गुरु आसन समराथल भाग 4 ( Samarathal Dhora Katha )

गुरु आसन समराथल भाग 4 ( Samarathal Dhora Katha )
गुरु आसन समराथल भाग 4 ( Samarathal Dhora Katha )
               गुरु आसन समराथल भाग 4 (Samarathal Dhora Katha)

श्री देवजी कहते है कि मैं सर्वत्र व्यापक होकर, सभी जोव – योनियों में प्रवेश करता हूं तथा उनका पालण पोषण भी एक क्षण में कर देता हूं। कर्ण के समान कोई दाता नहीं हुआ जिन्होंने हाथ में सोना लेकर सदा ही दान दिया था।

खालो हाथ कभी किसी को नहीं भेजा। किन्तु कर्ण सभी जीवो का पालन पोषण एक क्षण में करने में असमर्थ था। अवश्य हो घर पर आये हुऐ अतिथि को देता था। किन्तु सभी जीव योनियों तक नहीं पहुंच सका था।कह दिया दूंगा तो अवश्य ही दिया। माता कुन्ती को वरदान,इन्द्र को कवच कुण्डल, तथा ग्वाला ऋषि को गोदान इत्यादि।

श्री जाम्भोजी कहते है – मैंने सुमेरू पर्वत जैसा कोई पर्वत नहीं देखा । समुद्र के समान तालाब नहाँ देखा। लंका जैसा कोई कोट नहीं देखा,समुद्र जैसी खाई नहीं देखी । दशरथ जैसा कोई पिता नहीं देखा। देवकी जैसी कोई माता नहीं देखी। सीता जैसी तिरिया नहीं देखी जिन्होने किचिंत भी अहंकार नहीं किया। बड़े पर की बेटी एवं बहु होकर भी गर्व नहीं करना कुछ विशेषता बतलाता है।

हनुमान जैसा कोई सेवक नहीं देखा और भीम जैसा कोई बलवान भी नहीं देखा। रावण जैसा कोई राजा नहीं देखा, जिन्होने चारो दिशाओ में अपनी आण- मर्यादा राज्य सीमा फैला दी थी। किन्तु एक तिरिया सोता के लिये अपना विकास अवरुद्ध कर बेटा। जिस वजह से लंका द्वारा बनाई गई रावण और लंका दोनो ही तहस नहस हो गये स्वर्णमयी लंका शंख मोहर हीरे आदि लंका की शोभा बढ़ाते थे।

 वह लंका रावण को क्यों छूटी,एक तिरिया का हरण किया इस वजह से। यहां पर जाम्भोजी कहते हैं कि मैने तो रावण,लंका,सीता,हनुमान, भीम,देव को दशरथ आदि को देखा है तो इसका अर्थ है कि जाम्भोजी उस समय मौजूद थे और इस समय भी है आगे भी रहेगे। अपनी आंखो देखी बात बतला रहे है।

 श्री देवजी ने आगे फिर कहा यहां पर मरुभूमि में कलयुग के पहरे में जो ब्राह्मण थे वे तो वेद को भूल चुके है, अपने धर्म को ही भूल गये है। काजी लोग कुराण को भूल गये है,कलमें का क्या मतलब है इन्हें पता नहीं है। केवल वाह्य दिखावे के योगी योग मार्ग को भूल गये है। मुंडिया लोगो को तो बुद्धि ज्ञान ही नहीं है। ये लोग ज्ञानी होने का दावा करते है किन्तु इनको ज्ञान नहीं है।

 इस भंयकर कलयुग में माता पिता भी भूल में है। पिता तो यह चाहता है कि मेरा बेटा बड़ा होगा तो हल चलायेगा। कुवे से जल सींच कर के लायेगा। माता जानती है कि मेरा बेटा बड़ा होगा तो बहू लायेगा।मैं खुशी मनाऊंगी बधाइयां बांटूगी,किन्तु बेटे का क्या कर्तव्य है और माता पिता का क्या कर्तव्य है ये दोनों ही नहीं जानते।

श्री सतगुरु देव जो कहते है – मेरे इस शरीर के माता पिता लोहट हांसा भी यही सोच रहे थे किन्तु में | तो स्वयंभू विष्णु हूँ प्रहलाद को फरमाया था कि आऊंगा इसलिये आया हू,किन्तु मेरे या अन्य माता पिता इस बात को क्या समझे क्योंकि वे तो भूले हुऐ है। मैं यहां सम्भराथल पर आसन लगा कर बैठा हुम चाहू तो दोनो हाथों से पर्वत को उठाकर तोल सकता हूँ अपनी ताकत का प्रदर्शन कर सकता हूं।

 एक ही पलक में सर्व जीवों को भोजन देकर संतोष पैदा करता हूं अनेक शरीरों में आत्मा रूप में प्रवेश करके मैं पोषण करता हूँ। मैं तो युगो युगो का योगी हूं, यहां पर आया हूं,आसन लगा कर के बैठा हुआ हूं। यहां समराथल पर आसन लगाकर बैठे हुए को भी बैठने नहीं देते अनेक प्रकार के लोग आते है और पूछते है 

हल चलाने वाला हाली पूछता है। पाल-पशु धन चराने वाला पाली पूछता है। इस कलयुग में लोग सांसारिक बाते पूछते है,चलो पर घूमता हुआ खिलेरी पूछता है कि मेरो बकरी खो गयी है,आप बतलावें। बाण चलाकर के पारधी -शिकारी पूछता है कि अकारण ही मेरा निशाना क्यों चूक जाता है।

 जाम्भोजी कहते है कि रे मुर्ख । मुग्ध ग्वार मजदूरी करके पेट भराई करलो किन्तु इन जीते जागते जीवो को क्यों मारते हो। मैड़ी बैठा हुआ राजा पूछता है कि मेरी आयु कितने दिनों की है। चाकर पूछता है ठाकुर पूछता है,कीर कहार भी यहां आकर पूछते है। विधवा स्त्रियां पूछती है। हाथ में सुपारी की भेट लेकर स्त्रियां पूछती है कि मेरे संतान क्यो नहीं हुई? आगे होगी या नहीं? यहां जन्म लेने का क्या प्रयोजन है यदि संतान ही नहीं होगी तो?

 जाम्भोजी कहते है कि मैने त्रेता युग में हीरो का व्यापार किया। उतम लोगो के साथ संपर्क हुआ, उतम फल की प्राप्ति हुई। द्वापर युग में गऊ चराई,वृन्दावन में बंसी बजाई, किन्तु अब कलयुग में तो छाली-भेड बकरी चराने का समय आ गया है। यहां इस कलयुग में तो भेड बकरी जैसे ही लोग यहां बसते है। ऐसे लोगो के साथ मेरा संपर्क है। इससे पूर्व मैने नौ अवतार लिये है। दसवां अवतार कल्कि होगा।

 इस बार मैंने इस उतम बागड़ देश में धर्म का प्रचार किया है। यहां पर मैं एक जुवारी की तरह खेल रहा हूं। आखिर जीत तो मेरी ही होगी। मैं यहां पर बैठा तो एक खण्ड में ही हूं किन्तु नव खण्ड को जीत लिया है। ऐसा मैं जुवारी हूं। कोई लेना चाहे तो अवश्य ही प्राप्त करे।

साथरियां जमाती अरज देवी। जांभोजी सुधी मार्ग बताओ। जाम्भोजी श्री वायक कहे

शब्द-86

ओ३म् जुग जागो जुग जाग प्राणी, कांय जागंता सोवो । भलकै बीर बिगोवा जायसी, दुसमन कांय लकोवो।

 ले कुंची दरबान बुलावो, दिल ताला दिल खोवो।

 जंपो रे जिण जंप्यो जणीयर, जपसी सो जिण हारी।

लह लह दाव पड़ता खेलो, सुर तेतीसां सारी।

पवन बंधान काया गढ़ काची, नीर छलै ज्यूं पारी।

 पारी बिनसै नीर ढुल्ल, पिंड काम न कारी।

 काची काया दृढ़कर सींचो, ज्यूं माली सींचे बाड़ी।

 ले काया बामंदर होमो, ज्यूं ईंधन की भारी।

शील स्नाने संजमे चालो, पाणी देह पखाली।

गुरु के वचन नींव खिंव चालो, हाथ जपो जप माली।

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श्री जगन्नाथ अष्टकम (Shri Jagannath Ashtakam)

 बस्तु पियारी खरचो क्यूं नाहीं, किहिं गुण राखो टाली।

 खरचे लाहो राखे टोटो, बिबरस जोय निहाली।

 घर आगी इत गोवल बासो, कूड़ी आधो चारी।

 सुकरात जीव सखायत होयसी, हेत फलै संसारी।

आज मूवा कल दूसर दिन है, जो कुछ सरै तो सारी। 

पीछे कलियर कागा रोलो, रहसी कूक पुकारी।

ताण थके क्यों हार्यों ना ही “मुरखा अवसर जोला हारी।।

 साथरियां जमाती के लोगो ने अर्ज की कि हे गुरुदेव ! आप हमें कोई ऐसा पवित्र मार्ग बताओ कि हम पवित्र हो सके? जाम्भोजी ने शब्द द्वारा बतलाया हे प्राणी | जागो

इस युग के लोगो । समयानुसार चलो ! जागृत होवो ! जागते हैं सोते क्यों हो? जागने का अर्थ है। कि सचेत हो जाओ,दृष्टा साक्षी बनो,आलस्य निद्रा प्रमाद में समय नष्ट न करो। एक क्षण में ही यह जीवात्मा शरीर से विलग हो जायेगी,तुम्हें पता भी नहीं चलेगा तुम्हारे अन्दर बैठे हुऐ काम क्रोधादि दुश्मनों को क्यों छिपाते हो? अपने सतगुरु को अपने पास बुलाओ वह तुम्हारे अज्ञानता का ताला सतगुरु खोल देगा। आप अन्दर प्रवेश करोगे तो अन्दर छुपे हुऐ आपके दुश्मन भाग जायेगे।

हे लोगो ! विष्णु का जप करो,वह विष्णु ही तुम्हारा जन्म दाता,पालन कर्ता एवं संहारकर्ता भी है। जप भी वही करेगा जो उसको पहचान लेगा,जैसा जहां भी अवसर दाव मिल जाये यह भक्ति-भजन का खेल खेलो। इसी खेल को ही तैंतीस कोटि देवता खेल रहे है। इसी प्रभाव से वे देवता पद को भी प्राप्त हो गये है। श्वास प्रश्वास पर आधारित यह कच्ची काया है, पवन में बंधी हुई विनाशशील काया का कुछ भी भरोसा नहीं है। जिस प्रकार से जल से भरा हुआ कच्चा घड़ा होता है,वह कच्चा घड़ा

कब फूट जाये और जल बिखर जाये.फूटा हुआ कच्चा घड़ा किसी प्रयोजन का नहीं होता,उसी प्रकार से यह शरीर भी व्यर्थ ही हो जाता है जब उसमे से जीव निकल जाता है।

कच्ची काया को पाल-पोस कर के बड़ी करते है, समय समय पर भोजन – जल आदि द्वारा सिंचाई की जाती है जिस प्रकार से माली बगीचे में पेड़ पौधो की सिंचाई गुड़ाई आदि करके फल देने के लायक बना देता है।

उसी प्रकार से यह शरीर है,एक पौधे की भाँति ही है,इससे मधुर फल मिलता किन्तु कुछ लोग कटु कषाय- जहरीला फल भी प्राप्त कर रहे है।

इस काया को तपस्या – त्याग रूपी अग्नि में तपाओगे तो परिश्रम का फल सुमधुर ही होगा, जिस प्रकार से लकड़ी का गट्ठा जलते हुए इन्धन में डाल दिया जाता है तो वह जल कर राख हो जाता है,उसी प्रकार से तपस्या रूपी अग्नि में काम, कोध, अहंकार आदि जल जायेगे तो इस काया में बैठे हुऐ परमात्मा का साक्षात्कार हो सकेगा। लकड़ी में अग्नि तो रहती ही है किन्तु प्रगट जलाने से ही होती है, उसी प्रकार से इस शरीर में आत्मा – परमात्मा तो रहता ही है किन्तु प्रगट-साक्षात् दर्शन तो तभी होगा जब काम क्रोधादि का परदा हट जायेगा।

हे लोगो ! शीलवान बनो,नित्यप्रति बाह्य शुद्धि के लिये प्रात:काल स्नान करो,आन्तरिक शुद्धि के लिये संध्या हवन आदि कार्य करो,मन बुद्धि का संयम करो,इन्द्रियों को वश में करो,इस शरीर को जल से धो डालो और मन को भगवान की भक्ति संयम-नियम से धो डालो। गुरु के वचनों को श्रद्धा विश्वास पूर्वक धारण करो,सभी के प्रति नम्रता, सहनशील, का स्वभाव धारण करो,हाथो में माला रखो,और विष्णु का जाप

करो।

 जो वस्तु आपने को प्यारी लगती है उसे ही एकत्रित क्यों करते हो? उसे खर्च करते रहो,व्यय करने में लाभ है और जोड़कर रखने में हानि है। जल पड़ा हुआ गंदा हो जाता है, बहता हुआ जल उन्जवल- पवित्र रहता है,इसी प्रकार से धन-संपति है। ऐसा विचार करके देखोगे तो निहाल हो जाओगे। परमात्मा को प्राप्त सच्चा घर तो आगे है यहां तो गोवलवास ही है। जिस प्रकार से अकाल या विपति दशा में अपने घर कर जाओगे।

सच्चा घर तो आगे है यहां तो गोवलवास ही है। जिस प्रकार से अकाल या विपति दशा में अपने घर को छोड़कर के कुछ दिनो के लिये अन्यत्र समय व्यतीत करने के लिये चले जाते है उसी प्रकार से यह संसार है,असली घर तो हम जहां से आये है वही वापिस जाना है वहीं है। जीव शरीर में रह कर जीता है इसके द्वारा किया हुआ सुकर्म ही इस जीवन में सुख-दुख का हेतु है। आगे भी सुकर्म हो सखा की भांति साथ जायेगा। इस संसार में प्रेम ही फलीभूत होता है,प्रेम ही इह लोक एवं परलोक मे साथ देता है।

 जीवन जीते हुए एक दिन मृत्यु भी आ जाती है आज मृत्यु प्राप्त हुए शरीर से जीव आत्मा विलग हुई है कल दूसरा दिन होगा,और परसो तीसरा दिन भी आ जायेगा। कब तक यहां रहेगा,तीसरे दिन तो यहाँ से प्रस्थान करना पड़ेगा। भाई-बन्धु तीसरे दिन एकत्रित हो कर विदाई दे देगे। जलांजली प्रदान कर देगे। बस इतना हो तुम्हारा हमारा सम्बध था,अब आगे जैसी तुम्हारी कर्म वासना होगी वैसा ही जन्म होना निश्चित होगा। इन तीनो दिनो में भी यदि मोह माया का जाल छोड़ सके तो छोड़ देना,यह अवसर प्राप्त है। संसार,परिवार,धन दौलत को छोड़ कर ऊपर उठ सके तो उठ जाना अन्यथा तो यही कहीं पुनः जन्म हो जायेगा।

 तीसरे दिन भाई-बन्धुओ को भोजन करवाये उस अन्न द्वारा जीव आगे के जन्म की यात्रा करेगा अन्न नहीं जिमायेगे तो वह जीव दुर्गति को प्रास हो सकता है। दूसरे जन्म का आधार अन्न ही है। मरने के पश्चात तो पीछे तो रोना पीटना ही रह जाता है,वह रोना-चिल्लाना जीव की सद्रति में सहायक नहीं होगा उस समय तो भगवान का कीर्तन ही सहायक हो सकेगा।

 अपनी निजी ताकत होते हुऐ भी हे जीव । तू क्यों हार गया? इस संसार में तो खेल खेलने के लिये आया था,बहुत दांव खेले सभी उलट ही पड़ गये इस अवसर का सदुपयोग करना चाहिये था किन्तु मुर्खता वश दुरूपयोग ही किया।

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Sandeep Bishnoi

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