जाम्भोजी का भ्रमण भाग 3
जय हो लोहट के लाला की। जो हमारे जैसे दास पर कृपालु हुए है। धन्य है माता हांसा को जिन्होंने अपनी गोद में खिलाया है। धन्य है बुआ तांबा और पीपासर के ग्वाल बाल, छोटे बड़े सभी जिन्होंने अपना समय देवजी के साथ व्यतीत किया। वह बागड़ देश भी धन्य है जिस भूमि पर विष्णु के चरण चिन्ह स्थापित हुऐ है केवल बागड़ देश ही धन्य नहीं है, हमारा देश भी धन्य हो गया है धारू स्तुति करते हुए आगे हाथ जोड़े खड़ा था।
हे देव आपने सत्य लोक को किस कारण से छोड़ा? अब आप स्वयं विष्णु ही यहां पर आ गये है। तो मेरे सिर पर अपना वरद हस्त रखो। जिस प्रकार से प्रहलाद के सिर पर हाथ आपने नृसिंह रूप धारण करके रखा था। आज हमारा जन्मों जन्मों का भाग्य उदय हुआ है कि स्वयं सृजन हार ही हमारी धरती पर पधारे है। घाटम और धारू की स्तुति से श्री देवजी अति प्रसन्न हुए और इन भक्तों को अन्य कुछ भी नहीं चाहिये केवल भक्ति ही प्रगाढ नित्य प्रति बनी रहे।
यही वरदान दिया और जीवन युक्ति और मुक्ति प्रदान की। अनेक भांति के लोग लोदीपुर में दर्शनार्थी आते और अपनी इच्छा की पूर्ति करके जाते थे श्री देवजी के साथ में आये हुए भक्त मंडली की सेवा गुरु भाईयों ने करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। इस प्रकार से एक माह तक श्री देवजी लोदी पुर ग्राम में रहे वहां पर जितने भी प्रहलाद पंथी जीव थे वे सभी आकर कृतार्थ हुऐ थे।
नाथोजी कहते है- हे वोल्हा। एक माह धात जब वहां से रवाना होने की तैयारी कर रहे थे तभी एक सूरजी नाम की बुढिया आयो, हमने उसके प्रेम को देखा था, वह तो साक्षात शरीर धारी भक्ति ही थी।जो मानव के रूप में आयी थी। वह हाथ जोड़ कर श्री देवजी से कहने लगी- हे देवजी। आप तो वापिस
जा रहे है ? जब आप नहीं आये थे तब तो आपकी प्रतीक्षा में समय व्यतीत ठोक हो रहा था किन्तु अब चले जाओंगे तो इस बूढे शरीर में प्राण कैसे रहेंगे ये मेरे प्राण तो आपके साथ ही जाना चाहते है, अब ये प्राण किस के सहारे से टिकेंगे।
हमने आपका बागड़ देश सम्भराधल देखा है वहां के वृक्ष देखे है, जिनके नीचे आप बैठते है। ऐसा कोई वृक्ष हमारे यहां भी लगाइये। जिससे हम दर्शन कर के कृतार्थ हो सके। आपके ही द्वारा लगाया हुआ रोटू गांव में हिजड़ों के बाग का दर्शन हमने किया है। वहां का दर्शन यहां भी होता रहे ऐसी कुछ कृपा करो।
हे वील्हा । इस प्रकार से देवी सुरजी की प्रार्थना सुन कर श्री देव ने बागढ़ देश का वृक्ष खेजड़ी वहां पवित्र स्थल साथरी पर लगवायी थी। जाम्भोजी महाराज की महिमा अपार है न जाने वह खेजडी का वृक्ष शून्य में से कहां से आया। हम तथा उन ग्राम वासियों ने तो वहां पर वह वृक्ष लगा हुआ देखा था, कहीं से भी लाते हुए नहीं देखा था। वह वृक्ष बड़ा ही अलौकिक प्रकृति से परे था।
कृष्ण चरित्र से तो अनहोनी भी हो जाती है, यह कृष्ण चरित्र हो था। हम तो कुछ भी निर्णय नहीं कर सके थे क्योंकि उस देश में आस पास कहीं भी ऐसा खेजड़ी का ऐसा वृक्ष दुर्लभ है। सुरजी ने हाथ जोड़े और हे मेरे प्राणाधार। यह वृक्ष हो आपने यहां क्यों लगाया, इसमें यदि कुछ रहस्य है तो अवश्य ही बतलाने की कृपा करो।
श्री देवजी ने बतलाया कि वेद शास्त्रों में इस वृक्ष को शमी के नाम से कहा जाता है। त्रेता युग में इसको तुलसी कहते थे। इस समय कलयुग में इसे बागड़ देश में खेजड़ी कहते हैं केई लोग जांही भी हे इसकी कुछ विशेषता है। यह वृक्ष अपने आप में परोपकारी है, अपनी ७छया में दूसरे वृक्षों को पनपने से रोकता नहीं है,
अन्न आदि पदार्थ के लिए भूमि को उपजाऊ बनाता है। यह अपने नीचे पनपने वाले घास अन् का जल स्वयं नहीं पीता यह तो नीचे का गहरा पानी खींचकर पीता है। जिससे धरती में नमी बनी रहती है। पाताल का पानी आकाश में चढाने की इसकी क्षमता है। यह स्वयं खुशहाल रहकर दूसरों को भी खुशहाल देखना चाहता है।
ऐसा गुण अन्य वृक्षों में मिलना दुर्लभ है। स्वयं सर्दी गर्मी बरसात सहन करके अन्य जीवों की रक्षा करता है । इसी वृक्ष से सदा हो तुम्हें प्रेरणा लेनी चाहिये। यहीँ प्रेरणा ही जीवन को सुखमय बनाने का परम आधार है। इस प्रकार से लोदी पुर में खेजड़ी वृक्ष का आरोपण कर के खेजड़ी वृक्ष का महात्म्य बतलाते हुए श्री जंभेश्वर जी ने पुनः जोर देकर कहा
इसके लगने वाली फली-सांगरी साक पात के लिए उत्तम भोजन है। यह तो सर्व रोगों को हरने वाली अमृत बूंटी है। इसके पते उंट गाय, आदि खाते है, इससे उनको पोष्टिक आहार मिलता है, किन्तु इस देव स्वरूप वृक्ष को कभी नहीं काटे। स्वतः ही इससे जो कुछ मिल जाये वही अमृत तुल्य है।
नाथोजी कहने लगे- हे वोल्ह! इस प्रकार से श्री देवजी ने खेजड़ी का दरख्त लगाया तुम भी कभी भ्रमण करने को अवश्य ही जाना। वहां लोदीपुर धाम में अवस्थित श्री देवजी की स्मृति रूप उस वृक्ष का दर्शन स्पर्श करके कृतार्थ होना । लोदीपुर गांव से अपने शिष्यों सहित रवाना हुए और केई दिनों के पश्चात लखनऊ पहुंचे।
लखनऊ में नबाबगंज में तंबू ताने और कुछ लोगों पर कृपा करने हेतु आये थे। लखनऊ का स्वाति शाह बादशाह श्री जंभेश्वर जी से मिलने के लिए अनेक प्रकारों को भेंट लेकर आया था। एक रात्रि में लखनऊ में ही निवास किया। स्वाति साह का उद्धार किया। स्वांतिसाह ने लखनऊ में नवाब गंज में हिन्दू और मुसलमान का मिश्रित मंदिर मस्जिद का निर्माण करवाया। एक तरफ मंदिर दूसरी तरफ मस्जिद। हिन्दू मुसलमान दोनों धर्मो का सामान आदर स्वांति साह ने किया था मंदिर में पुजारी थापन था और मस्जिद में मुझे रहा करते थे।
लखनऊ में केवल स्वाति साह से ही विशेष कार्य था वह कार्य अति शीघ्र पूर्ण कर के श्री देवजी सृष्टि के चक्कर से घूमते हुए पूर्व में हो औरैया, कानपुर, आदि देशों में घूमने की इच्छा से आगे बढ़े। कुछ दिन चलने के पश्चात श्री देवजी ने औरेया के शिव मंदिर में आसन लगाया। चार हजार संत भक्त साथ में
थे। बड़ी भारी जमात आयी है ऐसा सुन करके स्थानीय लोग अपनी अपनी भेंटे लेकर श्री देवजी के दर्शनार्थ आये।
पूरवियों ने देखा कि यहां तो सभी साधु भक्त हवन कर रहे है वेद मंत्र तुल्य ही उच्च स्वर से शब्दों का उच्चारण कर रहे है। स्वाहा कहते हुए पीते रेयल सामग्री की आहुति दे रहे है अग्नि अति प्रसन्नता से उनकी दी हुई आहुति स्वीकार कर रहे है। ऐसे ऋषि तुल्य विश्नोईयों का दर्शन करके कृत्य कुत्य हुए। आगंतुक जमात ने देखा कि उन हवन कर्ताओं के बीच में श्री देवजी ताराओं के बीच जिस प्रकार से पूर्ण चन्द्र दिखता है उसी प्रकार दिखाई दिये। जो जहां आगे पीछे खड़े थे वहीं से श्री मुख दिखता था। ऐसा मालूम पड़ता था कि स्वयं यज्ञ रूप परमात्मा ही प्रगट हुए है।
जिस यज्ञ नारायण की स्तुति यज्ञ द्वारा करते आये है यह तो आज साक्षात ही प्रगट है इस प्रकार से औरेया में श्री देवजी आठ दिनों तक रहे। नित्य प्रति ही होम जाप पाठ आदि होते हुए दर्शकों ने देखा कछ लोगों ने ता प्रथम बार ही यह कौतुक देखा था। अन्यथा तो सदा ही ग्राह्मणों द्वारा यज्ञ होना देखते आ रहे थे। ये ब्राह्मण लोग तो बहुत ही पड़पची थे यज्ञ कर्म को अनेक विधि विधानों में फंसा कर लोगों की अरूचि पैदा करवा दो थी।
यहां पर उन्होंने बहुत ही सरल स्वाभाविक रूप से इतना सात्विक यज्ञ प्रथम बार हो देखा था। बाह्य दिखावा तो आडंबर है, यह यज्ञ आडंबर रहित प्रेम भाव से किया जा रहा था यहां यज्ञ पूर्ण होने पर दक्षिणा के लिए तूं तूं मैं मैं नहीं थी। यज्ञ कर्म करने में जो आनंद की अनुभूति थी वही सच्ची दक्षिणा थी। वह उन्हें प्राप्त हो रही थी।
श्री देवजी अपनी जमात के सहित औरेया के शिव मंदिर में रहने से उस मंदिर का नाम ही हरि मंदिर हो गया। क्योंकि स्वयं हरि- विष्णु ने ही आकर निवास किया था इससे पूर्व तो केवल शिव मूर्ति को ही भगवान मान कर चल रहे थे। अब तो हरि के चरण चिन्हों से वह भूमि तीर्थ बन गयी थी औरेया में प्रहलाद पंथी जीवों को सचेत कर के श्री हरि आगे मुसाणपुर गांव में पहुंचे।
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मुसाणपुर गांव के निवासी श्री हरि के परम शिष्य थे। उन्हें नित्य प्रति हवन करने का नियम पूर्व में बतलाया था। उसी नियम का पालन करते आ रहे थे। हवन करना चाहिये केवल एक इस नियम का पालन हो जाये तो दूसरे नियम तो स्वत: ही पालन हो जायेंगे। अलग अलग बताने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। श्री देवजी के मुसाणपुर आने पर विराट यज्ञ का आयोजन किया गया। नित्य प्रति सवामन घृत की आहुतियां दी जा रही थी। अन्य सामग्री भी सुगंधित औषधियों द्वारा निर्मित की गयी।
वहां का वातावरण सम्पूर्ण सुगंधमय हो गया था। अन्य सामग्री भी सुगंधित औषधियों द्वारा निर्मित की गयी। वहां घूत की आहुतियां दी जा रही थी। अन्य सामग्री भी सुगंधित औषधियों द्वारा निर्मित की गयी यहां का वातावरण सम्पूर्ण सुगंधमय हो गया था। ऐसा लगता था मानो यह स्वर्गलोक हो है। जहां केवल सुगंध हो है। सस्वर शब्दों का उच्चारण सुनकर ऐसा प्रतीत होता था मानों देवलोक में गन्धर्व गान कर रहे है।
हे वील्हा। मैं वहां की महिमा का क्या क्या वर्णन करूं। यह बाणी उस अलौकिक दृश्य का वर्णन नहीं कर सकती। किन्तु मेरा अनुभव वाणी द्वारा बाहर निकलना चाहता है। इसीलिए मैं बिन कहे रह नहीं सकता दूर दराज गाँव के लोग आते यज्ञ स्वरूप विष्णु जाम्भोजी का दर्शन करते और कृत्य कृत्य होकर
वापिस चले जाते। यह कार्यक्रम केई दिनों तक चलता रहा।
शहर कन्नोज में एक खडग सिंह राजा रहता था वह कहों वन में गया किसी ऋषि के आश्रम की मर्यादा का उल्लंघन किया था। इस कारण से राजा को कोद हो गया था वह बिमारी दिनों दिन बढती ही जा रही थी। राजा स्वयं तो सचेत नहीं हो सका किन्तु किसी ज्ञानो आदमी ने बतलाया कि यह कोट किसी दवाई से ठीक होने वाली नहीं है जिस अपराध से यह रोग लगा है उसी अपराध को शांति से यह रोग मिटेगा।
राजा के बात समझ में आ गयी और सदा हो प्रताक्षा में रहता था। कि कब कोई ऐसा देख पुरूप आये और मैं उनसे क्षमा याचना करूं जिससे मेरे रोग की निवृत्ति हो सके। हे बौल्ह। जिस समय वो देवजी मैनपुरी में विराजमान थे वह समय खडकसिह में मिलने के लिए उचित समझा। जाध्भोजो के पर स बुद्धा विश्वास से राजा अपने राज्य अहंकार का गिराकर शुद्ध पवित्र होकर शरी देवजो से मिलने के लिए आया था।
श्री देवजी साथरियों के साथ विराजमान थे। हमने देखा कि वह राजा बहुमूल्य अनेको भेंट लेकर | आया था। श्री चरणों में अपनी प्रिय धन के साथ ही अहंकार को भी चढ़ा दिया था। श्री देवजी के चों ने में गिर कर गिडगिडाने लगा था। देवजी न कृपा कर की उसके सिर पर हाथ रखा। तभीী खड़ग सिंह ने अपने शरीर को ही देखा तो कोढ़ झड चुकी थी।
हे विलह! इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। श्री विष्णु के सामने तो किसी भी प्रकार के पाप रोग कष्ट कैसे टिक सकते है।
सूर्योदय होने पर अंधकार कहां टिकता है, सेर की गर्जना सुन कर वन्य जीव कहां टिक पाते है श्री विष्णु ने तो अपने दिव्य चरित्र से बड़े बडे भयंकर राक्षसों को भी पछाड़ दिया। वह विचारी कोट कितनो सी है? जो विष्णु के सामने टिक सके।
शुद्ध पवित्र शरीर हो जाने से राजा ने जामात तथा श्री देवजी को बहुत बहुत धन्यवाद दिया और प्रार्थना करने लगा- हे देव! आप सम्पूर्ण जमात सहित मेरे घर पर अवश्य ही चलो। मैं आपकी सेवा कर के जन्म सफल करूंगा। भक्त के प्रेम भाव को किसने ठुकराया है? भगवान तो प्रेम को देखकर दौड़े आते है। प्रेम ही संसार में सार है। बिना प्रेम तो नटवर नागर रिझते ही नहीं है। इस प्रकार से प्रेम भाव से अभिभूत होकर श्री देवजी के साथ हम सभी लोग कन्नौज गये थे।
मन इच्छित भोजन कर के तृप्त हुए थे। वहां के प्रेम भाव को कैसे भुलाया जा सकता है अभी भी कभी कभी याद हो आती है राजा ने बहुत ही बहुमूल्य भेंट श्री चरणों में रखी थी। जाम्भोजी ने कहा- हे राजन। ये बहुमूल्य वस्तुएं मुझे नहीं चाहिये। इन्हें तूं वापिस लेले और किसी परोपकार के कार्य में लगा दे।
राजा ने पूछा-हे देव! इस समय मैं क्या परोपकार का कार्य करूं? जो आपकी आज्ञा हो वही कार्य मैं करें। श्री जम्भेश्वर जी ने कहा- यहां पर जहां मेरा आसन है वहीं पर दिव्य मंदिर का निर्माण करवावों। यहां पर इस मंदिर में सभी प्रकार के लोग आयेंगे और अपनी इच्छा पूर्ति करेंगे। यह मंदिर सर्व साधारण के लिये श्रद्धा का केन्द्र होगा।
नाथो जी कहते है- हे विल! राजा खड़गसिंह ने वहां पर दिव्य मंदिर का निर्माण करवाया है। वैसे तो मंदिर की आवश्यकता नहीं है हदय रूपी मंदिर में परमात्मा साक्षात विराजमान होकर इस शरीर का संचालन करते है। फिर भी अल्पज्ञ जीवों के लिए बाहा विग्रह की भी आवश्यकता होती है। छोटे बच्चों को क से कबूतर बताया जाता है किन्तु जब बड़ा हो जाता है जो क को तो पकड़ लेता है और कबूतर को छेड़ देता है। उसी प्रकार से प्रारम्भिक अवस्था में तो मंदिर चित्र आदि का सहारा लेना ही पड़ता है बाद में जब ज्ञान हो जाये तब स्वतः ही छूट जाता है।
मुसाणपुर एवं कन्नौज से चलकर श्री देवजी कालपी यमुना जी के घाट पर शोभायमान हुए। जहां पर हरि ने तम्बू लगाया वहां पर भी हरि मंदिर का निर्माण वहां के लोगों ने करवाया जाम्भोजी के चेले रतनदास ने वहां पर मंदिर बनवाने में तन मन धन समर्पित किया था। वहीं विष्णु मंदिर की ही राम- कृष्ण आदि नामों से पूजा अपनी रूचि के अनुसार ही पुजारी लोग करते है। तीन दिनों तक जाम्भोजी ने कालपी में निवास किया।
वहां से आगे चलकर श्री देवजी कानपुर आये। वहां पर भी अधिकारी जीवों को सचेत पूरबिये विश्नोई वहां पर व्यापार करने वाले दर्शनार्थ अपनी अपनी भेंट लेकर आये। दर्शन करके अपने पापों का विनाश किया, अपने जीवन को सफल किया।
नाथू जी कहते है- हे बिल्ली। जो हम लोग देवजी के साथ पूर्व देश में भ्रमण कर रहे थे तभी वहां के लोग एकत्रित होकर अपनी एक समस्या का समाधान करवाना चाहते थे देवजी से आज्ञा लेकर उनमें से एक प्रतिष्ठित व्यक्ति ने कहा- हे देवेश । हमारे यहां पर मुसलमान बहुत ज्यादा है। वे यदि हमारे धर्म पालन करने में विघ्न पैदा करें तो हमें क्या करना चाहिये आप हो हमें कुछ शक्ति प्रदान कीजिए ताकि हम उनको जवाब दे सके। हमारा धर्म निर्विघ्न चलता रहे। तब श्री देवजी ने एक दिव्य चमत्कार दिखाया उसके बारे में मैं तुझे बतला रहा हूं।