बिन बादल प्रभु इमिया झुराये : जम्भेश्वर भगवान बिना बादलों के वर्षा कराई
एक समय श्री गुरु जम्भेश्वर जी ग्वाल बालों के साथ वन में गऊयें चराते थे साथ में अनेक बालक गायें आदि पशुधन भी आनन्द से वन में विचरण कर रहे थे उसी समय आकाश में बादल दिखाई | दिये। सभी ग्वाल बालों के देखते ही देखते वर्षा होने लगी। खिण एक मेघ मण्डल होय वर। एक ही क्षण में वर्षा होने लगी थोड़ी देर बाद वर्षा पुनः रूक गयी हवा का झोंका आया कि बादलों को उड़ा दिया।
अभी धरती की प्यास पूर्णरूपेण शांत भी नहीं हो पायो कि बादल तो साफ हो गये कहीं कहीं नीचे जगहों पर पानी ठहरा था, इसीलिए बालक गऊवों को जल पिलाने पींपासर के कुएँ पर नहीं गये। वहीं बन में गऊवें आदि पशु पानी पी चुके थे।
बालकों के परिजनों ने कुछ समय तक तो प्रतीक्षा की कि अब आयेंगे बालक भोजन करेंगे किन्तु जल खहीं पर उपलब्ध हो जाने से आज तो बालक भोजन करने नहीं आये? जल से प्यास तो मिट सकती है किन्तु भूख नहीं मिटेगी।
लोग कहने लगे- हमारे बालक भी जाम्भेश्वर की तरह खाना छोड़ देंगे क्या? उनकी संगति करते हैं उनके ही पीछे पीछे चलते हैं। यदि भूख ही नहीं लगती है तो क्या खायेंगे। क्यों आयेंगे? हो सकता है यह संगति का ही फल है। हम ऐसा कभी नहीं होने देंगे? चलो चलते हैं। अपने अपने प्रिय आँखों के सितारों को वही वन में ही भोजन करवा के आते हैं। हम दिन रात कमाते किसलिये हैं ? केवल अपनी संतान के लिए हो तो कमाते हैं, जीते हैं। वह संतान ही यदि भोजन से परहेज करेगी तो हमारा जीवन ही व्यर्थ हो जायेगा।
ऐसा कहते हुए ग्रामवासी सभी अपने अपने बालकों के लिए भोजन लेकर चल पड़े। लोहटजी बोले हे भाई लोगों। आज मैं भी आपके साथ वन में चलूंगा आप लोग तो भोजन लेकर जा रहे हैं किन्तु मैं तो वैसे ही चलूंगा, क्योंकि मेरा बेटा तो भोजन करता ही नहीं है। आज अभी अभी हमारे यहां वर्षा हुई है मौसम बहुत ही सुहावना हो गया है।
आज मैं स्वयं अपने लाडले को अपनी आँखो से गऊवें चराते, घेरते,खेलते हुए देखेंगे। कानों से तो मैं अनेक प्रकार की बातें सुनता रहता हूँ किन्तु आँखो से देखे बिना मुझे संतोष नहीं होता है। लोहटजी ने वन में जाकर देखा कि हमारा पशु धन निर्भय होकर विचरण कर रहा है। सभी हमारो गायें सकुशल हष्ट पुष्ट हो गयी है।
जैसी मेरी इच्छा थी वह आज मैं अपनी आंखो से पूर्ण होता देख रहा है। हमारे प्रियजन हमें भोजन करवाने हेतु आज तो वन में आ गये हैं। ऐसा देखकर ग्वाल बाल सभी एकत्रित हो गये। आज तो मिश्री माखन दूध मिलाई लेकर आये हैं। अभी सभी मिलकर हा भोजन करेंगे, बड़ा आनन्द आयेगा। सह नौ अवतु सह नौ भुनक्तु, सह वीर्य करवावहै तेजस्विनावधीतमस्तु, मा विद्विषावहै।
ऐसा उच्चारण करते हुए भोजन करना प्रारम्भ किया। कहने लगे- हमें आज साथ-साथ भोजन करने का अवसर प्राप्त हुआ है, किन्तु एक बात तो अभी खटकती है, यदि हमारे साथ जम्भेश्वर जी सिद्धान्त के पक्के हैं, गुरु आप संतोषी अवरा भोजन करते तो कितना अच्छा होता, किन्तु ये तो अपने पोखी आप ही संतोषी है, कभी कुछ खाते ही नहीं है कि दूसरों का बहुत ध्यान रखते हैं। रोज-रोज हमें पूछते रहते हैं कि आज आप लोगों ने भोजन किया या नहीं यदि नहीं किया है तो मैं तुम्हारी गायें चराऊंगा तुम घर जाकर भोजन कर आओ।
यदि कभी वन में हमें बिना समय ही भूख लग जाती है तो न जाने कहाँ से हमें इतने अच्छे-अच्छे फल लाकर खिलाते हैं। ऐसे फल तो हमें ढूंढने से भी नहीं मिलते हमने कभी देखा भी नहीं है। हे प्यागों ये हैं अजब के मित्र ! बिना भोजन के कैसे रह जाते हैं ? अवश्य ही वन में मधुर मधुर फल खाते होंगे। जिस वजह से इनको भूख नहीं लगती। ये बाहा फल तो खाते नहीं दिखते, अवश्य ही इनके अन्दर ही मधुर फल वाला पेड़ होगा? उसका फल खाते होंगे।
आपने देखा होगा कि कभी कभी ये तो अपने सखा,श्वास को रोक कर देवली की तरह बैठ जाते हैं. तब इनको देखो तो रस से भरे हुए अति आनन्दित होते हैं। हम चाहे कितना ही मधुर रसमय मनवांच्छित भोजन करलें किन्तु इनकी तृप्ति जैसी तो हमें कभी तृप्ति नहीं मिलती। हो सकता है इसी तृप्ति का अनुभव करते हुए योगी लोग समाधि में वर्षों तक बैठे रहते हैं। हम तो अधिक कुछ नहीं जानते, इनकी गति तो भाइयों वही जाने।
चलो हम तो भोजन करते हैं, हमें तो भोजन ही जीवित रखेगा भोजन करने से पूर्व जल तो चाहिये? किन्तु जल यहाँ पर नहीं है, बिना हाथ पैर धोये तथा आचमन किये बिना तो भोजन हमें ये हमारे बड़े लोग खिलायेंगे नहीं। हम में से जल कौन लायेगा? हम सभी भूख के आधीन हो गये हैं। पहले तो इतनी भूख नहीं थी किन्तु अब तो अन्न की सुगन्धी ने हमारी भूख को अनन्त गुणी कर दी है।
बालकों की समस्या का समाधान करते हुए लोहटजी बोले- आप लोग बैठ जाइये, क्योंकि आपको भूख लगी है। भूखे भजन न होय गोपाला आप लोगों से जल नहीं लाया जायेगा क्योंकि दूर है। यह आपका सखा मेरा बेटा जो तुम्हारा सदा ही सहायक है इसे तो भूख भी नहीं लगती यह सभी के लिए जल ले आयेगा।
लोहटजी ने कहा बेटा। ये बालक भोजन कर रहे हैं, तुम कलश लेकर जाओ इनके लिए स्वच्छ जल ले आओ। जाम्भोजी ने अपने पिताश्री की आज्ञा शिरोधार्य की और हाथ में कलश लेकर जल लाने के लिए चल पड़े। जहाँ भी जाते जल देखते किन्तु घड़ा खाली लिए लौट पड़ते। आखिर में घूमते-घूमते कलश खाली ही लेकर लौट आये।
लोहटजी ने जोर देकर कहा- रे गूंगा! खाली घड़ा लेकर लौट आया, जल नहीं लाया? तुम्हारे भरात पर ये बालक बैठे हुए जल की प्रतीक्षा कर रहे हैं। जम्भेश्वर जी ने कहा- हे पिताजी! आपने कहा था कि स्वच्छ जल लेकर आओ, किन्तु मैनें सभी जा पर देख लिया है कहीं भी स्वच्छ जल नहीं है, भूमि पर पड़ा रहने से भूमि के गुण जल में प्रवेश हैक गन्दा हो गया है। यहाँ जल पीने योग्य स्वच्छ नहीं है। आपकी आज्ञा का पालन करना था किन्तु दूषित जा बालकों को कैसे पिलाया जा सकता है।
लोहटजी बोले- गुंगा गुंगी बात करता है, जल तो इन्द्र देवता स्वच्छ ही बरपाता है. जल में तो कोई दोष नहीं होता। फिर खाली क्यों आये? यदि जल स्वच्छ प्राप्त नहीं है तो क्या ये बालक भूखे प्यासे हो गे। आज तो इनको भोजन जल से तृप्त करना ही होगा। यदि भूमि पर पड़ा हुआ जल स्वच्छ नहीं है तो तम इन्द्र देवता से साफ जल बरसाओ और इनको जल पिलाओ।
जाम्भोजी बोले- हे बालकों! आप लोग थोड़ी देकर के लिए खड़े हो जाओ। एक चादर ले लो उसके चारों पले पकड़ लो, नीचे कलश रख दो। अभी-अभी इन्द्र देवता वर्षा करेगा और कलश स्वच्छ जल से भर जायेगा, आप लोग भोजन कर लेना। चार बालकों को चादर के चार पले पकड़ा दिये और नीचे कलश रख दिया।
उसी समय ही आकाश में बादल मंडरा कर आये, वर्षा होने लगी, चादर पर पानी पड़ने लगा कलश जल से भर गया। उपस्थित सभी सुहदो ने जय जम्भेश्वर कहते हुए जय जयकार किया भोजन करके सायं समय में वापिस पीपासर लौट आये। आज के आश्चर्य को देखकर लोहटजी ने फिर गूंगा कहना छोड़ दिया। जिसके इन्द्र देवता वश में है वह गूंगा कैसे हो सकता है।
भगवान ने कहा है- तपाम्यहमहं वर्ष निगृहणाम्युत्सृजामि च भगवान ही तो सूर्य रूप से तपते हैं, वर्षा रूप होकर स्वयं ही वर्षते हैं, ग्रहण भी स्वयं ही करते हैं तथा त्याग भी स्वयं करते हैं। सर्वसमर्थ स्वयं ही सभी कुछ करते हैं। उनके लिए असंभव कुछ भी नहीं है। वील्होजी उवाच:-हे गुरुदेव ! मैनें सुना है कि द्वापरयुग में कृष्णावतार से इन्द्र देवता रूप्ट हो गये थे, शायद उनकी शक्ति की परीक्षा ले रहे थे किन्तु अबकी बार तो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, शीघ्र ही इन्द्र वर्षा करने में तत्पर हो गये।
नाथोजी उवाच: हे शिष्य ! प्रथम द्वापरयुग में तो कृष्ण ने गोपों से इन्द्र यज्ञ बंद करने की बात कही थी। जिससे इन्द्र का रूप होना स्वाभाविक ही था। इन्द्र घनघोर वर्षा करके कृष्ण को हराना चाहते थे किन्तु भगवान के सामने तो इन्द्र बहुत ही बौना है। ब्रजवासी डूबने लगे तब कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठा लिया था। सभी ब्रजवासियों को गोवर्धन पर्वत की गुफा में सुरक्षित रख लिया था।
इस बार तो जाम्भोजी ने यज्ञ की लुप्त परम्परा को पुनः प्रारम्भ किया था। मेघ के देवता इन्द्र बड़े ही प्रसन्न थे। इन्द्र ने देख लिया था कि मैं इनकी शक्ति परीक्षण में हार जाऊंगा। ये मेरे से कहीं ज्यादा शक्तिशाली है। ये तो साक्षात् विष्णु ही है, हम सभी देवता उन विष्णु के ही अधीन है। ये ही हमारे सर्वस्व है। इनकी तो शरण ग्रहण ही सुखदायी है। इसीलिए स्मरण करते हुए इन्द्र देवता शीघ्र उपस्थित हो गये और वर्षा करने लगे।
अथ दुर्गाद्वात्रिंशन्नाममाला - श्री दुर्गा द्वात्रिंशत नाम माला (Shri Durga Dwatrinshat Nam Mala)
दुनिया मे देव हजारो हैं बजरंग बली का क्या कहना (Duniya Me Dev Hazaro Hai Bajrangbali Ka Kya Kahna)
गुरु आसन समराथल भाग 1 ( Samarathal Katha )
आप लोग भी यज्ञ द्वारा इन्द्र देवता की पूजा करोगे तो समयानुसार वर्षा होगी। वर्षा से हम तथा हमारे खेत-खलिहान, पश-पक्षी,जीव-जन्तु सभी पृष्ट होते हैं। सभी जीवन का आनन्द लेंगे, जीवन को मुसीबत न समझकर इसे महोत्सव समझेंगे।
Must Read : अमावस्या व्रत कथा महात्म्य
हे शिष्य इस प्रकार से गऊवों को चराते हुए जाम्भोजी ने अनेक चरित्र दिखलाये। एक दिन की बात है कि वन में गउवें चराते थे, नित्यप्रति संभराथल की तरफ गऊवें चराने जाते थे, यह सदा का ही क्रम या। पीपासर के लोगों ने मिलकर निश्चय किया कि गाँव की दो दिशाओं में ही खेती करेंगे बाकी दो दिशाओं में हमारा पशुधन विचरण करेगा, उनके निमित्त खाली छोड़ दी जायेगी किन्तु कभी कभी नियम व्यतिक्रम भी होता था।
कभी इधर खेती तो कभी उधर खेती ऐसा भी अपनी सुविधानुसार करते थे। एक एक गाय आदि खुली चरेगी तो दूसरी तरफ हमारी खेती भी बिना रखवाली के होती रहेगी। जिधर लोहटजो के खेत थे उधर ही उस दिन गायें चराने के लिए जाम्भोजी व अन्य बालक गए थे, क्योंकि अब तक खेतों में बनाई नहीं थी।
हल चलाने की तैयारी कर रहे थे, समय पर अच्छी वर्षा हो थी। कुछ लोग अपने-अपने खेत में हल चला रहे थे, लोहटजी भी अपने हल बीज आदि लेकर पंडर थे। लोहटजी अपने आप बुढ़ापे का अनुभव करने लगे थे। हल तो स्वयं ही चलाना चाहिए। किसी सेवा द्वारा यह बीज बोने जैसा पवित्र कार्य नहीं करवाना चाहिये।
क्योंकि हमारी खेती में जो अन्न होगा वर हमारे अपने हाथ का मेहनत होगा, वही मधुर होगा। अपनी शुभ कमाई का भोजन करने से ही मन बनि पवित्र होते हैं। ईश्वर के बताये हुए नियमों में जुड़ जाते हैं। मानसिक सुख शांति एवं संतोष की प्राप्ति होती है। यही जीवन का सार है, केवल पेटभराई तो सभी करते हैं।
लोहटजी ने विचार किया- यदि बेटा हल चलाने लग जाये तो बाप को खुशी का ठिकाना नहीं रहता। घर में बहू आ जाये तो माँ की खुशी का ठिकाना नहीं रहता। किन्तु मेरा बेटा शायद ही हल चलाये, अब वह हल चलाने के लायक तो हो गया है। उस दिन वहीं पर ही गऊवें चरा रहे थे। लोहटजी ने अपने ज्ञानी बेटे को बुलाया और कहने लगे बेटा! अब तुम हल चलाने के लायक हो गये हो, अपने यहाँ अच्छी वर्षा भी हुई है। सभी किसान अपने अपने खेतों में हल चला रहे हैं।
बाजरी, मोठ, मतीरा के बीज बो रहे हैं। भगवान की कृपा से थोडे ही दिनों में खेती लहलहा उठेगी किन्तु मैं अपनी तरफ देखता हूँ तो असहाय हूँ। तुम मेरे उत्तराधिकारी हो, कुछ सोचो और मुझे चिन्तामुक्त कर दो।
हमारे घर में जब अन्न होगा तो हम अपनी जीविका चलायेंगे, हमारे घर पर आने वाले अतिथि भी भोजन करेंगे और भी पशु, पक्षी, कीट पतंग न जाने कितने जीव हमारी इसी खेती से ही पलते हैं इसीलिए तुम्हें खेती करनी चाहिये। खेती ही सबसे उत्तम कर्म है। इस उत्तम कर्म से मुख नहीं मोड़ना चाहिए।
हे बेटा। आज तुम स्वयं हल चलाना सीख जाओ, मैं तुम्हें सिखा देता हूँ। कैसे बैलों को हांकना है, कैसे रस्सी पकड़ना है, कैसे हल पकड़ना है, कैसे बीज डालना है, कितना बीज किस प्रकार से बोया जाता है, ये सभी तुम्हें सिखला देता हूँ, ये सभी बातें तुम सीख जाओगे तभी मुझे संतोष होगा, अपना जीवन सफल समझृंगा। वास्तव में पुत्रवान कहवाऊंगा तुम्हारे इस कार्य से मुझे अपार खुशी होगी जिससे तुम्हारे परिजन खुश रहे वह कार्य तुम्हें करना चाहिये।
जाम्भोजी बोले- हे पिताजी ! यदि ऐसी बात है तो मैं आपकी प्रसन्नता के लिए अवश्य ही हल चलाऊंगा, आप देखें । अभी इसी समय ही प्रारम्भ करता हूँ, यह समय सर्वथा अनुकूल है। ऐसा कहते हुए दो बछड़े जो गायों में चर रहे थे, अब तक हल चलाये हुए नहीं थे, उनको हल में चलने का अभ्यास नहीं था, उन्हें नाम लेकर पास बुलाये और हल में जोड़ दिये।
बीज हल के ऊपर बाँध दिया, ऐसा उपाय कर दिया जिससे ज्यों ज्यों बछड़े हल को खींचे त्यों त्यों अपने हिसाब से बीज स्वतः ही गिरता रहे। हल में जोड़कर बछड़ों को चला दिया, अपने आप ही तो बछड़े अनुशासित बैलों की तरह चल रहे हैं। हल भी बिना पकड़े-सहारे बिना ही चल रहा है। स्वयं जाम्भोजी एवं लोहटजी दूर बैठे देख रहे हैं।
हल चलाने का कार्य स्वत: ही हो रहा है। लोहटजी ने देखा यह तो आश्चर्यजनक घटना है यह न ता कभी देखा है और न ही कभी सुना है, देखते ही देखते सम्पूर्ण खेत जोत दिया। बीज बराबर डाला गया,खेती भी ठीक ढंग से हो गयी। यह कैसा चमत्कार है। शाम को वापिस घर पर आकर लोहट ने हाँसा का सभी बातें बतलाई ।
ग्रामवासियों ने सुना तो इसे विष्णु की लीला ही माना। अन्यथा ऐसा होना असम्भव लोहटजी का परचा दिखलाया अर्थात् उस विष्णु परमात्मा से परिचित करवाया। वह विष्णु अपनी शक्ति से असंभव को भी संभव कर देता है। इस वर्ष अपार अन्न हुआ, सम्पूर्ण भण्डार अन्न से भर गये। जहाँ पर विष्णु की लीला हो स्वयं अपने हाथ से बीज बोया हो वह अन्न तो अवश्य ही अखूुट हो जायेगा।
दुबारा फिर कभी खेती करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। जो तन,मन,धन से परोपकार की भावना रखकर के कार्यक्षेत्र में उतरता है, उसके किए हुए कार्य का फल अखूट ही होता है। कभी किसी वस्तु की कमी नहीं पड़ती। जहाँ किसी कार्य में स्वार्थ आ जाता है, वह अधिक फलदायी होते हुए भी अल्प होता है कभी भी वह बरकत नहीं करता।
परोपकार की भावना से किया हुआ ही अनन्त गुणा होता है। जाम्भोजी स्वयं तो भोजन करते नहीं है, उन्होंने जो खेती की यह दूसरों के हित के लिए थी। इसलिए उस खेत में होने वाला अन्न अखूट हो गया पुन: खेती करने की आवश्यकता नहीं रही। वही अन भूखों को भोजन करवाने हेतु सं. 1542 में अकाल के समय में लोगों को दिया था। विश्रोई पंथ की स्थापना की थी।
इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। जाम्भोजी ने कहा था कि एक साहुकार मेरे पास में है अर्थात् साहुकारी ईमानदारी से खेत में उपजाया हुआ अन्न मेरे पास में है। वही अन्न में आपको खिलाऊंगा जीवों को बचाऊंगा।