Bishnoi 29 Rule ( बिश्नोई 29 नियम ) – Jambhbhakti

BISHNOI 29 RULE

Bishnoi 29 Rule ( बिश्नोई 29 नियम )

Bishnoi 29 Rule ( बिश्नोई 29 नियम )
Bishnoi 29 Rule ( बिश्नोई 29 नियम )
तीस दिन सुतक ,पांच ऋतुवन्ती न्यारो ।
 सेरा करो स्नान,शील संतोष सुचि प्यारो।
द्विकाल संध्या और,सांझ आरती गुण गावो ।
 क्षमा दया हिरदे धरो ,गुरु बतायो जाण ।
होम हित चित प्रीत सू होय,बस बैकुंठ पावो ।
 पाणी बाणी धणी,दूध इतना लीजै छाण ।
चोरी निन्दा झूठ और जियो,वाद न करणो कोय ।

 अमावस्या को व्रत रखना,भजन विष्णु बतायो जोय ।

 जीव दया पालणी ,रूंख लीलो नहीं घावै
अजर जरे जीवत मरै , पै वास स्वर्ग ही पावै । करै रसोई हाथ सूं, आन सूं पलो न लावै । अमर रखावै ठाट , बैल बधिया न करावै । अमल तंबाकू भांग, मद्य मांस सु दूर ही भागे । लील न लावै अंग , देखते दूर ही त्यागै ।

                  दोहा

उणतीस धर्म की आंखड़ी, हिरदे धरियो जोय। जाम्भोजी कृपा करी, राम विश्नोई होय।

ये उनतीस नियम प्रत्येक आये हुऐ जिज्ञासु को दिये । और कहा कि आप लोग इन बीस और की नियमों का पालन करने वाले हो गये हो इसलिये आपको आज से विश्नोई नाम से कहा जायेगा तथा आज से आप लोग कल्पित देवताओं की पूजा त्याग कर के केवल एक विष्णु की ही उपासना अराधना करोगे।
विष्णु के उपासक वैष्णव होते है इसलिये आप लोग वैष्णव है, वैष्णव होने से आपको विश्नोई हो कहा जायेगा । आप लोग नित्य प्रति सुबह जल्दी उठकर स्रान करोगे इसलिये अन्य लोग आपको सानी भी कहेंगे तथा आप लोग साधु के शिष्य है इसलिये आपको मोडा भी कहेंगे, क्योकि जिन्होने मोह को ढाह लिया है, पटक दिया है, मोह से मुक्त हो गये है इसलिये मोडा भी कहे तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं है। साधु को मोडा नाम से ही कहा जाता है । मोडा के शिष्य भी मोडा ही होंगे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
 कोई भी नाम होता है वह सार्थक होता है, यह नाम संज्ञा आपके लिये प्रयुक्त होगी । आप लोग इन नामों की सार्थकता बनाये रखे । कहीं ऐसा न हो कि चकाचौंध में आप लोग आप अपने नाम कर्म को महता को भूल ही न जाये । आप लोगों के लिये जैसा नाम दिया गया है वैसा गुण भी अमृत पाहल पान से भरा गया है।
आज से आप लोग साधु जैसा जीवन यापन करते हुए अपना जीवन यापन करते हुए जीवन को सार्थक करेंगे । आप लोग गृहस्थी होते हुए भी ऋषि जैसा आपका उच्च कोटि का जीवन होगा । इन नियमों का पालन करते हुए इह लोक एवं पर लोक दोनो ही आपका उज्जवल होगा । जीया ने जुगति और मुवा ने मुक्ति दोनों आपके हाथ में होगें।
जिस प्रकार से सम्पूर्ण वेदों का सार ओम है उसी प्रकार से सम्पूर्ण वेद शास्त्रों का सार रूप ये उत्तीस नियम है । ये नियम हमें आचार संहिता सिखाते हैं ।” आचारों ही प्रथमों धर्मों ” आचार विचार ही प्रथम सर्वोतम धर्म है। जैसे सर्वप्रथम धर्म तीस दिन सूतक है । बच्चा जन्म लेता है तो माँ और बच्चे दोनों को ही तोस दिनों तक ग्रहकार्य से अलग रखें । उन्हे शुद्ध होने के लिये तीस दिन का समय चाहिये । समय व्यतीत होने से ही अपवित्र से पवित्र हुआ जा सकता है । तीस दिन पूर्ण होने पर घर को साफ करके हवन पाहल देकर के पवित्र किया जा सकता है । तीस दिन पूर्ण हो जाने पर घर को साफ करके हवन – पाहल देकर माँ और बच्चे दोनों को ही पवित्र किया जाता है । यह प्रथम संस्कार है. इस संस्कार से विश्न बनाया जाता है । पैदा होते ही विश्नोई नहीं होता जन्मना शुद्धो जायते संस्कारात् द्विज उच्यते । जन्म से तो शदीपदा होता है किंतु संस्कार से दूसरा जन्म होता है।
एक माह तक माँ विश्राम करेगी, अच्छा पौष्टिक भोजन करेगी तो माँ और बच्चा दोनों ही स्वस्थ होगें बच्चे को माँ अपना दूध पिला सकेगी, बच्चा पुष्ट होगा, उसकी नींव मजबूत होगी, वह बडा होकर स्वस्थ बुद्धि शक्ति सम्पन्न होगा । उसे किसी प्रकार की शारीरिक, मानसिक बौद्धिक , हानी नहीं उठानी पडेगी । माँ अपना दूध पिलायेगी, उसे प्यार देगी , अपना संस्कार देगी बादमें वह आगे चलकर योग्य व्यक्ति , माता- पिता का भक्त , व देश भक्त बनेगा।

 दूसरा नियम

 इस नियम से जूडा हुआ है कि महिलाओं को प्राकृतिक रूप से मासिक धर्म होता है उससे रजस्राव होकर शुद्ध होती है तथा पुनः गर्भ धारण करने के योग्या होती है । यह हर एक माह बाद पाँच दिनों तक चलता है ऐसी अवस्था में वह अपवित्रा होती है, इस समय वह रसोई बनाने , खिलाने आदि कार्यों के योग्या नहीं होती है । ऐसी अवस्था में घर के कार्य पूजा-पाठ हवन मंदिर आदि से दूर रहना चाहिये।
रजस्वला अवस्था में स्त्री एकान्त में निवास करें । किसी पर पुरूष का चिन्तन न करें । किसी अन्य कुपात्र का दर्शन न करें । अन्यथा आगे आने वाली सन्तान विकृत पैदा हो जायेगी । अन्यथा वही कुपात्र ही जन्म ले लेगा, या अंग हीन, वर्ण, कुचील तथा अरूपवान संतान पैदा हो सकती है ये दिन ही संतान उत्पति के मूल है ।
 आप लोग जैसा चाहे वैसी संतान की प्राप्ति कर सकते हैं । इस दूसरे नियम पर विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है । इस नियम का पालन न करने से ही वर्णशंकर सन्तान पैदा हो जाती है यही संतान आगे चलकर अपने कुल परिवार की मर्यादा भंग करने में कारण बनती है । सम्पूर्ण कुल परिवार को ही नरक में ले जाने का मार्ग प्रशस्त करती है । माता-पिता भाई बन्धु की कोई भी बात उसे स्वीकार नहीं होती है।
इसलिये महिलाओं के लिये ये नियम विशेष पालनीय है । वे ही समाज की नैया को पार ले जा सकती है, पुरूषों के सहयोग की भी महती आवश्यकता है । एक चक्र से गाडी नहीं चलती है, इसके लिये दोनो ही चक्र स्वस्थ होने चाहिये।

तीसरा नियम

 यह है कि प्रात: काल की शुभ वेला में शौचादि क्रिया से निवृत होकर स्नान करें । इस एक नियम के प्रभाव से ही अन्य सभी नियम खिंचे चलें आयेंगे । यदि प्रात: काल सुर्योदय से पूर्व आप स्नान करते हैं तो संध्या, सूर्य देवता की वन्दना हवन, तथा अन्य सभी सात्विक कार्य स्वतः ही सम्पन्न हो जायेंगे । अन्यथा एक नियम टूटने से दूसरे सभी परमार्थ के कार्य संपन्न नहीं हो पायेंगे ।
रात्री में सोया हुआ व्यक्ति मृत तुल्य हो जाता है। सुबह उठकर पुन: जीवन शक्ति संचार हेतु प्रथम जल स्पर्श ही जीवन दायक है। शरीर में होने वाली अनेक प्रकार की बिमारियों से स्रान द्वारा त्राण पाया जा सकता है । अधिक क्या कहे स्नान करने का नियम धारण करने पर ही सत्यता का अनुभव होता है। बिना कुछ किये तो केवल कहने सुनने से उसका कुछ भी तत्व नहीं मिलेगा । ये तीन नियम शरीर मन सम्बन्धी व्यव्हारिक दिशा निर्देश देने वाले है, प्रथम आचार बताने वाले है ।

चौथा नियम शील है ।

 शील वृत है । शील नियम है । संसार को मर्यादित करने वाला एक नियम शालि ही है । जिससे यह संसार ठीक से चलता है । ये हमारे देवता सूर्य, चन्द तारे, ग्रह नक्षत्र, वायु |पृथ्वी, अग्नि,सभी शील से ही बंधे हुए हैं । गृहस्थ परिवार भी शील की ही मर्यादा में ही बंधा हुआ है। सके साथ कैसा व्यवहार हो । माँ बहन बेटा,बेटी, भाई बन्धु, मित्र आदि सभी एक शील के बन्धन तुर है । जिस दिन जहाँ पर भी शील धर्म टूटा है वहीं पर समाज में उपद्रव हुआ है जीवन नरक बन गया है।भगवान ने हमें शील देकर भेजा है।
कार्यशाला में कोई औषधी का निर्माण होता है तो शील लगती है, वह शील हमें यह बतलाती है वि जैसी बनी है ठीक वैसी ही आपके पास आ गई है । उसी प्रकार से जैसे हम शीलवान होकर संसार में आये है उसी प्रकार से शीलवन्त बने हुए वापिस लौट चले । जिन कर्मों को लेकर आये थे उसी धर्म से यक्त रह कर संसार से प्रयाण कर जायें । यहाँ पर भ्ष्ट होकर , कुछ खोकर वापिस न लौटे । यह शील धर्म बताया।
शील का अर्थ होता है स्नेह – प्रेम, मानवता के गुण यही शील धारण करना होगा। तभी सच्चे अर्थो में मानव बन सकेंगे । इसलिये हम इस महत्वपूर्ण शील धर्म से मूँह न मोडे। जीने की विधि को समझे आत्मसात करें।

पांचवा नियम संतोष है ।

 शील व्रत से ही संतोष आता है । यह एक दूसरे के पूरक एवं सहयोगी है । कहा है-“संतोषादनुत्तम सुख लाभः ” । अर्थात् संतोष से ही अपूर्व सुख आनन्द का अनुभव होता है । यदि सुख चाहतें है तो वह संतोष में ही मिलेगा, अन्यत्र सुख की प्राप्ति असम्भव है । संतोष का विलोम लोभ होता है । लोभ ही सभी दुखों का मूल कारण है जीवन में चाहे किसी पक्ष को देखो जहाँ पर भी संतोष है वहीं पर स्वर्ग -सुख है । जहाँ लोभ है वहीं पर नरक है ये सभी अनुभव करने की बातें है। आप लोग रोज अपने जीवन में इन्ही बातों का अनुभव करते हैं किन्तु फिर भी सचेत नहीं हो पाते , अज्ञानता के वशीभूत हो जाते हैं।
किं कर्तव्य विमूढ हो कर जीवन को एक शाप समझते हैं किन्तु यह मनुष्य जीवन एक वरदान है इस ईश्वरीय देन मानव जीवन को समझे और सफल बनाये । श्री देवजी द्वारा दिये हऐ नियमों की और विशेष ध्यान दे ।

छठा नियम शुचि प्यारो है ।

 पवित्रता से हमें प्यार होवे , न की गन्दगा से । प्रथम स्नान से शरीर को शुद्धि, यह तो हमारी बाह्य शुद्धि ,कपड़ों की शुद्धि घर की शुद्धि आदि । यह शुद्धियां तो जल मिट्टी आदि से सम्भव है किन्तु इनके अतिरिक्त भी हमारे मन , बुद्धि, अहंकार इन्द्रियां आदि की भी शुद्धि परम आवश्यक है । इनकी शुद्धि भगवान के जप, कर्म ,यज्ञ आदि द्वारा ही सम्भव है।
 जो लोग स्वभाव से ही अपवित्र रहतें हैं जिनके वस्त्र घर आदि पवित्र नहीं हैं, जिनका जल भोजन वायु आदि भी पवित्र शुद्ध नहीं हैं उनके पास में भी नहीं बैठना चाहिये । उनसे मित्रता आदि भी व्यवहार नहीं बढाना चाहिये क्योंकि सर्वत्र संगति का गुण दोष प्रभावित करतें हैं जिनके यहाँ पर पवित्रता, शुचिता, सौम्यता , सदुण, आदि उत्तम गुण विद्यमान है उनसे प्रेम करना चाहिये क्योकि उनसे सभी कुछ सीखा जाता हैं । भगवान विष्णु ही” पवित्राणां पवित्रम् ” यो मंगलानाम् च मंगलम् ” दैवतानां दैवतम् या भूतानाम् व्यय पिता ” उसी की ही संगति करनी चाहिये।

 सातवें नियम दोनो समय संध्या करनी चाहिये ।

 संध्या का अर्थ है दिन रात्री की संधी वेला अर्थात् सूर्योदय-सूर्य अस्त समय, संध्या वेला है अन्य सांसारिक कार्य हेतु नहीं है । यदि ईश्वर का स्मरण करके अन्य सांसारिक कार्य इस वेला में करता है, जिस समय जो कार्य करना हो उसी समय वही कार्य करें।
परमात्मा ने सभी कार्यों के लिये अलग-अलग समय निश्चित किया है उसका उलंघन न करें, क्या सभी समय किसी न किसी कार्य हेतु बंटा हुआ है । जैसे स्रान, संध्या, हवन, भोजन, अन्य कार्य, शाम को पुनः संध्या सवघ्याय, आरती शयन आदि। नियत समय पर कार्य करने से ही उस कार्य का सुविधापूर्वक समय पर फल मिलता है । समय आने पर ही फल पकता है । बीच में तोङ दिया जायेगा तो बह रसमय नहीं हो सकेगा । अपना गुण धर्म प्रकट नहीं कर सकेगा । संध्या वेला प्रात: काल में शौच अनादि से निवृत होकर भगवान विष्णु का जप करना चाहिये । तत पश्चात् सूर्योदय हो जाने पर हवन करना चाहिये। इस प्रकार से शाम को भी सूर्यास्त होने के साथ ही संध्या वेला में ईश्वरीय कार्य करना चाहिये ।
 आपने देखा होगा कि संध्या वेला में स्प्पूर्ण सृष्टि की हल चल थोडी देर के लिये रूक जाती है, सम्पूर्ण पेड़ पौधे, पशु पक्षी , वायु तेज, आदि ये सभी एक क्षण के लिये अपने जन्म दाता , पालन पोषण कर्ता | का स्मरण करते हैं । अन्य सभी क्रियाएँ शांत कर देते हैं । उसी प्रकार मानव को भी करना चाहिये । यही संध्या का महत्व है

आठवा नियम

– साझ आरती गुण गावो “साय जब रात्री हो जाये तब शयन की तैयारी हो जाये तब थोडी देर के लिये उस दयालु कृपालु ईश्वर को धन्यवाद अवश्य ही प्रदान करो दिन भर के किये हुए कार्यों को स्मरण करो, कोई भूल चूक हो गई तो क्षमा याचना माँगो । आर्त भाव से परमात्मा की प्रार्थना करना ही आरती है । कुछ इधर की कुछ उधर की निंदा करके समय को बरबाद न करो । समय मिलने पर ईश्वर के ही गुणगान करो।
रात्रि समय में नित्य प्रति संतसंग जागरण करो, जागरण में ईश्वर की का बखान, साखी शब्दों द्वारा करो । इससे मन को खुराक मिलेगी । आपका मन स्वस्थ होगा बुद्धी ज्ञानी होगी, आपका जीवन सुखमय होगा,युक्ति मुक्ति दोनों आपके हाथ में होगी ।

नौवां नियम –

होम हित चित प्रीति सु होय, वास वैक्ण्ठा पावो । नित्य प्रति हवन करें । किस विधी विधान से करें? इसका समाधान भी दिया है-हित चित तथा प्रीत से करे । हवन कर्ता सर्व हिताय करे | चित लगाकर एकाग्र मन से करे, तथा प्रेम भाव से करे । यही विधी और विधान है इससे बढकर और कोई विधि विधान नहीं है।
यज्ञ का फल क्या होगा? वास वैकुण्ठा पावो , वैकुण्ठ अर्थात् भगवान के परम धाम को जहाँ जाने के बाद पुनः वापिस संसार के जन्म मरण के चक्षर में नहीं आता ।” यद् गत्वा न निवर्तन्ते तद् धाम परं मम ” शास्त्रों में चार प्रकार के पदार्थों का विवरण आता है। धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष यज्ञ से इन चार प्रकार के पदार्थां की प्राप्ति होती है। सर्वप्रथम धर्म होगा, धर्म से धन की प्राप्ति होगी, और धन से इच्छित वस्तु की प्राप्ति की जा सकती है। जब इच्छित वस्तु की प्राप्ति हो जाये तो अन्तिम चतुर्थ पदार्थ मोक्ष ही परम पदार्थ है ये पदार्थ हवन करने से प्राप्त होते हैं।
 सर्व प्रथम यज्ञ कर्ता अग्नि को प्रज्वलित करने के लिये गोत्राचार का उच्चारण करे । उसके पश्चात् देवताओं को स्वाहा कह कर के आहुति प्रदान करे । हम देवताओं को आहुति द्वारा घृतादिक पदार्थ प्रदान करें, देवता हमें वर्षा द्वारा इन हवनीय पदार्थों की प्राप्ति करवायें । हमारा तथा देवताओं का परस्पर भाव सम्बन्ध जुडेगा , एक दूसरे के प्रति सहयोगी बनेंगे, इसके लिये एक मात्र यज्ञ ही साधन है । यदि हम देवताओं के आहुति दिये बिना स्वयं ही पकाते व खातें है तो हम पाप को ही खाते है । यज्ञ से अवशिष्ट को अर्थात् यज्ञ कर्म करने के पश्चात जो भी हमारे पास बच जाता है उसका भाजन करते हैं तो वह अमृत तुल्य है।
अन्न से सभी भूत प्राणी जीतें हैं, वृद्धि को प्राप्त होते हैं तथा अन्न वर्षा जल से होता है ,तथा वर्षा यज्ञ करने से होती है।

इसलिये यज्ञ कर्म अवश्य ही करें । सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्माजी ने मानव के साथ ही या की भी रचना की थी और बतलाया था कि हे मानवों । आप लोग अपनी अभि वद्धि हेतु यज्ञ अब हो करो, यह यज्ञ कामधेनु की तरह इच्छित फल देने वाला है, यही बात श्री देवजी ने उन्तीस नियमों न शब्दों में कहीं है।
 ज्योति में ही परमात्मा का दर्शन होता है, जब चाहें तब परमात्मा का दर्शन करें, शब्द पढे परमात्या से सीधी वार्तालाप भी करे । कहा है – यज्ञो वै विष्णु” अर्थात् यज्ञ ही विष्णु है ” स्वर्ग कामो यजेत “अर्थात् स्वर्ग सुख की इच्छा वाला यज्ञ करें।

 दसवां नियम

– पाणी बाणी ईंधणी दूध इतना लीजे छाण । अर्थात् जल, दुध तथा ईधन व लकटी आदि जलाने वाली लकडी छाण कर लेना चाहिये । जल को वस्त्र द्वारा छान कर के पीना चाहिये । तथा दूध को भी वस्त्र द्वारा छान कर के लेना चाहिये से देख कर प्रयोग में लेना चाहिये । लकडी को जलाने से पूर्व झाडकर अर्थात् अच्छी प्रकार । हो सकता है कि उसमें कीट पतंग आदि जीव हो सकते हैं । आपके द्वारा अग्नि में ईधन के साथ ही डाल दिये जायेंगे तो जल कर भस्म हो जायेगे । और जब जीव जल कर मर जायेंगे तो आप को पाप लगेगा ही, थोडी सौ सावधानी से बहुत बड़े पाप से बचा जा सकता है।
 जल में तो जीव होतें हैं, यदि बीना छाती जल पान करोगे तो जीवों को उदरस्थ कर लेंगें जिससे जीवों की हत्या तो होगी ही साथ में आपके स्वास्थ्य के लिये भी हानी कारक रहेंगे । जीव हत्या भी तो आपके द्वारा होगी । जीवों की हत्या न करें, जल के जीव जल में ही वापिस छोडदें अपने तो केवल जल ही पीना है न कि जीवों को।
 गाय भैंस के स्तनों से दूध दूहतें हैं, दूध दुहते समय हो सकता है कि उनका कोई रोम दूध में गिर सकता है आप बिना चने दूध के साथ रोम भी पी सकतें हैं वह आपके पेट में जायेगा , वहां पेट में वह क्या फायदा देगा? धार्मिक दृष्टि तथा शरीर के स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक ही होगा । इसलिये कहा गया है कि जल व दूध छानकर पीना चाहिये । इंधन को साफ करके ही प्रयोग में लाना चाहिये।

 ग्यारवां नियम –

वाणी को  भी छानकर के बोलना चाहिये । जल दूध तो वस्त्र के द्वारा छाना जा सकता है किन्तु वाणी को किससे छाने ? वाणी को छानने के लिये आपको बुद्धि से विचार करके बोलना चाहिये । बुद्धि रूपी वस्त्र ही छानने का साधन होगा । केवल सत्य बोलना ही प्रयाप्त नहीं हैं सत्य के साथ-साथ प्रिय भी बोलना आवश्यक है।” सत्यम बुयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रुयात् सत्यमप्रियम् ” सत्य तो अवश्य ही बोले , किन्तु सत्य के साथ मीठा- प्रिय भी बोले । जो सभी को प्रिय लगे ऐसा वचन बोले ।” सुवचन बोल सदा सुहलाली । ” अच्छे प्रिय मीठे वचन बोलेगा तो सदा खुशहाली बनी रहेगी।
 प्रिय बोलने वाले के लिये कहीं विदेश नहीं होता । कि प्रदेश प्रियवादिनाम् । ” वाणी में बहुत भारी शक्ति नौहित होती है वह चाहे तो सभी को अपना मित्र बना ले चाहे तो सभी को अपना शत्रु भी बनाले । अनेक प्रदूषण के शब्द भी एक प्रकार का प्रदूषण फैलाता है, उत्तेजना फैलाता है। वह शब्द शान्ति का प्रसार भी करता है शब्द संगीत मय भी हो जाता है तो परमात्मा से साक्षात्कार करवा देता है । वही शब्द जब गाली युक्त कठोर होता है तो परमात्मा से दूर हटा देता है । इसलिये सतगुरु देव ने उन्नतीस नियमों में से एक नियम मधुर प्रिय शब्द बोलने की आज्ञा दी है।

 बारहवां नियम-

क्षमा दया हिरदे धरो, गुरु बतायो जाण । क्षमा और दया ये दोनों एक दूसरे के पूरक है । विरोधी नहीं है । प्रथम दया भाव होगी तो क्षमा का भाव पैदा होगा । दया भाव तो तभी होगा जब सर्व जन सुखाय व सर्व जन हिताय की भावना होगी । जब मन में परोपकार की भावना पैदा होगी तो तभी दया होगी या ऐसे कहे कि दया भाव पैदा होगा तो परोपकार उत्पन्न होगा । यह सभी कुछ तभी होगा जब हम परमात्मा के अति निकट होंगे, संसार से हमारी विरक्ति होगी । संसार में पदार्थ हमारे इतने मुल्यवान नहीं हैं जितने आत्मा परमात्मा के प्राप्ति की लालसा । कहा भी है-

 अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचन द्वयम् । परोपकाराय पुण्याय पापाय पर पीडनम् ।।

 अर्थात् अपने से कम शक्ति वाला हो उसने आपका नुकशान कर दिया है, आपका अपराध किया है, उसको आप दण्ड दे सकतें हैं किन्तु आपने अपने क्रोध को वशीभूत करके उसको क्षमा कर दिया है, यही क्षमा भाव है । आप के पास अपने से बलिष्ठ को दण्ड देने का सामर्थ्य नहीं है तो आप दण्ड नहीं दे सकते किन्तु दण्ड देने की भावना तो है तो आप उसे क्षमा नहीं कर सकते । अन्य किसी दूसरे के दुख से दवित होकर उसकी हर सम्भव सहायता करने का बीड़ा उठाया है तो आप परम दयालु है पराई पीडा को अपनी ही पीडा मानकर उसको दूर करने के लिये प्रयत्नशील होना ही दया भाव है।
 इसी दया भाव से ही भगवान विष्णु विभिन्न अवतार लेतें हैं और दुखी जनों की रक्षा करते हैं । दया भाव होगा तभी जीवों की रक्षा होगी । दया क्षमा भाव परम पवित्र भाव है । इसे विकसित करें जीवन का आनंद प्राप्त करें । तथा जीवन में हमेशा अच्छो कर्मों को ही अपनायें तभी यह जीवन सफल होगा ।

 तेहरवां नियम-

चोरी निंदा झूठ और बरजियो , अर्थात् चोरी नहीं करनी चाहिये । यह एक नियम है, दूसरे का धनादिक नहीं खाना चाहिये । कोई व्यक्ति अपने तथा अपने परिवार हेतु धन कमाता है अन्य कोई दूसरा उसके धन को चुरा लेता है, हडप कर अपने लिये उपभोग करता है कमाता कोई और है खाता कोई अन्य ही है । जिसका धन हरण हो जाता है उसे दुख का पार नहीं होता असहनीय दुख देने वाला कभी भी सुखी नहीं हो सकता । किसी को किसी भी प्रकार से दुख देना पाप है इसलिये यह पाप कर्म न करें।
 चोर की न तो समाज मे प्रतिष्ठा है इसलिये यह लोक तो बिगङही गया, तथा न ही परलोक में सुख शांति है इसलिये दोनो लोकों से ही हाथ धो बैठता है पराये धन की आशा छोडकर अपनी कमाई पर ही विश्वास करे उसमें ही सुख है।
 चोरी भी कई तरह की होती है वह चाहे धन जमीन स्त्री पशु हो अन्य वचनादिक को भी चोरी होती है सभी प्रकार की चोरी सदा ही वर्जनीय है । समाज में चोरी जारी करके व्यवस्था में अव्यवस्था फैलाना है मर्यादा को भंग करना ही पाप है ऐसा पाप न करे ।

 चौदहवां नियम

 निंदा नहीं करनी चाहिये । कोई भी व्यक्ति दूसरों की निन्दा करने में रस क्यों लेता है? कुछ कारण तो अवश्य ही होने चाहिये । क्योंकि स्वयं में जब अवगुण बहुतायत से हो तो व्यक्ति अपने अवगुण छुपाने के लिये दूसरों के अवगुणों का ही मात्र बखान करता है इससे उसके स्वयं के अवगुण तो समाप्त नहीं हो जाते किन्तु थोडी देर के लिये उसे शान्ती तो अवश्य ही अनुभव होती है । इसमें ही वह रस लेता है।
 दूसरों की निन्दा करने में ही वह लगा रहता है दूसरों की निन्दा करते समय स्वयं के अवगुण तो समाप्त नहीं होतें है किन्तु दूसरों के अवगण तो अवश्य ही आ जातें हैं अपने स्वयं के पहले से विद्यमान तथा अन्य के अवगुण मिलकर अभिवृद्धि को प्राप्त हो जातें हैं कौन कैसा है इससे कुछ भी मतलब नहीं है । हम |कैसे हैं यह हम देखे तो निन्दा भाव लुप्त हो जायेगा।
 मनुष्य की दृष्टि चाहा है, अन्तर को नहीं देखती । यदि स्वयं को देखने लग जाये तो अवगुणों का भण्डार अंदर मिलेगा।
भण्डार अन्दर मिलेगा। सभी शास्त्र वेदों में तथा सन्तों ने पराई निन्दा करने वालों को अवम बताया है। स्वयं की प्रगति में बाधा उत्पन्न हो जाती है सदा के लिये एक स्वभाव ही बन जाता है । निज उन्नति काम ही भूल जाता है इसलिये सदा उन्नति शील व्यक्ति को दूसरे की निन्दा करने के चक्कर में पडकर अपने ही पी पर कुल्हाडी नहीं मारनी चाहिये । इस दोष से सदा ही सावधान रहना चाहिये।

 पन्द्रहवां नियम – झूठ नहीं बोलना चाहिए ।

 सत्य बोलने के समान तो कोई तप नहीं हैं । झूठ बोलने के बराबर कोई भयंकर पाप ही नहीं है । जिनके हृदय में सच्चाई है उसके हृदय में हरि आप ही विराजमान होते हैं यही तो तपस्या का फल है अपने स्वार्थ सिद्धि के लिये लोग झूठ बोलकर अपना कार्य सिद्ध कर लेतें हैं। उससे दूसरों को चाहे कितना ही नुकसान हो उसकी वो लोग परवाह नहीं करते हैं ।
 झूठे व्यक्ति की बात पर कोई विश्वास नहीं करता और बिना विश्वास के लोक व्यवहार नहीं चलता। झूठ बोलकर तो कोई दूसरों को धोखा दिया जा सकता है लेकिन सत्य पर तो सम्पूर्ण पृथ्वी टिकी हुई है। ।सत्य सभी धर्मों का मूल है, सत्य से पवन चलता है अग्नि तपती है, सूर्योदय होता है, सत्य से ही पृथ्वी स्थिर है, सत्य से ही सृष्टि का सम्पूर्ण व्यवहार चलता है, ” सत्यमेव जयते नानृतम ” सदा सत्य से ही विजय होती है । सत्यं वद , सत्य बोले व धर्म का आचरण करें।
 सत्य क्या है? असत्य क्या है ? इसकी मीमांसा कठिन है, कहीं सत्य भी असत्य हो जाता तथा कहीं असत्य भी सत्य हो जाता है । सत्य एवं असत्य का परिणाम देखकर ही निर्णय किया जा सकता है। केवल शब्द बोलने मात्र से सत्य असत्य का निर्णय नहीं किया जा सकता।
 उदाहरणार्थ- जैसे कि आपके शब्द बोलने से यदि बहुत बड़ा अनर्थ हो तो वह आपका सत्य शब्द सत्य नहीं कहलायेगा, क्योंकि उसका फल पापयुक्त है और यदि आपके असत्य बोलने से यदि किसी के प्राण बच जाते हो तो वह असत्य भी सत्य हो जाता है। इसलिए सत्य असत्य का निर्णय उसके फल को देखकर ही किया जाता है। श्री देवजी ने उन्नतीस नियमों में सत्य बोलने का नियम दिया है। यह नियम सभी के लिए पालनीय है।

 सोलहवां नियम:- व्यर्थ का विवाद नहीं करना चाहिए।

 किसी तत्व को जानने के लिए आपस में बैठकर वार्तालाप करना तो वाद कहलाता है यदि सार्थक विवाद हो, जिसमें उत्तेजना नहीं आये तो वह ठीक ही होगा, किन्तु जहां पर केवल खण्डन करने की प्रवृति हो जाये, प्रत्येक बात को काटा जाये वह चाहे ठीक हो चाहे अठीक हो ऐसी प्रवृत्ति विवाद को जन्म देती है, विवाद हमें कहीं नहीं पंहुचाता, केवल स्व अधिकार की पुष्टि करता है।
 श्री देवजी ने कहा- वाद विवादे दाणु खीणा, वाद विवाद करके राक्षस मारे गये वाद विवाद फिटाकर प्राणी, छाडो मनहट मन का भाणो। हे प्राणी व्यर्थ का विवाद करना छोड़ दे। तुम्हें जो अच्छा लगता है इसलिए तुम उस बात को दूसरों से मनवाने के लिए प्रयत्नशील हो जाते हो। यह कोई आवश्यक नहीं है कि जो बात तुम्हें अच्छी लगे वह सभी को अच्छी लगें। व्यर्थ का विवाद करके स्वय के अहंकार को पुष्ट न करें। कहा भी है

विद्या विवादाय धनं मदाय, शक्ति परेषां परपीडनाय। खलस्य साधो विपरीतमेतत्, ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।

 दुष्ट प्रकृति वाले के पास यदि विद्या आ जाये तो वह उससे विवाद करेगा और सजन आदमी के पास विद्या आ जाये तो उससे ज्ञान देगा। इसी प्रकार से धन एवं ताकत का भी सदुपयोग करता है। व्यर्थ के विवाद से बचें, समय का सदुपयोग करें, व्यर्थ का विवाद अनेक प्रकार के झगड़े झंझट पैदा करता है, परमात्मा से दूर ले जाता है, अहंकार की अभिवृद्धि करता है, जीवन की सुख सोम्यता को पलिता लगाता है। सत्य से दूर करके मानव को पशुवत बना देता है इसलिए व्यर्थ के विवाद में न पड़ें। जहां पर विवाद बढ़ता हो वहां पर शांत रहें। वचनों का आदान प्रदान विवाद को अनंत गुणा बढ़ावा देता है।
 सत्रहवां नियम- अमावस्या को व्रत राखणों
अमवश्या को  व्रत करना चाहिये। अर्थात निराहार रह कर उपासना करनी चाहिये। व्रत-उपवास,उप-समिपे,आवास-निवास रहना चाहिये अर्थात किसके समीप मे? समीप में रहने योग्य तो एक ही है जो अपना है अपनी आत्मा है अन्य से तो दूर ही रहै। वह परमात्मा सत्य है,सत्य की ही हम संगति करे।
 व्रत केवल अमावस्या का ही करना चाहिये। अमावस्या एवं पूर्णिमा दो महान पर्व है। पूर्णमासी को चन्द्र पूर्ण होता है उस दिन तो व्रत नहीं करना चाहिये क्योंकि पूर्ण चन्द्र हमें पूर्णता देता है हमारा चन्द्रमा से गहरा सम्बन्ध है चन्द्र हमें ज्योति,प्रकाश,ओजस्विता प्रदान करता है। जितने भी पुष्प फल, अन्न धन आदि सभी चन्द्रमा से अमृत लेकर अमृत मय बनते है,फूलते-फलते है। वहीं फल धानादिक से हम ग्रहण करते है,उससे ही हम जीते है। चन्द्रमा हमारी जीवन दायनी शक्ति है। उसे पूर्णमासी को पूर्णता से ग्रहण करे।
अमावस्या के दिन एवं रात्रि में वह जीवनदायनी शक्ति बिना चन्द्रमा के हमे प्राप्त नहीं होती। उस समय यदि हम अन्न खाते है तो बिल्कुल निस्तेज मरे हुए अन्न को खाते है,उससे हम रूग्ण हो सकते है, जीवन शक्ति उसमें कदापि नहीं होती। इस खाने से तो अच्छा है कि व्रत ही रखे। कम से कम जीवन की विपरीतता से तो बचेंगे।
 अमावस्या के दिन व्रत करे। व्रत का अर्थ होता है कि संकल्प करे अर्थात आज मैं अमावस्या को भोजन नहीं करूगां। यह आपका किया हुआ संकल्प आपकी आत्मा को बल देगा। शरीर एवं वासनाएँ भले ही दुर्बल हो जाये किन्तु आत्मा की ताकत महत्वपूर्ण है उसे ही अमावस्या का व्रत करके बढावे। आज तो यह छोटा सा संकल्प किया था वह पूर्ण हुआ कल हम इससे भी महान संकल्प लेकर कार्य पूर्ण करने मे सफल हो सकेंगे।
 शरीर एवं मन की शुद्धि के लिए अमावस्या का व्रत रखना चाहिये। एक महीने में अमावस्या आती है। महीने में एक दिन व्रत का निश्चित किया है वह अमावस्या पर्व ही श्रेष्ठ है। क्योंकि हम लोग भूख लगे या न लगे समय पर भोजन करने में नहीं चूकते। वह अपच भोजन शरीर में विकार पैदा करता है। जिस वजह से अनेकानेक बीमारियाँ जकड़ लेती है। इसलिए भी अमावस्या का व्रत बतलाया है अमावस्या के दिन अन्य सांसारिक कार्य न करके कवेल आत्म उन्नति हेतु एवं परमात्मा के निमित्त ही कार्य करना चाहिये यदि अमावस्या पर्वों में भी पालंग सेज निहाल बिछायो तो होने वाली सतान कुपात्र, दुष्ट या विकलाँग पैदा हो जायेगी उस दिन तो केवल हवन, जप, तप एवं शुद्ध क्रियाएँ ही करनी चाहिये।
अमावस्या की रात्रि भूत-प्रेतों की होती है उस रात्रि में राक्षस, प्रेतादिक बलवान हो जाते है, उसी दिन यदि हमने उन दुष्टात्माओं को पृष्ट करने वाले कार्य किये तो वे हमें आकृष्ट कर लेंगे। हमारे अपने साया बन जाये  हमे हर प्रकार से काट देंगे। उस दिन यदि हमने परमात्मा का स्मरण, यज्ञ, सत्संग, आदि पताआ के कार्य किये तो हमारे ऊपर उन राक्षसों का जोर नहीं चलेगा। हम देवताओं की तरफ बढ़ेंगे। परमात्मा का सानिध्य प्राप्त करेंगे।
अठाहरवां नियमः- भजन विष्णु बतायो जोय।
 श्री जाम्भेश्वरजी कहते हैं कि विष्णु भगवान का भजन करना चाहिये। शब्दों में अनेक बार विष्णु भजन की ही महिमा बतलाई है। भजन अर्थात भज, सेवा सेवा करे, वह भी भगवान विष्णु की ही करे। गीता में भी कहा है- आदित्यानामहं विष्णु देवताओं में विष्णु देवता भगवान कृष्ण कहते हैं कि मैं हूँ।
 श्री देवजी ने अन्यत्र भी कहा है- ओम विष्णु सोहं विष्णु, तत्व स्वरूपी तारक विष्णु। ओम नाम से परमात्मा कहा जाता है वह विष्णु ही है वह आत्मा रूप परमात्मा भी विष्णु ही है। तत्व रूप विष्णु ही है। सभी को तारने वाले साकार रूप भी विष्णु ही कहे जाते हैं। विष्णु की ही सेवा करे किन्तु विष्णु की सेवा किस प्रकार से करें वे तो सम्पूर्ण सृष्टि के पालनपोषण कर्ता है। उन्हें तो किसी प्रकार की सेवा की आवश्यकता नहीं है किन्तु विष्णु की संतान जितने जीवधारी हैं उनकी सेवा करें यही विष्णु की सच्ची सेवा है, जीवन परमार्थ हेतु होना यही विष्णु की सेवा है। यज्ञ द्वारा उपासना करना, सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय ही विष्णु की सेवा भजन है।
 जितने भी अवतार होते हैं, वे सभी विष्णु के होते हैं। सभी अवतारों का भजन स्मरण एक साथ नहीं हो सकेगा किन्तु एक विष्णु की उपासना करने से सभी की उपासना भजन हो जायेगा। तीन देव प्रसिद्ध है, ब्रह्मा विष्णु महेश किन्तु एक विष्णु ही व्यापक रूप से सर्वत्र अवस्थित है। वहीं विष्णु जब सृष्टि का कर्त्ता होता है तो ब्रह्मा रूप से अभिहित होता है और सहारकर्ता होता है तो शिव रूप से प्रसिद्ध होता है और पालन पोषण करना होता है तो विष्णु रूप से रहता है।
 इस समय हमें न तो उत्पति की आवश्यकता है, वह तो पहले से ही बहुत हो चुकी है। और नहीं संहार की ही आवश्यकता है क्योंकि समय आने पर यह कार्य तो स्वतः ही हो जायेगा। हमें तो केवल पालन पोषण की आवश्यकता है, जिससे सुखमय जीवन व्यतीत हो सके। इसके लिए विष्णु की ही शरण में जाना चाहिये। विष्णु की अग्नि लक्ष्मी है। लक्ष्मी का अर्थ धन दौलत है, वह देने वाला विष्णु ही है क्योंकि लक्ष्मी उनके पास में ही है, उन्हें छोड़कर अलग नहीं जाती। लक्ष्मी की प्राप्ति हेतु विष्णु का भजन करे, यही समझदारी की बात है।
 उन्नीसवां नियम:-जीव दया पालणी।
 जीवों पर दयाभाव रखें। उनका पालन पोवण करें न कि उन्हें बेवजह मारे या सताये। कहा है- भवन-भवन में एका जोति । सर्वत्र उस एक परमात्मा की ही ज्योति है। ये जितने भी जीव है, ये ईश्वर के ही अंश है पिता अहं पुत्रस्य भगवान कहते हैं कि मैं ही जगत का पिता हूं, सम्पूर्ण संसार ही मेरा पुत्र है। बीजमहं सर्वभूतानाम। सभी भूत प्राणियों का भगवान ही बीज है। बीज का ही वृक्ष रूप से सारा संसार विस्तार है।
 उस भगवान के रूप को नष्ट करने का मनुष्य को कोई अधिकार नहीं है, किसी भी जीव को मारना या उसे सताना महा घोर अन्याय है। एक जीव दूसरे जीव के मारेगा या सतायेगा तो उन जीवों के कर्म उन्हें ही तो भोगने पड़ेंगे। जीवो जीवस्य भोजनम् जीव ही जीव का भोजन है एके जीव दूसरे जीव को खा जाता है। ये सभी जीवों के आपस के बदले हैं। आपस का वैरभाव सदा से चलता रहता है।
 यह मानव जीवन मिला है इसमें रहकर सूझबूझ से वैरभाव निवृत्त किया जा सकता है। ज्ञानाग्नी सर्व कर्माणि, भस्मसात् कुरूते अर्जुन । ज्ञानरूपी अग्नि सभी कर्मों को जला देती है। ज्ञान की प्राप्ति मानव शरीर से ही हो सकती है। अन्य योनियों में असम्भव है। इसलिए मानव को चाहिये कि सभी जीवों की
रक्षा करे,उन्हें न ही सताए ओर ना ही मारे।
बीसवां नियमः रूंख लीलो नहीं घावे
 हरा वृक्ष नहीं काटना चाहिये। हरे वृक्ष में जीव होता है, इसलिए तो वह फूलता फलता है, वृद्धि एवं अवृद्धि को प्राप्त होता है। अन्य जीवों की भाँति हरे वृक्ष में भी चेतनता है, काटने पर सूख जाता है, जल की प्राप्ति होने पर प्रफुल्लित भी हो जाता है।
 हरा वृक्ष महान परोपकारी है। वह परमार्थ हेतु छाया, फल फूल, लकड़ी देता है, इसके साथ ही साथ सभी जीव धारियों को श्वाँस भी प्रदान करता है, दूसरे जीव जन्तुओं द्वारा छोड़ा गया श्वांस वृक्ष स्वयं पी जाता है और अपना छोड़ा हुआ श्वांस मानवादि को देता है, उससे सभी जीते हैं। यह परस्पर सहयोग की भावना से प्रकृति में संतुलन बनाये रखता है। एक के बिना दूसरे की कल्पना भी नहीं की जा सकती ।
 हरे वृक्ष वर्षा को खींचकर के ले आते हैं जहां पर भी हरे वृक्ष होंगे वहीं पर ही वर्षा प्रचुर मात्रा में होगी। जहाँ पर भी वृक्षों का अभाव होग वहां पर स्वाभाविक रूप से वर्षा का अभाव होगा, अकाल पड़ेगा, इसलिए वृक्ष लगाना चाहिये।
 हे वील्हा! इस मरूभूमि में अन्य वृक्ष तो होना कठिन है, यहां तो खेजड़ी वृक्ष ही आसानी से हो सकती है। देखो! वन में चारों तरफ खेजड़ी ही खेजड़ी दीख रही है। दूसरे वृक्ष तो हो सकता है फसलों को नुकसान पंहुचाये किन्तु यह खेजड़ी तो सर्वगुण सम्पन्न होने से फसल को अनन्त गुणा बढ़ा देती है। इस देश में तो यही वृक्षों का राजा है ये तो तुलसी सदृश पूजनीया है। कम वर्षा में भी यह पनपने वाली तुलसी इस देश के लिए तो सर्वथा उपयुक्त है।
 इसका आश्चर्य तो देखो, वर्षा को खींचकर के ले आती है, किन्तु वर्षा ऊपर का जल जो फसल के काम आता है, उसको नहीं पीती। उस जल को नीचे धरती में जाने से रोकती है और नमी बनाये रखती है तथा अपने से छोटे को जल पिलाती है। स्वयं तो अपनी प्यास पाताल के जल से बुझाती है इसकी जड़ें पाताल को चली गयी है, वहां से जल को खींचकर के ले आती है, स्वयं भी जल पीती है और अपने आश्रितों को भी पिलाती है, फसल आदि अपने से छोटों पौधों को वृद्धि में सहयोग प्रदान करती है।
 इस खेजड़ी के पते, फल, सांगरी आदि भी बहुत ही उपयोगी है। गाय, ऊंट आदि पशु बड़े ही चाव से खाते हैं, यह बड़ा ही पौष्टिक आहार है तथा इसका फल सांगरी मनुष्यों के लिए बहुत ही उपयोगी है। इसकी बहुत ही स्वादिष्ट एवं सर्वरोग नाशक सब्जी बनती है। ताजी या सुखाकर भी कार्य में लाई जा सकती है। इसलिए श्रीदेवी ने हरे वृक्षों की रक्षा करने का नियम दिया। न तो स्वयं ही काटें और न ही दूसरों को काटने दें। सिर साँटे रूंख रहे तो भी सस्तो जाण।
 इक्कीसवां नियम:- अजर जरे। अजर जरे जीवत मरे तो वास स्वर्ग ही पावै।
 जरणा रखे। काम, क्रोध, लोभ,मोह,ईर्ष्या आदि जो सदैव जलाने वाले हैं, इन्हें जला डालें। कभी हमें वासना, कभी हमें क्रोध, कभी मोह, लोभ, ईष्र्यादि हमारी दुर्गति करते रहते हैं। इनसे सावधान रहें, इनके हम दृष्टा साक्षी बन जाय। जब भी इनका आक्रमण हमारे ऊपर होवें तभी हम जग जाये। सचेत हो जाये तो हम अपने को चाकर रख सकते हैं। इनके आक्रमण से हम बेहोश हो जाते हैं। ये अपना प्रभाव डाल देते हैं।
 हम शरीरधारी आत्मा अपने परमात्मा से विलग ही बने रहते हैं, अपने मूलस्वरूप की झलक हमें नहीं मिल पाती। जो हमारा बीज है, बुनियाद है, उससे हम लोग दूर हट गये हैं। इस समय भटक चुके हैं। ईश्वर एवं जीव से मिलन नहीं हो पा रहा है, इसमें मुख्य बाधा केवल अहंकार ही है, हमारे बीच की खाई बन चुका है। अति निकट होने पर भी अति दूर करने में अहंकार ही कारण है जिस समय अहंकार की निवृति हो जाएगी।उसी दिन जीवत मरो की बात सार्थक हो जायेगी। हम अपने स्वरूप में स्थित हो जायेंगे। दिन आनन्द की बधाईयां बटेगी, अपने प्रियतम से मिलन हो सकेगा। जम्भेश्वरजी ने कहा भी है-
 जीवत मरो रे जीवत मरो, मां जीवन की विधि जाणी। जे कोई आवे हो हो करता, आपज हुइये पाणी
यही बात यति गोरख भी कहते हैं
 
मरौ वे जोगी मरौ, मरौ मरण है मीठा। तिस मरणी मरौ, जिस मरणी गोरख मरि दीठा।
 जीवत मरो, अहंकार को छोड़ो तो जीवन की विधि जान सकोगे यदि कोई तुम्हे मारने के लिए आग बबुला क्रोध में भरकर आता है तो आप जल के समान शीतल हो जाइये। जल से आग स्वयं ही बुझ जायेगी। इस प्रकार से मर कर देखो, यही मरना कितना मीठा है, कितना आनन्द से भरा हुआ है यह कहा नहीं जा सकता। स्वयं यदि अपने आप नहीं मर सकते, क्योंकि स्वयं का मरने का अनुभव नहीं है तो गोरख यति, जाम्भा यति से मरना सीखो। उन्होने स्वयं मरकर के देखा है तभी तो वहे कह रहे हैं कि आप भी हमारे तरह आनन्द से पूर्ण होइये। यही आनन्द ही जीवन का स्वर्ग है यह आनन्द ही जीवन जीने की कला है यही जीने की विधि है।
 गुरु के समीप रहकर यही उतम विधि सीखी जाती है। अन्यथा तो इस संसार में दुःख भटकन के सिवाय और कुछ भी नहीं है। यही भटकन ही नरक है, परमात्मा की प्राप्ति ही स्वर्ग है। स्वर्ग एवं नरक के बीच में अहंकार विद्यमान है, अहंकार से निवृति तो परमात्मा की अपार कृपा से ही हो सकती है।
 बाईसवां नियम:-करे रसाई हाथ सों, आन स पला न लावे।
 रसोई अर्थात भोजन अपने हाथ से ही बनावें। दूसरों से पला अर्थात् सम्पर्क न करें। यहां पर हाथ से अर्थात् अपने ही जैसे संस्कारित जनों द्वारा बनाया हुआ भोजन करें, जिसका संस्कार नहीं हुआ है, जो नियम पालन नहीं करता है, वह असंस्कारित है। उसके द्वारा बनाया हुआ भोजन न करें।
 जो लोग बिश्नोई पंथ में सम्मिलित हो गये हैं जिन्होनें पाहल ग्रहण कर ली है। उन्नतीस नियम अपना लिये हैं, उसके ही हाथ का भोजन करो, जो लोग आपके जैसे अर्थात् संस्कारयुक्त नहीं है वह आन है। अर्थात् आपसे भिन्न दूसरी जाति के हैं उनका बनाया हुआ भोजन अपवित्र है वह न करे क्योंकि हो सकता है उन्होंने भोजन में अभक्ष्य कुछ बनाया हो। जो आपको भ्रष्ट कर सकता है। अभी अभी नये ही विश्रोई पंथ के पथिक बने हैं, यदि इस समय इन्हें खाने पीने की छूट दे दी जायेगी तो अभक्ष्य पदार्थ खा सकते हैं। खाने पीने से हमारी बुद्धि और मन बनता है। मन और बुद्धि ही इस जीवन को चलाते हैं, मार्ग तय करते हैं। ये अपवित्र हो जायेंगे तो हम इस मार्ग से भटक जायेंगे, जैसे के तैसे बने रहंगे। जब मार्ग पर ही नहीं चलेंगे तो पंहुचेगे कैसें। मार्ग का अनुसरण ही नहीं करेंगे तो मार्ग बताना ही व्यर्थ हो जायेगा।
 भोजन में शुद्धता एवं पवित्रता होनी चाहिये, अन्यथा शरीर की भूख तो हो सकता है भोजन मिटा दे,किन्त बुद्धि-शक्ति से यह शरीर वंचित रह जायेगा अनेकों व्याधियां आकर घेर लेगी। शरीर रूग्ण हा जायेगा। मन एवं बुद्धि भी विचिलत हो जायेगी। ऐसे दुःख भरे शरीर में यह आत्मा रहना नहीं चाहेगा। यहाँ से प्रस्थान कर जायेगी। हम एक सौ वर्ष जीने की कल्पना नहीं कर सकते असमय में ही मृत्यु का ग्रास बन जाएगा।
 आचारो ही प्रथमो धर्म। आचार विचार युक्त जीवन ही पहला धर्म है। आचार हीनं न पुनाति वेदा-आचार विचार से हीन मानव को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते। आचार-विचार, खाना पीना, उठना बैठना, चलना फिरना, बोलना आदि सभी कुछ आचार ही है इनमें पवित्रता होनी चाहिये। यह सभी कुछ स्वयं ही करणीय है। स्वयं ही देख सोच समझकर जल भोजन ग्रहण करें।
 विशेष रूप से तो यह नियम तभी निभ सकता है जब सभी कार्य स्वयं ही हाथ से ही करें। इसलिए श्री देवजी ने हाथ से ही भोजन बनाने का नियम बताया स्वयं ही कार्य करके,बना करके भोजन करता है तो उसको महान संतुष्टि होती है, अपने ही अनुकूल भोजन बनता है। दूसरों के द्वारा बनाया हुआ भोजन अपने अनुकूल नहीं होता है, आत्मा की संतुष्टि प्रदान करने वाला नहीं होता है। भोजन बनाने वाले की भावना भी बहुत कुछ कार्य करती है। यदि वह क्रोध काम लोभ मोह अवस्था में भोजन बनायेगा तो खाने वालों को भी वही दोष जकड़ लेगा।
 भोजन बनाने वाले की भावना भी भोजन में निहित होती है, इसलिए सभी से अच्छा तो यही है कि भोजन या तो स्वयं ही बनावें अथवा अपने ही सदृश लोगों द्वारा बनाया हुआ करें।
 तेईसवां नियम:- अमर रखावे ठाट, बैल बधिया न करें। अमर रखावे ठाट-
 अधिकतर किसान वर्ग के लोग विश्रोई पन्थ में सम्मिलित हुए थे, किसानों में भी ज्यादातर जाट वर्ग ही विश्नोई बना था। वे लोग भेड़-बकरी पालते थे। यही उनकी आजीविका थी। उस समय में तो ये लोग अधिक संख्या में विश्नोई हो गये थे। उनका धंधा भेड़-बकरी पालन ही था। इस धंधे में जीव हत्या होती थी, बकरे आदि कसाईयों को बेचे जाते थे। कसाई लोग बकरों को काट डालते थे।
 भेड़-बकरियों के साथ अधिक नर रखे नहीं जा सकते थे। इस समस्या के समाधान हेतु श्री जम्भेश्वर जी ने कहा- आप लोग सभी बकरों का एक ठाट बना दो, कसाईयों के हाथ मत दो। मतलब यह था कि किसी प्रकार से जीव हत्या न तो करो और न ही करने दो। धीरे-धीरे आप लोग बकरियां पालनी छोड़ दो। जो अन्य लोग पालन करे तो वही जाने। आप लोग अब अहिंसक बन गये हैं। भेड़ बकरियों के स्थान पर अब आगे गऊ पालन करो। धीरे धीरे आपका इनसे पीछा छूट जायेगा। इसलिए जाम्भोजी महाराज ने विश्रोईयों को भेड़ बकरी पालन के लिए मना किया है। जिस कार्य को करने से जीव हत्या हो ऐसा कार्य कदापि नहीं करना चाहिये।
 मुख्य रूप से इस नियम का प्रयोजन जीवरक्षा ही है तथा अभक्ष्य भोजन का त्याग करना भी है। यदि किसी को भेड़ पालन करना है तो यह नियम भी अवश्य ही पालनीय है। यदि स्वतः ही भेड़ बकरी पालन नहा करता है तो उसके लिए यह नियम लागू नहीं होगा क्योंकि वह इस नियम का पालन करता ही है। इस नियम का मुख्य उद्देश्य तो विश्नोई को भेड़-बकरी पालन से निवृत्त करना है। इसलिए इस समय यह नियम सार्थक है।
 
 चौबीसवां नियम:-बैल बधिया न करावें, बैलों को नपुसंक न बनावें।
 विश्रोई स्वयं यह कार्य न करे जमान ही करवावें। यह तो सर्वमान्य है कि बिना नपुसंक करवाये बैल हल आदि नहीं चलते हैं तो डा आदि चलाने के लिए ही ऐसा किया जाता है। किन्तु इस क्रूर कार्य को करने और करवाने में बिश्नोई सहयोग न दे, अन्य कोई करे तो करने ना दें।
 यदि कृषि कार्य हेतु बैल चाहिये तो उसके लिए खरीदा जा सकता है। अपनी गाय का बच्छड़ा बेचा जा सकता है। इससे स्वयं इस क्रूर कार्य से बचा जा सकता है। यह नियम भी जीव दया पालणी से सम्बन्धित है। दया ही धर्म का मूल है। जब मूल बीज भी धर्म के अन्दर नहीं होगा तो क्या फूलेगा क्या फलैगा।
दया हीन कर्म करने से दया का लोप हो जाता है फिर कभी दया का अंकुर फूट नहीं पाता। जाम्भोजी महाराज ने कहा है कि दया धर्म थापले निज बाला ब्रह्मचारी। मैं दया धर्म की स्थाप करने वाला बाल ब्रह्मचारी हूँ।
 
पच्चीसवां नियम:- अमल,तमाकू, भांग,मद्य, मांस सु दूर ही भागे।
 अमल- अफीम नहीं खाल चाहिये। अफीम भयंकर नशा है। यह शरीर मन, बुद्धि को अपने वश में कर लेता है। ऐसी अवस्था में इससे छुटकारा पाना कठिन है। इसलिए पहले से ही नियम बना लेना चाहिये मैं खाऊंगा ही नहीं. यह नियम प्रतिज्ञा की रक्षा करता है।
 अफीम शरीर की ताकत को समाप्त कर देती है, बीमारियों से लड़ने की शरीर में ताकत नहीं रहती है। धन परिवार शरीर से यह बर्बाद कर देती है।ज्यों ज्यों नशा बढ़ता जायेगा त्यों-त्यों मानव उसके वशीभत होता जायेगा।
 अफीम आदि का नशा करने वाला जीते जी मुर्दे के समान हो जायेगा। अन्य नशीली वस्तुओं में यह अफीम शिरोमणि नशा है और नशा ही मौत की निशानी है। यदि किसी को अपने जीवन केा जल्दी बर्बाद करना हो तो इसे अपना लें। देखने में तो अच्छा लगता है किन्तु घुण की तरह जीवन को खा जाता है।
 छब्बीसवां नियम-तम्बाकू-जीवन में सुख शांति चाहने वाले के लिए चाहिये कि वह तम्बाकू का सेवन किसी भी प्रकार से न करें।
 इस तम्बाकू ने मनुष्य समाज पर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया है। वह चाहे अग्नि के संयोग से धुएं के रूप में अन्दर आकर, बाहर जाकर अपना राज्य स्थापित करती है, वह चाहे सूंघकर चाहे खाकर कैसे भी हो यह चारों तरफ से मनुष्य को घेरकर मुर्दा बना देती है। इसलिए तम्बाकू का सेवन वर्जनीय है।
 तम्बाकू का सेवन करने वाला यज्ञ में आहुति देने का अधिकारी नहीं है। तम्बाकू खाने पीने सूघने वाले के हाथ से दी हुई आहुति देवता भी ग्रहण नहीं करते। उनके द्वारा किए हुए सभी धार्मिक कार्य जैसे हवन-पूजा,पाठ,दान,दक्षिणा आदि व्यर्थ हो जाते हैं। उनका कोई फल नहीं होता है जैसे उसर भूमि में बोया हुआ बीज। इन सभी बातों पर विचार करने से ऐसा ही परिणाम आता है कि तम्बाकू का सेवन नहीं करना चाहिये।
 
सताईसवां नियम:- भांग भक्षण नहीं करना चाहिये।
 भाँग एक प्रकार का विष है जो धीरे-धीरे मन बुद्धि को पागल कर देता है। थोड़ी देर के लिए भाँग का नशा जीवन की वास्तविकता से दूर हटा देता है किन्तु जीवन की बीमारी, दुःखों का स्थाई ईलाज नहीं है। किसी भी व्यसन में पड़ा हुआ मानव अपने आप को खोता है। जीवन के कष्टों से थोड़ी देर के लिए दूर भागना चाहता है किन्तु यह कोई स्थाई इलाज नहीं है। वे दुःख तो कर्मों के अनुसार पीछे ही लगे रहते हैं। दुःख मिटाने के चक्र में दुःख को आमंत्रण देकर बुला लेता है।
 नशा अनजाने में ही संगति से सीखा जाता है। फिर वह नशा काँटे की तरह चभता रहता है। अपन में जकड़ लेता है। सांप छछुन्दर की गति हो जाती है। नशा आजीवन अपना दास बना लेता है। मानव का मानवता आजादी छिन जाती है। अपने अन्दर पाप को बैठने की जगह प्रदान करता है। गोरख यति भी यहा कहते हैं-
भाँग भखत ध्यान ज्ञान खोवत, यम दरबार ते प्राण रोवत।
 भाँग खाने से ज्ञान ध्यान खो जाते हैं। आगे यम के दरबार में अवश्य ही पंहुचेगा। तब हिसाब किताब होगा जो तुम्हारा यह जीव राऐगा।इनको कोन बचाएग।  जाम्भा यति ने भी कहा है-
 आगे सुरपति लेखो मांगे, कह जीवड़ा के करण कमायो। थरहर काँपे जोड़ी डोले, उत माई पीव कोई न बोले।
 अठाईसवां नियम:- माँस-मद्य का सेवन नहीं करना चाहिये।
 जिसने शराब का सेवन कर लिया उसे सभी पाप कर लिये, कुछ भी बाकी नहीं छोड़ा। इसलिए यहां पर मद्य और माँस दोनों एक साथ ही रखें है। बुद्धि ही तो भक्ष्य एवं अभक्ष्य का निर्णय करती है। दारू से बुद्धि ही विचलित हो गयी तो फिर कौन निर्णय करेगा। क्या खाना चाहिये और क्या नहीं खाना चाहिये। मनुष्य अपने अन्दर कितनी बातें छुपाकर रख लेता है जो कहने और करने योग्य नहीं होती है। समाज में जीने के लिए कुछ मर्यादा होती है। उन मर्यादाओं का त्याग करने से व्यवस्था बिगड़ती है। उपद्रव मच जाता है। शराबी व्यक्ति इन दोनों ही बातों का उल्लंघन करता है। न तो वह किसी प्रकार की मर्यादा को समझता है और न ही कुछ छुपाने योग्य को छुपा पाता है। इसलिए शराब सदा ही वर्जनीय है। माँस सेवन नहीं करना चारहिये यह तो जीव दया पालनी नियम से भली-भाँति ज्ञात हो चुका है।
 श्री जम्भेश्वरजी ने ये नियम एक-एक करके अलग अलग गिनाये हैं केवल इतना ही कह देते हैं कि सभी प्रकार की नशा वाली वस्तुएँ त्याज्य है। यह संभव था, किन्तु एक-एक गिनाने से, बार-बार दोहराने से नियम पालन करने में दृढ़ता आती है। इशारे द्वारा अलग-अलग बतलाने से इनका महत्व बढ़ जाता है।
 उन्नतीसवां नियमः-लील नलावे अंग, देखते दूर ही त्यागे नीले रंग का वस्त्र धारण न करें।
 स्वभाव रूप से नील कहीं पैदा नहीं होती। जितने पेड़ पौधे, पशु पक्षी, मानव-दानव, आदि सृष्टि में है वे सभी नीले नहीं है। प्रकृति नील उत्पन्न नहीं करती। हमारा शरीर प्रकृति से बना हुआ है, प्राकृतिक ही हम सेवन करें वही हमारे लिए ठीक तथा अनुकूल भी है।
 मानव प्रकृति में विकृति पैदा करके नील का निर्माण करता है। उससे शरीर को लड़ना पड़ता है उस लड़ाई में हमारी शक्ति व्यर्थ में व्यय होती है। हमारी प्रकृति के प्रतिकूल विष होता है। विष हमारे शरीर को मार देता है। वह विष नील रंग का होता है।
  शिवजी ने विषपान किया था जिससे कंठ नीला हो गया। हम लोग नीले वस्त्र धारण करेंगे तो हमारी गति भी अच्छी नहीं होगी शिवजी ने तो विष को पचा लिया था किन्तु हम पचा नहीं पायेंगे। पूर्णरूपेण यदि नहीं मरेंगे तो भी मरे हुए जैसे तो अवश्य ही हो जायेंगे, जीवन में कुछ भी सार नहीं होगा। नील-मृत्यु से संघर्ष करते यह जीवन थक जाएगा जीवन के सुख से रहित हो जायेगा।
 बाल्मीकि रामायण में कथा आती है कि त्रिशंकु को वशिष्ठ के पुत्रों ने शाप दिया- कि तुम चाण्डाल हो जाओ। राजा चाण्डाल हो गया
अथ रात्र्यां व्यतीतायां, राजा चण्डालतां गतः। नील वस्त्रो नील पुरूषो, ध्वस्त मूर्धजः। चित्य माल्यांग रागश्च, आयसा भरणो अभवत्।
 त्रिशंकु राजा चाण्डाल हो गया। उसके वस्त्र नीले रंग के हो गये। सिर नीचे झुक गया। आभूषण लोहे के हो गए। रंग काला एवं कद ठिगना हो गया। यह नील रंग चाण्डालता को प्राप्त करवाता है। अनेक शास्त्रों ने नील वर्जित किया है। नीला वस्त्र पहन करके यज्ञ में आहुति देने पर देवता ग्रहण नहीं करते। दान -पुण्य किया हुआ सफल नहीं होता। इत्यादि अनेक प्रकार से नीला वस्त्र वर्जित है। नीला वस्त्र सूर्य की गर्मी को आकर्षित करता है। शरीर में जलन पैदा कर देता है। अनेकों प्रकार की बीमारियां होने का खतरा बढ है, इसलिए इस देश में रहने वालों को नीला वस्त्र धारण नहीं करना चाहिये।
 नीला वस्त्र राक्षसी पहनावा है। जैसा हमारा बाह्य परिवेश होगा वैसा ही हमारी आन्तरिक वत्तियां कार्य करेगी। नीला वस्त्र पहनने से राक्षसी वृत्ति जागृत होगी तो पाप कर्म करने में सुविधा होगी। इसलिए इस प्रकार के लोग नीला वस्त्र ही पहनना पसंद करते हैं। देवी वृति वाले नीला वस्त्र पहनना पसंद नहीं करते हैं क्योंकि देवभाव उनमें रहता है। वे लोग वैसा वस्त्र सफेद, पीला, भगवां आदि पसन्द करते हैं। उन्हीं से उनकी वृत्ति विकास को प्राप्त होती है इसलिए शुभ कार्य करने वालों के लिए नीला वस्त्र नहीं पहनना चाहिए।
 भक्त समाज का अपना एक अलग पहनावा है रहन-सहन, व्यवहार आदि विचित्र ही होता है। अलग से पहचान हेतु श्री गुरुदेव ने बिश्नोई भक्त समाज से कहा कि आप लोग नीले रंग के वस्त्र न पहनें क्योंकि आपकी वृत्ति दैवी है कहीं राक्षसी वृत्ति पुनः नहीं बन जाये। प्रकृति के साथ जीओ, वही तुम्हारा जीवन सुखमय होगा।
 जीआ ने युक्ति और मुवा ने मुक्ति देने वाले ये उन्नतीस नियम श्रीदेव जाम्भोजी ने अपने मुख से बतलाये हैं। इन्हीं नियमों की वजह से यह विश्नोई पन्थ चला। ये नियम सदा एक रस रहने वाले स्थायी है। युगों-युगों से चलते आये हैं और आगे भी चलते रहेंगे। इस प्रकार से नियम बतलाकर विश्नोई पंथ की स्थापना की।

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