसाता नहीं है किन्तु इस सम्भराथल पर साधु बनकर बैठ गया है इसलिये नासमझ ही है। सम्भराथल पर बैठकर लोगों के आचार विचार विहीन जीवन को देखा जिससे उनके जीवन को ऊपर उठाने के लिये एक इच्छा उत्पन्न हुई थी। उस समय लोग प्रात: काल स्नान करना कोई अनिवार्य नहीं समझा करते थे।
यदि गर्मी लगी तो स्नान कर लिया नहीं तो जीवन में स्नान एक या दो बार ही जरूरी समझते थे। अनेकों प्रकार के नशों में संलिप्त थे। पशुओं को मारकर मुर्दो को खाना तो आम बात हो चुकी थी। न तो उनकी बोली में मधुरता सत्यता ही थी, न ही वो शुद्ध आचार-विचारवान शीलव्रत धारी ही थे। सदा राक्षसी वेशभूषा नीला वस्त्र धारण करना ही पसन्द करते थे अन्तर बाह्य कलुषित जनों को शुद्ध पवित्र देव तुल्य बना देना तो ईश्वरीय शक्ति की ही करामात हो सकती थी। इस प्रकार से तपस्या तथा समाज सुधार की विचारणा में दो वर्ष व्यतीत हो गये इन दो वर्षों में बिश्नोई पंथ की भूमि तैयार की गई थी।
जिस पर आगे चलकर छायावाद दीर्घकालीन पर्यन्त स्थायी सुफल वाला वृक्ष रोपा जा सके। पिछले कुछ वर्षों लगातार अच्छी वर्षा हो रही थी सभी लोग आनन्द में मदमस्त थे। उसी मस्ती में ही तो अपना कर्म-धर्म भूल चुके थे। चारों तरफ वन का विनास तथा पर्यावरण दूषित हो चुका था। यज्ञ का धूआ अब आकाश में विचरण नहीं हो रहा था उसकी जगह पर तम्बाकू, चरस, गांजा के दुर्गन्धमय धुंए ने ले ली थी।
लोग स्वार्थी परले दर्जे के हो चुके थे। तब फिर वर्षा भी तो इधर आना भूल ही गई थी। उसी देश में कभी काले कजरारे मेघ उमड़-घुमड़ कर आते थे। धरती को जलमग्न कर जाते थे वे अब संवत् 1542 में कहीं पर भी दिखाई नहीं दे रहे थे। जेठ-आषाढ़ के महीने से लोगों ने प्रतीक्षा प्रारम्भ की थी किन्तु उसी प्रतीक्षा में श्रावण, भादव तथा आसोज भी बिल्कुल सूखा चला गया। कहीं पर भी बादल का एक टुकड़ा भी नहीं दिखाई दिया। यदि बादल उस देश में आते तो निश्चित ही उस सम्भराथल के घने वन के ऊपर से बिना जल वर्षा नहीं जाते किन्तु बादल आयेंगे ही नहीं तो वह वन भी क्या करेगा।
वर्षा की प्रतीक्षा में आसोज का महीना तो जैसे-तैसे लोगों ने व्यतीत कर दिया किन्तु कार्तिक लगते ही धैर्य धसक गया चारों ओर खलबली मच गई थी। लोग घर-बार तथा अपनी जन्म भूमि छोड़कर मालवै जाने की तैयारी करने लगे, उसी समय जम्भदेव जी ने शुभ अवसर पाकर सम्भराथल से चलकर बापेऊ गांव में पहुंचे वहां पर लोगों की हालत देखी और उनसे पूछा कि आप लोग कहां जाने की तैयारी कर रहे हैं। लोगों ने दःखित मन से बताया कि क्या करें महाराज! अपनी प्रिय जन्मभूमि छोड़कर हमें मालवै जाना पड़ रहा है। क्योंकि यहां तो पूरे मंडल में बजराक अकाल पड़ चुका है।
अन्न के बिना तो क्या देव, दानव क्या मानव योगी, सन्यासी भी जीवित नहीं रह सकते हमारी तो औकात ही क्या है। जम्भदेव जी ने उन लोगों से कहा कि यदि तुम्हें यहीं पर अन्न मिलता रहे तो क्या आप यह देश छोड़कर नहीं जाओगे? यदि आपको यह प्रस्ताव मंजूर हो तो मेरे पास ऐसा ही बिना नाम पते का साहूकार है वह तुम सभी लोगों के जितना चाहिये उतना अन्न दे सकता है। सभी लोगों ने एक स्वर से हां कहा तथा अन्न लेना स्वीकार कर लिया।
तब जम्भदेव जी ने फिर स्पष्ट किया कि अन्य लोगों को हो सकता है कि यह शंका उत्पन्न हो जाये कि उधार वापिस देना पड़ेगा इसकी आप कोई चिन्ता न करें। किन्तु इस अन्न के बदले तुम्हें कुछ धर्म नियम की बातें भी सहर्ष स्वीकार करनी पड़ेगी। मैं तुमको “अन्न, धन, लक्ष्मी, रूप, गुन, मूवा, मोक्ष द्वार” ये वस्तुएं दूंगा इनका मेरे पास में भण्डार भरे हुए हैं, आप लोगों को तो केवल स्वीकार करना होगा। तथा बापेऊ गांव के लोगों से पूछा कि आपके एक गांव के लिये रोज कितना अन्न चाहिये तब उनमें से एक ग्राम मुखिया पूरबो ने कहा कि अढ़ाई मन अन्न इस एक गांव के लिये पर्याप्त होगा।
दूसरे दिन से ही सम्भराथल पर जम्भदेव जी के आसन के अति निकट ही एक अन्न की ढेरी बतला दी और कहा कि यह ढ़ेरी अखूट ही रहेगी इसमें से रोज जितना चाहिये उतना अन्न ले जाया करो। पूरबो भक्त रोज ऊंट पर (छाटी) छाल कर ले जाता था आगे जाकर तोलता तो उतनी ही पूरी रहती थी। यह कार्यक्रम एक गांव से प्रारम्भ हुआ था किन्तु धीरे-धीरे सभी आसपास के लोग आने लगे और इच्छानुसार अन्न ले जाने लगे।
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इस परम्परा का पालन अब भी सम्भराथल पर आने वाले श्रद्धालु जन मिट्टी की ढ़ेरी करके करते आ रहे है। ऐसा मालूम पड़ता है कि लोग मिट्टी की तेरी भी उसी जगह पर कर रहे हैं जहां पर उस समय अन्न की ढ़ेरी थी उसमें से अन्न ले जाया करते थे फिर भी उसमें कमी नहीं आ पायी थी। इस समय भी वही भावना कार्य कर रही है और अपने अन्न की ढ़ेरी को अखूट करने की कामना की जाती है अर्थात् जैसी उस समय जम्भदेव जी की अन्न राशि थी वही हमारी भी होवें इसी कामना के साथ सम्भराथल पर चढ़कर “गुरु आसन समराथले” सम्भराथल पर गुरु आसन का दर्शन करते हैं।
प्रसिद्ध हजूरी कवि तथा भक्त ऊदो जी नेण ने कहा है “तीसरी आरती सम्भराथल आये, पूल्हा जी ने प्रभु स्वर्ग दिखाये” पूल्हाजी लोहट जी के अनुज थे। इस प्रकार के आश्चर्य का श्रवण करके पूल्हाजी भी सम्भराथल पर पहुंचे और कहने लगे कि आपने घर-बार त्याग दिया है इस वन में अपना आसन लगा लिया है वैसे तो सम्बन्ध में आप हमारे भतीजे भी लगते हैं। आपने जो लोगों को अन्न देने का वचन दिया है यह कैसे निभ सकेगा।
तथा यह जो धर्म नियमावली संहिता तैयार की है यह कैसे प्रचलित हो सकेगी और यदि हो भी गई तो इससे लाभ भी क्या होने वाला है इससे प्रत्यक्ष रूप से फायदा तो कुछ दिख नहीं रहा है। तब जम्भदेवजी ने कहा कि आपकी बातें सभी ठीक है किन्तु यह अमूल्य जीवन आपको धर्म कर्म करने के लिये ही प्राप्त हुआ है। यदि आप स्वर्ग चाहते हैं तो ये नियम अपनाने ही होंगे। तब पूल्हे जी ने कहा कि कैसा स्वर्ग, हमने आंखों से देखा नहीं है बिना देखे विश्वास भी तो कैसे हो सकता है।
यदि आप स्वर्ग के बारे में जानते है तथा आंखों से देखा है तो मुझे भी प्रत्यक्ष दिखलाइये तभी विश्वास हो सकेगा तथा ये सभी जमात के लोग तभी आपके स्वर्ग का मार्ग ग्रहण कर सकेंगे तब जम्भदेव ने इसी समराथल पर से ही पूल्हाजी को दिव्य स्वर्ग अपनी योग विद्या द्वारा दिखलाया था। स्वर्ग का सुख देखकर वहीं रहने की इच्छा जागृत हो जाये तो आश्चर्य ही क्या है तब स्वर्ग के साथ-साथ नरक भी दिखलाया तब पूल्होजी वापिस अपनी नरक मय वृत्ति को इस बाह्य जगत में तुरन्त लौटा लाये। स्वर्ग में तो वृत्ति बाह्य देश में वापिस आने को राजी ही नहीं। किन्तु नरक में क्षणभर भी रहना कौन चाहता है।
पूल्होजी समाज में मान्यता प्राप्त व्यक्ति थे उन्होनें सभी जनों को स्वर्ग या नरक का ब्यौरा दिया था। उससे सभी को विश्वास हो सका था। उसी विश्वास से स्वर्ग जाने की ललक सभी को जागृत हुई और जम्भदेव जी के पास आकर प्रार्थना करने लगे कि हमें भी पूल्हाजी की तरह स्वर्ग दिखलाईये तब जम्भदेव जी ने उनतीस नियम तथा कलश की स्थापना करके पाहल बनाकर सभी को पिलाया और कहा जो भी इन उनतीस नियमों को धारण करेगा और समय-समय पर जब भी मर्यादा टूटेगी तभी पाहल द्वारा फिर जोड़ लेगा वह निश्चित ही स्वर्ग का अधिकारी हो सकेगा। इसी तरह से यह बिश्नोई पंथ प्रारम्भ किया था।
इसी समराथल के ही सर्वोच्च शिखर पर आसीन होकर गुरु जम्भेश्वर जी ने मरूधरा के जन हितार्थ पाहल बनायी थी जिसमें सर्वप्रथम पूल्हेजी ने कलश पूजा समय कलश पर हाथ देकर सभी जनों का प्रतिनिधित्व किया था तथा यह कार्यक्रम संवत् 1542 कार्तिक कृष्ण अष्टमी से प्रारम्भ होकर अबाध गति से दीपावली तक चलता रहा था। उस समय अनेक प्रकार के लोग समराथल पर पहुंचे थे। सभी प्रकार के भेद-भाव भूलकर एक जगह एकत्रित होकर जंभदेव जी के सानिध्य से अपने को पवित्रतम बनाया था। उसमें न तो किसी जाति-पांति का भेदभाव ही था और न ही छोटे-बड़े या स्त्री-पुरूष तथा धनवान-गरीब का प्रश्न था।
सभी मानव मात्र बनकर आ पहुंचे थे और अपने जीवन का लेखा-जोखा प्रस्तुत करके शुद्ध सात्विक जीवन जीने की प्रतिज्ञा करके वापिस जा रहे थे इस प्रकार से बिश्नोई पंथ की संवृद्धि का कार्यक्रम समराथल पर आगे भी अबाध गति से चलता रहा था। किसी समय शून्य एकान्त सम्भराथल अब कोलाहल तथा जनमानस के आगमन से परिपूर्ण हो चुका था। सम्भराथल की पवित्र रेणु तथा वहां के बन सौन्दर्य को स्पर्श दर्शन करके सुविज्ञजन अपने को परम पवित्र अनुभव करने लगे थे।
एक वर्ष का कठिनतम दुर्भिक्ष का समय जम्भदेव जी ने इस प्रकार से आनन्दमय से व्यतीत करवा दिया था तथा साथ में वहां के लोगों की दानव वृत्ति में परिवर्तन कर दिया था। वही देव वृत्ति युक्त मानव उस समय जम्भदेव जी के शिष्य बिश्नोई कहलाये थे। एक बार स्वर्गीय सुख अमृत सदृश जीवन शक्ति उन लोगों को प्राप्त हो चुकी थी, फिर वे कभी उससे वंचित होने के लिये तैयार नहीं थे। इसलिये आगे परंपरा से यह बिश्नोई पंथ उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता रहा हैं।
क्योंकि जिस भूमि से इसकी उपज हुई है वह अति ही पवित्र अमृतमय है तथा इस बिश्नोई वृक्ष का बीज वपन करने वाले तथा इसकी संवृद्धि के लिये जल सेंचन करने वाले सदा उसी भूमि पर निवास करते हैं तभी तो इस वृक्ष के फल फूल अमृतमय तथा चिरस्थायी हो सके हैं। यह पंथ उन शाश्वत मूल्यों पर टिका हुआ है इसलिये तो जो उपयोगिता उस समय इन धर्म नियमों की तथा बिश्नोई पंथ की थी, वह अभी भी तो है।